Article Contents
भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध Bhasha Ki Paribhasha : Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh
द्वितीय खण्ड
साहित्य
हिन्दी भाषा साहित्य के विकास पर कुछ लिखने के पहले मैं यह निरूपण करना चाहता हूँ कि साहित्य किसे कहते हैं। जब तक साहित्य के वास्तविक रूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होगा, तब तक इस बात की उचित मीमांसा न हो सकेगी कि उसके विषय में अब तक हिन्दी संसार के कवियों और महाकवियों ने समुचित पथ अवलम्बन किया या नहीं और साहित्य विषयक अपनेर् कर्तव्य को उसी रीति से पालन किया या नहीं, जो किसी साहित्य को समुन्नत और उपयोगी बनाने में सहायक होती है। प्रत्येक समय के साहित्य में उस काल के परिवर्तनों और संस्कारों का चिद्द मौजूद रहता है। इसलिए जैसे-जैसे समय की गति बदलती रहती है, साहित्य भी उसी प्रकार विकसित और परिवर्तित होता रहता है। अतएव यह आवश्यक है कि पहले हम समझ लें कि साहित्य क्या है, इस विषय का यथार्थ बोध होने पर विकास की प्रगति भी हमको यथातथ्य अवगत हो सकेगी।
“सहितस्य भाव: साहित्यम्” जिसमें सहित का भाव हो, उसे साहित्य कहते हैं। इसके विषय में संस्कृत साहित्यकारों ने जो सम्मतियाँ दी हैं, मैं उनमें से कुछ को नीचे लिखता हूँ। उनके अवलोकन से भी साहित्य की परिभाषा पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा। ‘श्राध्द विवेककार’ कहते हैं-
“ परस्पर सापेक्षाणां तुल्य रूपाणां युगपदेक क्रियान्वयित्वं साहित्यम् “ ।
“शब्दशक्ति-प्रकाशिका” के रचयिता यह लिखते हैं-
“ तुल्यवदेक क्रियान्वयित्वं वृध्दिविशेष विषयित्वं वा साहित्यम्। “
शब्द कल्पद्रुमकार की यह सम्मति है-
“ मनुष्य-कृत श्लोकमय ग्रन्थ विशेष: साहित्यम्। “
कवीन्द्र “रवीन्द्र” कहते हैं-
“सहित शब्दों से साहित्य की उत्पत्तिा है-अतएव, धातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टिगोचर होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है। यही नहीं,वरन् यह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथ वत्तामान का, दूर के सहित निकट का अत्यन्त अन्तरंग योग साधान साहित्य व्यतीत और किसी के द्वारा सम्भव पर नहीं। जिस देश में साहित्य का अभाव है। उस देश के लोग सजीव बन्धान से बँधो नहीं, विच्छिन्न होते हैं।”1
“श्राध्दविवेक” और “शब्द-शक्ति-प्रकाशिका” ने साहित्य की जो व्याख्या की है, “कवीन्द्र” का कथन एक प्रकार से उसकी टीका है। वह व्यापक और उदात्ता है। कुछ लोगों का विचार है कि साहित्य शब्द काव्य के अर्थ में रूढ़ि है। ‘शब्द-कल्पद्रुम’ की कल्पना कुछ ऐसी ही है। परन्तु ऊपर की शेष परिभाषाओं और अवतरणों से यह विचार एकदेशीय पाया जाता है। साहित्य शब्द का जो शाब्दिक अर्थ है, वह स्वयं बहुत व्यापक है, उसको संकुचित अर्थ में ग्रहण करना संगत नहीं। साहित्य समाज का जीवन है, वह उसके उत्थान-पतन का साधान है, साहित्य के उन्नत होने से उन्नत और उसके पतन से समाज पतित होता है। साहित्य वह आलोक है जो देश को अन्धाकार रहित, जाति-मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभाहीन नेत्रों को सप्रभ रखता है। वह सबल जाति का बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित जाति का उत्साह, पराक्रमी जाति का पराक्रम, अधयवसायशील जाति का अधयवसाय, साहसी जाति का साहस औरर् कर्तव्य-परायण जाति का कर्तव्य है।
इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में साहित्य की परिभाषा इस प्रकार की गई है-
“Literature, a general term which in default of precise definition, may stand for the best expression of the best thought reduced to writing. Its various forms are the result of political circumstances securing the predominance of one social class which is thus enabled to propagate its ideas and sentiments.”
-Encyclopedia Britannica.
“साहित्य एक व्यापक शब्द है जो यथार्थ परिभाषा के अभाव में सर्वोत्ताम विचार की उत्तामोत्ताम लिपिबध्द अभिव्यक्ति के स्थान में व्यवहृत हो सकता है। इसके विचित्रा रूप जातीय विशेषताओं के, अथवा विभिन्न व्यक्तिगत प्रकृति के अथवा ऐसी
1. देखिए ‘साहित्य’ नामक बँगला ग्रन्थ का पृ. 50।
राजनीतिक परिस्थितियों के परिणाम हैं जिनसे एक सामाजिक वर्ग का आधिापत्य सुनिश्चित होता है और वह अपने विचारों और भावों का प्रचार करने में समर्थ होताहै।”
– इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटैनिका
“As behind every book that is written lies the personality of the man who wrote it, and as behind every national literature lies the character of the race, which produced it, so behind the literature of any period lie the combined forces-personal & impersonal-which made the life of that period, as a whole, what it was. Literature is only one of the many channels in which the energy of an age discharges itself; in its political movements, religious thought, philosophical speculation, art, we have the same energy overflowing into other forms of expression.”
The study of literature, William Henery Hudson.
जैसे प्रत्येक ग्रन्थ की ओट में उसके रचयिता का और प्रत्येक राष्ट्रीय साहित्य की ओट में उसको उत्पन्न करने वाली जाति का व्यक्तित्व छिपा रहता है, वैसे ही काल विशेष के साहित्य की ओट में उस काल के जीवन को रूप विशेष प्रदान करने वाली व्यक्तिमूलक और अव्यक्तिमूलक अनेक संयुक्त शक्तियाँ काम करती रहती हैं। साहित्य उन अनेक साधानों में से एक है जिसमें काल विशेष की स्फूर्ति अपनी अभिव्यक्ति पाकर उन्मुक्त होती है; यही स्फूर्ति परिप्लावित होकर राजनीतिक आन्दोलनों,धार्मिक विचार, दार्शनिक तर्क-वितर्क और कला में प्रकट होती है।
– स्टडी ऑफ लिटरेचर , विलियम हेनरी हडसन
वह धार्मभाव जो सब भावनाओं का विभव है, वह ज्ञान-गरिमा जो गौरव-कामुक को सगौरव करती है, वह विचार-परम्परा जो विचारशीलता की शिला है, वह धारणा जो धारणी में सजीव-जीवन धारण का आधार है, वह प्रतिभा जो अलौकिकता से प्रतिभासित हो पतितों को उठाती है, लोचन-हीन को लोचन देती है और निरावलम्ब का अवलम्बन होती है। वह कविता जो सूक्ति-समूह की प्रसविता हो, संसार की सारवत्ता बतलाती है। वह कल्पना जो कामद-कल्प लतिका बन सुधा फल फलाती है,वह रचना जो रुचिर रुचि सहचरी है, वह धवनि जो स्वर्गीय-धवनि से देश को धवनित बनाती है साहित्य का सम्बल और विभूति है। वह सजीवता जो निर्जीवता संजीवनी है, वह साधाना जो समस्त सिध्दि का साधान है, वह चातुरी जो चतुर्वर्ग-जननी है, एवं वह चारु चरितावली, जो जाति चेतना और चेतावनी की परिचायिका है, जिस साहित्य की सहचरी होती है, वास्तव में वह साहित्य ही साहित्य कहलाने का अधिाकारी है। मेरा विचार है कि साहित्य ही वह कसौटी है जिस पर किसी जाति की सभ्यता कसी जा सकती है। असभ्य जातियों में प्राय: साहित्य का अभाव होता है इसलिए उनके पास वह संचित सम्पत्तिा नहीं होती जिसके आधार से वे अपने अतीत काल का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकें और उसके आधार से अपने वर्तमान और भावी सन्तानों में वह स्फूर्ति भर सकें, जिसको लाभ कर सभ्य जातियाँ समुन्नत-सोपान पर आरोहण करती हैं, इसीलिए उनका जीवन प्राय: ऐसी परिमित परिधिा में बध्द होता है जो उनको देश काल के अनुकूल नहीं बनने देता और न उनको उन परिस्थितियों का यथार्थ ज्ञान होने देता है जिनको अनुकूल बनाकर वे संसार-क्षेत्रा में अपने को गौरवित अथवा यथार्थ सुखित बना सकें। यह न्यूनता उनके प्रतिदिन अधा:पतन का कारण होती है, और उनको उस अज्ञानान्धाकार से बाहर नहीं निकलने देती, जो उनके जीवन को प्रकाशमय अथवा समुज्ज्वल नहीं बनने देता। सभ्य जातियाँ सभ्य इसीलिए हैं और इसीलिए देश कालानुसार समुन्नत होती रहती हैं कि उनका आलोकमय वर्ध्दमान साहित्य उनके प्रगति-प्राप्त-पथ को तिमिर-रहित करता रहता है। ऐसी अवस्था में साहित्य की उपयोगिता और उपकारिता स्पष्ट है। आज दिन जितनी जातियाँ समुन्नत हैं, उन पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि जो जातियाँ जितनी ही गौरव प्राप्त और महिमामयी हैं, उनका साहित्य भी उतना ही प्रशस्त और महान है। क्या इससे साहित्य की महत्ता भली-भाँति प्रकट नहीं होती?
जो जातियाँ दिन-दिन अवनतिर्-गत्ता में गिर रही हैं, उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके पतन का हेतु उनका वह साहित्य है जो समयानुसार अपनी प्रगति को न तो बदल सका और न अपने को देश-कालानुसार बना सका। मानवी अधिाकांश संस्कारों को साहित्य ही बनाता है। वंशगत विचार परम्परा ही मानव जाति के संस्कारों की जननी होती है। जिस जाति के साहित्य में विलासिता की ही धारा चिरकाल से बहती आई हो, उस जाति में यदि शूरता और कर्मशीलता का अभाव प्राय: देखा जाय तो क्या आश्चर्य? इसी प्रकार जिस जाति के साहित्य में विरागधारा प्रबलतर गति से प्रवाहित होती रहे, यदि वह संसार-त्यागी बनने का मंत्रा पाठ करे तो कोई विचित्राता नहीं, क्योंकि जिन विचारों और सिध्दान्तों को हम प्राय: पुस्तकों में पढ़ते रहते हैं, विद्वानों के मुख से सुनते हैं अथवा सभा-समाजों में घर और बाहर जिनका अधिाकतर प्रचार पाते हैं, उनसे प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकते हैं? क्योंकि सिध्दान्त और विचार ही मानव के मानसिक भावों का संगठन करते हैं।
इन कतिपय पंक्तियों में जो कुछ कहा गया उससे यह सिध्द होता है कि साहित्य का देश और समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। यदि वे साहित्य के आधार से विकसित होते, बनते और बिगड़ते हैं तो साहित्य भी उनकी सामयिक अवस्थाओं पर अवलम्बित होता है। जहाँ इन दोनों का सामंजस्य यथारीति सुरक्षित रहता है और उचित और आवश्यक पथ का त्याग नहीं करता, वहाँ एक-दूसरे के आधार से पुष्पित, पल्लवित और उन्नत होता है, अन्यथा पतन उसका निश्चित परिणाम है। मेरा विचार है कि इन बातों पर दृष्टि रखने से साहित्य-विकास का प्रसंग अधिाकतर बोधागम्य होगा।
हिन्दी-साहित्य का पूर्व रूप और आरम्भिक काल
आविर्भाव-काल ही से किसी भाषा में साहित्य की रचना नहीं होने लगती। भाषा जब सर्वसाधारण में प्रचलित और शब्द-सम्पत्तिा-सम्पन्न बनकर कुछ पुष्टता लाभ करती है, तभी उसमें साहित्य का सृजन होता है। इस साहित्य का आदिम रूप प्राय: छोटे-छोटे गीतों अथवा साधारण पद्यों के रूप में पहले प्रकटित होता है और यथाकाल वही विकसित होकर अपेक्षित विस्तार-लाभ करता है। हिन्दी भाषा के लिए भी यही बात कही जा सकती है। इतिहास बतलाता है कि उसमें आठवीं ईस्वी शताब्दी में साहित्य-रचना होने लगी थी। इस सूत्रा से यदि उसका आविर्भाव-काल छठी या सातवीं शताब्दी मान लिया जाय तो मैं समझता हूँ असंगत न होगा। हमारा विषय साहित्य का विकास ही है इसलिए हम इस विचार में प्रवृत्ता होते हैं कि जिस समय हिन्दी भाषा साहित्य रूप में गृहीत हो रही थी, उस समय की राजनीतिक धार्मिक और सामाजिक परिस्थिति क्या थी।
हमने ऊपर लिखा है हिन्दी-साहित्य का आविर्भाव-काल अष्टम शताब्दी का आरम्भ माना जाता है। इस समय हिन्दी-साहित्य के विस्तार-क्षेत्रा की राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक दशा समुन्नत नहीं थी। सातवें शतक के मधयकाल में ही उत्तारीय भारत का प्रसिध्द शक्तिशाली सम्राट् हर्षवर्धान स्वर्गगामी हो गया था और उसके साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने से देश की उस शक्ति का नाश हो गया था जिसने अनेक राजाओं और महाराजाओं को एकतासूत्रा में बाँधा रखा था। उस समय उत्तारीय भारत में एक प्रकार की अनियन्त्रिात सत्ताा राज्य कर रही थी और स्थान-स्थान पर छोटे-छोटे राजे अपनी-अपनी क्षीण-क्षमता का विस्तार कर रहे थे। यही नहीं, उनमें प्रतिदिन कलह की मात्राा बढ़ रही थी और वे लोग परस्पर एक-दूसरे को द्वेष की दृष्टि से देखते थे। जिससे वह संगठन देश में नहीं था जो उनको सुरक्षित और समुन्नत बनाने के लिए आवश्यक था। यह बात सर्वजन विदित है कि जहाँ छोटे-मोटे राजे परस्पर लड़ते रहते हैं वहाँ की साधारण जनता न तो अपना शान्तिमय जीवन बिता सकती है और न वह विभूति लाभ कर सकती है, जिसे पाकर प्रजा-वृन्द समुन्नति-सोपान पर आरोहण करता रहता है। राजनीतिक अवस्था जैसी दुर्दशाग्रस्त थी, धार्मिक अवस्था उससे भी अधिाक संकटापन्न थी। इन दिनों बौध्द-धार्म का अपने कदाचारों के कारण प्रतिदिन पतन हो रहा था और प्राचीन वैदिक धार्म उत्तारोत्तार बलशाली बन रहा था। इस कारण वैदिक धार्मावलम्बियों और बौध्दों में ऐसा संघर्ष हो रहा था जो देश के लिए वांछनीय नहीं कहा जा सकता।
जिस समय विशाल दो धार्मिक दलों में इस प्रकार द्वन्द्व चल रहा था उस समय उत्तारीय भारत की सामाजिक अवस्था कितनी दयनीय होगी, इसका अनुभव प्रत्येक विचारशील सहज ही कर सकता है। सामाजिकता अधिाकतर धार्मिक भावों और पारस्परिक सम्बन्धा सूत्राों, व्यवहारों एवं रीति-रिवाजों पर निर्भर रहती है। जिस स्थान की धार्मिकता कलह जाल में पड़कर प्रतिदिन उच्छृंखलित और आडम्बरपूर्ण बनती रहती है, जहाँ का पारस्परिक सम्बन्धा, व्यवहार, अथच रीति-नीति कपटचरण का अवलम्बन करती है, वहाँ की सामाजिकता कितनी विपन्न अवस्था को प्राप्त होगी, इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं। भारतवर्ष का पतन उस समय से आज तक जिस प्रकार क्रमश: होता आया है, वही उसका प्रबल प्रमाण है।
जिस समय उत्तारीय भारत इस प्रकार विपत्तिाग्रस्त था उस समय विजयोन्मत्ता अरब-निवासियों की विजय-वैजयन्ती ईरान में फहरा चुकी थी और वे क्रमश: भारत की ओर विभिन्न मार्गों से अग्रसर होने का पथ ढूँढ़ रहे थे। इस समय के बहुत पहले से अरब के व्यापारियों के साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्धा चला आता था और इस सूत्रा से अरब के मुसलमानों को स्वर्णप्रसू भारत-वसुन्धारा का बहुत कुछ ज्ञान था। वे वाणिज्य-विस्तार के लिए भारत के किसी सामुद्रिक प्रदेश में एक बन्दरगाह बनाना चाहते थे। इसलिए सिन्धा प्रदेश पर पहले पहल उनकी ऑंखें गड़ीं और ईस्वी नौवीं शताब्दी में मुहम्मद-बिन-क़ासिम ने नाना प्रपंचों से उस पर अधिाकार कर लिया। कहते बड़ी व्यथा होती है कि वैदिक-धार्मावलम्बियों और बौध्दों का पारस्परिक कलह ही मुसलमानों के इस विजय का कारण हुआ। इस विषय में अरब के ग्रन्थकारों के आधार से मौलाना मुहम्मद सुलेमान नदवी ने अपने व्याख्यान में जो कुछ कहा है, उसके हिन्दी अनुवाद का कुछ अंश ‘अरब और भारत के सम्बन्धा’ नामक पुस्तक से नीचे उध्दाृत किया जाता है
“सिन्धा का सबसे पहला और पुराना इस्लामी इतिहास जो साधारणत: ‘चचनामा’ के नाम से प्रसिध्द है (जिसके दूसरे नाम तारीखुल-हिन्द वल् सन्द और मिनहाजुल ममालिक हैं) उसको देखने से भली-भाँति यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उस समय सिन्धा में बौध्दों और ब्राह्मणों के बीच विरोधा और शत्राुता चल रही थी। यह भी पता चलता है कि कुछ घरानों में ये दोनों धार्म इस प्रकार फैले हुए थे कि उनमें से एक हिन्दू था तो दूसरा बौध्द। सिन्धा के राजाओं के विवरण पढ़कर इसी आधार पर मुझे यह निर्णय करना पड़ा है कि राजा चच हिन्दू ब्राह्मण थे। उन्होंने लड़-भिड़कर छोटे-छोटे बौध्द राजाओं को या तो मिटा दिया था या उन्हें अपना करद बना लिया था। यह राजा ई. छठी शताब्दी के अन्त में सिन्धा का शासक था, उसके बाद उसका भाई चन्द्र राजा हुआ। यह बौध्द मत का कट्टर अनुयायी था। जिन लोगों ने पहले अपना धार्म छोड़ दिया था,उन्हें इसने बलपूर्वक बौध्द बनाया था, यह देख हिन्दू ब्राह्मणों ने सिर उठाया, वह विवश होकर लड़ने के लिए निकला, पर सफल नहीं हुआ। उसके बाद चच का लड़का दाहर उसके स्थान पर राजा हुआ।”
“ऐतिहासिक अनुमानों से यह जान पड़ता है कि जिस समय मुसलमान लोग सिन्धा की सीमा पर थे, उस समय देश में इन दोनों धाम्र्मों में भारी लड़ाई हो रही थी और बौध्द लोग ब्राह्मणों का सामना करने में अपने आपको असमर्थ देखकर मुसलमानों की ओर मेल और प्रेम का हाथ बढ़ा रहे थे। हम देखते हैं कि ठीक जिस समय मुहम्मद-बिन-क़ासिम की विजयी सेना नयरूँ नगर में पहुँचती है, उस समय वहाँ के निवासियों ने अपने बौध्द पुजारियों को उपस्थित किया था। उस समय पता चला था कि इन्होंने अपने विशेष दूत इराक़ के हज्जाज़ के पास भेजकर उससे अभय दान प्राप्त कर लिया था, इसलिए नयरूँ के लोगों ने मुहम्मद का बहुत अच्छा स्वागत किया। उसके लिए रसद की व्यवस्था की। अपने नगर में उसका प्रवेश कराया और मेल के नियमों का पूरा-पूरा पालन किया। इसके बाद जब इस्लामी सेना सिन्धा की लहर को पार करके सदउसान पहुँचती है,तब फिर बौध्द लोग शान्ति के दूत बनते हैं। इसी प्रकार सेवस्तान में होता है कि बौध्द लोग अपने राजा विजयराम को छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक मुसलमानों का साथ देते हैं और उनका मान हृदय से करते हैं।” ऐसा जान पड़ता है कि जब सिन्धा के बौध्दों ने एक ओर मुसलमानों को और दूसरी ओर ब्राह्मण्ाों को तौला, तब उन्हें मुसलमान अच्छे जान पड़े। दूसरा कारण यह हो सकता है कि इससे पहले तुर्किस्तान और अफगानिस्तान के बौध्दों के साथ मुसलमानों ने जो अच्छा व्यवहार किया था और उनमें से बहुत अधिाक लोगों ने जिस शीघ्रता से इस्लाम धार्म ग्रहण किया था, उसका प्रभाव इस देश के बौध्दों पर भी पड़ा था।”
सिन्धा पर अधिाकार होने के बाद अरब विजेताओं ने भारत के विभिन्न प्रान्तों पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। इस कारण से उस समय भारत का कुछ उत्तारीय और दक्षिणी प्रान्त रणक्षेत्रा बन गया और ऐसी अवस्था में आक्रमित प्रान्तों में युध्दोन्माद का आविर्भाव होना स्वाभाविक था। ये झगड़े नौवीं और दशवीं शताब्दी में उत्तारोत्तार वृध्दि पाते रहे। इसीलिए हिन्दी-साहित्य की अधिाकांश आदिम रचनाएँ वीर-गाथाओं से ही सम्बन्धा रखती हैं। इन दोनों शताब्दियों में जितने साहित्य-ग्रन्थ रचे गये, उनमें से अधिाकतर में रण-भेदी-निनाद ही श्रवणगत होता है। खुमानरासो आदि इसके प्रमाण हैं। वीर गाथाओं का काल आगे भी बढ़ता है और तेरहवीं शताब्दी तक पहुँचता है। कारण इसका यह है कि विजयी मुसलमानों की विजय-सीमा ज्यों-ज्यों बढ़ती गई त्यों-त्यों वे प्रबल होते गये और क्रमश: भारत के अनेक प्रदेश उनके अधिाकार में आते गये, क्योंकि उस समय हिन्दू जाति असंगठित थी और उसमें कोई ऐसा शक्ति-सम्पन्न सम्राट् नहीं था जो जाति-मात्रा को केन्द्रीभूत कर दुर्दान्त यवन दल का दलन करता। इसलिए विजयोत्साही मुसलमान विजेताओं और विजित भारतीयों का युध्द क्रम लगातार चलता ही रहा और इसी आधार से वीर गाथाओं की रचना भी होती रही क्योंकि उस समय हिन्दी जाति की लुप्त-शक्ति को जागरित करने की आवश्यकता थी। मेरे इस कथन का यह भाव नहीं है कि नौ सौ से तेरहवीं शताब्दी तक साहित्य के दूसरे ग्रन्थ रचे ही नहीं गये, वरन् मेरा कथन यह है कि इस काल के जितने प्रसिध्द और मान्य काव्य-ग्रन्थ हैं, उनमें वीर-गाथामय ग्रन्थों ही की अधिाकता और विशेषता है। हिन्दी साहित्य का पहला उल्लेखनीय ग्रन्थ खुमान रासो है, जो नौवें शतक में लिखा गया। इसके पहले का पुष्प कवि कृत एक अलंकार ग्रन्थ बतलाया जाता है, जो आठवीं शताब्दी में रचा गया है। किन्तु उसका उल्लेख मात्रा है, ग्रन्थ का पता अब तक नहीं चला। यह नहीं कहा जा सकता कि पुष्प का अलंकार ग्रन्थ किस रस में लिखा गया। कविराज भूषण के “शिवराज भूषण” ग्रन्थ के समान उसका ग्रन्थ भी केवल वीर रसात्मक हो सकता है। यदि अनुमान सत्य हो तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा के साहित्य का आरम्भ वीर रस से ही होता है, कारण वे ही हैं जिनका निर्देश मैंने ऊपर किया है। ब्रह्मभट्ट कवि का खुमान रासो, चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो, जनिक का आल्हा खंड, नरपति नाल्ह कृत वीसलदेव रासो और सारंगधार-कृत हम्मीर रासो नामक उल्लेखनीय ग्रन्थ भी इसके प्रमाण हैं।
आरम्भिक काल मैंने आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक माना है। इन पाँच सौ वर्षों में वीर-गाथा-कार कवियों और लेखकों के अतिरिक्त अन्य विषयों के ग्रन्थकार और रचयिता भी हुए हैं, अतएव मैं उन पर भी विचार करना चाहता हूँ। जिससे यह निश्चित हो सके कि हिन्दी-साहित्य की आरम्भिक रचनाओं के विषयमें मेरा जो कथन है वह कहाँ तक युक्तिसंगत है। मिश्र-बन्धाुओं का विवरण यह है। 1
दसवीं शताब्दी में भुआल कवि ने भगवद्गीता का अनुवाद पद्यबध्द हिन्दी भाषा में किया। यह ग्रन्थ उपलब्धा है।
ग्यारहवीं शताब्दी में कालिंजर के राजा नन्द ने कुछ कविताएँ की हैं, किन्तु पुस्तक अब अप्राप्य है।
बारहवीं शताब्दी में जैन श्वेताम्बराचार्य जिन वल्लभ सूरी ने “वृध्द नवकार” नामक ग्रन्थ बनाया जो जैन हिन्दी साहित्य में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसी शताब्दी में महाराष्ट्र में चालुक्य वंशी सोमेश्वर नामक राजा, मसऊद कुतुब अली,
1. देखिए ‘मिश्र बंधु विनोद’, पृ. 92
साँईदान चारण और अकरम फैज ने भी रचनाएँ कीं। इनमे से सोमेश्वर, मसऊद और कुतुब अली के ग्रन्थ नहीं मिलते। शेष लोगों में से साँईंदान चारण ने “सामन्तसार” नामक ग्रन्थ की रचना और अकरम फ़ैज़ ने ‘र्’वत्तामाल” नामक ग्रन्थ बनाया एवं संस्कृत के वृत्तारत्नाकर नामक ग्रन्थ का अनुवाद किया।
डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने भी इस काल के कुछ कवियों के नाम लिखे हैं। 1 वे हैं केदार, कुमारपाल और अनन्यदास। 1.केदार कवि का समय सन् 1150 ई. के लगभग है। डॉक्टर साहब ने इसके किसी ग्रन्थ का नाम नहीं लिखा, किन्तु कहा जाता है कि इसने “जय-चन्द्रप्रकाश” नामक महाकाव्य की रचना की थी, जो अब नहीं मिलता। 2. कुमारपाल बारहवें शतक में हुआ। इसने “कुमारपाल चरित्रा” की रचना की, जो उपलब्धा है। 3. अनन्यदास बारहवीं शताब्दी में हुआ, इसका “अनन्य-जोग” नामक ग्रन्थ प्राप्य है।
पं. रामचन्द्र शुक्ल ने अपने “हिन्दी-साहित्य का इतिहास” नामक ग्रन्थ में एक नवीनकवि मधाुकर का भी नाम बतलाया है, जो बारहवीं शताब्दी में था। वे कहते हैं, इसने “जय मयंकजस चन्द्रिका” नामक ग्रन्थ की रचना की, किन्तु वह ग्रन्थ प्राप्य नहीं है।
जिन ग्रन्थकारों का नाम ऊपर लिया गया, इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनके किसी ग्रन्थ का नाम तक नहीं बतलाया गया,कुछ ऐसे हैं जिसके ग्रन्थों का नाम लिखा गया पर वे अप्राप्य हैं, जिन लोगों के ग्रन्थ मिलते हैं, जिनका नाम भी बतलाया गया, वे उस कोटि के कवि और ग्रन्थकार नहीं ज्ञात होते, जिनकी रचनाओं का विशेष स्थान होता है। भुआल कवि की भगवद्गीता ही को लीजिए। प्रथम तो वह अनुवाद है, दूसरे उसके अनुवाद की भाषा ऐसी है कि जिस पर दृष्टि रखकर पं. रामचन्द्र शुक्ल2 उसे दसवीं शताब्दी का ग्रन्थ मानने को तैयार नहीं हैं। अन्य प्राप्य ग्रन्थों के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं; उनमें कोई ऐसा नहीं जो उल्लेखयोग्य हो अथवा जिसने ऐसी ख्याति लाभ की हो जैसी वीर गाथा सम्बन्धाी ग्रन्थों को प्राप्त है। किम्वा जिनमें वे विशेषताएँ हों जो किसी काव्य अथवा कृति को विद्वन्मण्डली में वा सुपठित जनता की दृष्टि में समादृत बनाती हों। इसलिए मेरा यह कथन ही युक्ति-संगत ज्ञात होता है कि हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल में वीर गाथा सम्बन्धाी ग्रन्थों की ही प्रधानता रही और इन बातों पर दृष्टि रखकर डॉ. जी. ए. ग्रियर्सन आदि विद्वानों ने जो आरम्भ काल को वीर गाथा-काल माना है, वह असंगत नहीं। इन समस्त ग्रन्थों में ‘खुमान रासो’ ही ऐसा है जो सबसे प्रचीन और उपलब्धा ग्रन्थ है, उसमें वीर-रस की ही प्रधानता है, अतएव यह कौन नहीं स्वीकार करेगा कि हिन्दी साहित्य की आदि रचना वीर-गाथा से ही प्रारम्भ होती है।
1. देखिए माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ दी हिन्दुस्तान, पृ. 2
2. देखिए हिन्दी-साहित्य का इतिहास, पृ. 30
कहा जाता है कि खुमान रासो में सोलहवीं शताब्दी तक की रचनाएँ सम्मिलित हैं, जैसा कि ग्रियर्सन साहब के निम्नलिखित उध्दरण से सिध्द होता है। 1
“यह (खुमान रासो) मेवाड़ का अत्यन्त प्राचीन पद्य-बध्द इतिहास है, नौवींशताब्दी में लिखा गया है। इसमें खुमान रावत और उनके परिवार का वर्णन है। महाराणा प्रताप के समय में (सन् 1575) इसमें बहुत से परिवर्तन किये गये।र् वत्तामान रूप में इसमें अकबर के साथ प्रतापसिंह के युध्दों का वर्णन भी मिलता है। तेरहवीं शताब्दी में चित्ताौड़ पर किये गये अलाउद्दीन ख़िलजी के आक्रमण का भी इसमें विस्तृतवर्णनहै।”
परन्तु इस कथन का यह अर्थ नहीं है कि खुमान रासो की आदिम रचना की भाषा आदि भी बदल दी गई है। ग्रियर्सन साहब के लेख से इतना ही प्रकट होता है कि उसमें अलाउद्दीन खिलजी और अकबर के समय तक की कथाएँ भी सम्मिलित कर दी गई हैं। ऐसी अवस्था में न तो उसके आदिम रचना होने का महत्तव नष्ट होता है और न उसकी भाषा को सन्दिग्धा कहा जा सकता है। जिस समय उसकी रचना हुई थी, उस काल का वातावरण ही ऐसा था कि इस प्रकार के ग्रन्थों की सृष्टि होती। क्योंकि यह असम्भव था कि उत्तारोत्तार मुसलमान पवित्रा भारत वसुन्धारा के विभागों को अधिाकृत करते जावें और जिन सहृदय हिन्दुओं में देशानुराग था, वे अपने सजातियों को देश और जाति-रक्षा के लिए विविधा रचनाओं द्वारा उत्तोजित और उत्साहित भी न करें। यह सत्य है कि भारतवर्ष की सार्वजनिक शक्ति किसी काल में मुसलमानों का विरोधा करने के लिए कटिबध्द नहीं हुई, और न समस्त हिंदू जाति कभी उनसे लोहा लेने के लिए केन्द्रीभूत हुई। किन्तु यह भी सत्य है कि मुसलमानों की विजय-प्राप्ति में कम बाधाएँ नहीं उपस्थित की गईं और यह इस प्रकार की कृतियों और रचनाओं का ही अंशत: परिणाम था। जिस काल में हिन्दू-जाति की संगठन-शक्ति सब प्रकार छिन्न-भिन्न थी, उस समय वीरगाथा सम्बन्धी रचनाओं ने जो कुछ लाभ पहुँचाया, उसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर मैं पहले कह आया हूँ कि वे तात्कालिक वातावरण और संघर्षण से ही उत्पन्न हुई थीं। वास्तव बात यह है कि सामाजिक रुचियों और भावों ही का परिणाम किसी काल का साहित्य होता है। उनका वीररस प्रधान होना भी हमारे कथन की पुष्टि करताहै।
अब मैं भाषा विकास सम्बन्धाी विषय पर प्रकाश डालना चाहता हूँ, अतएव इसी कार्य में प्रवृत्ता होता हूँ। भाषा-विकास के प्रकरण में मैं यह लिख आया हूँ कि
1. “This is the most ancient poetic chronicle of Mewar, and was written in the ninth century. It gives a history of Khuman Raut and of his family. It was recast during the reign of Partap Singh (fl. 1575), and, as we now have it, carrie, the narrative down to the wars of that prince with Akbaras devoting a great portion to the seige of Chitour by Alauddin Khilji in the thirteenth century,” Modern Vernacular Literature Hindustan, p. 3.
अपभ्रंश भाषा से क्रमश: विकसित होकर हिन्दी भाषा वर्तमान रूप में परिणत हुई। इसलिए पहले मैं कुछ पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ जो अपभ्रंश भाषा के हैं। इन पद्यों की रचना-प्रणाली और उनके शब्द-विन्यास का ज्ञान हो जाने पर आप लोग उस रीति से अभिज्ञ हो जावेंगे जिसको ग्रहण कर हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी भाषा को आधाुनिक रूप दिया। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों को देखिए-
1. बिट्टीए मइ भणिय तुहुँ मा कुरु बुङ्की दिट्ठि।
पुत्तिा सकर्णी भल्लि जिवँ मारइ हियइ पविट्ठिड्ड
बिट्टीए = बिटिया। मइ = मैंने। भणिय = कहा। तुहुँ = तू। मा = मत। कुरु = कर। बङ्कीं = बाँकी। दिट्ठी = दृष्टि। पुत्तिा = पुत्राी। सकर्णी = कानवाली, नुकीली। भल्लि = भाला। जिवँ = जैसे। मारइ = मारती है। हियइ = हिये में। पविट्ठि = प्रविष्ट होकर, पैठकर।
बेटी! मैंने कहा, तू बाँकी दृष्टि न कर, हे पुत्रिा! नुकीला भाला हृदय में पैठ कर मार देता है।
2. जे महुँ दियणा दियहड़ा दइये पवसन्तेण।
तात गणन्तिय अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेणड्ड
जे = जो। महुँ = हमको। दियणा = दिया। दियहड़ा = दिवस। दइये = दयित, प्यारा। पवसन्तेण = प्रवास में जाता हुआ। ताण = तिन्हें, तिनको। गणन्तिय = गिनती हुई। अंगुलिउ = ऍंगुली। जज्जरियाउ = जर्जरित हो गई। नहेण = नखसेड्ड
प्रवास करते हुए प्यारे ने जो दिन मुझको दिये उनको उँगलियों पर गिनने से वे नखों से जर्जर हो गईंड्ड
3. सायर उप्परि तणु धारइ तलि घल्लै रैणाइँ।
सामि सुभुच्चुभि परिहरइ सम्माणे खल्लाइँड्ड
सायर = सागर। उप्परि = ऊपर। तणु = तृण। धारइ = रखता है। तलि = नीचे। घल्लै = डालता है। रैणाइँ = रत्नों को। सामि = स्वामी। सुभुच्चुभि = सुन्दर भृत्य को। परिहरइ = त्यागता है। सम्माणे = सम्मान करता है। खल्लाइँ = खलों को।
सागर ऊपर तृण धारण करता है और नीचे रत्नों को डाल देता है। इसी प्रकार स्वामी सुन्दर भृत्यों को छोड़ देता है और खलों का सम्मान करता है।
4. वायसु उववन्तिए पिउ दिट्ठउ सहसत्तिा।
अध्दा बलया महिहि गय अध्दा फुट्टु तड़त्तिाड्ड
वायसु = कौवा। उववन्तिए = उड़ाती हुई। पिउ = पति। दिट्ठउ = देखा। सहसत्तिा = सहसा इति, एक-ब-एक। अध्दा = आधा। बलया = कड़ा (चूड़ी)। महिहि = पृथ्वी पर। गय = गिर गई। फुट्टु = फूट गई। तड़त्तिा = तड़ से।
कौआ उड़ाने वाली स्त्राी ने सहसा प्यारे को देखा, आधाी चूड़ी पृथ्वी पर गिर गई और आधाी तड़ से टूट गई।
5. भमरु म रुणिझुणि अण्णदइ सा दिसि जोइ मरोइ।
सा मालइ देसन्तरिय जसु तुहुँ मरइ वियोइड्ड
भमरु = भ्रमर। म = मत। रुणिझुणि = रुनझुन शब्द कर। अण्णदइ = अरण्य में। सा = वह। दिशि = दिशा। जोइ = देखकर। रोइ = रो। मालइ = मालती। देसन्तरिय = देशान्तरित हो गई। जसु = जिसके लिए। तुहुँ = तू। मरइ = मरता है। वियोइ = वियोग में।
भ्रमर! अरण्य में रुनझुन मत कर। उस दिशा को देखकर मत रो। वह मालती देशान्तरित हो गई जिसके वियोग में तू मरता हैड्ड
सबसे प्राचीन पुस्तक पुण्ड या पुष्प के अलंकार ग्रन्थ अथवा खुमान रासो के पद्यों का कोई उदाहरण अब तक प्राप्त नहीं हो सका। इसलिए इनकी रचनाओं के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। भुआल कवि का गीता का अनुवाद दसवें शतक का बतलाया जाता है, परन्तु उसकी भाषा बिलकुल माधयमिक काल की मालूम होती है। इसलिए पं. रामचन्द्र शुक्ल से सहमत होकर मैं उसको आरम्भिक काल का कवि नहीं मानता। सबसे पहले आरम्भिक काल की प्राप्य रचना का उदाहरण, मेरे विचारानुसार, जिन बल्लभ सूरि का है, जो बारहवें शतक के आरम्भ में हुआ। उसकी रचना के कुछ पद्य ये हैं-
किं कप्पतरुरे अयाण चिन्तउ मणभिन्तरि।
किं चिंतामणि कामधोनु आराहउ बहुपरि।
चित्रााबेली काज किसे देसंतर लंघउ।
रयण रासि कारण विसेइ सायर उल्लंघउ।
इस पद्य को आप ऊपर के उन पद्यों से मिलाइए जो अपभ्रंश भाषा के हैं, तो यह ज्ञात हो जायगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से क्रमश: हिन्दी भाषा का विकास हो रहा था। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार हो जाता है। इस पद्य में भी आप देखेंगे कि ‘अयाण’ ‘मण’, ‘रयण’ आदि में इसी प्रकार का प्रयोग हुआ है। अपभ्रंश पाँचवें पद्य में ‘देसन्तरिय’ का जैसा प्रयोग हुआ है, इस पद्य के ‘देसन्तर’ का भी वैसा ही प्रयोग है। ‘भिंतरि’, ‘लंघउ’, ‘उल्लंघउ’, ‘सायर’ इत्यादि शब्दों का भी व्यवहार अपभ्रंश रचना के अनुसार ही हुआ है। प्राकृत में, और अपभ्रंश में भी ‘धा’ का ‘ह’ हो जाता है। इस पद्य में भी’आराधाउ’ का ‘आराहउ’ लिखा गया। ‘कल्पतरु’ के स्थान पर ‘कप्पतरु’ का प्रयोग भी प्राकृत भाषा के नियमानुसार है। यह सब होने पर भी उक्त पद्य में हिन्दीपन की झलक भी ‘कामधोनु’ ‘काज’ और ‘किसे’ आदि शब्दों में मिलती है, जो विकास प्रणाली का प्रत्यक्ष उदाहरण्ा है।
इसी शताब्दी के दूसरे कवि नरपति नाल्ह की भी कुछ रचनाओं को देखिए। यह कवि बीसलदेव रासो नामक ग्रन्थ का रचयिता है। अधिाकतर विद्वानों ने इसकी रचना को कुछ तर्क-वितर्क के साथ बारहवें शतक का माना है।
“ एक उड़ीसा को धानी बचन हमारइ तू मानि जु मानि।
ज्यों थारइ सांभर उग्गहइ राजा उणि भरि उगहइ हीरा खानि
जीभ न जीभ विगोयनो दव दाधा का कुपली मेल्हइ।
जीभ का दाधा नुपाँगुरइ नाल्हकहइ सुण जइ सब कोइ। “
इस पद्य में भी अपभ्रंश की झलक बहुत कुछ मौजूद है। इसमें अधिाकांश राजस्थानी भाषा का रंग है। इसी कारण अपभ्रंश की भाषा से वह बहुत कुछ मिलती-जुलती है। अब तक राजस्थानी भाषा पर अपभ्रंश भाषा का बहुत कुछ प्रभाव अवशिष्ट है। फिर भी उसमें ब्रजभाषा के शब्दों का इतना मेल है कि उसको अन्य भाषा नहीं कह सकते। पंडित रामचन्द्र शुक्ल वीसलदेव रासो की भाषा के विषय में यह लिखते हैं-
“भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं राजस्थानी है, जैसे ‘सूकइ छै’ (सूखता है), पाटण थीं (पाटन से),भोजतण (भोज का), खंड-खंड रा (खंड-खंड का), इत्यादि। इस ग्रन्थ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है। वह यह कि शिष्ट काव्य-भाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा हिन्दी ही थी, जो पिंगल भाषा कहलाती थी। वीसलदेव रासो में बीच-बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिन्दी) को मिलाने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। भाषा की प्राचीनता पर विचार करने से पहले यह बात धयान में रखनी चाहिए कि गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है। उदाहरण के लिए देखिए ‘मेलवि’ = मिलाकर, जोड़कर। चितई = चित्ता में। रणि = रण में। प्रापिजयि = प्राप्त हो या किया जाय। ईणी विधिा = इस विधिा। ईसउ = ऐसा। बालहो = बाला का। इसी प्रकार नयर (नज़र), पसाउ (प्रसाद), पयोहर (पयोधार) आदि प्राकृत शब्द भी हैं, जिनका प्रयोग कविता में अपभ्रंश काल से लेकर पीछे तक होता रहा।”1
1. देखिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का पृष्ठ 30 और 31
आरम्भिक काल का प्रधान कवि चन्द है जो हमारे हिन्दी संसार का चासर है। वह भी इसी शताब्दी में हुआ। मैं कुछ उसकी रचनाएँ भी उपस्थित करना चाहता हूँ, जिससे यह स्पष्टतया प्रकट होगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से हिन्दी भाषा रूपान्तरित हुई है। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो की रचना पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी की है। पृथ्वीराज रासो में बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जो इस विचार को पुष्ट करती हैं। परन्तु मेरा विचार है कि इन प्रक्षिप्त रचनाओं के अतिरिक्त उक्त ग्रंथ में ऐसी रचनाएँ भी हैं जिनको हम बारहवीं शताब्दी की रचना निस्संकोच भाव से मान सकते हैं। इस विषय में बहुत कुछ तर्क-वितर्क हो चुका है और अब तक इसकी समाप्ति नहीं हुई। तथापि ऐतिहासिक विशेषताओं पर दृष्टि रखकर पृथ्वीराज रासो की आदि रचना को बारहवीं शताब्दी का मानना पड़ेगा। बहुत कुछ विचार करने पर मैं इस सिध्दान्त पर पहुँचा हूँ कि पृथ्वीराज रासो में प्राचीनता की जो विशेषताएँ मौजूद हैं, वे वीर गाथा काल की किसी पुस्तक में स्पष्ट रूप से नहीं पायी जातीं। कुछ वर्णन इस ग्रन्थ के ऐसे हैं जिनको प्रत्यक्षदर्शी ही लिख सकता है। कोई इतिहासज्ञ यह नहीं कहता कि चन्द बरदाई पृथ्वीराज के समय में नहीं था। कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ इस ग्रन्थ की ऐसी हैं जो पृथ्वीराज और चन्दबरदाई के जीवन से विशेष सम्बन्धा रखती हैं। जब तक उनको असत्य न सिध्द किया जाय तब तक पृथ्वीराज रासो को कृत्रिाम नहीं कहा जा सकता। किसी भाषा की आदिम रचनाओं में जो अप्रांजलता और शब्द विन्यास का असंयत भाव देखा जाता है वह पृथ्वीराज रासो में मिलता है। इसलिए मेरी यह धारणा है कि इस ग्रन्थ का कुछ आदिम अंश अवश्य है जिसमें बाद को बहुत कुछ सम्मिश्रण हुआ। इस आदिम अंश में से ही उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-
1. उड़ि चल्यो अप्प कासी समग्ग
आयो सु गंग तट कज्ज जग्ग
सत अट्ठ खण्ड करि अंग अब्बि , ओमें सु अप्प वर मध्दि हब्बि
मंग्यो सुईस यँहि बर पसाय , सत अध्दपुत्ता अवतरन काय।
2. हय हथ्यि देत संख्य न मन खग्ग मग्ग खूनी बहै।
3. छपी सेन सुरतान , मुट्ठि छुट्टिय चावध्दिसि।
मनु कपाट उध्दरयो , कूह फुट्टिय दिसि विद्दिसि।
मार मार मुष किन्न , लिन्न चावण्ड उपारे।
परे सेन सुरतान , जाम इक्कह परि धारे।
गल वत्थ घत्ता गाढ़ो ग्रहौ , जानि सनेही भिंटयौ।
चामण्डराइ करवर कहर , गौरी दल बल कुट्टियौ।
पहले मैं जिन अपभ्रंश पद्यों को लिख आया हूँ उनसे इनको मिलाइए देखिए, कितना साम्य है। ज्ञात होता है कि ये उन्हीं की छाया हैं। इन पद्यों में यह देखा जाता है कि जहाँ प्राकृत अथवा अपभ्रंश के ‘समग्ग’ ‘कज्ज’, ‘जग्ग’, ‘अट्ठ’, ‘अप्प’, ‘मध्दि’, ‘पसाय’, ‘अध्द’, ‘पुत्ता’, ‘हथ्थि’, ‘खग्ग’, ‘मग्ग’, ‘मुट्ठि’ आदि प्रातिपदिक शब्द आये हैं वहीं ‘छुट्ठि’, ‘फुट्टिय’, ‘भिंटयौ’, ‘कुट्टियौ’ आदि क्रियाएँ भी आई हैं। इनमें ‘हय’, ‘कपाट’, ‘दल’, ‘बल’, इत्यादि संस्कृत के तत्सम शब्द भी मौजूद हैं और यह कवि द्वारा गृहीत उसकी भाषा की विशेषता है। प्राकृत अथवा अपभ्रंश में प्राय: संस्कृत के तत्सम शब्दों का अभाव देखा जाता है। विद्वानों ने प्राकृत और अपभ्रंश की यह विशेषता मानी है कि उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द नहीं आते। परन्तु चन्द की भाषा बतलाती है कि उसने अपने पद्यों में संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग की चेष्टा भी की है। उसने ‘नकार’ के स्थान पर’णकार’ का प्रयोग प्राय: नहीं किया है और यह भी हिन्दी भाषा का एक विशेष लक्षण है। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार का भी एक प्रकार से अभाव है। डिंगल अथवा राजस्थानी में भी प्राय: नकार का प्रयोग नहीं होता देखा जाता। इन पद्यों में कुछ ऐसी क्रियाएँ भी आई हैं जो ब्रजभाषा की मालूम होती हैं, वे हैं ‘उड़ि चल्यो’, ‘आयो’, ‘करि’, आदि और ये सब वे ही विशेषताएँ हैं जो प्राकृत और अपभ्रंश से हिन्दी भाषा को अलग करती और शनै:-शनै: विकसित होने का प्रमाण्ा देती हैं। मैं कुछ ऐसे पद्यों को भी उपस्थित करना चाहता हूँ जिनकी रचना इन पद्यों से सर्वथा भिन्न है। वे पद्य ये हैं-
दूहा
सरस काव्य रचना रचौँ , खल जन सुनि न हसन्त।
जैसे सिंधाुर देखि मग , श्वान स्वभाव भुसन्त।
तौ यनि सुजन निमित्ता गुन , रटये तन मन फूल।
जूं का भय जिय जानि कै , क्यों डारिये दुकूल।
पूरन सकल विलास रस , सरस पुत्रा फल दान।
अन्त होय सह गामिनी , नेह नारि को मान।
जस हीनो नागो गनहु , ढंक्यो जग जस बान।
लम्पट हारै लोह छन , तिय जीतै बिनु बान।
समदर्शी ते निकट है , भुगति मुकति भर पूर।
विषम दरस वा नरन ते , सदा सर्वदा दूर।
मेरा विचार है, ये पद्य सोलहवीं शताब्दी के हैं और बाद को ग्रन्थ की मुख्य रचना में सम्मिलित किये गये हैं। परन्तु कोई भाषा मर्मज्ञ भिन्न प्रकार के दोनों पद्य समूहों को देखकर यह न स्वीकार करेगा कि वे एक काल की ही रचनाएँ हैं। मेरा तो यह विचार है कि ये दोनों भिन्न प्रकार की रचनाएँ ही इस बात का प्रमाण हैं, कि उनके निर्माण-काल में शताब्दियों का अन्तर है। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब कहते हैं कि इस ग्रन्थ में 1,00,000 पद्य हैं। 1 क्या पद्यों की यह बहुलता यह नहीं प्रमाणित करती कि इस ग्रन्थ में धीरे-धीरे बहुत अधिाक प्रक्षिप्त अंश सम्मिलित किये गये हैं। हिन्दी भाषा में अब तक इतने बड़े ग्रन्थ का निर्माण नहीं हुआ है। संस्कृत में भी महाभारत को छोड़कर कोई ऐसा विशाल ग्रन्थ नहीं है। महाभारत में भी जब क्रमश: बहुत से सामयिक श्लोक यथा समय सम्मिलित होते गये, तभी उसका विस्तार हुआ। यही बात पृथ्वीराज रासो के विषय में भी कही जा सकती है। जैसे बाद के प्रक्षिप्त अंशों की उपस्थिति में भी महाभारत प्राचीन श्लोकों से रहित नहीं हो गया है, उसी प्रकार रासो में भी प्राचीन रचनाओं का अभाव नहीं है।
इस विषय में अनेक विद्वानों की सम्मतियाँ मेरे विचारानुकूल हैं। हाँ, कुछ विद्वान उसको सर्वथा जाली कहते हैं। यह मत-भिन्नता है। डॉ. ग्रियर्सन साहब की इस विषय में क्या सम्मति है और उसकी भाषा के विषय मे। 2 उनका क्या विचार है उसको मैं नीचे उध्दाृत करता हूँ।
“उसकी (चन्दबरदाई की) रचनाओं का मेवाड़ के अमरसिंह ने सत्राहवीं शताब्दी के आरम्भ में संग्रह किया। यह भी असम्भव नहीं है कि उसी समय किसी-किसी अंश को नवीन रूप दे दिया गया हो। जिससे इस सिध्दान्त का भी प्रचार हो गया है कि कुल का कुल ग्रन्थ जाली है।”
“इस कवि (चन्दबरदाई) के ग्र्रन्थों के अधययन ने मुझे उसके कवित्व-सौन्दर्य पर मुग्धा बना दिया है परन्तु मुझे सन्देह है कि राजपूताना की बोलियों से अपरिचित कोई व्यक्ति इसे आनन्दपूर्वक पढ़ सकेगा। तथापि वह भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी के लिए अत्यन्त मूल्यवान् है, क्योंकि यूरोपीय अनुसन्धाानकत्तर्ााओं को आधाुनिकतम प्राकृत और प्राचीनतम गौड़ीय कवियों के मधय में रिक्त स्थान की पूर्ति करने वाली कड़ी एकमात्रा यही है। हमारे पास चन्द का मूल ग्रन्थ भले ही न हो, फिर भी उसकी रचनाओं में हमें शुध्द अपभ्रंश, शौरसेनी प्राकृत रूपों से युक्त, गौड़ साहित्य के प्राचीनतम नमूने मिलतेहैं!”3
1. देखिए माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, पृ. 3
2-3. “His poetical works were collected by Amar Singh (e.f. no. 191), of Mewar in the early part of the Seventeenth Century. They were not improbably recast and modernised in parts at the same time, which has given rise to a theory that the whole is a modern forgery.”
“My own studies of this poet’s work have inspired me with a great admiration for its poetic beauty, but I doubt if anyone not prefectly master of the various Rajputana dialects could even read it with pleasure. It is, however, of the greatest value to the student of philology, for it is at present the only stepping stone available to European explorers in the chasm between the latest Prakrit and the earliest Gaudiam authors. Though we may not possess the actual text to Chand, we have certainly in his writings some of the oldest known Specimens of Gaudian literature, abounding in pure Apabhransha, Shaurseni Prakrit forms.”
पद्यों की आदिम रचना इतनी प्रांजल और उतनी प्रौढ़ नहीं होतीं जितनी उत्तारकाल की, यह मैं पहले लिख आया हूँ। चन्द वरदाई की रचनाओं में ये बातें पाई जाती हैं, जो उन्हें आरम्भिक काल की मानने के लिए विवश करती हैं। किसी विषय का दोष गुण उस समय ही यथा-तथ्य सामने आता है, जब उस पर अधिाकतर विचार दृष्टि पड़ने लगती है, नियम उसी समय निर्दोष बन सकते हैं, जब कार्यक्षेत्रा में आने पर उन पर विवेचना का अवसर प्राप्त होता है। आदिम रचनाओं में प्राय: अप्रांजलता और अनियमबध्दता इसलिए पाई जाती है कि उनका पथ विचार-क्षेत्रा में आकर प्रशस्त नहीं हो गया होता और न आलोचना और प्रत्यालोचनाओं के द्वारा उनकी प्रणाली परिमार्जित हो गई होती। जिस काल में पृथ्वीराज रासो की मुख्य रचना प्रारम्भ होती है, उस समय साहित्य की अवस्था ऐसी ही थी और यह दूसरा प्रमाण है जो उसके आदि अंश को आरंभिक काल की कृति बतलाता है। उदाहरण लीजिए-
चले दस्सहस्सं असव्वार जानं।
मदं गल्लितं मत्तासै पंच दंती।
रँगं पंच रंगं ढलक्कन्त ढालं।
सुरं पंच सावद्द वाजित्रा बाजं।
सहस्सं सहन्नाय मृग मोहि राजं।
मँजारी चखी मुष्ष जम्बक्क लारी A
एराकी अरब्बी पटी तेज ताजी।
तुरक्की महाबान कम्मान बाजी।
रजंपुत्ता पज्चास जुध्दे अमोरं।
बजै जीत के नद्द नीसान घोरं।
सामना सूर सब्बय अपार।
झटं जाहु तुम कीर दिल्ली सुदेसं।
कंद्रप्प जाति अवगार रूप।
जो चिद्दित शब्द हैं उनमें कवि की निरंकुशता और मनमानी रीति से शब्द गढ़ लेने की प्रवृत्तिा स्पष्टतया दृष्टिगत होती है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उत्तारकाल की कुछ रचनाओं में भी इस प्रकार का प्रयोग मिलता है किन्तु मैं उसको चन्द वरदाई की ही रचनाओं का अनुकरणमात्रा समझता हूँ। इस निरंकुशता के प्रवर्तक पृथ्वीराज रासोकार ही हैं। यह अप्रांजलता और अनियमबध्दता जो उनकी रचना में आई है उसका कारण उनका आरम्भिक काल का होना है। निम्नलिखित शब्द विदेशी भाषा के हैं-
‘असव्वार’, ‘सहन्नाय’, ‘अरव्वी’, ‘तुरक्की’, ‘कम्मान’, इत्यादि।
इनका ग्रहण अनुचित नहीं, परन्तु इनका मनगढ़न्त प्रयोग उचित नहीं। इन शब्दों का शुध्द रूप ‘सवार’, ‘शहनाई’, ‘अरबी’, ‘तुरकी’, ‘कमान’ है, किन्तु उनका जो रूप कवि ने बनाया है, वह न तो उस भाषा के व्याकरण पर अवलम्बित है न हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत या अपभ्रंश के नियमों के अनुकूल है। ऐसी अवस्था में उनका प्रयोग जिस रूप में हुआ है वह अप्रौढ़ता और अनियमबध्दता का ही परिचायक है, जो तात्कालिक हिन्दी भाषा की अपरिपक्वता का सूचक है। शेष शब्द हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत किंवा अपभ्रंश के हैं। उनका भी मनमाना प्रयोग किया गया है, जैसे ‘गलित’ को ‘गल्लित’, ‘ढलकत’ को’ढलक्कंत’, ‘सब्द’ को ‘साबद’, ‘वादित्रा’ को ‘बाजित्रा’, ‘मुख’ को ‘मुष्ष’, ‘जम्बुक’ को ‘जम्बक्क’, ‘राजपूत’ को ‘रंजपुत्ता’, ‘पचास’को ‘पच्चास’, ‘नाद’ को ‘नद्द’, ‘सब’ या ‘सब्ब’ को ‘सब्बय’, ‘झटिति’ या ‘झट’ ‘झटं’, ‘कंदर्प’ को ‘कंद्रप्प’ इत्यादि। ये शब्द हिन्दी, प्राकृत, अथवा अपभ्रंश व्याकरण के अनुकूल न तो बने हैं और न इनमें साहित्य-सम्बन्धाी को नियमबध्दता पाई जाती है। इसलिए मेरा विचार है कि ये कवि के गढ़े शब्द हैं और इसी कारण से इनकी सृष्टि हुई है कि आरंभिक काल में इस प्रकार की उच्छृंखलता का कोई प्रतिबन्धा नहीं था। अतएव मैं यह कहने के लिए बाधय हूँ कि जिन रचनाओं में इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे अवश्य रासो की आदिम अप्रक्षिप्त रचनाएँ हैं।
पृथ्वीराज रासो के कुछ छन्द भी इस बात के प्रमाण हैं कि उसकी मुख्य रचनाएँ बारहवीं शताब्दी की हैं। आजकल हिन्दी साहित्य में गाथा छन्द का व्यवहार नहीं होता, किन्तु चन्दबरदाई इस छन्द से काम लेता है। वैदिककाल से प्रारम्भ करके बौध्दकाल तक गाथा में रचनाएँ हुई हैं, अपभ्रंश काल में भी गाथा में रचना होती देखी जाती है। 1 ऐसी अवस्था में जब देखते हैं कि चन्दबरदाई भी गाथा छन्द का व्यवहार करता है तो इससे क्या पाया जाता है? यही न कि पृथ्वीराज रासो की रचना आरम्भिक काल की ही है, क्योंकि अपभ्रंश के बाद ही हिन्दी भाषा का आरम्भिक-काल प्रारम्भ होता है। रासो का एक गाथा छन्द देखिए, और उसकी भाषा पर भी विचार कीजिए-
पुच्छति बयन सुबाले उच्चरिय करि सच्च सज्जाए।
कवन नाम तुम देस कवन पंथ करै परवेस।
अब तक मैंने पृथ्वीराज रासो के प्राचीन अंश के विषय में जो कुछ लिखा है उससे मैं नहीं कह सकता कि अपने विषय के प्रतिपादन में मुझको कितनी सफलता मिली। यह बड़ा वादग्रस्त विषय है। यदि डॉक्टर ग्रियर्सन की सम्मति पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता के अनुकूल है तो डॉक्टर वूलर की सम्मति उसके प्रतिकूल। वे इस
1. देखिए, पालि प्रकाश, पृष्ठ 62, 63, 64।
ग्रन्थ की यहाँ तक प्रतिकूलता करते हैं कि उसका प्रकाश तक बंद करा देना चाहते हैं। यदि पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया अनेक तर्क-वितर्कों से पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता का पक्ष-ग्रहण करते हैं तो जोधापुर के मुरादिदान और उदयपुर के श्यामल दास भी उसका विरोधा करने के लिए कटिबध्द दिखलाई पड़ते हैं। थोड़ा समय हुआ कि रायबहादुर पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी अपनी प्रबल युक्तियों से इस ग्रन्थ को सर्वथा जाली कहा है। परन्तु, जब हम देखते हैं कि महामहोपाधयाय पं. हरप्रसाद शास्त्राी सन् 1909 से सन् 1913 तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज करके पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सनद देते हैं तो इस विवर्ध्दित वाद की विचित्राता ही सामने आती है। इन विद्वान् पुरुषों ने अपने-अपने पक्ष के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण दिये हैं। इसलिए इस विषय में अब अधिाक लिखना बाहुल्य मात्रा हो। मैंने भी अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उद्योग किया है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि मैंने जो कुछ लिखा है, वह निर्विवाद है। हाँ, एक बात ऐसी है जो मेरे विचार के अधिाकतर अनुकूल है। वह यह कि बहुत कुछ तर्क-वितर्क और विवाद होने पर भी किसी ने चन्दबरदाई को सोलहवें शतक का कवि नहीं माना है। विवाद करने वालों ने भी साहित्य के वर्णन के समय उसको बारहवें शतक में ही स्थान दिया है। यदि पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता की सत्यता में सन्देह है तो उसको बारहवें शतक में क्यों स्थान अब तक मिलता आता है। मेरा विचार है कि इसके पक्ष में ऐसी सत्यता अवश्य है जो इसको बारहवें शतक का काव्य मानने के लिए बाधय करती है। इसके अतिरिक्त जब तक संदिग्धाता है तब तक उस पद से किसी को कैसे गिराया जा सकता है जो कि चिरकाल से उसे प्राप्त है।
चन्दबरदाई का समसामयिक जगनायक अथवा जगनिक नामक एक ऐसा प्रसिध्द कवि है जिसकी वीरगाथामय रचनाओं का इतना अधिाक प्रचार सर्वसाधारण में है जितना उस समय की और किसी-कवि-कृति का अब तक नहीं हुआ। इसकी रचनाएँ आज दिन भी उत्तार भारत के अधिाकांश विभागों के हिन्दुओं की सूखी रगों में रक्त-धारा का प्रवाह करती रहती है। पश्चिमोत्तार प्रान्त के पूर्व और दक्षिण के अंशों में इसके गीतों का अब भी बहुत अधिाक प्रचार है। वर्षाकाल में जिस वीरोन्माद के साथ इस गीति-काव्य का गान ग्रामों के चौपालों और नगरों के जनाकीर्ण स्थानों में होता है, वह किसके हृदय में वीरता का संचार नहीं करता? इसके गीतों में महोबा के राजा के दो प्रधान वीर आल्हा और ऊदल के वीर कम्र्मों का बड़ा ही ओजमय वर्णन है यद्यपि यह बात बड़ी ही मर्म्म-भेदी है कि इन दोनों वीरों के वीर कम्र्मों की इतिश्री गृहकलह में ही हुई। महोबे के प्रसिध्द शासक परमाल और उस काल के प्रधान क्षत्रिाय भूपाल पृथ्वीराज का संघर्ष ही गीति-काव्य का प्रधान विषय है। यह वह संघर्ष था कि जिसका परिणाम पृथ्वीराज का पतन और भारतवर्ष के चिर-सुरक्षित दिल्ली के उस फाटक का भग्न होना था जिसमें प्रवेश करके विजयी मुसलमान जाति भारत की पुण्य भूमि में आठ सौ वर्ष तक शासन कर सकी। तथापि यह बात गर्व के साथ कही जा सकती है कि जैसा वीर रस का ओजस्वी वर्णन इस गीति काव्य में है हिन्दी साहित्य के एक दो प्रसिध्द ग्रन्थों में ही वैसा मिलता है। यह ओजस्विनी रचना, कुछ काल हुआ, आल्हा खंड के नाम से पुस्तकाकार छप चुकी है, परन्तु बहुत ही परिवर्तित रूप में। उसका मुख्य रूप क्या था, इसकी मीमांसा करना दुस्तर है। जिस रूप में यह पुस्तक हिन्दी-साहित्य के सामने आई है उसके आधार से इतना ही कहा जा सकता है कि इस कवि का उस काल की साहित्यिक हिन्दी पर, जैसा चाहिए, वैसा अधिाकार नहीं था। प्राप्त रचनाओं के देखने से यह ज्ञात होता है कि उसमें बुन्देलखंडी भाषा का ही बाहुल्य है। हिन्दी भाषा के विकास पर उससे जैसा चाहिए वैसा प्रकाश नहीं पड़ता, विशेषकर इस कारण से कि मौखिक गीति-काव्य होने से समय के साथ उसकी रचना में भी परिवर्तन होता गया है। किन्तु हिन्दी भाषा के आरम्भिक काल में जो परिवर्तन जो संघर्ष यहाँ के विद्वेषपूण्र्ा राजाओं में परस्पर चल रहा था उसका यह ग्रंथ पूर्ण परिचायक है। इसीलिए इस कवि की रचनाओं की चर्चा यहाँ की गई। मैं समझता हूँ कि जितने ग्रामीण गीत हिन्दी भाषा के सर्वसाधारण में प्रचलित हैं, उनमें जगनायक के आल्हा खंड की प्रधानता है। उसके देखने से यह अवगत होता है कि सर्वसाधारण की बोलचाल में भी कैसी ओजपूर्ण रचना हो सकती है। इस उद्देश्य से भी इस कवि की चर्चा आवश्यक ज्ञात हुई। उसकी रचना के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-
कूदे लाखन तब हौदा से , औ धारती मैं पहुँचे आइ।
गगरी भर के फूल मँगाओ सो भुरुही को दओ पियाइ।
भांग मिठाई तुरतै दइ दइ , दुहरे घोट अफीमन क्यार।
राती भाती हथिनी करि कै दुहरे ऑंदू दये डराय।
चहुँ ओर घेरे पृथीराज हैं , भुरुही रखि हौ धार्म हमार।
खैंचि सरोही लाखन लीन्ही समुहें गोलगये समियाय।
साँकर फेरै भुरुही दल में , सब दल काट करो खरियान।
जैसे भेड़हा भेड़न पैठे , जैसे सिंह बिड़ारै गाय।
वह गत कीनी लाखन ने , नद्दी बितवै के मैदान।
देवि दाहिनी भइ लाखन को , मुरचा हटौ पिथौरा क्यार।
उस समय युध्दोन्माद का क्या रूप था और किस प्रकार मुसलमानों के साथ ही नहीं, हिन्दू राजाओं में भी परस्पर संघर्ष चल रहा था, इस गीतिकाव्य में इसका अच्छा चित्राण है। इसलिए उपयोगिता की ही दृष्टि से नहीं, जातीय दुर्बलताओं का ज्ञान कराने के लिए भी यह ग्रन्थ रक्षणीय और संग्रहणीय है। इन पद्यों की वर्तमान भाषा यह स्पष्टतया बतलाती है कि वह बारहवीं ई. शताब्दी की नहीं है। हमने तेरहवीं शताब्दी तक आरम्भिक काल माना है। इसीलिए हम इस शतक के कुछ कवियों की रचनाएँ लेकर भी यह देखना चाहते हैं कि उन पर भाषा सम्बन्धाी विकास का क्या प्रभाव पड़ा। इस शतक के प्रधान कवि अनन्यदास, धार्मसूरि, विजयसूरि एवं विनय चन्द्र सूरि जैन हैं। इनमें से अनन्यदास की रचना का कोई उदाहरण नहीं मिला। धार्मसूरि जैन ने जम्बू स्वामी रासा नामक एक ग्रन्थ लिखा है उसके कुछ पद्य ये हैं (रचनाकाल 209 ईस्वी)-
करि सानिधिा सरसत्तिा देवि जीयरै कहाणउँ।
जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।
जम्बु दीबि सिरि भरत खित्तिा तिहि नयर पहाणउँ।
राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।
राज करइ सेणिय नरिन्द नरखरहं नुसारो।
तासु वट तणय बुध्दिवन्त मति अभय कुमारो।
विजय सेन सूरि ने ‘रेवंतगिरि रासा’ की रचना की है। (रचनाकाल, 1231 ई‑) कुछ उनके पद्य भी देखिए-
परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।
भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।
गामा गर पुर वरग गहण सरि वरिसर सुपयेसु।
देवि भूमि दिसि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।
जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउव् महन्तु।
निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवन्तु।
तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।
आबइ भाइ रसाल मण उडुलि रंग तरंग।
विनय चन्द्रसूरि ने नेमनाथ चौपई और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचनाकाल 1299 ई.), कुछ उनके पद्य देखिए-
“ बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू A
धारइ तेजु गहगण सलिताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ
सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमनवंछितपूरि “ ।
ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं, वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रकट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिाकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। उल्लिखित पद्यों में भी नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है।
जैसे तणय, मणहर, मण,गयण, दिणयर, दुज्जण इत्यादि। अपभ्रंश भाषा का यह नियम है कि अकारान्त शब्द के प्रथम और द्वितीया का एक वचन उकारयुक्त होता है। 1इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है जैसे देसु, महन्तु, रेवन्तु, तेजु इत्यादि। प्राकृत और अपभ्रंश में शकार और षकार का बिलकुल प्रयोग नहीं होता, उसके स्थान पर सकार प्रयुक्त होता है2। जैसे श्रमण: समणो, शिष्य: सिस्सो। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है। परमेसर, देस, सामल दस, दिवसि, देसि, दिसन्तरु, देसणु इत्यादि। अपभ्रंश का यह नियम है कि अनेक स्थानों में दीर्घ स्वर Ðस्व एवं Ðस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। इन पद्यों में बयणू,और रयणू का ऐसा ही प्रयोग है। इनमें जो हिन्दी के शब्द आये हैं जैसे करि, राज कर सारो, तासु, मुँह, दस, आबइ, रंग,बोलइ, धारइ, मन इत्यादि। इसी प्रकार जो संस्कृत के तत्सम शब्द आए हैं, जैसे गुण, राजग्रह, मति, अभय, पंकज, गिरि,सरि, सर, भूमि, रसाल, तरंग, सम, सखी, इत्यादि वे विशेष चिन्तनीय हैं। हिन्दी शब्द यह सूचित कर रहे हैं कि किस प्रकार वे धीरे-धीरे अपभ्रंश भाषा में अधिाकार प्राप्त कर रहे थे। संस्कृत के तत्सम शब्द यह बतलाते हैं कि उस समय प्राकृत नियमों के प्रतिकूल वे हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इन पद्यों में यह बात विशेष दृष्टि देने योग्य है कि इनमें एक शब्द के विभिन्न प्रयोग मिलते हैं जैसे मन के मण आदि। प्राय: ‘न’ के स्थान पर णकार का प्रयोग देखा जाता है, जैसे कि ऊपर लिखा जा चुका है, परन्तु न का सर्वथा त्याग भी नहीं है। जैसे नयर नायेण, नेमि इत्यादि।
मैं समझता हूँ, आरम्भिक काल में किस प्रकार अपभ्रंश भाषा परिवर्तित होकर हिन्दी भाषा में परिणत हुई, इसका पर्याप्त उदाहरण दिया जा चुका। उस समय की परिस्थिति के अनुकूल जो सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए, उनका वर्णन भी जितना अपेक्षित था उतना किया गया। आरम्भिक काल में कुछ ऐसे ग्रन्थ भी लिखे गये हैं, जिनका सम्बन्धा वीरगाथाओं से नहीं है, परन्तु प्रथम तो उन ग्रंथों का नाम मात्रा लिया गया है, दूसरे जो ग्रन्थ उपलब्धा हैं वे थोडे हैं और उनकी प्राय: रचनाएँ ऐसी हैं जो उस काल की नहीं, वरन् माधयमिक काल की ज्ञात होती हैं। इसलिए उनका कोई उध्दरण नहीं दिया गया। अन्त में मैंने जैन सूरियों की जो तीन रचनाएँ उध्दाृत की हैं वे वीर-रस की नहीं हैं। तथापि मैंने उनको उपस्थित किया केवल इस उद्देश्य से कि जिसमें यह प्रकट हो सके कि वीर-गाथा सम्बन्धाी रचनाओं में ही नहीं आरम्भिक काल में ओज लाने के लिए प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग किया गया है, अन्य रचनाओं में भी इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं, जो यह बतलाते हैं कि उस काल की वास्तविक भाषा वही थी जो विकसित होकर अपभ्रंश से हिन्दीभाषा के परवर्ती रूप की ओर अग्रसर हो रही थी।
1-2. देखिए, पाली प्रकाश, पृ. 2
हिन्दी साहित्य का माधयमिक काल
हिन्दी साहित्य का माध्यमिक काल, मेरे विचार से चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस समय विजयी मुसलमानों का अधिकार उत्तार भारत के अधिकांश विभागों में हो गया था और दिन-दिन उनकी शक्ति वर्ध्दित हो रही थी। दक्षिण प्रान्त में उन्होंने अपने पाँव बढ़ाये थे और वहाँ भी विजय-श्री उनका साथ दे रही थी। इस समय मुसलमान विजेता अपने प्रभाव विस्तार के साथ भारतवर्ष की भाषाओं से भी स्नेह करने लगे थे और उन युक्तियों को ग्रहण कर रहे थे जिनसे उनके राज्य में स्थायिता हो और वे हिन्दुओं के हृदय पर भी अधिकार कर सकें। इस सूत्रा से अनेक मुस्लिम विद्वानों ने हिन्दी भाषा का अधययन किया, क्योंकि वह देश-भाषा थी। मुसलमानों में राज्य-प्रसार के साथ अपने धर्म-प्रचार की भी उत्कट इच्छा थी। जहाँ वे राज्य-रक्षण अपनार् कर्तव्य समझते, वहीं अपने धर्म के विस्तार का आयोजन भी बड़े आग्रह के साथ करते। उस समय का इतिहास पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि जहाँ विजयी मुसलमानों की तलवार एक प्रान्त के बाद भारत के दूसरे प्रान्तों पर अधिकार कर रही थी, वहीं उनके धर्म-प्रचारक अथवा मुल्ला लोग अपने धर्म की महत्ता बतला कर हिन्दू जनता को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह स्वाभाविक है कि विजित जाति विजयी जाति के आचार-विचार और रहन-सहन की ओर खिंच जाती है। क्योंकि अनेक कार्य-सूत्रा से उनका प्रभाव उनके ऊपर पड़ता रहता है। इस समय बौध्द धर्म का प्राय: भारतवर्ष से लोप हो गया था। बहुतों ने या तो मुसलमान धर्म स्वीकार कर लिया था या फिर अपने प्राचीन वैदिक धर्म की शरण ले ली थी। कुछ भारतवर्ष को छोड़कर उन देशों को चले गये थे जहाँ पर बौध्द धर्म उस समय भी सुरक्षित और ऊर्ज्जित अवस्था में था। इस समय भारत में दो ही धर्म मुख्यतया विद्यमान थे, उनमें एक विजित हिन्दू जाति का धर्म था और दूसरा विजयी मुसलमान जाति का। राज-धर्म होने के कारण मुसलमान धर्म को उन्नति के अनेक साधन प्राप्त थे, अतएव वह प्रतिदिन उन्नत हो रहा था और राजाश्रय के अभाव एवं समुन्नति-पथ में प्रतिबन्ध उपस्थित होने के कारण हिन्दू धर्म दिन-दिन क्षीण हो रहा था। इसके अतिरिक्त विविध-राज कृपावलंबित प्रलोभन अपना कार्य अलग कर रहे थे। इस समय सूफी सम्प्रदाय के अनेक मुसलमान फकीरों ने अपना वह राग अलापना प्रारम्भ किया था, जिस पर कुछ हिन्दू बहुत विमुग्धा हुए और अपने वंशगत धर्म को तिलांजलि देकर उस मंत्रा का पाठ किया, जिससे उनको अपने अस्तित्व-लोप का सर्वथा ज्ञान नहीं रहा। ऐसी अवस्था में जहाँ हिन्दुओं की क्षीण शक्ति प्रान्तिक राजा-महाराजाओं के रूप में अपने दिन-दिन धवंस होते छोटे-मोटे राजाओं की रक्षा कर रही थी, वहाँ पुण्यमयी भारत-वसुन्धारा में ऐसे धर्मप्राण आचार्य भी आविर्भूत हुए, जिन्होंने पतनप्राय वैदिक धर्म की बहुत रक्षा की। डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद ने बंगाल प्रान्त में सूफियों में धर्म प्रचार के विषय में अपने (मेडिबल इंडिया) नामक ग्रंथ में जो कुछ लिखा है, उसमें इस समय का सच्चा चित्रा अंकित है। अभिज्ञता के लिए उसका कुछ अंश मैं यहाँ उद्धृत करता हूँ। 1
“चौदहवीं शताब्दी बंगाल में मुसलमान फष्कीरों की क्रियाशीलता के लिए प्रसिध्द थी। पैण्डुआ में अनेक प्रसिध्द और पवित्रा सन्तों का निवास था। इसी कारण इस स्थान का नाम हजशरत पड़2 गया था।
अन्य प्रसिध्द सन्त थे अलाउल हक और उनके पुत्र मूर कष्ुतुबुल-आलम। अलाउल हकष् शेख निजशमुद्दीन औलिया का शिष्य था। बंगाल का हुसेन शाह (1485-1519 ई.) सत्यपीर नामक एक नये पंथ का प्रवर्तक था, जिसका उद्देश्य था हिन्दुओं और मुसलमानों को एक कर देना। सत्यपीर एक समस्त शब्द है, जिसमें सत्य संस्कृत का और पीर अरबी भाषा का शब्द है।”3
यह एक प्रान्त की अवस्था का निदर्शन है। अन्य विजित प्रान्तों की भी ऐसी ही दशा थी। उस समय सूफी सिध्दान्त के मानने वाले महात्माओं के द्वारा उनके उद्देश्यों का प्रचुर प्रचार हो रहा था, और वे लोग दृढ़ता के साथ अपनी संस्थाओं का संचालन कर रहे थे। यह धार्मिक अवस्था की बात हुई, राजनीतिक अवस्था भी उस समय ऐसी ही थी। साम दान दण्ड विभेद से पुष्ट होकर वह भी कार्य-क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार अनेक सूत्रों से कर रही थी। मैं पहले लिख आया हूँ कि जैसा वातावरण होता है साहित्य भी उसी रूप में विकसित होता है। माध्यमिक काल
1-3. The fourteenth century was remarkable for the activity of the Muslim faquirs in Bengal,….There were several saints of reputed sancetity in Pandua, which owing to their presence, came to be called Hazarat….other noted saints were Alaul Haq and his son Nur Qutbul Alam, Alaul Haq was also disciple of Saikh Nizamuddin Aulia, Hussain Shah of Bengal (1493-1519 A. D.) was the founder of a new cult called Satyapir, which aimed at uniting the Hindus and the Muslims Satyapir, was compounded of Satya, a Sanskrit word and Pir which is an Arabic word.
के साहित्य में भी यह बात पाई जाती है। चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से सत्राहवीं शताब्दी तक मुसलमान साम्राज्य दिन-दिन शक्तिशाली होता गया। इसके बाद उसका अचानक ऐसा पतन हुआ कि कुछ वर्षों में ही इतिश्री हो गई। यह एक संयोग की बात है कि हिन्दी-संसार के वे कवि और महाकवि जिनसे हिन्दी-भाषा का मुख उज्ज्वल हुआ इसी काल में हुए। इस माध्यमिक काल में जैसा सुधावर्षण हुआ, जैसी रस धारा बही, जैसे ज्ञानालोक से हिन्दी संसार आलोकित हुआ, जैसा भक्ति-प्रवाह हिन्दी काव्य-क्षेत्र में प्रवाहित हुआ, जैसे समाज के उच्च कोटि के आदर्श उसको प्राप्त हुए, उसका वर्णन बड़ा ही हृदय-ग्राही और मर्म-स्पर्शी होगा। मैंने इस कार्यसिध्दि के लिए ही इस समय की धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक अवस्थाओं का चित्रा यहाँ पर चित्रिात किया है। अब प्रकृत विषय को लीजिए।
चौदहवें शतक में भी कुछ जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा में कविता की है। इनके अतिरिक्त नल्ल सिंह भाट सिरोहिया ने विजयपाल रासो, शारंगधार नामक कवि ने शारंगधार-पध्दति, हम्मीर काव्य और हम्मीर रासो नामक तीन ग्रंथ बनाये, जिनमें से हम्मीर रासो अधिक प्रसिध्द है, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जैसे शब्दों से युक्त भाषा लिखी गयी है, उससे इन लोगों की रचनाओं में हिन्दी का स्वरूप विशेष परिमार्जित मिलता है। प्रमाण्स्वरूप कुछ पद्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं।
कवि शारंगधार (रचनाकाल 1306 ई.)
1. ढोलामारियढिल्लिमहँ मुच्छिउ मेच्छ सरीर।
पुर जज्जल्ला मंत्रिावर चलिय वीर हम्मीर।
चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणि कंपइ।
दिग पग डह अंधार धूलि सुरिरह अच्छा इहि।
ग्रंथ-संघपति समरा रासो, कवि अम्बदेव जैन, (रचना काल 1314 ई.)
2. निसि दीवी झलहलहिं जेम उगियो तारायण।
पावल पारुन पामिय बहई वेगि सुखासण।
आगे बाणिहिं संचरए सँघपति सहु देसल।
बुध्दिवंत बहु पुण्यवंत पर कमिहिं सुनिश्चल।
ग्रंथ थूलि भद्र फागु, कवि जिन पर्सिूंरि (रचनाकाल 1320 ई.)
3. अह सोहग सुन्दर रूपवंत गुण मणिभण्डारो।
कंचण जिमि झलकंत कंति संजम सिरिहारो।
थूलिभद्र मणिराव जाम महि अलो बुहन्तउ।
नयर राम पाउलिय मांहि पहुँतउ बिहरंतउ।
ग्रन्थ विजयपाल रासो (रचना काल 1325 ई.) नल्लसिंह भाट सिरोहिया।
4. दश शत वर्ष निराण मास फागुन गुरु ग्यारसि।
पाय-सिध्द बरदान तेग जद्दव कर धारसि।
जीतिसर्व तुरकान बलख खुरसान सुगजनी।
रूम स्याम अस्फहाँ फ्रंग हवसान सु भजनी।
ईराण तोरि तूराण असि खौसिर बंग ख्रधार सब।
बलवंड पिंड हिंदुवान हद चढिब बीर बिजयपालसब।
जिस क्रम से कविताओं का उध्दरण किया गया है, उसके देखने से ज्ञात हो जायेगा कि उत्तारोत्तार एक से दूसरी कविता की भाषा का अधिकतर परिमार्जित रूप है। शारंगधार की रचना में अधिक मात्रा में अपभ्रंश शब्द हैं। ऐसे शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं। उसके बाद की नम्बर 2 और 3 की रचनाओं में इने-गिने शब्द ही अधिकतर दिखलाई देते हैं। जिससे पता चलता है कि इस शताब्दी की आदि की रचनाओं पर तो अपभ्रंश शब्दों का अवश्य अधिक प्रभाव है। परन्तु बाद की रचनाओं में उनका प्रभाव उत्तारोत्तार कम होता गया है। यहाँ तक कि अमीर खुसरो की रचनाएँ उनसे सर्वथा मुक्त दिखलाई पड़ती हैं।
अमीर खुसरो इस शताब्दी का सर्वप्रधान कवि है। यह अनेक भाषाओं का पंडित था। इसके रचे फारसी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। इसकी हिन्दी रचनाएँ बहुमूल्य हैं। वे इतनी प्रांजल और सुन्दर हैं कि उनको देखकर यह आश्चर्य होता है कि पहले-पहल एक मुसलमान ने किस प्रकार ऐसी परिष्कृत और सुन्दर हिन्दी भाषा लिखी। मैं पहले लिख आया हूँ कि माध्यमिक काल में मुसलमान अनेक उद्देश्यों से हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो गये थे। ऐसे मुसलमानों का अग्र-गण्य मैं अमीर खुसरो को मानता हूँ। इसके पद्यों में जिस प्रकार सुन्दर ब्रजभाषा की रचना का नमूना मिलता है, उसी प्रकार खड़ी बोली की रचना का भी। इस सहृदय कवि की कविताओं को देखकर यह अवगत होता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों की कविताओं का समुचित विकास हो चुका था। परन्तु उसके नमूने अन्य कहीं खोजने पर भी नहीं प्राप्त होते। इसलिए इन भाषाओं की परिमार्जित रचनाओं का आदर्श उपस्थित करने का गौरव इस प्रतिभाशाली कवि को ही प्राप्त है। मैं उनकी दोनों प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर यह बात निश्चित हो सकेगी कि मेरा कथन कहाँ तक युक्ति-संगत है।
1. एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधा धारा।
चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे।
2. आवे तो ऍंधोरी लावे , जावे तो सब सुख ले जावे।
क्या जानूं वह कैसा है , जैसा देखा वैसा है।
3. बात की बात ठठोली की ठठोली।
मरद की गाँठ औरत ने खोली।
4. एक कहानी मैं कहूँ तू सुन ले मेरे पूत।
बिना परों वह उड़ गया , बाँधा गले में सूत।
5. सोभा सदा बढ़ावन हारा , ऑंखिन ते छिन होत न न्यारा।
आये फिर मेरे मनरंजन ऐ सखि साजन ना सखि अंजन।
6. स्यामबरन पीताम्बर काँधो , मुरलीधार नहिं होइ।
बिन मुरली वह नाद करत है , बिरला बूझै कोइ।
7. उज्जल बरन अधीनतन , एक चित्ता दो धयान।
देखत में तो साधु है , निपट पाप को खान।
8. एक नार तरवर से उतरी , मा सो जनम न पायो।
बाप को नांव जो वासे पूछयो आधो नाँव बतायो।
आधो नाँव बतायो खुसरो कौन देस की बोली।
बाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।
9. एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।
इन पद्यों में नम्बर 1 से 4 तक के पद्य ऐसे हैं जो शुध्द खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर 5 और 6 शुध्द ब्रजभाषा के हैं और नम्बर 7 से 9 तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिए इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुध्द खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधार नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा की धाराएँ अलग-अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्राुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है, वह उल्लेखनीय है। उनके पहले के कवियों की रचनाओं से उनकी रचनाओं में अधिकतर प्रांजलता है, जो हिन्दी के भण्डार पर उनका प्रशंसनीय अधिकार प्रकट करती है। उनकी रचनाओं में फारसी और अरबी इत्यादि के शब्द भी आये हैं, परन्तु वे इस सुन्दरता से खपाये गये हैं कि जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा में अरबी,फारसी और तुर्की के शब्द गृहीत होने लगे थे और यह सामयिक प्रभाव का फल था। परन्तु जिस सावधानी और सफाई के साथ उन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इन्होंने किया है, वह अनुकरणीय है। उन भाषाओं के अधिकतर शब्द अन्य कवियों द्वारा तोड़-मरोड़कर या बिगाड़कर लिखे गये हैं, किन्तु यह कवि प्राय: इन दोषों से मुक्त था। एक विशेषता इनमें यह भी देखी जाती है कि अरबी में इन्होंने हिन्दी पद्यों की रचना सफलतापूर्वक की है, साथ ही फारसी के वाक्यों के साथ हिन्दी वाक्यों को अपने एक पद्य में इस उत्तमता से मिलाया है, जो मुग्धा कर देता है। मैं उस पद्य को यहाँ लिखता हूँ। आप लोग भी उसका रस लें-
“ जेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफुलदुराय नैना बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिज्रां दारमऐजां न लेहु काहें लगाय छतियाँ।
शबाने हिज्रां न दराज़ चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी रतियाँ।
एकाएक अज़दिल दो चश्मे जादू बसद फ़रेबम् बेबुर्द तस्कीं।
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ।
चूँ शमा सोज़ां चूँ ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियाँ बइश्क़ ऑंमह।
न नींद नैना न अंग चैना न आप आवें न भेजैं पतियाँ।
बहक्क रोजे विसाल दिलवर दि दाद मारा फ़रेब खुसरों।
सुपीत मन को दुराय राखूँ जो जान पाऊँ पिया की घतियाँ।
इस पद्य का अरबी शब्द है फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन फ़उल फ़ेलुन फष्ऊल फ़ेलुन। पहले दो चरणों में हिन्दी शब्दों का प्रयोग निर्दोष हुआ है यद्यपि वे शुध्द ब्रज भाषा में लिखे गये हैं। केवल ‘नैना’ का ‘ना’ दीर्घ कर दिया गया है। किन्तु यह अपभ्रंश और ब्रज भाषा के नियमानुकूल है। शेष पद्यों की भाषा खड़ी हिन्दी की बोलचाल में है। केवल ‘रतियाँ’, ‘बतियाँ’, ‘पतियाँ’, ‘घतियाँ’ का प्रयोग ही ऐसा है, जो ब्रजभाषा का कहा जा सकता है। उनके इस प्रकार के मिश्रण के सम्बन्धा में मैं अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूँ। हाँ, मात्रिाक छन्दों के नियमों की दृष्टि से खड़ी बोली के पद्य निर्दोष नहीं हैं। अनेक स्थानों पर लघु के स्थान पर गुरु लिखा गया है यद्यपि वहाँ लघु लिखना चाहिए था। जैसे सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी ‘रतियाँ’ इस पद्य में ‘जो’ के स्थान पर ‘जु’ तो के स्थान पर ‘त’, कैसे के स्थान पर ‘कैस’ और ऍंधोरी के स्थान पर ‘ऍंधोर’, पढ़ने से ही छन्द की गति निर्दोष रहेगी। ऐसी ही हिन्दी भाषा के शेष पद्यों की पंक्तियाँ सदोष हैं, परन्तु जब हम वर्तमान काल की उन्नति प्राप्त उर्दू पद्यों को देखते हैं तो उनके इस प्रकार के पद्य-गत हिन्दी भाषा के शब्द-विन्यास को दोषावह नहीं समझते, क्योंकि अरबी शब्दों में हिन्दी शब्दों का व्यवहार प्राय: विवश होकर इसी रूप में करना पड़ता है। वरन् कहना यह पड़ता है कि उर्दू कविता के प्रारम्भ होने से 200 वर्ष पहले ही इस प्रणाली का आविर्भाव कर उन्होंने उर्दू संसार के कवियों को उस मार्ग का प्रदर्शन किया जिस पर चलकर ही आज उर्दू पद्य-साहित्य इतना समुन्नत है। इस दृष्टि से उनकी गृहीत प्रणाली एक प्रकार से अभिनन्दनीय ही ज्ञात होती है, निन्दनीय नहीं। खुसरो ने हिन्दुस्तानी भावों का चित्राण करते हुए कुछ ऐसे गीत भी लिखे हैं जो बहुत ही स्वाभाविक हैं। उनमें से एक देखिए-
ड्डसावन का गीतड्ड
अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया।
बेटी तेरा बाबा तो बुङ्ढा री कि सावन आया।
अम्मा मेरे भाई को भेजो जी कि सावन आया।
बेटी तेरा भाई तो बालारी कि सावन आया।
अम्मा मेरे मामूं को भेजो जी कि सावन आया।
बेटी तेरा मामूँ तो बाँकारी कि सावन आया।
दो दोहे भी देखिए, कितने सुन्दर हैं-
1. खुसरो रैनि सुहाग की , जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को , दोऊ भये इक रंग।
2. गोरी सोवै सेज पर , मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने , रैनि भई चहुँदेस।
इच्छा न होने पर भी खुसरो की कविता के विषय में इतना अधिक लिख गया। बात यह है कि खुसरो की विशेषताओं ने ऐसा करने के लिए विवश किया। यदि उन्होंने सबसे पहले बोलचाल की साफ सुथरी चलती हिन्दी का आदर्श उपस्थित किया तो शब्द भी तुले हुए रक्खे। न तो उनको तोड़ा-मरोड़ा, न बदला और न उनके वर्णों को द्वित्ता बनाकर उन्हें संयुक्त शब्दों का रूप दिया। अपनी रचना में भाव भी वे ही भरे जो देश भाषा के अनुकूल थे। प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। परन्तु वे ऐसे हैं जो सर्वथा हिन्दी के रंग में ढले हुए हैं, जैसे पीत, उज्जल और रैन इत्यादि। प्राकृत में शकार के स्थान पर स हो जाता है। इन्होंने भी अपनी रचना में इस नियम का पालन किया है, जैसे ‘सोभा’, ‘स्याम’, ‘केस’, ‘देस’इत्यादि। संस्कृत के तत्सम शब्द भी इनकी रचना में हैं परन्तु चुने हुए। हिन्दी आरम्भिक काल से ही इस प्रणाली को ग्रहण करती आई है। यह बात इनके इस प्रकार के प्रयोगों से भी प्रकट होती है। यह उनके कवि-हृदय की विशेषता है कि जो तत्सम शब्द संस्कृत के इनके पद्य में आये हैं, वे कोमल और हिन्दी के तद्भव शब्दों के जोड़ के हैं जैसे सुख, मुरलीधार, रंजन,अधीन, नाद, धयान, साधु, पाप इत्यादि। ये सब ऐसी ही विशेषताएँ हैं, जो माध्यमिक काल के रचयिताओं में खुसरो को एक विशेष स्थान प्रदान करती हैं। खुसरो का निवास दिल्ली में था। मेरा विचार है कि उसके अथवा मेरठ के आसपास जो बोली उस समय बोली जाती थी, उसी पर दृष्टि रखकर उन्होंने अपनी रचनाएँ कीं। इसीलिए वे अधिकतर बोलचाल की भाषा के अनुकूल हैं और इसी से उनमें विशेष सफाई आ गई है। उनकी कविता में ब्रजभाषा के कुछ शब्दों और क्रियाओं का प्रयोग भी पाया जाता है। जैसे बढ़ावनहारा, वासे, बनायो, वाको, पूछयो, दुराय, बनाय, बतियाँ इत्यादि। मैं समझता हूँ कि इन शब्दों का व्यवहार आकस्मिक है और इस कारण हो गया है कि उस समय ब्रजभाषा फैल चली थी और उसकी मधुरता कवि हृदय को अपनी ओर खींचने लगी थी।
अमीर खुसरो का समकालीन एक और मुल्लादाऊद नामक ब्रजभाषा का कवि हुआ। कहा जाता है कि उसने नूरक एवं चन्दा की प्रेम कथा नामक दो हिन्दी पद्य-ग्रन्थों की रचना की, किन्तु ये दोनों ग्रन्थ अप्राप्त-से हैं। इसलिए इसकी रचना की भाषा के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। इसके उपरान्त महात्मा गोरखनाथ का हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में दर्शन होता है। हाल में कुछ लोगों ने इनको ग्यारहवीं ई. शताब्दी का कवि लिखा है, किन्तु अधिकांश सम्मति यही है कि ये चौदहवीं शताब्दी में थे। ये धार्म्माचार्य ही नहीं थे, बहुत बड़े साहित्यिक पुरुष भी थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में नौ ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से’विवेक-मार्तण्ड’, ‘योग-चिन्तामणि’ आदि प्रकाण्ड ग्रन्थ हैं। इनका आविर्भाव नेपाल अथवा उसकी तराई में हुआ। उन दिनों इन स्थानों में विकृत बौध्द धर्म का प्रचार था, जो उस समय नाना कुत्सित विचारों का आधार बन गया था। इन बातों को देखकर उन्होंने उसका निराकरण करके आर्य धर्म के उत्थान में बहुत बड़ा कार्य किया। उन्होंने अपने सिध्दान्त के अनुसार शैव धर्म का प्रचार किया, किन्तु परिमार्जित रूप में। उस समय इनका धर्म इतना आद्रित हुआ कि उनकी पूजा देवतों के समान होने लगी। इनका मन्दिर गोरखपुर में अब तक मौजूद है। गोरखपंथ के प्रवर्तक आप ही हैं। इनके अनुयायी अब तक उत्तार भारत में जहाँ-तहाँ पाये जाते हैं। इनकी रचनाओं एवं शब्दों का मर्म समझने के लिए यह आवश्यक है कि उस काल के बौध्द धर्म की अवस्था आप लोगों के सामने उपस्थित की जावे। इस विषय में ‘गंगा’ नामक मासिक पत्रिाका के प्रवाह 1, तरंग9 में राहुल सांकृत्यायन नामक एक बौध्द विद्वान् ने जो लेख लिखा है उसी का एक अंश मैं यहाँ प्रस्तुत विषय पर प्रकाश डालने के लिए उद्धृत करता हूँ-
“भारत से बौध्द धर्म का लोप तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उस समय की स्थिति जानने के लिए कुछ प्राचीन इतिहास जानना आवश्यक है।”
‘आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौध्द सम्प्रदाय वज्रयान-गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे। बुध्द की सीधी-सीधी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़न्त हजारों लोकोत्तार कथाओं पर मरने लगे थे। बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भैरवी चक्र के मजे उड़ा रहे थे। बड़े-बड़े विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि आधो पागल हो,चौरासी सिध्दों में दाखिल हो, सन्धया-भाषा में निर्गुण गा रहे थे। सातवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिध्द अनंग, वज्र स्त्रिायों को ही मुक्तिदात्राी प्रज्ञा, पुरुषों को ही मुक्ति का उपाय और शराब को ही अमृत सिध्द करने में अपनी पंडिताई और सिध्दाई खर्च कर रहे थे। आठवीं शताब्दीसे बारहवीं शताब्दी तक का बौध्द धर्म वस्तुत: वज्रयान या भैरवी चक्र का धर्म था। महायान ने ही धारणीयों और पूजाओं से निर्वाण को सुगम कर दिया था। वज्रयान नेतो उसे एकदम सहज कर दिया। इसीलिए आगे चलकर वज्रयान सहजयान भी कहा जाने लगा।’
“वज्रयान के विद्वान् प्रतिभाशाली कवि, चौरासी सिध्द, विलक्षण प्रकार से रहा करते थे। कोई पनही बनाया करता था,इसलिए उसे पनहिया कहते थे, कोई कम्बल ओढ़े रहता था, इसलिए उसे कमरिया कहते थे, कोई डमरू रखने से डमरुआ कहलाता था, कोई ओखली रखने से ओखरिया आदि। ये लोग शराब में मस्त, खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे। जन-साधारण को जितना ही ये फटकारते थे, उतना ही वे इनके पीछे दौड़ते थे। लोग बोधिसत्तव प्रतिमाओं तथा दूसरे देवताओं की भाँति इन सिध्दों को अद्भुत चमत्कारों और दिव्य शक्तियों के धानी समझते थे। ये लोग खुल्लम-खुल्ला स्त्रिायों और शराब का उपभोग करते थे। राजा अपनी कन्याआें तक को इन्हें प्रदान करते थे। ये लोग त्राोटक या hypnotismकी कुछ प्रक्रियाओं से वाक़िफ थे। इसी बल पर अपने भोले-भाले अनुयाइयों को कभी-कभी कोई-कोई चमत्कार दिखा देते थे। कभी हाथ की सफाई तथा श्लेषयुक्त अस्पष्ट वाक्यों से जनता पर अपनी धाक जमाते थे। इन पाँच शताब्दियों में धीरे-धीरे एक तरह से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़कर कामव्यसनी, मद्यप और मूढ़ विश्वासी बन गयी थी।”
महात्मा गोरखनाथ ही ऐसे पहले ब्राह्मण हैं, जिन्होंने संस्कृत का विद्वान् होने पर भी हिन्दी भाषा के गद्य और पद्य में धार्मिक ग्रन्थ निर्माण किये। जनता पर प्रभाव डालने के लिए उसकी बोल-चाल की भाषा ही विशेष उपयोगिनी होती है। सिध्द लोगों ने इसी सूत्रा से बहुत सफलता लाभ की थी, इसलिए महात्मा गोरखनाथ जी को भी अपने सिध्दान्तों के प्रचार के लिए इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। उनके कुछ पद्य देखिए-
आओ भाई धारिधारि जाओ , गोरखबाला भरिभरि लाओ।
झरै न पारा बाजै नाद , ससिहर सूर न वाद विवादड्ड 1 ड्ड
पवनगोटिकारहणिअकास , महियलअंतरिगगन कविलास।
पयाल नी डीबीसुन्नचढ़ाई , कथतगोरखनाथ मछींद्रबताईड्ड 2 ड्ड
चार पहर आलिंगन निद्रा संसार जाई विषिया बाही।
उभयहाथों गोरखनाथ पुकारै तुम्हैंभूलमहारौ माह्याभाईड्ड 3 ड्ड
वामा अंगे सोईबा जम चा भोगिबा सगे न पिवणा पाणी।
इमतो अजरावर होई मछींद्र बोल्यो गोरख वाणीड्ड 4 ड्ड
छाँटै तजौगुरु छाँटै तजौ लोभ माया।
आत्मा परचै राखौ गुरु देव सुन्दर कायाड्ड 5 ड्ड
एतैं कछु कथीला गुरु सर्वे भैला भोलै।
सर्बे कमाई खोई गुरु बाघ नी चै बोलैड्ड 6 ड्ड
हबकि न बोलिबा ठबकि न चलिबा धीरे धारिबा पाँवं।
गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरखरावंड्ड 7 ड्ड
हँसिबा खेलिबा गाइबा गीत। दृढ़ करि राखै अपना चीत।
खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये।
गोरख कहे पूता संजमही तरियेड्ड 8 ड्ड
मध्दि निंरतर कीजै वास। निहचल मनुआ थिर ह्नै साँस।
आसण पवन उपद्रह करै। निसदिन आरँभ पचिपचि मरैड्ड 9 ड्ड
इनकी भाषा अमीर खुसरो के समान न तो प्रांजल है, न हिन्दी की बोलचाल के रंग में ढली, फिर भी बहुत सुधारी हुई और हिन्दीपन लिये हुए है। उसके देखने से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी के आरम्भ में हिन्दी भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो रही थी। गोरखनाथ जी की रचना में विभिन्न प्रान्तों के शब्द भी व्यवहृत हुए हैं, जैसे गुजराती, ‘नी’ मरहठी ‘चा’ और राजस्थानी ‘बोलिबा’ धारिबा, चलिबा इत्यादि। उस समय के महात्माओं की रचना में यह देखा जाता है कि अधिकतर देशाटन करने के कारण उनकी रचनाओं में कतिपय प्रान्तिक शब्द भी आ जाते हैं। यह बात अधिकतर उस काल के और बाद के सन्तों की बानियों में पाई जाती है। मेरा विचार है, गोरखनाथ जी ही इसके आदिम प्र्रवत्ताक हैं,जिसका अनुकरण उनके उपरान्त बहुत कुछ हुआ। इन दो-एक बातों को छोड़कर इनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा की सब विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिकतर प्रयोग है। जो प्राकृत प्रणाली के अनुकूल नहीं। धार्मिक शिक्षा-प्रसार के लिए अग्रसर होने पर अपनी रचनाओं में उनका संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करना स्वाभाविक था। हिन्दी कविता में आगे चलकर हमको प्रेमधारा, भक्ति-धारा एवं सगुण-निर्गुण विचारधारा बड़े वेग से प्रवाहित होती दृष्टिगत होती है, किन्तु इन सबसे पहले उसमें ज्ञान और योगधारा उसी सबलता से बही थी, जिसके आचार्य महात्मा गोरखनाथजी हैं। इन्हीं के मार्ग को अवलम्बन कर बाद को अन्य धाराओं का हिन्दी भाषा में विकास हुआ। योग और ज्ञान का विषय भी ऐसा था जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों से अधिकतर काम लेने की आवश्यकता पड़ी। इसीलिए उनकी रचनाओं में सूर्य, ‘वाद-विवाद’, ‘पवन’, ‘गोटिका’, ‘गगन’, ‘आलिंगन’, ‘निद्रा’, ‘संसार’, ‘आत्मा’, ‘गुरुदेव’, ‘सुन्दर’, ‘सर्वे’ इत्यादि का प्रयोग देखा जाता है। फिर भी उनमें अपभ्रंश अथवा प्राकृत शब्द मिल ही जाते हैं जैसे ‘अकास’, ‘महियल’, ‘अजराबर’ इत्यादि। हिन्दी तद्भव शब्दों की तो इनकी रचनाओं में भरमार है और यही बात इनकी रचनाओं में हिन्दी-पन की विशेषता का मूल है। वे अपनी रचनाओं में ‘ण’के स्थान पर ‘न’ का ही प्रयोग करते हैं और यह हिन्दी भाषा की विशेषता है। कभी-कभी ‘न’ के स्थान पर णकार का प्रयोग भी करते हैं। यह अपभ्रंश भाषा का इनकी रचनाओं में अवशिष्टांश है अथवा इनकी भाषा पर पंजाबी भाषा के प्रभाव का सूचक है,जैसे ‘पिवण’, ‘पाणी’, ‘अणखाए’, ‘आसण’ इत्यादि।
वेदान्त धर्म के प्र्रवत्ताक स्वामी शंकराचार्य थे। उनका वेदान्तवाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार-क्षेत्र में आकर शिवत्व धारण कर लेता है। इसीलिए उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है, वहीं विविधा विचित्रातामयी भी। इसलिए उसमें यदि निर्गुणवादियों के लिए विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिए भी बहुत कुछ दैवी ऐश्वर्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है। गोरखनाथ की संस्कृत और भाषा की रचनाओं में वेदान्तवाद की विशेष विभूतियाँ जहाँ दृष्टिगत होती हैं, वहीं शिव के उपासना की ऐसी प्रणालियाँ भी उपलब्धा होती हैं, जो सर्वसाधारण को उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण गोरखनाथ जी ने शैव धर्म का आश्रय लेकर उस समय हिन्दू धर्म के संरक्षण का भगीरथ प्रयत्न किया और बहुत कुछ सफलता भी लाभ की। नेपाल में आज भी शैव धर्म का बहुत बड़ा प्रभाव है। जिस समय सिध्द लोग अपने आडम्बरों द्वारा सर्व-साधारण को उन्मार्गगामी बना रहे थे, उस समय गोरखनाथ जी ने किस प्रकार सन्मार्ग का प्रचार सर्वसाधारण में किया, उसका प्रमाण उनका धर्म और उनकी वे सुन्दर रचनाएँ हैं जिनमें लोक-हितकारी शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। गोरखनाथ जी की महत्ता इतनी प्रभावशालिनी थी कि उसने पाप-प( में निमग्न अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) का भी उध्दार किया। जो पद्य ऊपर उद्धृत किये गये हैं,उनमें से तीसरे, चौथे, और पाँचवें तथा छठे पद्यों को देखिए। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात हो जायेगा कि उन्होंने किस प्रकार अपने गुरु को सांसारिक व्यसनों से बचने की शिक्षा दी और कैसे उनको स्त्रिायों के प्रपंच से विरत रहने का उपदेश दिया। उन्होंने आत्म-परिचय और अजरामर होने का मार्ग उन्हें बड़े सुन्दर शब्दों में बतलाया और कभी-कभी उनमें आत्मग्लानि उत्पन्न करने की चेष्टा भी की, जैसा छठे पद्य के देखने से प्रकट होता है। उनका यह उद्योग अपने गुरुदेव के विषय में ही नहीं देखा जाता, सर्वसाधारण पर भी उनकी शिक्षाओं ने बड़ा प्रभाव डाला, और इस प्रकार उस समय के पतन-प्राय हिन्दू समाज का बहुत बड़ा उपकार किया। उनकी रचनाओं में योग-सम्बन्धी बहुत-सी बातें पाई जाती हैं। उद्धृत पद्यों में से पहले-दूसरे पद्य ऐसे ही हैं। उनके सातवें, आठवें, नौवें पद्यों में ऐसी शिक्षाएँ हैं जिन्हें सब सन्मार्ग के पथिकों को ग्रहण करना चाहिए। हिन्दी-साहित्य में इस प्रकार की धार्मिक शिक्षाओं के आदि प्रचारक भी गोरखनाथ जी ही हैं। इन सब बातों पर दृष्टि रख उनकी रचनाओं पर विचार करने से वे बहुमूल्य ज्ञात होती हैं और उनसे इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार आदि में हिन्दी अपने तद्भव रूप में प्रकट हुई।
इसी चौदहवीं ईसवी शताब्दी में विनय-प्रभु जैन और छोटे-छोटे कई दूसरे जैन कवि हो गये हैं, जिनकी रचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी ऊपर लिखे गये जैन कवियों की हैं। उनमें कोई विशेषता ऐसी नहीं पाई जाती कि जिससे उनकी पृथक् चर्चा की आवश्यकता हो। इसलिए मैं उन लोगों को छोड़ता हूँ। इसके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी प्रारम्भ होती है। चौदहवीं शताब्दी का अन्त और पन्द्रहवीं शताब्दी का आदि मैथिल-कोकिल विद्यापति का काव्यकाल माना जाता है। अतएव अब मैं यह देखूँगा कि उनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा का क्या रूप पाया जाता है। उनकी रचनाओं के विषय में अनेक भाषा-मर्मज्ञों का यह विचार है कि वे मैथिली भाषा की हैं। किन्तु उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि जितना उनमें हिन्दी भाषा के शब्दों का व्यवहार है, उतना मैथिली भाषा के शब्दों का नहीं। अवश्य उनमें मैथिली भाषा के शब्द प्राय: मिल जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा पर यह प्रान्तिकता का प्रभाव है, वैसा ही जैसा आजकल के बिहारियों की लिखी हिन्दी पर बंगाली विद्वान् विद्यापति को बंगभाषा का कवि मानते हैं,यद्यपि उनकी भाषा पर बंगाली भाषा का प्रभाव नाममात्रा को पाया जाता है। ऐसी अवस्था में विद्यापति को हिन्दी भाषा का कवि मानने का अधिक स्वत्व हिन्दी-भाषा-भाषियों ही को है और मैं इसी सूत्रा से उनकी चर्चा यहाँ करता हूँ। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में भी दो ग्रंथ लिखे हैं। उनमें से एक का नाम ‘कीर्तिलता’ और दूसरी का नाम ‘कीर्तिपताका’ है। कीर्तिलता छप भी गई है। उनकी संस्कृत की रचनाएँ भी हैं जो उनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् सिध्द करती हैं। जब इन बातों पर दृष्टि डालते हैं तो उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा सामने आ जाती है, जो उनके लिए हिन्दी भाषा में सुन्दर रचना करना असम्भव नहीं बतलाती। मेरी ही सम्मति यह नहीं है। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले सभी सज्जनों ने इनको हिन्दी भाषा का कवि माना है। फिर मैं इनको इस गौरव से वंचित करूँ तो कैसे करूँ?
मेरा विचार है कि विद्यापति ने बड़ी ही सरस हिन्दी में अपनी पदावली की रचना की है। उनके पद्यों से रस निचुड़ा पड़ता है। गीत गोविन्दकार वीणापाणि के वरपुत्र जयदेव जी की मधुर कोमल कान्त पदावली पढ़कर जैसा आनन्द अनुभव होता है वैसा ही विद्यापति की पदावलियों का पाठ कर। अपनी कोकिल-कण्ठता ही के कारण वे मैथिल कोकिल कहलाते हैं। उनके समय में हिन्दी भाषा कितनी परिष्कृत और प्रांजल हो गई थी, इसका विशेष ज्ञान उनकी रचनाओं को पढ़कर होता है। उनके कतिपय पद्यों को देखिए-
1. माधाव कत परबोधाब राधा।
हा हरि हा हरि कहतहिं बेरि बेरि अब जिउ करब समाधा।
धारनि धारिये धानि जतनहिं बैसइ पुनहिं उठइ नहिं पारा।
सहजइ बिरहिन जग महँ तापिनि बौरि मदन सर धारा।
अरुण नयन नीर तीतल कलेवर विलुलित दीघल केसा।
मन्दिर बाहिर कर इत संसय सहचरि गनतहिं सेसा।
आनि नलिनि केओ रमनि सुनाओलि केओ देईमुख पर नीरे।
निस बत पेखि केओ सांस निसारै केओ देई मन्द समीरे।
कि कहब खेद भेद जनि अन्तर घन घन उतपत साँस।
भनइ विद्यापति सेहो कलावति जोउ बँधाल आसपास।
2. चानन भेल विषम सररे भूषन भेल भारी।
सपनहुँ हरि नहिं आयल रे गोकुल गिरधारी।
एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे पथ हेरथि मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगधा भेल रे आमर भेल सारी।
जाह जाह तोहिं ऊधाव हे तोहिं मधुपुर जाहे।
चन्द बदनि नहिं जोवत रे बधा लागत काहे।
3. के पतिया लए जायतरे मोरा पिय पास।
हिय नहिं सहै असह दुखरे भल साओन मास।
एकसर भवन पिया बिनुरे मोरा रहलो न जाय।
सखियन कर दुख दारुनरे जग के पतिआय।
मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तजि मधुपुर बसि रे कति अपजस लेल।
विद्यापति कवि गाओल रे धानि धारु पिय आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।
इन पद्यों को पढ़कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है। 1बँगला के अधिकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं और इसी आधार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला-निवासी थे भी। इसलिए उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिए उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे
1. देखिए वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ् हिन्दुस्तान पृष्ठ 9 पंक्ति 34
हमारे कथन के प्रमाण हैं। इनमें मैथिली भाषा का रंग है, किन्तु उससे कहीं अधिक हिन्दी भाषा की छटा दिखाई पड़ती हैं। इस विषय में दो एक हिन्दी विद्वानों की सम्मति भी देखिए। अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में (59, 60 पृष्ठ) पं. रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-
“विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधी से निकली होने के कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषा शास्त्रा की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलम्बित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।
“खड़ी बोली, बाँगड़ई, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, वैसवाड़ी, अवधी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का परस्पर अधिक भेद होते हुए भी सब हिन्दी के अन्तर्गत मानी जाती हैं! बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में आयल-आइल, गयल-गइल, हमरा तोहरा आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा हिन्दी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अत: जिस प्रकार हिन्दी साहित्य बीसलदेव रासो पर अपना अधिकार रखता है, उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।”
हिन्दी भाषा और साहित्यकार यह लिखते है। 1-
“सारे बिहार-प्रदेश और उसके आसपास संयुक्त प्रदेश, छोटा नागपुर और बंगाल में कुछ दूर तक बिहारी भाषा बोली जाती है। यद्यपि बँगला और उड़िया की भाँति बिहारी भाषा भी मागधा अपभ्रंश से ही निकली है तथापि अनेक कारणों से इसकी गणना हिन्दी में होती है और ठीक होती है।”
“बिहारी भाषा में मैथिली, मगही और भोजपुरी तीन बोलियाँ हैं। मिथिला या तिरहुत और उसके आसपास के कुछ स्थानों में मैथिली बोली जाती है। पर उसका विशुध्द रूप दरभंगे में पाया जाता है। इस भाषा के प्राचीन कवियों में विद्यापति ठाकुर बहुत ही प्रसिध्द और श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिनकी कविता का अब तक बहुत आदर होता है। इस कविता का अधिकांश सभी बातों में प्राय: हिन्दी ही है।”
आजकल बिहार हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्त माना जाता है। वहाँ के विद्यालयों और साहित्यिक समाचार पत्रों अथच मासिक पुस्तकों में हिन्दी भाषा का ही प्रचार है। ग्रन्थ रचनाएँ भी प्राय: हिन्दी भाषा में ही होती हैं और वहाँ के पठित-समाज की भाषा भी हिन्दी ही है। ऐसी अवस्था में बिहारी भाषा पर हिन्दी भाषा का कितना अधिकार है, यह अप्रकट नहीं।
मैं समझता हूँ विद्यापति की रचनाओं पर हिन्दी भाषा का कितना स्वत्व है,
1. देखिए ‘हिन्दी भाषा और साहित्य’ का पृष्ठ 39
इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका। मैंने उनकी रचना इसीलिए यहाँ उपस्थित की है, कि जिससे आप लोगों को यह ज्ञात हो सके कि उस समय हिन्दी भाषा का क्या रूप था। उनकी कविता को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके समय में हिन्दी भाषा प्राय: प्राकृत शब्दों से मुक्त हो गई थी और उसमें बड़ी सरस रचनाएँ होने लगी थीं। मुझको विश्वास है कि उनकी रचना के अधिकांश शब्दों और प्रयोगों को हिन्दी मानने में किसी को आपत्तिा न होगी। वे ब्रजभाषा के चिर परिचित शब्द हैं जो अपने वास्तविक रूप में पदावली में गृहीत हुए हैं। श्रीमती राधिका की विरह-वेदना का वर्णन होने के कारण उन पर और अधिक ब्रजभाषा की छाप लग गई है। जो शब्द चिद्दित हैं, उन्हें हम ब्रजभाषा का नहीं कह सकते। किन्तु उनमें से भी ‘हेरथि’ इत्यादि दो-चार शब्दों को छोड़कर शेष को निस्संकोच भाव से अवधी कह सकते हैं और यह अविदित नहीं कि अवधी भाषा हिन्दी का ही रूप है।
मेरा विचार है कि पन्द्रहवें शतक में प्रान्तिक भाषाओं में हिन्दी वाक्यों और शब्दों के प्रवेश का सूत्रापात हो गया था, जो आगे चलकर अधिक विकसित रूप में दृष्टिगत हुआ।
मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्तक विद्यापति को ही मानता हूँ। यदि गुरु गोरखनाथ हिन्दी भाषा में धार्मिक शिक्षा के आदि प्र्रवत्ताक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धाराओं से पवित्रा बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार-रस की मनोहारिणी धवनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिका के पवित्रा प्रेमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्र में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणाली के उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधा-भाव के आदि प्र्रवत्ताक विद्यापति ही हैं। पदावली में राधाकृष्ण के संयोग और वियोग शृंगार का जैसा भावमय और हृदयग्राही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन किसी ने नहीं किया।
श्रीमद्भागवत में गोपियों का प्रेम भगवान कृष्ण चन्द्र के प्रति जिस उच्चभाव से वर्णित है, वह अलौकिक है। प्रेम त्यागमय होता है, स्वार्थमय नहीं। रूप-जन्य मोह क्षणिक और अस्थायी होता है। उसमें सुख-लिप्सा होती है, आत्मोत्सर्ग का भाव नहीं पाया जाता। किन्तु वास्तविक प्रेम अपना आदर्श आप होता है। उसमें जितनी स्थायिता होती है, उतना ही त्याग। वह आन्तरिक निस्स्वार्थ भावों पर अवलम्बित रहता है, स्वार्थमय प्रवृत्तिायों पर नहीं। उसमें प्रेमी पर अपने को उत्सर्ग कर देने की शक्ति होती है, और वह इसी में अपनी चरितार्थता समझता है। भागवत में गोपियों को ऐसे ही प्रेम की प्रेमिका वर्णित किया गया है। विद्यापति संस्कृत के विद्वान थे। साथ ही सहृदय और भावुक थे। इसलिए भागवत के आदर्श को अपनी रचनाओं में स्थान देना उनके लिए असम्भव नहीं था। मेरा विचार है कि जयदेवजी की मधुर रचनाओं से भी उनकी कविता बहुत कुछ प्रभावित है,क्योंकि वे उनसे कई शतक पूर्व संस्कृत भाषा में इस प्रकार की सरस पदावली का निर्माण कर चुके थे। श्रीमद्भागवत में श्रीमती राधिका का नाम नहीं मिलता। परन्तु ब्रह्म वर्ैवत्ता पुराण में उनका नाम मिलता है और उसमें वे उसी रूप में अंकित की गई हैं जिस रूप में गीत गोविन्दकार ने उनको ग्रहण किया है। यह सत्य है कि गीत गोविन्द में सरल शृंगार ही का श्रोत बहता है, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जयदेव जी नेउस ग्रन्थ की रचना भक्ति भाव से की है और वे भगवती राधिका और भगवान कृष्ण में उतना ही पूज्य भाव रखते थे, जितना कोई बल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का भक्त रख सकता है। उनके ग्रन्थ में ही इसके प्रमाण विद्यमान हैं। विद्यापति की रचनाओं के देखने से पाया जाता है कि जयदेवजी का यह भक्ति-भाव उनमें भी भरित था। 1 डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन लिखते हैं : “मैथिली भाषा में अमूल्य पदावली-रचना केलिए ही उनका (विद्यापति का) श्रेष्ठ गौरव है। अपने समस्त पदों में उन्होंने श्रीमती राधिका का प्रेम भगवान कृष्णचन्द्र के प्रति वर्णन किया है। इस रूपक के द्वारा उन्होंने यह विज्ञापित किया है कि किस प्रकार आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम सम्बन्धा है।”
विद्यापति शैव थे। इसलिए सम्भव है कि यह तर्क उपस्थित किया जाय कि एक शैव की राधा-कृष्ण की मूर्ति में भक्ति कैसी? किन्तु इस विचार में संकीर्णता है। कवि का हृदय इतना संकीर्ण नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास यदि सीताराम के अनन्य उपासक होकर भगवान भूतनाथ की भक्ति कर सकते हैं तो शिव के अनन्य भक्त होकर कविवर विद्यापति राधा-कृष्ण की भक्ति क्यों नहीं कर सकते। वास्तव बात यह है कि अधिकांश गृहस्थ हिन्दू विद्वान् प×चदेवोपासक होता है। उसमें वह भेद-भावना नहीं होती जो किसी कट्टर शैव या वैष्णव में पाई जाती है। मैं समझता हूँ, विद्यापति इस दोष से मुक्त थे और इसीलिए उनको इस प्रकार राधा-कृष्ण का प्रेम वर्णन करने में कोई बाधा नहीं हुई। उनके पद्यों में ही युगल मूर्ति के भक्ति भाव के प्रमाण मौजूद हैं। उनके पद में जो माधार्ुय्य विद्यमान है उसको माधार्ुय्य-उपासना का मर्मज्ञ ही प्राप्त कर सकता है। मैं सोचता हूँ कि उस समय पौराणिक धर्म विशेषकर श्रीमद्भागवत जैसे वैष्णव ग्रन्थों के प्रभाव से वैष्णव धर्म का जो उत्थान देश में नाना रूपों से हो रहा था, उसी के प्रभाव से बंगाल प्रान्त में चण्डीदास की, और बिहार-भूमि में विद्यापति की रचनाएँ प्रभावित हैं।
1. “But his chief glory consists in his matchless sonnets (Pad s) in the Maithili dialect dealing allegorically with the relations of the soul to God under the form of love which Radha dore to Krishna.”
-Modern Vernacular Literature of Hindustan By Dr. Grierson.
जो कुछ अब तक विद्यापति के विषय में लिखा गया उससे यह पाया जाता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उन्होंने अपनी अभूतपूर्व कविताओं की रचना करके जहाँ पदावली-रचना की प्रणाली हिन्दी भाषा में चलायी, वहाँ उसको राधा-कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं के सरस वर्णन से भी अलंकृत किया। हिन्दी में भावमय शृंगारिक रचनाओं का आरम्भ भी उन्हीं से होता है और उन्हीं से ऐसे सरस सुन्दर पद-विन्यास हिन्दी को प्राप्त हुए हैं जैसे उसको आज तक कतिपय हिन्दी आकाश के उज्ज्वल नक्षत्रों से ही प्राप्त हो सके हैं।
यह पन्द्रहवीं शताब्दी कबीर साहब की कविताओं का रचना-काल भी है। कबीर साहब की रचनाओं के विषय में अनेक तर्क-वितर्क हैं। उनकी जो रचनाएँ उपलब्धा हैं उनमें बड़ी विभिन्नता है। इस विभिन्नता का कारण यह है कि वे स्वयं लिखे-पढ़े न थे। इसलिए अपने हाथ से वे अपनी रचनाओं को न लिख सके। अन्य के हाथों में पड़कर उनकी रचनाओं का अनेक रूपों में परिणत होना स्वाभाविक था। आजकल जितनी रचनाएँ उनके नाम से उपलब्धा होती हैं उनमें भी मीन-मेख है। कहा जाता है कि सत्यलोक पधार जाने के बाद उनकी रचनाओं में लोगों ने मनगढ़न्त बहुत- सी रचनाएँ मिला दी हैं और इसी सूत्रा से उनकी रचना की भाषा में भी विभिन्नता दृष्टिगत होती है। ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को उपस्थित कर इस बात की मीमांसा करना कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी का क्या रूप था, दुस्तर है। मैं पहले लिख आया हूँ कि भ्रमणशील सन्तों की बानियों में भाषा की एकरूपता नहीं पाई जाती। कारण यह है कि नाना प्रदेशों में भ्रमण करने के कारण उनकी भाषा में अनेक प्रान्तिक शब्द मिले पाये जाते हैं। कबीर साहब की रचना में अधिकतर इस तरह की बातें मिलती हैं। इन सब उलझनों के होने पर भी कबीर साहब की रचनाओं की चर्चा इसलिए आवश्यक ज्ञात होती है कि वे इस काल के एक प्रसिध्द सन्त हैं और उनकी वानियों का प्रभाव बहुत ही व्यापक बतलाया गया है। कबीर साहब की रचनाओं में रहस्यवाद भी पाया जाता है, जिसको अधिकांश लोग उनके चमत्कारों से सम्बन्धिात करते हैं और यह कहते हैं कि ऐसी रचनाएँ उनका निजस्व हैं, जो हिन्दी संसार की किसी कवि की कृति में नहीं पाई जाती। इस सूत्रा से भी कबीर साहब की रचनाओं के विषय में कुछ लिखना उचित ज्ञात होता है, क्योंकि यह निश्चित करना है कि इस कथन में कितनी सत्यता है। विचारना यह है कि क्या वास्तव में रहस्यवाद कबीर साहब की उपज है या इसका भी कोई आधार है।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने ‘कबीर-ग्रंथावली’ नामक एक ग्रन्थ कुछ वर्ष हुए, एक प्राचीन ग्रन्थ के आधार से प्रकाशित किया है। यह प्राचीन ग्रन्थ सम्वत् 1561 का लिखा हुआ है और अब तक उक्त सभा के पुस्तकालय में सुरक्षित है। जो ग्रन्थ सभा से प्रकाशित हुआ है, उससे इसलिए कुछ पद्य आगे उद्धृत किये जाते हैं, जिससे उनकी रचना की भाषा के विषय में कुछ विचार किया जा सके-
1. षूणैं पराया न छुटियो , सुणिरे जीव अबूझ।
कबिरा मरि मैदान में इन्द्रय्यांसूं जूझ।
2. गगनदमामा बाजिया परया निसाणै घाव।
खेत बुहारया सूरिवाँ मुझ मरने का चाव।
3. काम क्रोधा सूँ झूझणां चौड़े माड़या खेत।
सूरै सार सँवाहिया पहरया सहज सँजोग।
4. अब तो झूझ्याँ हा बणै मुणि चाल्याँघर दूरि।
सिर साहब कौं सौंपता सोच न कीजै सूरि।
5. जाइ पूछौ उस घाइलैं दिवसपीड़ निस जाग।
बाहण हारा जाणि है कै जाणै जिस लाग।
6. हरिया जाणै रूखणा उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जाणई कबहूँ बूठा मेंह।
7. पारब्रह्म बूठा मोतियाँ घड़ बाँधी सिष राँह।
सबुरा सबुरा चुणि लिया चूक परी निगुराँह।
8. अवधू कामधोनु गहि बाँधी रे।
भाँड़ा भंजन करै सबहिन का कछू न सूझै ऑंधीरे।
जो ब्यावै तो दूधा न देई ग्याभण अमृत सरवै।
कौली घाल्यां बीदरि चालै ज्यूँ घेरौं त्यूँ दरवै।
तिहीं धोन थैं इच्छयाँ पूगी पाकड़ि खूँटै बाँधी रे।
ग्वाड़ा माँ है आनँद उपनौ खूँटै दोऊ बाँधी रे।
साँई माई सास पुनि साईं साईं याकी नारी।
कहै कबीर परमपद पाया संतो लेहु बिचारी।
कबीर साहब ने स्वयं कहा है ‘बोली मेरी पुरुब की’, जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचना पूर्वी हिन्दी में हुई है और इन कारणों से यह बात पुष्ट होती है कि वे पूर्व के रहने वाले थे और उनकी जनम भूमि काशी थी। काशी और उसके आसपास के जिलों में भोजपुरी और अवधी-भाषा ही अधिकतर बोली जाती है। इसलिए उनकी भाषा का पूर्वी भाषा होना निश्चित है और ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को पूर्वी भाषा में ही होना चाहिए। यह सत्य है कि उन्होंने बहुत अधिक देशाटन किया था और इससे उनकी भाषा पर दूसरे प्रान्तों की कुछ बोलियों का भी थोड़ा-बहुत प्रभाव हो सकता है। किन्तु इससे उनकी मुख्य भाषा में इतना अन्तर नहीं पड़ सकता कि वह बिलकुल अन्य प्रान्त की भाषा बन जाये। सभा द्वारा जो पुस्तक प्रकाशित हुई है उसकी भाषा ऐसी ही है जो पूर्व की भाषा नहीं कही जा सकती, उसमें पंजाबी और राजस्थानी भाषा का पुट अधिकतर पाया जाता है। ऊपर के पद्य इसके प्रमाण हैं। कुछ लोगों का विचार है कि कबीर साहब के इस कथन का कि ‘बोली मेरी पुरुब की’ यह अर्थ है कि मेरी भाषा पूर्व काल की है, अर्थात् सृष्टि के आदि की। किन्तु यह कथन कहाँ तक संगत है,इसको विद्वज्जन स्वयं समझ सकते हैं। सृष्टि के आदि की बोली से यदि यह प्रयोजन है कि उनकी शिक्षाएँ आदिम हैं तो भी वह स्वीकार-योग्य नहीं, क्योंकि उनकी जितनी शिक्षाएँ हैं उन सबमें परम्परागत विचार की ही झलक है। यदि सृष्टि की आदि की बोली का यह भाव है कि उस काल की भाषा में कबीर साहब की रचनाएँ हैं तो यह भी युक्ति संगत नहीं, क्योंकि जिस भाषा में उनकी रचनाएँ हैं वह कई सहò वर्षों के विकास और परिवर्तनों का परिणाम है। इसलिए यह कथन मान्य नहीं। वास्तव बात यह है कि कबीर साहब की रचनाएँ पूर्व की बोली में ही हैं और यही उनके उक्त कथन का भाव है। अधिकांश रचनाएँ उनकी ऐसी ही हैं भी। सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ के पहले उनकी जितनी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं या हस्तलिखित मिलती हैं, या जन साधारण में प्रचलित हैं, उन सबकी भाषा अधिकांश पूर्वी ही है। हाँ, सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ का कुछ अंश अवश्य इस विचार का बाधाक है, परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि जिस प्राचीन-लिखित ग्रन्थ के आधार से सभा की पुस्तक प्रकाशित हुई है,उसके लेखक के प्रमाद ही से कबीर साहब की कुछ रचनाओं की भाषा में विशेष कर बहुसंख्यक दोहों में उल्लेख-योग्य अंतर पड़ गया है। प्राय: लेखक जिस प्रान्त का होता है अपने संस्कार के अनुसार वह लेख्यमान ग्रन्थ की भाषा में अवश्य कुछ न कुछ अन्तर डाल देता है। यही इस ग्रन्थ लेखन के समय भी हुआ ज्ञात होता है अन्यथा कबीर साहब की भाषा का इतना रूपान्तर न होता।
मैं कबीर साहब की भाषा के विषय में विचार उन्हीं रचनाओं के आधार पर करूँगा जो सैकड़ों वर्ष से मुख्य रूप में उनके प्रसिध्द धर्म स्थानों के ग्रन्थों में पाई जाती हैं अथवा सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में संगृहीत मिलती हैं। यह ग्रन्थ सत्राहवीं ईस्वी शताब्दी में श्री गुरु अर्जुन द्वारा संकलित किया गया है। इसलिए इसकी प्रामाणिकता विश्वसनीय है। कुछ ऐसी रचनाएँ देखिए-
1. गंगा के सँग सरिता बिगरी ,
सो सरिता गंगा होइ निबरी।
बिगरेउ कबीरा राम दोहाई ,
साचु भयो अन कतहिं न जाई।
चन्दन के सँग तरवर बिगरेउ ,
सो तरुवरु चंदन होइ निबरेउ
पारस के सँग ताँबा बिगरेउ ,
सो ताँबा कंचन होइ निबरेउ।
संतन संग कबिरा बिगरेउ ,
सो कबीर रामै होइ निबरेउ।
2. माथे तिलकु हथि माला बाना ,
लोगनु राम खिलौना जाना।
जउ हउँ बउरा तउ राम तोरा ,
लोग मरम कह जानइँ मोरा।
तोरउँ न पाती पूजउँ न देवा ,
राम भगति बिनु निहफल सेवा।
सति गुरु पूजउँ सदा मनावउँ ,
ऐसी सेव दरगह सुख पावउँ।
लोग कहै कबीर बउराना
कबीर का मरम राम पहिचाना।
3. जब लग मेरी मेरी करै ,
तब लग काजु एक नहिं सरै।
जब मेरी मेरी मिटि जाइ ,
तब प्रभु काजु सँवारहि आइ।
ऐसा गियानु बिचारु मना ,
हरि किन सुमिरहु दुख भंजना।
जब लग सिंघ रहै बन माहिं ,
तब लगु बनु फूलै ही नाहिं।
जब ही सियारु सिंघ कौ खाइ ,
फूलि रही सगली बनराइ।
जीतो बूड़ै हारो तिरै ,
गुरु परसादी वारि उतरै।
दास कबीर कहइ समझाइ ,
केवल राम रहहु जिउलाइ।
4. सभुकोइ चलन कहत हैं ऊहां ,
ना जानौं वैकुण्ठु है कहाँ।
आप आप का मरम न जाना ,
बात नहीं वैकुण्ठ बखाना।
जब लगु मन बैकुण्ठ की आस ,
तब लग नाहीं चरन निवास।
खाईं कोटु न परल पगारा ,
ना जानउँ बैकुण्ठ दुवारा।
कहि कबीर अब कहिये काहि ,
साधु संगति बैकुण्ठै आहि।
सभा की प्रकाशित ग्रन्थावली में भी इस प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं। मैं यहाँ यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में कबीर साहब की जितनी रचनाएँ संगृहीत हैं वे सब उक्त ग्रन्थावली में ले ली गई हैं। उनमें वैसा परिवर्तन नहीं पाया जाता है जैसा सभा के सुरक्षित ग्रन्थ की रचनाओं में मिलता है। मैं यह भी कहूँगा कि उक्त सुरक्षित ग्रन्थ की पदावली उतनी परिवर्तित नहीं है जितने दोहे। अधिकांश पदावली में कबीर साहब की रचना का वही रूप मिलता है जैसा कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में पाया जाता है। मैं इसी पदावली में से तीन पद्य नीचे लिखता हूँ-
1. हम न मरैं मरिहैं संसारा ,
हमकूं मिल्या जियावन हारा।
अब न मरौं मरनै मन माना ,
तेई मुए जिन राम न जाना।
साकत मरै संत जन जीवै ,
भरि भरि राम रसायन पीवै।
हरि मरिहैं तो हमहूं मरिहैं ,
हरि न मरैं हम काहे कूं मरिहैं।
कहै कबीर मन मनहिं मिलावा ,
अमर भये सुख सागर पावा।
2. काहे रे मन दह दिसि धावै ,
विषया सँगि संतोष न पावै।
जहाँ जहाँ कलपै तहाँ तहाँ बँधाना ,
रतन को थाल कियो तै रँधाना।
जो पै सुख पइयत इन माहीं ,
तौ राज छाड़ि कत बन को जाहीं।
आनन्द सहत तजौ विष नारी ,
अब क्या झीषै पतित भिषारी।
कह कबीर यहु सुख दिन चारि ,
तजि बिषया भजि चरन मुरारि।
3. बिनसि जाइ कागद की गुड़िया ,
जब लग पवन तबै लगि उड़िया।
गुड़िया को सबद अनाहद बोलै ,
खसम लिये कर डोरी डोलै।
पवन थक्यो गुड़िया ठहरानी ,
सीस धुनै धुनि रोवै प्रानी।
कहै कबीर भजि सारँग पानी ,
नहिं तर ह्नै है खैंचा तानी।
मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उद्धृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं, उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिकांश रचनाएँ इसी भाषा की हैं। उसके अधिकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाये जाते हैं। बहुत से दोहों की भाषा का रूप भी यही है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमश: हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आई है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रहवीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में मिलता है वैसा ही कबीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषा जनित परिवर्तन सम्बन्धी नियमों से मुक्त नहीं हैं, वरन क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं। हाँ, उनमें कहीं-कहीं प्रान्तिकता अवश्य पाई जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रान्तिक भाषा में कविता करने का सूत्रापात विद्यापति के समय में ही हुआ था, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है।
मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्धा बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं, उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुध्द रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्रा अन्य भाषा के आ गये हैं, उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूँ और समझता हूँ कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक की अनधिकार चेष्टा से सुरक्षित हैं। उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिए-
1. दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त।
पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त।
2. कबीर संगत साधु की कदे न निरफल होय।
चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय।
3. कायथ कागद काढ़िया लेखै बार न पार।
जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार।
4. हरजी यहै विचारिया , साखी कहै कबीर।
भवसागर मैं जीव हैं , जे कोइ पकड़ै तीर।
5. ऐसी वाणी बोलिये , मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै , औरन को सुख होइ।
इन पद्यों के जिन शब्दों पर चिद्द बना दिये गये हैं वे पंजाबी या राजस्थानी हैं। इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्राय: मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनकी मुख्य भाषा को संदिग्धा नहीं बनाते, क्योंकि जिस पद्य में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है, उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो-एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधी अथवा ब्रजभाषा में ‘वाणी’ को ‘बानी’ ही लिखा जाता है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में ‘ण’ का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्राय: ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ प्रयोग कर देते हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्राय: नकार णकार हो जाता है। वे’बानी’ को ‘बाणी’ ‘आसन’ को ‘आसण’ ‘पवन’ को ‘पवण’ इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाब के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ-साहब में भी देखा जाता है कि प्राय: कबीर साहब की रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिकतर सुरक्षित है। इस प्रकार के साधारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो, उसके विषय में यह न मान लेना चाहिए कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था, उसको उन्होंने ही पंजाबी रूप में दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी की लीला ही दृष्टिगत होती है।
कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधान शिष्य धर्मदास कहते हैं-
आठवीं आरती पीर कहाये। मगहर अमी नदी बहाये।
मलूकदास कहते हैं-
तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर 1
1. हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् 1932, पृ. 451
झाँसी के शेख़ तक़ी ऊंजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय मुसलमान धर्म के प्रचार के लिए कर रहे थे,काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप में मुसलमान धर्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धर्म की रचना करके हिन्दू मुसलमान को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसैन शाह कर रहे थे जो एक मुसलमान पीर थे और जिसने अपने नवीन धर्म का नाम सत्यपीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू मुसलमानों के एकीकरण में लग्न थे। उस समय भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रध्दा की दृष्टि से देखे जाते थे। गुरु नानकदेव ने भी इन पीरों का नाम अपने इस वाक्य में ‘सुणिये सिध्द-पीर सुरिनाथ’ आदर से लिया है। जो पद उन्होंने सिध्द, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी। पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिध्दों का कितना महत्तव और प्रभाव था। नाथों का महत्तव भी गुरु गोरखनाथजी की चर्चा में प्रकट हो चुका है। सूरि जैनियों के आचार्य कहलाते थे और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ता भी कम नहीं थी। इन लोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है, इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ता थी, यह बात भली-भाँति प्रकट होती है। इस पीर नाम का सामना करने ही के लिए हिन्दू आचार्य उस समय गुरु नाम धारण करने लग गये थे। इसका सूत्रापात गुरु गोरखनाथ जी ने किया था। गुरु नानकदेव के इस वाक्य में गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारबती माई इसका संकेत है। गुरु नानक के सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है, उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्दू आचार्यों को हिन्दू धर्म की रक्षा करने के लिए अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धर्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी। क्योंकि वे राजधर्म के प्रचारक थे। कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुध्दि बड़ी ही प्रखर। उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्होंने वही किया जो उस समय मुसलमान पीर कर रहे थे अर्थात् हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धर्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धर्म में आकर्षित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिध्दि के लिए उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने महत्तव की घोषण् बड़ी ही सबल भाषा में की। निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं-
काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चेताये।
समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये।
कबीर शब्दावली , प्रथम भाग पृ. 71
सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया
कबीर बीजक , पृ. 20
तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत।
कहते मोहिं भयल युग चारी
समझत नाहिं मोहि सुत नारी।
कह कबीर हम युग युग कही।
जबहीं चेतो तबहीं सही।
कबीर बीजक , पृ. 125, 592
जो कोई होय सत्य का किनका सो हमको पतिआई।
और न मिलै कोटि करि थाकै बहुरि काल घर जाई।
कबीर बीजक , पृ. 20
जम्बू द्वीप के तुम सब हंसा गहिलो शब्द हमार।
दास कबीरा अबकी दीहल निरगुन कै टकसार।
जहिया किरतिम ना हता धारती हता न नीर।
उतपति परलै ना हती तबकी कही कबीर।
ई जग तो जँहड़े गया भया योग ना भोग।
तिल तिल झारि कबीर लिय तिलठी झारै लोग।
कबीर बीजक , पृ. 80, 598, 632
सुर नर मुनि जन औलिया , यह सब उरली तीर।
अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।
साखी संग्रह , पृ. 125
वे अपनी महत्ता बतलाकर ही मौन नहीं हुए वरन हिन्दुओं के समस्त धार्मिक ग्रन्थों और देवताओं की बहुत बड़ी कुत्सा भी की। इस प्रकार के उनके कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं-
योग यज्ञ जप संयमा तीरथ ब्रतदाना
नवधा वेद किताब है झूठे का बाना।
कबीर बीजक , पृ. 411
चार वेद षट् शा ò ऊ औ दश अष्ट पुरान।
आसा दै जग बाँधिया तीनों लोक भुलान।
कबीर बीजक , पृ. 14
औ भूले षट दर्शन भाई। पाख्रड भेष रहा लपटाई।
ताकर हाल होय अघकूचा। छदर्शन में जौन बिगूचा।
कबीर बीजक , पृ. 97
ब्रह्मा बिस्नु महेसर कहिये इनसिर लागी काई।
इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहूँ मुक्ति न पाई।
कबीर शब्दावली , द्वितीय भाग , पृ. 19
माया ते मन ऊपजै मन ते दश अवतार।
ब्रह्म बिस्नु धोखे गये भरम परा संसार।
कबीर बीजक , पृ. 650
चार वेद ब्रह्मा निज ठाना।
मुक्ति का मर्म उनहुँ नहिं जाना।
कबीर बीजक , पृ. 104
भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। परन्तु मैं उनको यहाँ उठाना नहीं चाहता, क्योंकि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है। उनकी रचनाओं में योग, निर्गुण-ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धी बड़े हृदयग्राही वर्णन हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके उत्ताराधिकारी महात्माओं का बहुत कुछ अनुकरण किया है। गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कबीर साहब के निर्गुणवाद का स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन की पुष्टि के लिए गुरु गोरखनाथ की पूर्वोद्धृत रचनाओं की ओर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूँ और उनके समकालीन एवं उत्ताराधिकारी नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों की कुछ रचनाएँ भी नीचे लिखता हूँ-
1. थोड़ो खाय तो कलपै झलपै , घड़ों खाय तो रोगी।
दुहूँ पर वाकी संधि विचारै , ते को बिरला जोगीड्ड
यहु संसार कुवधि का खेत , जब लगि जीवै तब लगि चेत।
आख्याँ देखै काण सुणै , जैसा बाहै तैसा लुणैड्ड
– जलंधार नाथ
2. मारिबा तौ मनमीर मारिबा , लूटिबा पवन भँडार।
साधिबा तौ पंचतत्ता साधिबा , सेइबा तौ निरंजन निरंकार
माली लौं भल माली लौं , सींचै सहज कियारी।
उनमनि कलाएक पहूपनि , पाइले आवा गबन निवारीड्ड
– चौरंगी नाथ
3. आछै आछै महिरे मंडल कोई सूरा।
मारया मनुवाँ नएँ समझावै रे लोड्ड
देवता ने दाणवां एणे मनवैं व्याह्या।
मनवा ने कोई ल्यावैं रे लोड्ड
जोति देखि देखो पड़ेरे पतंगा।
नादै लीन कुरंगा रे लोड्ड
एहि रस लुब्धाी मैगल मातो।
स्वादि पुरुष तैं भौंरा रे लोड्ड
– कणोरी पाव
4. किसका बेटा किसकी बहू , आपसवारथ मिलिया सहू।
जेता पूला तेती आल , चरपट कहै सब आल जंजालड्ड
चरपट चीर चक्रमन कंथा , चित्ता चमाऊँ करना।
ऐसी करनी करो रे अवधू , ज्यो बहुरि न होई मरनाड्ड
– चरपट नाथ
5. साधी सूधी के गुरु मेरे , बाई सूंव्यंद गगन मैं फेरे।
मनका बाकुल चिड़ियाँ बोलै , साधी ऊपर क्यों मन डोलैंड्ड
बाई बंधया सयल जग , बाई किनहुं न बंधा।
बाइबिहूण ढहिपरै , जोरै कोई न संधिड्ड
– चुणाकर नाथ
कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनाएँ प्रभावित हैं न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तर्क के निराकरण् के लिए मैं प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जलंधार नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे! चौरंगीनाथ गोरखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधारनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणाककरनाथ भी इन्हीं के समकालीन थे1। इसलिए इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है। कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर, जो रहस्यवाद से सम्बन्धा रखती हैं, बौध्द धर्म के उन सिध्दों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है,जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ। कबीर साहब की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्राय: किये जाते हैं। जैसे-
1. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिाका भाग 11, अंक 4 में प्रकाशित ‘योग-प्रवाह’ नामक लेख।
घर घर मुसरी मंगल गावै , कछुवा संख बजावै।
पहिरि चोलना गदहा नाचै , भैंसा भगत करावैड्ड
इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौध्द सिध्दों की भी ऐसी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं, वे सिध्दों की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिध्दों ने योग और ज्ञान सम्बन्धी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् 1931 की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिध्द नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोधा के लिए उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ-
“इन सिध्दों की कविताएँ एक विचित्रा आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ ऍंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग, निर्गुण) दोनों में लग सके। संध्या भाषा को आजकल के छाया वाद या रहस्यवाद की भाषा समझ सकते हैं।”
“भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर राधास्वामी तक के सभी सन्त चौरासी सिध्दों के ही वंशज कहे जा सकते हैं। कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको शृंखलाबध्द करना कठिन नहीं है। परन्तु कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएँ, रहस्योक्तियाँ, उल्टी बोलियों की समानताएँ बहुत स्पष्ट हैं।”
इसी सिलसिले में सिध्दों की रचनाएँ भी देख लीजिए-
मूल
1. निसि अंधारी सुसार चारा।
अमिय भखअ मूषा करअ अहारा।
मार रे जोइया मूषा पवना।
जेण तृटअ अवणा गवणा।
भव विदारअ मूसा रवण अगति।
चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती।
काला मूसा ऊहण बाण।
गअणे उठि चरअ अमण धाण।
तब से मूषा उंचल पाँचल।
सद्गुरु वोहे करिह सुनिच्चल।
जबे मूषा एरचा तूटअ।
भुसुक भणअ तबै बांधान फिटअ।
– भुसुक
छाया
निसि ऍंधियारी सँसारा सँचारा।
अमिय भक्ख मूसा करत अहारा।
मार रे जोगिया मूसा पवना।
जेहिते टूटै अवना गवना।
भव विदार मूसा खनै खाता।
चंचल मूसा करि नाश जाता।
काला मूसा उरधा नवन।
गगने दीठि करै मन बिनु धयान।
तबसो मूसा चंचल वंचल।
सतगुरु बोधो करु सो निहचल।
जबहिं मूसा आचार टूटइ।
भुसुक भनत तब बन्धान पू फाटइ।
मूल
जयि तुज्झे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना।
नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा।
जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि।
हण बिनु मासे भुसुक प िर्बंन पइ सहिणि।
माआ जाल पसरयो ऊरे बाधोलि माया हरिणि।
सद गुरु बोहें बूझिे कासूं कहिनि।
– भुसुक
छाया
जो तोहिं भुसुक जाना मारहु पंच जना।
नलिनी बन पइसंते होहिसि एक मना।
जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी।
हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि।
माया जाल पसारे ऊरे बाँधोलि माया हरिणी।
सदगुरु बोधो बूझी कासों कथनी।
– भुसुक
अणिमिषि लोअण चित्ता निरोधो पवन णिरुहइ सिरिगुरु बोहें
पवन बहइ सो निश्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्बें।
छाया
अनिमिष लोचन चित्ता निरोधाइ श्री गुरु बोधो।
पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै।
– सरहपा
मूल-
आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति।
पक्कसिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति।
अर्थ : आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं। पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा1
कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धार्मावलम्बी बतलाये जातेहैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं-‘कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर’। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी-खोटी भी सुनाई है।-यथा
मेरे संगी द्वै जणा एक वैष्णव एक राम।
वो है दाता मुक्ति का वो सुमिरावै नाम।
कबीर धानि ते सुन्दरी जिन जाया बैस्नव पूत।
राम सुमिरि निरभय हुआ सब जग गया अऊत।
साकत सुनहा दोनों भाई। एक निंदै एक भौंकत जाई।
किन्तु क्या उनका यह भाव स्थिर रहा? मेरा विचार है, नहीं, वह बराबर बदलता रहा। इसका प्रमाण स्वयं उनकी रचनाएँ हैं। उन्होंने गोरखनाथ की गोष्ठी नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की है। वे शेख तक़ी के पास भी जिज्ञासु बनकर जाते थे और ऊँजी के पीर से भी शिक्षा लेते थे। ऐसा करना अनुचित नहीं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक महात्माओं का सत्संग करना निन्दनीय नहीं-किन्तु यह देखा जाता है कि कबीर साहब कभी वैष्णव हैं, कभी पीर, कभी योगी और कभी सूफी और कभी वेदान्त के अनुरागी। उनका यह बहुरूप श्रध्दालु के लिए भले ही उनकी महत्ता का परिचायक हो, परन्तु एक समीक्षक की दृष्टि इस प्रणाली को संदिग्धा हो कर अवश्य देखेगी। मेरा विचार है कि अपने सिध्दान्त के प्रचार के लिए उन्होंने समय-समय पर उपयुक्त पध्दति ग्रहण की है और जनता के मानस पर अपनी सर्वज्ञता
1. देखिए, सरस्वती, जून सन 1931 का पृ. 715, 717, 718, 719
की धाक जमा कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का विशेष धयान रखा है। इसीलिए वे अनेक रूप रूपाय हैं। मैंने उनकी रचनाओं का आधार ढूँढ़ने की जो चेष्टा की है, उसका केवल इतना ही उद्देश्य है कि यह निश्चित हो सके कि वास्तव में उनकी रचनाएँ उनके कथनानुसार अभूतपूर्व और अलौकिक हैं या उनका श्रोत किसी पूर्ववर्ती ज्ञान-सरोवर से ही प्रसूत है। ‘सरस्वती’ में’चौरासी सिध्द’ नामक लेख के लेखक बौध्द विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने कबीर साहब की रचनाओं पर सिध्दों की छाप बतलाते हुए यह लिखा है कि “कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान
नहीं है।” किन्तु मैं समझता हूँ कि यह आसान है, यदि सिध्दों के साथ नाथ-सम्प्रदाय वालों को भी सम्मिलित कर लिया जाय। मैं नहीं कह सकता कि इस बहुत ही स्पष्ट विकास की ओर उनकी दृष्टि क्यों नहीं गई।
महात्मा ज्ञानेश्वर ने अपने ज्ञानेश्वरी नामक ग्रन्थ में अपनी गुरु-परम्परा यह दी है-1. आदिनाथ, 2. मत्स्येन्द्रनाथ 3.गोरखनाथ, 4. गहनी नाथ, 5. निवृत्तिानाथ, 6. ज्ञानेश्वर1 ज्ञानेश्वर के शिष्य थे नामदेव2। उनका समय है 1370 ई. से 1440 ई. तक। इसलिए उनका कबीर साहब से पहले होना निश्चित है। उन्होंने स्वयं अपने मुख से उनको महात्मा माना है। वे लिखते हैं-
“ जागे सुक ऊधाव औ अक्रूर।
हनुमत जागे लै लंगूर। “
संकर जागे चरन सेब।
कलि जागे नामा जयदेव।
सिक्खों के ग्रन्थ साहब में भी उनके कुछ पद्य संग्रहीत हैं। ज्ञानेश्वर जैसे महात्मा से दीक्षित होकर उनकी वैष्णवता कैसी उच्च कोटि की थी और वे कैसे महापुरुष थे, उसे निम्नलिखित शब्द बतलाते हैं-
बदो क्यों न होड़ माधो मोसों।
ठाकुर ते जन जनते ठाकुर खेल परयो है तोसों।
आपन देव देहरा आपन आप लगावै पूजा।
जलते तरँग ते है जल कहन सुनन को दूजा।
आपहि गावै आपहि नाचै आप बजावै तूरा।
कहत नामदेव तू मेरे ठाकुर जन ऊरा तू पूराड्ड
दामिनि दमकि घटा घहरानी बिरह उठे घनघोर।
चित चातक ह्नै दादुर बोलै ओहि बन बोलत मोर।
1. देखिए, हिन्दुस्तानी, जनवरी सन् 1932 के पृ. 32 में डॉक्टर हरि रामचन्द्र दिवेकर एम‑ए‑डी‑लिट‑कालेख।
2. देखिए, मिश्रबन्धाु विनोद, प्रथम भाग का पृ. 223।
प्रीतम को पतिया लिख भेजौं प्रेम प्रीति मसि लाय।
वेगि मिलोजन नामदेव को जनम अकारथ जाय।
हिन्दू पूजै देहरा , मुस्सलमान मसीत।
नामा सोई सेविया , ना देहरा न मसीत।
मेरा विचार है कि कबीर साहब की रचनाएँ नामदेव के प्रभाव से अधिक प्रभावित हैं। फिर यह कहना कि सिध्दों के साथ कबीर की शृंखला मिलाना आसान नहीं, कहाँ तक संगत है। गुरु गोरखनाथ के मानस के साथ अपने मानस को सम्बन्धिात कर कबीर साहब उनकी महत्ता किस प्रकार स्वीकार करते हैं, उसको उनका यह कथन प्रकट करता है-
गोरख भरथरि गोपीचंदा। तामनसों मिलि-करैं अनंदा।
अकल निरंजन सकल सरीरा। तामन सों मिलि रहा कबीरा।
वास्तव बात यह है कि कबीर साहब के लगभग समस्त सिध्दांत और विचार वैष्णव-धर्म और महात्मा गोरखनाथ के ज्ञान-मार्ग और योग मार्ग अथच उनकी परम्परा के महात्माओं की अनुभूतियों पर ही अधिकतर अवलम्बित हैं और उन सिध्दों के विचारों से भी सम्बन्धा रखते हैं, जिनकी चर्चा ऊपर की गई है।
सारांश यह है कि जैसे स्वयं कबीर साहब सामयिकता के अवतार और नवीन धर्म-प्रवर्तन के इच्छुक हैं, वैसे ही उनकी रचनाएँ भी पूर्ववर्ती सिध्द और महात्माओं के भावों और विचारों से ओत-प्रोत हैं। किन्तु उनमें कुछ व्यक्तिगत विलक्षणताएँ अवश्य थीं, जिनका विकास उनकी रचनाओं में भी दृष्टिगत होता है। उनकी इन्हीं विशेषताओं ने उन्हें कुछ लोगों की दृष्टि में निर्गुण धारा का प्र्रवत्ताक बना रखा है। परन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि और विवेचनात्मक बुध्दि से निरीक्षण किया जाय तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिन सिध्दान्तों के कारण उनके सिर पर सन्तमत के प्र्रवत्ताक होने का सेहरा बाँधा जाता है वे सिध्दान्त परम्परागत और नवीनतम ही है। हाँ, उनको जनता के सामने उपस्थित करने में उन्होंने कुछ चमत्कार अवश्य दिखलाया। कबीर साहब के रहस्यवाद को पढ़कर कुछ श्रध्दालु यह कहते हैं कि ईश्वर-विद्या के अद्वितीय मर्मज्ञ थे। वे भी अपने को ऐसा ही समझते हैं। लिखते हैं-
सुर नर मुनि जन औलिया ए सब उरली तीर।
अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।
किसी के श्रध्दा विश्वास के विषय में मुझको कुछ वक्तव्य नहीं। कबीर साहब स्वयं अपने विषय में जो कुछ कहते हैं,उसका उद्देश्य क्या था, इस पर मैं बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूँ। इष्ट सिध्दि के लिए वे जो पथ ग्रहण करना उचित समझते थे, ग्रहण कर लेते थे। प्रत्येक धर्म प्र्रवत्ताक में यह बात देखी जाती है। इसलिए इस विषय में अधिक लिखना पिष्टपेषण है,किन्तु यह मैं स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब हिन्दी संसार में रहस्यवाद के प्रधान स्तम्भ हैं। उनका रहस्यवाद कुछ पूर्व महज्जनों की रचनाओं पर आधारित हो, परन्तु उनके द्वारा वह बहुत कुछ पूर्णता को प्राप्त हो गया। उनकी ऐसी रचनाओं में बड़ी ही विलक्षणता और गम्भीरता दृष्टिगत होती है। कुछ पद्य देखिए-
1. ऐसा लो तत ऐसा लो मैं केहि विधि कथौं गँभीरा लो।
बाहर कहूँ तो सत गुरु लाजै भीतर कहूँ तो झूठा लो।
बाहर भीतर सकल निरन्तर गुरु परतापै दीठा लो।
दृष्टि न मुष्टि न अगम अगोचर पुस्तक लखा न जाई लो।
जिन पहचाना तिन भल जाना कहे न कोऊ पतिआई लो।
मीन चले जल मारग जोवै परम तत्तव धौं कैसा लो।
हुपुपबास हूँ ते अति झीना परम तत्तव धौं ऐसा लो।
आकासे उड़ि गयो बिहंगम पाछे खोज न दरसी लो।
कहै कबीर सतगुरु दाया तें बिरला सतपद परसी लो।
2. साधो सतगुरु अलख लखाया जब आप आप दरसाया।
बीज मधय ज्यों बृच्छा दरसै वृच्छा मध्दे छाया।
परमातम में आतम तैसे आतम मध्दे माया।
ज्यों नभ मध्दे सुन्न देखिए सुन्न अंड आकारा।
निह अच्छर ते अच्छर तैसे अच्छर छर बिस्तारा।
ज्यों रवि मध्दे किरन देखिए किरन मधय परकासा।
परमातम में जीव ब्रह्म इमि जीव मधय तिमि साँसा।
स्वाँसा मधये सब्द देखिए अर्थ सब्द के माहीं।
ब्रह्म ते जीव जीव ते मन यों न्यारा मिला सदाहीं।
आपहि बीज वृच्छ अंकूरा आप फूल फल छाया।
आपहिं सूर किरन परकासा आप ब्रह्म जिव माया।
अंडाकार सुन्न नभ आपै स्वाँस सब्द अरु छाया।
निह अच्छर अच्छर छर आपै मन जिउ ब्रह्म समाया।
आतम में परमातम दरसै परमातम में झांई।
झांई में परछांई दरसै लखै कबीरा सांई।
3. जीवन को मरिबो भलो , जे मरि जानै कोय।
मरने पहिले जे मरैं , तो अजरावर होय।
मन मारा ममता मुई , अहं गई सब छूट।
जोगी था सो रम रहा , आसणि रही विभूति।
मरता मरता जगमुआ , औसर मुआ न कोय।
कबिरा ऐसे मर मुआ , बहुरि न मरना होय।
रहस्यवाद की ऐसी सुन्दर रचनाओं के रचयिता होकर भी कहीं-कहीं कबीर साहब ने ऐसी बातें कहीं हैं जो बिलकुल ऊटपटांग और निरर्थक मालूम होती हैं। इस पद को देखिए-
ठगिनी क्या नैना झमकावै।
कबिरा तेरे हाथ न आवै।
कद्दू काटि मृदंग बनाया नीबू काटि मँजीरा।
सात तरोई मंगल गावैं नाचै बालम खीरा।
भैंस पदमिनी आसिक चूहा मेड़क ताल लगावै।
चोला पहिरि गदहिया नाचै ऊँट बिसुनपद गावै।
आम डार चढ़ि कछुआ तोड़ै गिलहरि चुनचुनि लावै।
कहै कबीर सुनो भाई साधो बगुला भोग लगावै।
ऐसे पदों के अनर्गल अर्थ करने वाले मिल जाते हैं। परन्तु उनमें वास्तवता नहीं, धींगा-धींगी होती है। मेरा विचार है उन्होंने ऐसी रचनाएँ जनता को विचित्राता-समुद्र में निमग्न कर अपनी ओर आकर्षित करने ही के लिए की हैं। उनकी उलटवाँसियाँ भी विचित्राताओं से भरी हैं। दो पद्य उनके भी देखिए-
देखौ लोगो घर की सगाई।
माय धारै पितुधिय सँग जाई।
सासु ननद मिलि अदल चलाई।
मादरिया गृह बेटी जाई।
हम बहनोई राम मोर सारा।
हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा।
कहै कबीर हरी के बूता।
राम रमैं ते कुकुरी के पूता।
– कबीर बीजक , पृ. 393
देखि देखि जिय अचरज होई।
यह पद बूझै बिरला कोई।
धारती उलटि अकासहिं जाई।
चिंउटी के मुख हस्ति समाई।
बिन पौनेजहँ परबत उड़ै।
जीव जन्तु सब बिरछा बुड़ै।
सूखे सरवर उठै हिलोर।
बिन जल चकवा करै कलोल।
बैठा पंडित पढै पुरान।
बिन देखे का करै बखान।
कह कबीर जो पद को जान।
सोई सन्त सदा परमान।
– कबीर बीजक , पृ. 394
कबीर साहब ने निर्गुण का राग अलापते हुए भी अपनी रचनाओं में सगुणता की धारा बहाई है। कभी वे परमात्मा के सामने स्वामी सेवक के भाव में आते हैं, कभी स्त्राी पुरुष अथवा पुरुष प्रेमी और प्रेमिका के रूप में, कभी ईश्वर को माता-पिता मानकर आप बालक बनते हैं और कभी उसको जगन्नियंता मानकर अपने को एक क्षुद्र जीव स्वीकार करते हैं। इन भावों की उनकी जितनी रचनाएँ हैं, सरस और सुन्दर हैं और उनमें यथेष्ट हृदयग्राहिता है। जनता के सामने कभी वे उपदेशक और शिक्षक के रूप में दिखलाई देते हैं, कभी सुधारक बनकर। मिथ्याचारों का खंडन वे बडे क़टु शब्दों में करते हैं और जिस पर टूट पड़ते हैं उसकी गत बना देते हैं। उनकी यह नाना-रूपता इष्ट-साधान की सहचरी है। उनकी रचनाओं में जहाँ सत्यता की ज्योति मिलती है, वहीं कटुता की पराकाष्ठा भी दृष्टिगत होती है। वास्तव बात यह है कि हिन्दी संसार में उनकी रचनाएँ विचित्रातामयी हैं। उनका शब्द-विन्यास बहुधा असंयत और उद्वेजक है, कहीं-कहीं वह अधिकतर उच्छृंखल है, छन्दों के नियम की रक्षा भी उसमें प्राय: नहीं मिलती। फिर भी उनकी कुछ रचनाओं में वह मन मोहकता, भावुकता, और विचार की प्रांजलता मिलती है जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है।
कबीर साहब के समकालीन कुछ ऐसे सन्त और महात्मा हैं जिनकी चर्चा हुए बिना पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी की न तो सामयिक अवस्था पर पूरा प्रकाश पड़ेगा न साहित्यिक परिवर्तनों पर। अतएव अब मैं कुछ उनके विषय में भी लिखना चाहता हूँ। किन्तु उनके यथार्थ परिचय के लिए यह आवश्यक है कि स्वामी रामानन्द के उस समय के धार्मिक परिवर्तनों और सामाजिक सुधारों से अभिज्ञता प्राप्त कर ली जावे। इसलिए पहले मैं इस महापुरुष के विषय में ही कुछ लिखता हूँ। जिस समय स्वामी शंकराचार्य के अद्वैतवाद ने भारतवर्ष में वैदिक-धर्म का पुनरुज्जीवन किया और जब उसकी विजय-वैजयन्ती हिमालय से कुमारी अन्तरीप तक फहरा रही थी। उस समय केवल ज्ञान मार्ग से संतोष न प्राप्त कर अनेक सन्त-महात्मा एक ऐसी भक्ति-धारा की खोज में थे जो दार्शनिक जीवन को सरस बना सके। निर्गुण ब्रह्म अनुभव गम्य भले ही हो किन्तु वह सर्वसाधारण का बोधागम्य नहीं था। बड़े-बड़े महात्माओं की विचारधारा जिस पंथ में चलकर पद-पद पर कुण्ठित होती थी, उस पथ का पथिक होना साधारण विद्या-बुध्दि के मनुष्य के लिए असम्भव था। आधयात्मिक आनन्द के उपभोग का अधिकारी तत्तवज्ञ ही हो सकता है, अल्पज्ञ नहीं। इसके लिए किसी प्रत्यक्ष आधार वा अवलम्बन का होना आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि संसार की स्वाभाविकता किसी ऐसे आधार का आश्रय ग्रहण करना चाहती है जो उसका जीवन-सहचर हो। समाधि में समाधिस्थ होकर ब्रह्मानन्द सुख का अनुभव करना लोकोत्तार हो, परन्तु उससे वह मनुष्य क्या लाभ उठा सकता है, जो न तो ऐसी साधानाएँ कर सकता है जो सर्वसाधारण के लिए सुलभ हों और न ऐसी सिध्दि प्राप्त कर सकता है जो उसको सांसारिक नाना कष्टों से छुटकारा दे सके। लोक साधारणत: पारमार्थिक नहीं है, वह अधिकतर स्वार्थ ही का दास है। वह सुख का कामुक और कष्टों से निस्तार पाने का अधिक इच्छुक होता है। वह अपनी कामना की पूर्ति के लिए ऐसी साधानाएँ करना चाहता है जो सीधी और सरल हों और जिनमें पद-पद पर जटिलताएँ सामने आकर न खड़ी हो जाएँ। परमात्मा सर्वलोक का स्वामी हो, प्राणी मात्रा का लालन-पालन करता हो, परन्तु उसका इतना ही होना पर्याप्त नहीं। लोक चाहता है कि वह दीनबन्धाु,दु:खभंजन, आनन्दस्वरूप और विपत्तिा में सहायक भी हो। मानवता की इस प्रवृत्तिा को संसार की महान आत्माओं ने प्रत्येक समय समझा है और देशकालानुसार उसके संतोष उत्पादन की चेष्टा भी की है। यदि भारतवर्ष के धार्मिक परिवर्तनों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो उनमें इस प्रकार के अनेकश: उदाहरण् प्राप्त होंगे। जब स्वामी शंकराचार्य के सर्वोच्च ज्ञान का अधिकारी सामयिक महात्माओं ने देशकालानुसार सर्वसाधारण जनता को नहीं पाया, तो उन्होंने ऐसा मार्ग ग्रहण करने की चेष्टा की जिससे उन प्राणियों का भी यथार्थहित हो सके, जो तत्तवबोधा के उच्च सोपान पर चढ़ने की योग्यता नहीं रखते। इसीलिए निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ब्रह्म की कल्पना होती आई है और इसी हेतु से एक अनिर्वचनीय शक्ति के स्थान पर ऐसी शक्ति की उद्भावना महज्जन करते आये हैं जो बोधागम्य हो और मानव-जीवन का स्वाभाविक सहचर बन सके। ज्ञान में गहनता है, साथ ही जटिलता भी। भक्ति में सरलता और सहृदयता है। इसीलिए ज्ञान से भक्ति अधिकतर बोधासुलभ है। अपने-अपने स्थान पर दोनों ही का महत्तव है। इसीलिए हिन्दू धर्म में अधिकारी भेद की व्यवस्था है। ज्ञानाश्रयी सिध्दान्त जब व्यावहारिक बनते हैं तो उनको भक्ति को साथ लेना पड़ता है, क्योंकि संसार अधिकतर क्रियामय जीवन का प्रेमिक है। जिन महात्माओं ने इन रहस्यों को समझ कर यथाकाल दोनों की व्यवस्था उचित रूप से की, उन्हीं महात्माओं में स्वामी रामानुज का स्थान है। उन्होंने स्वामी शंकराचार्य के ज्ञान-मार्ग को भक्तिमय बना दिया और उनके अद्वैतवाद को विशिष्टताद्वैत का रूप दिया। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करते हुए भी उसके सगुण रूप को ग्रहण किया और बतलाया कि यदि यह सत्य है कि’सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन’ तो विश्व को हम ब्रह्म का स्वरूप क्यों न मानें और क्यों न भक्ति से आर्द्र होकर उसकी उचित परिचर्या में लगें? उन्होंने इस विश्वात्मक सत्ता को विष्णु-स्वरूप बतलाया जिसकी सहकारिणी शक्ति लक्ष्मी है, विष्णु त्रिागुणात्मक हैं और उनमें सृजन, पालन और संहार तीनों शक्तिाँ विद्यमान हैं। वे कोटि काम कमनीय और अव्यक्त होने पर भी नील नभोमण्डल-समान श्याम हैं। वे चतुर्भुज अर्थात् चार हाथ से सृष्टिकार्य परायण हैं और अनन्त ज्ञानमय होने के कारण चतुर्वेदजनक हैं। वे सत्यावलम्बी के रक्षक और पापपरायण प्राणियों के शासक हैं। उनकी दीन-वत्सलता जहाँ अलौकिक है वहीं विपत्तिा निवारण उनका स्वाभाविक धर्म। वे शरणागतपालक और पतित जनपावन हैं। उनका स्थान बैकुण्ठ है, जो सर्वदैव अकुण्ठ रहता है और जिसमें वे उन लोगों को स्थान देते हैं जो प्रेम के पावन पथ पर चलने में कुण्ठित नहीं होते। उनकी सहधार्मिणी लोक-विमोहिनी शक्ति रमा है। जो उन्हीं के समान सांसारिक प्रत्येक कार्य में रमणशीला है। परमात्मा के ऐसे सगुण रूप को सांसारिक प्राणियों के सामने लाकर स्वामी रामानुज ने समयानुसार भारतीयजन का जो हित-साधान किया, उसका प्रमाण उनके धर्म की व्यापकता है, जो आजकल भारत वसुंधारा में विस्तृत रूप में व्याप्त है। उनका आविर्भावकाल ग्यारहवीं ईस्वी शताब्दी है। स्वामी रामानन्द उनकी गद्दी के पाँचवें अधिकारी थे। स्वामी रामानन्द ने वैष्णव धर्म को कुछ विशेष नियमों से नियमित बनाया। इसका कारण तात्कालिक समाज था। स्वामी रामानन्द का आविर्भाव-काल चौदहवीं शताब्दी है। इस समय मुसलमान धर्म वर्ध्दनोन्मुख था। मुख्यत: नीच जातियों में उसका प्रचार बड़े वेग से हो रहा था। वैदिक धर्म में समदर्शिता की पर्याप्त शिक्षा होने पर भी कुछ रूढ़ियों के कारण इस भाव का विकास नहीं हो पाता था। इसके विरुध्द मुसलमान पीर वचन-द्वारा ही नहीं, आचरण द्वारा भी यह दिखला रहे थे कि किस प्रकार मनुष्य मात्रा परस्पर भाई हैं। स्वधार्मी होने पर धर्म-क्षेत्र में वे किसी से कोई भिन्नता नहीं रखते थे। स्वामी रामानन्द ने वैष्णव धर्म की इस न्यूनता को समझा और शास्त्राों की उन आज्ञाओं को व्यावहारिक रूप दिया जो इस प्रकार कीथीं-
‘ शुनी चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: ‘
‘ आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स पण्डित: ‘
उनके विशाल हृदय ने वैष्णव धर्म को समयानुसार बहुत उदार बनाया और उन बंधानों को दृढ़ता के साथ तोड़ा जो मानव-मात्रा के परस्पर सम्मिलन में बाधाक थे। वे उस समय मुक्त कंठ से यही कथन करते दृष्टिगत होते हैं-
‘ जाति पांति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई। ‘
उन्होंने विष्णु के अव्यक्त रूप को व्यक्त रूप दिया और भगवान रामचन्द्र में विष्णु भगवान के समस्त गुणों का आरोप कर उन्हें विष्णु भगवान का अवतार बतलाया। पहले जो विष्णु भगवान कल्पना-क्षेत्र में विराजमान थे, उनको राम रूप में लाकर उन्होंने जिज्ञासुओं के सम्मुख उपस्थित किया और उनके उदार चरित्रों के आधार से मानव जाति को, विशेष कर हिन्दू जाति को, उस लोक धर्म की शिक्षा दी जो काल पाकर उसके लिए संजीवनी शक्ति बन गई। वैष्णव धर्म में जितनी जटिलताएँ थीं, उनको उन्होंने इस प्रकार व्यवहार-सुलभ बनाया कि उसकी ओर लोग बड़े उल्लास के साथ आकर्षित हो गये। उनके हृदय की विशालता देखिए कि जो जातियाँ ठुकराई हुई थीं, उन्हीं में से उन्होंने ऐसे लोगों को चुना जो हिन्दू-संसार-गगन में चमकते तारे बन कर चमके। उन्हीं के आधयात्मिक बल का वह महत्तव है कि जिससे कबीर कबीर बन गये। ये थे कौन?एक जुलाहे, हिन्दू भी नहीं, मुसलमान। रविदास का जन्म चमार के घर में हुआ था। सेन नाई और धान्ना जाट थे। परन्तु स्वामी रामानन्द के प्रभाव से ही आज दिन सन्त समाज में इनको उच्चस्थान प्राप्त है। सिक्खों के ग्रन्थ साहब में जिन सोलह प्रधान भक्तों की बानी संगृहीत है उनमें ये लोग भी हैं। कहा जाता है, उन्होंने अपने बारह शिष्य ऐसी ही जातियों में से चुन लिये जिनकी पतितों में गणना थी। इस पन्द्रहवीं शताब्दी में स्वामी रामानन्द ने ही वह भक्ति श्रोत बहाया जिसमें प्रवाहित होकर ऐसे लोग भी उस स्थान पर पहुँचे जिस स्थान पर पहुँचकर लोग सन्तपद के अधिकारी होते हैं। स्वामी रामानन्द जी के प्रधान शिष्य कबीर साहब की रचनाओं को मैं उपस्थित कर चुका हूँ। अब उनके अन्य शिष्यों की कुछ रचनाएँ भी देखिए-
1. नरहरि चंचल है मति मेरी
कैसे भगति करूँ मैं तेरी।
तू मोहिं देखै हौं तोहिं देखूँ ,
प्रीति परस्पर होई।
तू मोहिं देखे तोहि न देखूँ ,
यह पति सब विधि खोई।
सब घट अन्तर रमसि निरन्तर ,
मैं देखन नहिं जाना।
गुन सब तोर मोर सब अवगुन ,
कृत उपकार न माना।
मैं तैं तोर मोर असमझिसों ,
कैसे करि निस्तारा।
कह रैदास कृष्ण करुणा मय ,
जय जय जगत अधारा।
2. फल कारन फूलै बनराई।
उपजै फल तब पुहुप बिलाई।
राखहिं कारन करम कराई।
उपजै ज्ञान तो करम नसाई।
जल में जैसे तूंबा तिरै।
परिचै पिंड जीव नहिं मरै।
जब लगि नदी न समुद्र समावै।
तब लगि बढ़े हंकारा।
जब मनमिल्यो राम सागर सों ,
तब यह मिटी पुकारा।
– रैदास।
3. एक बूंद जल कारने चातक दुख पावै।
प्रान गये सागर मिलै पुनि काम न आवे।
प्रान जो थाके थिर नहीं कैसे बिरमाओं।
बूड़ि मुये नौका मिलै कहु काहि चढ़ाओंड्ड
मैं नाहीं कछु हौं नहीं कछु आहि न मोरा।
औसर लज्जा राखिलेहु सदना जन तोराड्ड
– सदना।
4. भ्रमत फिरत बहुत जनम बिलाने तनु मनु धानु नहिं धीरे।
लालच बिखु काम लुबधा राता मन बिसरे प्रभु हीरे।
बिखु फल मीठ लगे मन बउरे चार विचार न जान्या।
गुनते प्रीति बढ़ी अन भाँती जनम मरन फिर तान्या।
जुगति जानि नहिं रिदै निवासी जलत जाल जम फंदपरे।
बिखु फल संचि भरे मन ऐसे परम पुरख प्रभु मन बिसरे।
ग्यान प्रवेसु गुरहिंधान दीया धयानु मानु मन एक भये।
प्रेम भगति मानी सुख जान्यात्रिापति अघाने मुकतिभये।
जोति समाय समाने जाकै अछली प्रभु पहिचान्या।
धान्नै धान पाया धारणीधार मिलि जनसंत समान्या।
– धान्ना।
5. धूप , दीप , घृत साजि आरती बारने जाऊँ कमलापती।
मंगला हरि मंगला नित मंगल राजा राम राय को।
उत्ताम दियरा निरमल बाती तुहीं निरंजन कमला पाती।
राम भगति रामानन्दु जानै पूरन परमानंद बखानै।
मदन मूरति भय तारि गुविन्दे। सैन भण्य भजु परमानन्दे।
– सैन
पीपा गागनरौनगढ़ के एक राजा थे। वे भी स्वामी रामानंद के शिष्य थे। एक पद उनका भी देखिए-
1. काया देवा काया देवल काया जंगम जाती।
काया धूप दीप नैवेदा काया पूजौं पाती।
काया बहु ख्रड खोजते नवनिध्दीपाई।
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दोहाई।
जो ब्रह्मण्डे सोई पिंडे जो खोजे सो पावै।
पीपा प्रणवै परमतत्ताु है सतगुरु होय लखावै।
– पीपा
गोविंद गोविंद गोविंद सँग नामदेव मन लीना।
आठ दाम को छीपरो होइयो लाखीना।
बुनना तनना त्याग कै प्रीति चरन कबीरा।
नीचु कुला जोलाहरा भयो गुनिय गहीरा।
रविदास ढोवन्ता ढोर नित जिन त्यागी माया।
परगट होआ साधा सँग हरि दरसन पाया।
सैन नाई बुतकारिया ओहु घर घर सुनिया।
हिरदै बसिया पारब्रह्म भक्ता महिं गनिया।
यहि विधि सुनिकै जाटरो उठि भक्ती लागा।
मिले प्रतक्ख गुसाइयाँ धान्ना बड़ भागा।
– धान्ना
इन रचनाओं पर सामयिकता की छाप तो लगी ही है। परन्तु उनमें आपको स्वामी रामानन्द जी की महान शिक्षाओं का प्रभाव भी विकसित रूप में दृष्टिगत होगा। ये रचनाएँ आपको यह भी बतलाएँगी कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा का विकास लगभग एक ही रूप में हुआ। इसके अतिरिक्त इनके देखने से यह भी पता चलेगा कि किस प्रकार इस शताब्दी में निर्गुणवाद और भक्ति रस की धाराएँ बहीं, जो उत्तारवर्ती काल में विविधा रूप में प्रवाहित होकर हिन्दू जाति के सूखते धर्म-भाव के पौधों को हरा-भरा बनाने में समर्थ हुईं। इसी शताब्दी में पंजाब प्रान्त में गुरु नानक देव का आविर्भाव हुआ। आप बेदी खत्री और अपने समय के प्रसिध्द धर्म-प्रचारक थे। कुछ लोगों ने इनको कबीर साहब से प्रभावित बतलाया है। किसी-किसी ने तो उनको इनका शिष्य तक लिख दिया है। किन्तु यह सत्य नहीं है। इस विषय में बहुत वाद-विवाद हो चुका है। मैं उनको यहाँ लिखना बाहुल्य-मात्रा समझता हूँ, किन्तु यह निश्चित बात है कि कबीर साहब का गुरु नानक देव पर कुछ प्रभाव नहीं था। प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कबीर साहब पीर थे और गुरु नानक देव गुरु। वे एक नवीन धर्म का प्रचार करना चाहते थे और ये हिन्दू धर्म के संरक्षण के लिए यत्नवान थे। इस बात के प्रकट करने के लिए ही उन्होंने महात्मा गोरखनाथ के उद्भावित गुरु नाम का अपने नाम के साथ संयोजन किया था। उनके उपरान्त उनकी गद्दी पर दस महापुरुष बैठे। वे दसों गुरु कहलाये। पाँच गद्दी के बाद तो इन गुरुओं में से कई ने हिन्दू धर्म बलिवेदी पर अपने को उत्सर्ग भी किया। जब कबीर साहब ने हिन्दू धर्म याजकों और पंडितों की कुत्सा करने ही में अपना गौरव समझा, उस समय गुरु नानकदेव पंडितों को इन शब्दों में स्मरण करते थे-
स्वामी पंडिता तुमदेहुमती , केहि विधि मिलिए प्रानपती।
गुरु नानकदेव की रचनाओं में वेद शास्त्रा की उतनी ही मर्य्यादा दृष्टिगत होती है जितनी एक हिन्दू की कृति में होनी चाहिए। उसके विरुध्द कबीर साहब उनको उन शब्दों में स्मरण करते हैं जो भद्रता की सीमा को भी उल्लंघन कर जाते हैं। अतएव यह समझना कि गुरु नानकदेव उसी पथ के पथिक थे जिस पथ के पथिक कबीर साहब थे बहुत बड़ी भ्रान्ति है। गुरु नानकदेव का आविर्भाव यदि उस समय पंजाब प्रान्त में न होता तो उस प्रान्त से हिन्दू धर्म का विलोप-साधान पीरों के लिए बहुत आसान हो जाता। गुरु नानकदेव की अधिकांश रचनाएँ पंजाबी में ही हैं। परन्तु प्राय: सब हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने गुरु नानकदेव को हिन्दी का कवि माना है। कारण इसका यह है कि उनके बाद उनकी गद्दी पर नौ गुरु और बैठे। इनमें से पाँच गुरुओं ने जितनी रचनाएँ की हैं, उन सब लोगों ने भी अपनी पदावली में नानक नाम ही दिया है। इसलिए भ्रान्ति से अन्य गुरुओं की रचनाओं को भी गुरु नानक की रचना मान ली गई है। गुरु तेगबहादुर नौवें गुरु थे। वे सत्राहवीं ई. शताब्दी में हुए हैं। उनकी रचनाएँ उस समय की हिन्दी में ही हुई हैं। वे ही अधिक प्रचलित भी हैं। इसीलिए उनकी रचनाओं को गुरु नानकदेव की रचना मान ली गई है, और इसी से उस भ्रान्ति की उत्पत्तिा हुई है जो उनको हिन्दी भाषा का कवि बनाती है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि गुरु नानकदेव के कुछ पद्य अवश्य ऐसी भाषा में लिखे गये हैं जो पन्द्रहवीं शताब्दी की हिन्दी से सादृश्य रखते हैं। परन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी हैं, और उनमें भी पंजाबीपन का रंग कुछ-न-कुछ पाया जाता है। मैं विषय को स्पष्ट करने के लिए उनका एक पद्य पंजाबी भाषा का और दूसरा हिन्दी भाषा का नीचे लिखता हूँ-
1. पवणु गुरुपाणी पिता माता धारति महत्ताु।
दिवस रात दुइदाई दाया खेलै सकल जगत्ताु।
चँगियाइयां बुरियाइयां वाचै धारमु हदूरि।
करनी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि।
जिन्नी नाम धोयाइया गये मसक्कति घालि।
नानक ते मुख उज्जले केती छुट्टी नालि।
2. गुरु परसादी बूझिले तउ होइ निबेरा।
घर घर नाम निरंजना सो ठाकुर मेरा।
बिनु गुरु सबद न छूटिये देखहु बीचारा।
जे लख करम कमावहीं बिनु गुरु ऍंधियारा।
अंधो अकली बाहरे क्या तिन सों कहिये।
बिनु गुरुपंथ न सूझई किस बिधा निरबहिये।
आवत कौ जाता कहैं जाते कौ आया।
परकी कौ अपनी कहैं अपनो नहिं भाया।
मीठे को कड़घआ कहैं कड़घए कौ मीठा।
राते की निन्दा करहिं ऐसा कलि महिं दीठा।
चेरी की सेवा करहिं ठाकुरु नहिं दीसै।
पोखर नीरु बिरोलिये माखनु नहिं रीसै।
इसु पद जो अरथाइ ले सो गुरू हमारा।
नानक चीने आप को सो अपर अपारा।
गुरु नानकदेव की मातृभाषा पंजाबी थी। इसके अतिरिक्त मुख्यत: पंजाब प्रान्त की हिन्दू जनता की जागृति के लिए ही उनको धर्म क्षेत्र में उतरना पड़ा था। इसलिए पंजाबी भाषा में उनकी अधिकांश रचनाओं का होना स्वाभाविक था। परन्तु जिस समय उनका आविर्भाव हुआ था उसकी यह विशेषता देखी जाती है कि उस समय प्रत्येक प्रान्त के हिन्दू धर्म प्रचारक और सुकवि हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो रहे थे। यदि बंगाल प्रान्त के चण्डीदास और बिहार प्रान्त के विद्यापति हिन्दी भाषा को अपनी रचनाओं में स्थान देने के लिए आकर्षित हुए तो महाराष्ट्र प्रान्त में नामदेव जी को भी तात्कालिक हिन्दी भाषा में उत्तामोत्ताम धार्मिक रचनाएँ करते देखा जाता है। ऐसी अवस्था में गुरु नानक देव जी का भी हिन्दी भाषा की ओर आकृष्ट होना आश्चर्यजनक नहीं। उनके इसी भाव का द्योतक उनका हिन्दी भाषा का पद्य है, पहले पद्य में भी, जो पंजाबी भाषा का है,हिन्दी शब्दों का प्रयोग देखा जाता है और उनकी यह प्रणाली उनके हिन्दी भाषा के अनुराग की स्पष्ट सूचक है। उनके बाद उनके जितने उत्ताराधिकारी हुए उनमें यह प्रवृत्तिा उत्तारोत्तार बढ़ती दृष्टिगत होती है। दूसरी, तीसरी और चौथी गद्दियों के गुरुओं की रचनाएँ अधिकांश हिन्दी शब्दों से गर्भित हैं। पाँचवीं गद्दी के अधिकारी गुरु अर्जुन जी की रचनाएँ तो सामयिक हिन्दी भाषा का ही उदाहरण हैं। नौवीं गद्दी के अधिकारी गुरु तेगबहादुर के भजन तो बिलकुल हिन्दी भाषा में ही लिखे गये हैं। उनके पुत्र दसवीं गद्दी के अधिकारी गुरु गोविन्दसिंह ने हिन्दी भाषा में एक विशाल ग्रन्थ ही लिख डाला जो आदिग्रन्थ साहब के ही बराबर है और दशम ग्रन्थ कहलाता है। यथा स्थान इस विषय का वर्णन विशेषरूप से आपको आगे मिलेगा। इस समय मैं कुछ पद्य दूसरी गद्दी से लेकर पाँचवीं गद्दी और नौवीं गद्दी के अधिकारियों के नीचे लिखता हूँ। आप देखें उनमें किस प्रकार उत्तारोत्तार हिन्दी भाषा को अधिक स्थान मिलता गया है।
जासुख तासहु रागियो दुख भी संभालै ओइ।
नानक कहै सियाणिये यों कन्त मिलावा होइड्ड
– गुरु अंगद
तू आपे आप सभु करता कोई दूजाहोयसु औरो कहिये।
हरि आपे बोले आपि बुलावे हरि।
आपे जलि थलि रवि रहिये।
हरि आपे मारे हरि आपे छोडे मनहरि सरणी पड़ि रहिये।
हरि बिनु कोई मारि जीवालि न सक्कै
मन है निचिंद निस्चलु होइ रहिये।
उठंदिया बहंदिया सुतिया सदा हरि नाम धयाइये।
जन नानक गुरु मुख हरि लहिये।
– गुरु अमरदास
हौं क्या सालाहीकिरम जन्तु बव्ी तेरी बडियाई।
तू अगम दयालु अगम्मु है आपि लेहि मिलाई।
मैं तुझ बिन बेला को नहीं , तू अंति सखाई।
जो तेरी सरणागति तिन लेहि छुड़ाई।
नानक बे परवाहु है किसु तिल न तमाई।
संगति संत मिलाये। हरि सरि निरमलि नाये।
निरमलि जलि नाये मैलु गँवाये भये पवित्रा सरीरा।
दुर मति मैल गई भ्रम भागा हौं मैं विनठी पीरा।
नदरि प्रभू सत संगति पाई निज घर होआ बासा।
हरि मंगल रसि रसन रसाये नानक नाम प्रगासा।
– गुरु रामदास जी
गावहु राम के गुण गीत।
नाम जपत परम सुख पाइये आवागवणु मिटै मेरे मीत।
गुण गावत होवत परगास , चरण कमल महँ होय निवास।
सत संगति महँ होइ उधार , नानक भव जल उतरसि पार।
– गुरु अर्जुन जी
प्रानी नारायन सुधि लेह।
छिनु छिनु औधि घटै निसि बासरु वृथा जात है देह।
तरुनापो बिखियन स्यों खोयो बालापन अज्ञाना।
बिरधा भयो अजहूँ नहिं समझै कौन कुमति उरझाना।
मानुस जन्म दियो जेहिं ठाकुर सो तैं क्यों बिसरायो।
मुकति होति नर जाके सुमरे निमख न ताको गायो।
माया को मदु कहा करतु है संग न काहू जाई।
नानक कहत चेतु चिन्तामणि होइ है अन्त सहाई।
– गुरु तेग बहादुर