1. व्याधाहूँ ते बिहद असाधु हौं अजामिल लौं
ग्राह ते गुनाही कहो तिन मैं गिनाओगे।
स्योरी हो नसूद हौं न केवट कहूँ को
त्यों न गौतमी तिया हौं जापै पग धारि आओगे।
राम सों कहत पदमाकर पुकारि
तुम मेरे महापापन को पारहूँ न पाओगे।
झूठो ही कलंक सुनि सीता ऐसी सती तजी
साँचों ही कलंकी ताहि कैसे अपनाओगे।
2. जैसो तैं न मोसों कहूँ नेकहूँ डरात हुतो
तैसो अब हौहूँ नेक हूँ न तोसों डरिहौं।
कहै पदमाकर प्रचंड जो परैगो
तो उमंड करि तोसों भुजदंड ठोंकि लरिहौं।
चलो चलु चलो चलु बिचलु न बीच ही ते
कीच बीच नीच तौ कुटुंब कौ कचरिहौं।
ऐ रे दगादार मेरे पातक अपार तोहि
गंगा की कछार में पछारि छार करिहौं।
3. हानि अरु लाभ जानि जीवन अजीवन हूँ
भोगहूँ वियोगहूँ सँयोगहूँ अपार है।
कहै पदमाकर इते पै और केते कहौं
तिनको लख्यो न वेदहूँ मैं निरधार है।
जानियत याते रघुराय की कला कौ कहूँ
काहू पार पायो कोऊ पावत न पार है।
कौन दिन कौन छिन कौन घरी कौन ठौर
कौन जानै कौन को कहा धौं होनहार है।
4. सोरह सिंगार कै नवेली के सहेलिन हूँ
कीन्हीं केलि मन्दिर मैं कलपित केरे हैं।
कहै पदमाकर सु पास ही गुलाब पास
खासे खस खास खुसबोइन के ढेरे हैं।
त्यों गुलाब नीरन सों हीरन को हौज भरे
दम्पती मिलाय हित आरती उंजेरे हैं।
चोखी चाँदनीन पर चौरस चमेलिन के
चन्दन की चौकी चारु चाँदी के चँगेरे हैं।
5. चहचही चहल चहूँघा चारु चन्दन की
चन्द्रक चुनिन चौक चौकन चढ़ी है आब।
कहै पदमाकर फराकत फरसबंद
फहरि फुहारनि की फरस फबी है फाब।
मोद मदमाती मनमोहन मिलै के काज
साजि मन मन्दिर मनोज कैसी महताब।
गोलगुलगादी गुल गोल में गुलाब गुल
गजक गुलाबी गुल गिंदुक गले गुलाब।
6. कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में
क्यारिन में कलिन कलीन किलकंत है।
कहै पदमाकर परागन में पौन हूँ मैं
पानन में पीक में पलासन पगंत है।
द्वार में दिसान में दूनी मैं देस देसन मैं
देखौ दीप दीपन मैं दीपति दिगन्त है।
बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में
बनन में बागन मैं बगरयो बसन्त है।
7. पात बिन कीन्हें ऐसी भाँति गन बेलिन के
परत न चीन्हें जे ये लरजत लुंज हैं।
कहै पदमाकर बिसासी या बसन्त के सु
ऐसे उतपात गात गोपिन के भुंज हैं।
ऊधो यह सूधो सो सँदेसो कहि दीजो भलो
हरि सों हमारे ह्याँ न फूले बन कुंज हैं।
किंसुक गुलाब कचनार औ अनारन की
डारन पै डोलत ऍंगारन के पुंज हैं।
8. संपति सुमेर की कुबेर की जो पावै ताहि
तुरत लुटावत बिलम्ब उर धारै ना।
कहै पदमाकर सुहेम हय हाथिन के
हलके हजारन के बितर बिचारै ना।
दीन्हें गज बकस महीप रघुनाथ राय
याहि गज धोखे कहूँ काहू देइ डारै ना।
याहि डर गिरिजा गजानन को गोय रही
गिरि ते गरे ते निज गोद ते उतारै ना।
9. झाँकति है का झरोखा लगी
लगि लागिबे को इहाँ फेल नहीं फिर।
त्यों पदमाकर तीखे कटाछनि की
सर कौ सर सेल नहीं फिर।
नैनन ही की घलाघल के घन
घावन को कछु तेल नहीं फिर।
प्रीति पयोनिधि मैं धाँसि कै हँसि कै
कढ़िबो हँसी खेल नहीं फिर।
10. ए ब्रजचन्द चलौ किन वा ब्रज
लूकैं बसन्त की ऊकन लागीं।
त्यों पदमाकर पेखौ पलासन
पावक सी मनो फूँकन लागीं।
वै ब्रजनारी बिचारी बधूबन
बावरी लौं हिये हूकन लागीं।
कारी कुरूप कसाइनैं ये सु कुहू
कुहू कैलिया कूकन लागीं।
ग्वाल कवि मथुरा के रहने वाले ब्रह्मभट्ट थे। जगदम्बा का उनको इष्ट था। वे प्रतिभावान कवि माने जाते हैं। कहा जाता है किसी सिध्द तपस्वी की कृपा से यह प्रतिभा उनको प्राप्त हुई थी। उनके बनाये ग्रन्थों की संख्या साठ से ऊपर है, जिनमें अधिकतर ‘गोपी-पचीसी’, ‘रामाष्टक’, ‘कृष्णाष्टक’ और गणेशाष्टक आदि के समान छोटे-छोटे ग्रन्थ हैं। उनके ‘साहित्यानंद’, ‘साहित्य-दर्पण’, ‘साहित्य-दूषण’ इत्यादि पाँच-चार बड़े ग्रन्थ हैं। इनमें साहित्य के समस्त अंगों का विशेष वर्णन है। ये राज-दरबारों मंम घूमा करते थे। महाराज रणजीत सिंह से भी मिले थे। उन्होंने इन्हें कुछ पुरस्कार भी दिया था। देशाटन अधिक करने के कारण उनको अनेक भाषाओं का ज्ञान था, उनमें उन्होंने कविता भी की है। वे ब्रज-निवासी थे और ब्रजभाषा पर उनको अधिकार भी था। परंतु स्वतंत्रा प्रकृति के थे, इसलिए उनकी रचना में ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का मिश्रण भी है। उनकी कविता में जैसी चाहिए वैसी भावुकता भी नहीं। आन्तरिक प्रेरणाओं से लिखी गयी कविताओं में जो बल होता है, उनकी रचनाओं में वह कम पाया जाता है। उन्होंने बहुत अधिक रचनाएँ की हैं, इसलिए सबमें कविकर्म्म का उचित निर्वाह नहीं हो सका, उनकी कविता में प्रवाह पाया जाता है, परन्तु यथेष्ट नहीं। उर्दू और फारसी शब्दों का प्रयोग उनकी कविता में प्राय: देखा जाता है। ज्ञात होता है कि उन पर उर्दू शायरी का भी कुछ प्रभाव था। उनके कुछ पद्य देखिए-
1. मोरन के सोरन की नेकौ ना मरोर रही
घोर हूँ रही न घन घने या फरद की।
अंबर अमल सर सरिता बिमल भल
पंक को न अंक औ न उड़नि गरद की।
ग्वाल कवि चित में चकोरन के चैन भये।
पंथिन की दूरि भई दूखन दरद की।
जल पर थल पर महल अचल पर
चाँदी सी चमकि रही चाँदनी सरद की।
2. ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम
गरमी झुकी है जाम नाम अति पापिनी।
भींजे खस बीजन झले हूँ ना सुखात स्वेद
गात ना सुहात बात दावा सी डरापिनी।
ग्वाल कवि कहै कोरे कुंभन ते कूपन ते
लै लै जलधार बार बार मुख थापिनी।
जब पियो तब पियो अब पियो फेर अब
पीवत हूँ पीवत मिटै न प्यास पापिनी।
3. जेठ को न त्रास जाके पास ये बिलास होंय ,
खस के मवास पै गुलाब उछरयो करै।
बिही के मुरब्बे डब्बे चाँदी के बरक भरे ,
पेठे पाग केवरे मैं बरफ परयो करै।
ग्वाल कवि चंदन चहल में कपूर चूर ,
चंदन अतर तर बसन खरयो करै।
कंज मुखी कंज नैनी कंज के बिछौनन पै ,
कंजन की पंखी कर कंज ते करयो करै।
4. गीधो गीधो तार कै सुतारि कै उतारि कै जू
धारि कै हिये में निज बात जटि जायगी।
तारि कै अवधि करी अवधि सुतारिबे की
बिपति बिदारिबे की फाँस कटि जायगी।
ग्वाल कवि सहज न तारिबो हमारो गिनो
कठिन परैगी पाप-पांति पटि जायगी।
यातें जो न तारिहौ तुम्हारी सौंह रघुनाथ
अधाम उधारिबे की साख घटि जायगी।
5. जाकी खूब खूबी खूब खूबन कै खूबी यहाँ
ताकी खूब खूबी खूब खूबी नभ गाहना।
जाकी बद जाती बद जाती इहाँ चारन में
ताकी बदजाती बद जाती ह्नाँ उराहना।
ग्वाल कवि येही परसिध्द सिध्द ते हैं जग
वही परसिध्द ताकि इहाँ ह्नाँ सराहना।
जाकी इहाँ चाहना है ताकि वहाँ चाहना है
जाकी इहाँ चाह ना है ताकी उहाँ चाह ना।
6. चाहिए जरूर इनसानियत मानस को
नौबत बजे पै फेर भेर बजनो कहा।
जाति औ अजाति कहा हिंदू औ मुसलमान
जाते कियो नेह ताते फेर भजनी कहा।
ग्वाल कवि जाके लिये सीस पै बुराई लई
लाजहूँ गँवाई ताते फेर लजनो कहा।
या तो रंग काहू के न रंगिये सुजान प्यारे।
रँगे तो रँगेई रहे फेर तजनो कहा।
7. दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि
खाओ पियो देव लेव यही रह जाना है।
राजा राव उमराव केते बादसाह भये
कहाँ ते कहाँ को गये लाग्यो ना ठिकाना है।
ऐसी जिंदगानी के भरोसे पै गुमान ऐसे
देस देस घूमि घूमि मन बहलाना है।
परवाना आये पर चले ना बहाना
इहाँ नेकी कर जाना फेर आना है न जाना है।
उनकी अन्य भाषाओं की भी रचनाएँ हैं। पर मैं अब उनको उठाना नहीं चाहता। एक-एक पद उन भाषाओं का देख लीजिए-
पूरबी भाषा- मोर परवा सिर ऊपर सोहै।
अधार बँसुरिया राजत बाय।
गुजराती भाषा- तुम तौ कहो छो
छैया मोटो ऊधामी छै।
म्हारी मटकी मठानी ढुलकावा नो निदान छै।
पंजाबी भाषा- साड़ी खुशी एहौ आप
आरांदी खुशी दे बिच।
जेही चाहो तेही करो नेही कानूं नस्स दै।
गोकुलनाथ महाराज काशिराज के दरबार के प्रसिध्द कवि थे। वे कविवर रघुनाथ के पुत्र थे, इनका भाषा-साहित्य का ज्ञान उच्च कोटि का माना जाता है। इन्होंने साहित्य के सब अंगों पर रचनाएँ की हैं, रीति-सम्बन्धी सुन्दर ग्रन्थ भी बनाये हैं।’कवि मुखमंडन, राधाकृष्ण विलास और ‘चेत चन्द्रिका’ इनके प्रसिध्द ग्रन्थ हैं। इन्होंने अधयात्म रामायण का अनुवाद भी किया है। सीताराम गुणार्णव उसका नाम है। यह इनका प्रबन्धा ग्रन्थ है। इन्होंने एक बहुत बड़ा कार्य अपने पुत्र गोपीनाथ और शिष्य मणिदेव की सहायता से किया। वह है समस्त महाभारत और हरिवंश पर्ब का ब्रजभाषा में सरस अनुवाद। यह अनुवाद काशी के महाराज उदितनारायण सिंह की बहुत बड़ी उदारता का फल है। यह कार्य लगभग पचास वर्ष में हुआ और इसमें उन्होंने लाखों रुपये व्यय किये। यह मुझे ज्ञात है कि महाराज रणजीत सिंह ने भी समस्त महाभारत का अनुवाद सुन्दर ब्रजभाषा में किसी कवि से कराया था। उन्होंने भी यह कार्य बहुत व्यय स्वीकार करके किया था। मैंने इस ग्रन्थ को पढ़ा और देखा भी है। निज़ामाबाद निवासी स्व. बाबा सुमेर सिंह के पास इसकी एक हस्तलिखित प्रति मौजूद थी। परन्तु अब वह अप्राप्य है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, यह ग्रन्थ मुद्रित भी नहीं हुआ परन्तु काशिराज के अनुवाद के तीन संस्करण हो चुके हैं। इस ग्रन्थ की सुन्दर और मधुर रचना की बहुत अधिक प्रशंसा है। गोकुलनाथ ने ऐसे विशाल ग्रन्थ का अनुवाद अशिथिल और भावमयी भाषा में करके बहुत बड़ा गौरव प्राप्त किया है। इतना बड़ा प्रबन्धा काव्य अब तक हिन्दी के किसी कवि अथवा महाकवि द्वारा नहीं लिखा जा सका। सच बात तो यह है कि अकेले एक बहुत बड़ा प्रतिभाशाली कवि भी इस कार्य को नहीं कर सकता था। गोपीनाथ और मणिदेव भी गण्य कवियों में है। उनकी पूर्ण सहायता से ही गोकुलनाथ को इतनी बड़ी कीर्ति प्राप्त हो सकी। इसलिए वे भी कम प्रशंसनीय नहीं। इस अनुवाद की एक विशेषता यह है कि यदि यह न बताया जाय कि तीनों कवियों में से किस कवि ने किस पर्व का अनुवाद किया है तो ग्रन्थ की भाषा के द्वारा यह ज्ञात नहीं हो सकता है कि उसमें तीन कवियों की रचनाएँ हैं। वास्तव बात यह है कि तीनों ने इतनी योग्यता और विलक्षणता के साथ अनुवाद कार्य किया है कि भाषा में विभिन्नता आयी ही नहीं। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, उसमें उर्दू, परसी अथवा अन्य भाषा के शब्द यत्रा-तत्रा आये हैं, परन्तु उसके अंगभूत बनकर, इस प्रकार नहीं कि जिससे भाषा की शैली में कोई व्याघात अथवा विषमता उत्पन्न हो। इन तीनों सुकवियों की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं-
1. सखिन केति मैं उकुति कल कोकिल की
गुरुजन हूँ के पुनि लाज के कथन की।
गोकुल अरुन चरनांबुज पै गुंज पुंज
धुनि सी चढ़ति चंचरीक चरचान की।
पीतम के वन समीप ही जुगुति होति
मैन मंत्रा तंत्रा के बरन गुनगान की।
सौतिन के कानन मैं हालाहल ह्नै हलति
ऐरी सुखदानि तौन बजनि बिछुवान की।
2. पेंच खुले पगरी के उड़ैं फिरै
कुंडल की प्रतिमा मुख दौरी।
तैसिये लोल लसैं जुलफैं रहैं
एहो न मानति धावति धाौरी।
गोकुलनाथ किये गति आतुर
चातुर की छबि देखत बौरी।
ग्वालिन ते कढ़ि जात चल्यो
फहरात कँधा पर पीत पिछौरी।
– गोकुलनाथ
3. बिहँग अगनित भाँति के तहँ रमत बोलत बैन।
मृगा आवत तासु तर ते लहत अतिसय चैन।
पलित नामक मूष शतमुख विवर करि तर तासु।
भयो निवसत अति विचच्छन चपल लच्छन जासु।
– गोपीनाथ
4. काक के ये बचन सुनि कै कह्यो हंस सुजान।
एक गति सब बिहग की तुम काक शतगतिवान।
एक गति सों उड़ब हम तुम यथा रुचित सुबंस।
बाँधि यहि बिधि बहस लागे उड़न वायस हंस।
– मणिदेव
भाषा के विषय में इतना और कहना आवश्यक होता है कि अनुवादकों की प्रवृत्तिा कहीं-कहीं संस्कृत के शब्दों को तत्सम रूप में रखने ही की है। इसलिए ब्रजभाषा के नियमानुसार शकार को सकार न करके प्राय: शकार ही रहने दिया गया है। इसी प्रकार अनुप्रास आदि के आधार से अधिक ललित बनाने की चेष्टा न कर सरलता ही पर विशेष दृष्टि रखी गयी है।
राय रणधीर सिंह जिला जौनपुर, सिंगरामऊ के निवासी थे। आप वहाँ के एक प्रतिष्ठित जमींदार थे। आपके यहाँ पण्डितों,विद्वानों एवं कवियों का बड़ा आदर था। कविता में उनकी इतनी रुचि थी कि वह उनका एक व्यसन हो गया था, उन्होंने पाँच ग्रन्थों की रचना की थी। उनमें से ‘नामार्णव’ पिंगल का, ‘काव्यरत्नाकर’ नायिका भेद और अलंकार का और ‘भूषण-कौमुदी’,साहित्य-सम्बन्धी ग्रन्थ है। ये एक सरस हृदय कवि थे। उनका एक पद्य देखिए-
मंजुल सुरंगवर सोभित अंचित चारु
फल मकरंद कर मोदित करन हैं।
प्रमित विराग ज्ञान सर के सरस देस
विरद असेस जसु पांसु प्रसरन हैं।
सेवित नृदेव मुनि मधुप समाज ही के
रनधीर ख्यात द्रुत दच्छिन भरन हैं।
ईस हृदि मानस प्रकासित सहाई लसैं
अमल सरोज वर स्यामा के चरन हैं।
लछिराम ब्रह्मभट्ट थे और अमोड़ा, जिला बस्ती उनका जन्म-स्थान था। उन्होंने महाराज मानसिंह अवधा-नरेश के दरबार में रहकर साहित्य का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। उन्हीं से उन्होंने कविराज की पदवी भी प्राप्त की थी। वे उनके दरबार की शोभा तो थे ही, उनकी कृपा के कारण अवधा प्रान्त के अनेक राजाओं के यहाँ भी सम्मानित थे। उन्होंने अलंकार के कई ग्रन्थ लिखे हैं, जो उस राजा के नाम से ही प्रख्यात हैं जिसकी कीर्ति के लिए उनकी रचना हुई है-जैसे ‘प्रताप रत्नाकर’, ‘लक्ष्मीश्वर रत्नाकर’, ‘रावणेश्वर-कल्पतरु’, ‘महेश्वर-विलास’ आदि। इन्होंने नायिकाभेद, अलंकार और अन्य कुछ विषयों पर भी ग्रन्थ लिखे हैं और इस प्रकार इनके ग्रंथों की संख्या दस-पन्द्रह है। कविता-शक्ति इनमंक अच्छी थी, इनकी रचना भी सरस होती थी। परंतु अधिकतर इनकी कृति में अनुकरण मात्रा है। मौलिकता खोजने पर भी नहीं मिलती। इनकी भाषा ब्रजभाषा है और उसमें साहित्यिक गुण भी हैं। कोमल और सरस शब्द-विन्यास करने में भी वे दक्ष थे। कुछ पद्य देखिए-
1. भरम गँवावै झरबेरी संग नीचन ते
कंटकित बेल केतकीन पै गिरत है।
परिहरि मालती सुमाधावी सभासदनि
अधाम अरूसन के अंग अभिरत है।
लछिराम सोभा सरवर में बिलास हेरि
मूरख मलिंद मन पल ना थिरत है।
रामचन्द्र चारु चरनांबुज बिसारि देस
बन बन बेलिन बबूर मैं फिरत है।
2. भानु-बंस-भूषन महीष रामचन्द्र बीर
रावरो सुजस फैल्यो आगर उमंग मैं।
कवि लछिराम अभिराम दूनो सेस हूँ सों
चौगुनो चमकदार हिमगिरि गंग मैं।
जाको भट घेरे तासों अधिक परे हैं और
पच गुनो हीरा हार चमक प्रसंग मैं।
चंद मिलि नौगुनो नछत्रान सों सौगुनो ह्नै
सहस गुनो भो छीर-सागर तरंग मैं।
3. सजल रहत आप औरन को देत ताप
बदलत रूप और बसन बरेजे मैं।
तापर मयूरन के झुंड मतवाले साले
मदन मरोरैं महा झरनि मरेजे मैं।
कवि लछिराम रंग साँवरो सनेही पाय
अरज न मानै हिय हरष हरेजे मैं।
गरजि गरजि बिरहीन के बिदारैं उर
दरद न आवै धारे दामिनी करेजे मैं।
गोविन्द गिल्ला भाई चौहान राजपूत थे। उनकी शिक्षा तो साधारण थी, किन्तु उन्होंने परिश्रम करके हिन्दी साहित्य में अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने तीस से अधिक ग्रन्थों की रचना की है। जिनमें ‘साहित्य-चिन्तामण्0श्निा’, ‘शृंगार-सरोजिनी’, ‘गोविन्द-हजारा’ और ‘विवेक-विलास’ आदि बड़े ग्रन्थ हैं। इनमें ‘शृंगार-सरोजिनी’ और ‘साहित्य चिन्तामणि’ रीति ग्रंथ हैं। ये काठियावाड़ (गुजरात) के रहने वाले थे। फिर भी उन्होंने ब्रजभाषा में रचना की है। भाषा टकसाली तो नहीं कही जा सकती। परन्तु यह अवश्य स्वीकार करना पड़ता है कि उस पर उनका अच्छा अधिकार था। उनकी रचना में सहृदयता है और कोमलता भी। परन्तु जैसी चाहिए वैसी भावुकता उसमें नहीं मिलती। कुछ पद्य देखिए-
1. संपति करन और दारिद दरन सदा
कष्ट के हरन भव तारन तरन हैं।
भौन के भरन चारों फल के फरन
महाताप के हरन असरन के सरन हैं।
भक्त उध्दरन और बिघन हरन सदा
जनम मरन महादुख के दरन हैं।
गोबिंद कहत ऐसे बारिज बरन बर
मोद के करन मेरे प्रभु के चरन हैं।
2. दाहिबो सरीर अरु लहिबो परमपद
चाहिबो छनिक माहिं सिंधुपार पाइबो।
गहिबो गगनअरु बहिबो बयारि संग
रहिबो रिपुन संग त्रास नहिं लाइबो।
सहिबो चपेट सिंह लहिबो भुजंग मनि
कहिबो कथन अरु चातुर रिझाइबो।
गोबिंद कहत सोई सुगम सकल
पर कठिन कराल एक नेह को निभाइबो।
प्रताप साहि बंदीजन थे और चरखारी के महाराज विक्रमशाह के दरबारी कवि थे। इन्होंने आठ-दस ग्रन्थों की रचना की है,जिनमें से अधिकतर साहित्य सम्बन्धी हैं। व्यंग्यार्थ कौमुदी नामक एक धवनि-सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखा हुआ है जो अधिक प्रशंसनीय है। कहा जाता है कि रीति ग्रन्थों के अन्तिम आचार्य ये ही हैं। साहित्य में इनका ज्ञान विस्तृत था। इसलिए हिन्दी में साहित्य-विषयक जो न्यूनताएँ थीं, उनको उन्होंने पूरी करने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त की। इनकी भाषा सरस ब्रजभाषा है। साथ ही वह बड़ी भावमई है। कोमल और मधुर शब्द विन्यास पर भी उनका अच्छा अधिकार देखा जाता है। कुछ रचनाएँ देखिए-
1. सीख सिखाई न मानति है बरही बससंग सखीन के आवै।
खेलत खेल नये जग में बिन काम था कत जाम बितावै।
छोड़ि कै साथ सहेलिन को रहि कै कहि कौन सवादहिं पावै।
कौन परी यह बानि अरी नित नीर भरी गगरी ढरकावै।
2. चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुन्दर पीजियो।
कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो।
चीज चबाइनि के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।
मंजुल मंजरी पै हो मलिंद बिचारि कै भारसँभारि कै दीजियो।
3. तड़पै तड़िता चहुँ ओरन ते छिति छाई समीरन की लहरैं।
मदमाते महा गिरि सृंगन पैगन मंजु मयूरन के कहरैं।
इनकी करनी बरनी न परै मगरूर गुमानन सों गहरैं।
घन ये नभ मंडल में छहरैं हरैं कहुँ जाय कहूँ ठहरैं।
4. चंचला चपल चारु चमकत चारों ओर
झूमि झूमि धुरवा धारनि परसत है।
सीतल समीर लगै दुखद बियोगिन
सँयोगिन समाज सुख साज सरसत है।
कहै परताप अति निबिड़ ऍंधोरी माँहि
मारग चलत नाहिं नेकु दरसत है।
झुमड़ि झलानि चहुँ कोद ते उमड़ि आज
धाराधार धारन अपार बरसत है।
5. महाराज रामराज रावरो सजत दल
होत मुख अमल अनंदित महेस के।
सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं
पन्नगपताल त्योंही डरन खगेस के।
कहै परताप धारा धाँसत चसत कसमसत
कमठ पीठि कठिन कलेस के।
कहरत कोल हहरत हैं दिगीस दस
लहरत सिंधु थहरत फन सेस के।
इस शताब्दी के प्रबन्धाकारों में महाराज रघुराज सिंह का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। गोकुलनाथ की चर्चा पहले मैं कर चुका हूँ। वे भी बहुत बड़े प्रबन्धाकार इस शताब्दी के हैं। परन्तु उनकी कृति में दो और कवियों का हाथ है। वे प्रसिध्द रीति ग्रन्थकार भी हैं। इसलिए मैंने उनकी चर्चा रीति ग्रंथकारों में की है। महाराज रघुराजसिंह की जितनी रचनाएँ हैं, सब उन्हीं की कृतियाँ हैं और उनमें प्रबन्धा ग्रन्थों की संख्या अधिक है। इसलिए मैं उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधाकार उन्हीं को मानता हूँ। रीवाँ राज्य वंश वैष्णव है। उसकी धर्मपरायणता प्रसिध्द है। महाराज रघुराजसिंह के पितामह जैसिंह बड़े भक्त और सच्चे वैष्णव थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र विश्वनाथ सिंह को अपना राज्य भार सौंप दिया था। भगवत्-भजन में ही वे रत रहते थे और भक्ति-सुख को राज्य-सुख से उच्च मानते थे। वे बड़े सहृदय कवि भी थे, लगभग अठारह ग्रन्थों की उन्होंने रचना की थी। उनमें से हरिचरित चन्द्रिका, हरेचरितामृत, कृष्ण-तरंगिणी आदि अधिक प्रसिध्द हैं। ‘निर्णय-सिध्दान्त’और ‘वेदान्त प्रकाश’ भी उनके सुन्दर ग्रन्थ हैं। उनकी रचना बड़ी ललित होती थी और कोमल एवं सरस पद-विन्यास उनकी रचना का प्रधान गुण था। उन्होंने अधिकतर प्रबन्धा ग्रन्थ ही लिखे और वह आदर्श उपस्थित किया, जिसका अनुकरण बाद को उनके पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह और पौत्र महाराज रघुराज सिंह ने बड़ी श्रध्दा के साथ किया। उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। परन्तु उसमें अवधी के शब्द भी प्राय: आते रहते हैं। इनकी अधिकांश रचनाएँ दोहा और चौपाइयों में हैं। उनके कुछ पद्य देखिए-
1. परसि कमल कुवलय बहत , वायु ताप नसि जाइ।
सुनत बात हरि गुननयुत , जिमि जन पाप पराइ।
2. वन वाटिका उपवन मनोहर फूल फल तरु मूल से।
सर सरित कमल कलाप कुवलय कुमुद बन बिकसे लसे।
सुख लहत यों फल चखत मनुपीयत मधुप सों नीति सों।
मन मगन ब्रह्मानंद रस जोगीस मुनिगन प्रीति सों।
3. कूजि रहे खग कुल मधुप , गूँजि रहे चहुँ ओर।
तेहि बन लै गोगन सकल प्रविसे नंद किसोर।
उनके पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह ने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उन्होंने कबीर के बीजक और विनय पत्रिका की भी सुन्दर टीकाएँ लिखी हैं। ‘आनन्द रघुनन्दन’ नामक एक नाटक भी बनाया है। छोटे-मोटे कई प्रबन्धा ग्रन्थ भी लिखे हैं। अपने पिता के समान इन्होंने भी अनेक धार्मिक ग्रन्थों की रचना की है। इन्होंने संस्कृत में भी ग्रन्थ लिखे हैं उनमें से’राधावल्लभी भाष्य’, ‘सर्वसिध्दान्त’ आदि अधिक प्रसिध्द हैं। इन्होंने भी कविता रचने में पिता का ही अनुकरण किया है। परन्तु इनकी भाषा उतनी ललित नहीं है। संयुक्त वर्ण भी इनकी रचना में अधिक आये हैं। फिर भी इनकी अधिकतर कविताएँ मनोहर हैं। एक पद्य देखिए-
1. बाजी गज सोर रथ सुतुर कतार जेते ,
प्यादे ऐंडवारे जे सबीह सरदार के।
कुँवर छबीले जे रसीले राजबंस वारे ,
सूर अनियारे अति प्यारे सरकार के।
केते जातिवारे केते केते देसवारे जीव ,
स्वान सिंह आदि सैल वारे जे सिकार के।
डंका की धुकार ह्नै सवार सबै एकै बार
राजैं वार पार बीर कोसल कुमार के।
महाराज रघुराजसिंह में पिता से पितामह का गुण अधिक है। इनकी कितनी ही रचनाएँ बड़ी सरस हैं। इन्होंने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिसमें ‘आनन्दांबुनिधि’ जैसे विशाल ग्रन्थ भी हैं। वंश-परम्परा से यह राज्य कवियों का कल्पतरु रहा है। महाराज रघुराज सिंह के आश्रय में भी अनेक कवि थे, जो उनके लिए कल्पतरु के समान ही कामद थे। आनन्दांबुनिधि श्रीमद्भागवत का अनुवाद है। मैंने बाल्यावस्था में इस ग्रन्थ का कई पारायण किया है। इस ग्रन्थ की भाषा चलती और सुन्दर है। इनका भक्ति भाव अपने पिता पितामह के समान ही मधुर और स्निग्धा था। उसी की स्निग्धाता और माधुरी इनकी रचनाओं में पाई जाती है। इन्होंने भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही लिखी है, जिसमें यत्रा-तत्रा अवधी का पुट भी पाया जाता है। उनके ग्रन्थों की संख्या जब देखी जाती है और कई विशाल ग्रंथों की विशालता पर जब धयान दिया जाता है तो बड़ा आश्चर्य होता है। राज्य कार्य का संचालन करते हुए जो इनकी लेखनी धारावाहिक रूप से सदा चलती ही रही, यह कम चकितकर नहीं। उनके ‘राम-स्वयंवर’, ‘रुक्मिणी परिणय’ आदि ग्रंथ भी सुन्दर सरस और मनोहर हैं। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-
1. कल किसलय कोमल कमल पद-तल सरि नहिं पाय।
एक सोचत पियरात नित एक सकुचत झरि जाय।
2. विलसत जदुपति नखनि मैं अनुपम दुति दरसाति।
उडुपति जुत उडु अवलि लखि सकुचि सकुचि दुरिजाति।
3. सविता दुहिता स्यामता सुरसरिता नख जोत।
सुतल अरुनता भारती चरन त्रिबेनी होत।
4. गुलुफ कुलुफ खोलनि हृदै हो तौ उपमा तूल।
ज्यों इंदीवर तट असित द्वैगुलाब के फूल।
5. चारु चरन की ऑंगुरी मोपै बरनि न जाय।
कमल कोस की पाँखुरी पेखत जिनहिं लजाय।
6. जदुपति नैन समान हित बिधि ह्नै बिरचै मैन।
मीन कंज खंजन मृगहुँ समता तऊ लहै न।
7. सखि लखन चलो नृप कुँवर भलो।
मिथिला पति सदन सिया बनरो।
सिरमौर बसन तन में पियरो।
हठहेरि हरत हमरो हियरो।
8. उर सोहत मोतिन को गजरो
रतनारी ऍंखियन में कजरो।
चितये चित चोरत सखि समरो
चितये बिन जिय न जिये हमरो।
9. अलकैं अलि अजब लसैं चेहरो।
झपि झूलि रह्यो कटि लौं सेहरो।
चित चहत अरी लगि जाउँ गरे।
रघुराज त्यागि जग को झगरो।
10. माधुरी माधाव की वह मूरति देखत ही दृग देखे बनैरी।
तीन हूँ लोक की जो रुचिराई सुहाई अहै तिनही ते घनैरी
सोभा सचीपति और रति के पति की कछु आयी न मेरेमनैरी
हेरि मैं हारयो हिये उपमा छबि हूँ छबि पायी विराजित नैरी।
महाराज रघुराजसिंह के वाच्यार्थ में कहीं-कहीं अस्पष्टता है, कहीं-कहीं शब्दों का समुचित प्रयोग भी नहीं है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि साहित्य के अधिकतर उत्ताम गुण उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। उनकी रचनाएँ भगवती वीणापाणि के चरणों में अर्पित सुन्दर सुमन मालाओं के समान हैं।
इन भक्त महाराजाओं के साथ हम एक और सहृदय भक्त की चर्चा करना चाहते हैं। वे हैं दीनदयाल गिरि। इनकी गणना दस नामी संन्यासियों में है। कोई इन्हें ब्राह्मण संतान कहता है और कोई क्षत्रिय-संतान। वे जो हों परंतु त्यागी पुरुष थे। हृदय भी उदार था और भावुकता उसमें भरी थी। इनके बनाये पाँच ग्रन्थ हैं। उनके नाम हैं-अनुराग बाग, दृष्टान्त तरंगिणी, अन्योक्ति माला, वैराग्यदिनेश और अन्योक्ति कल्पद्रुम। इन ग्रन्थों का विषय इनके नामानुकूल है। ये थे शैव किंतु हृदय उदार था,इसलिए इनकी रचना में वह कटुता नहीं आयी है, जिसकी जननी साम्प्रदायिकता है। वह बड़ी ही सरस और मधुर है साथ ही बड़ी उपयोगिनी। इन्होंने संन्यासी का कार्य ही अधिकतर किया है। समाज को सत् शिक्षा देने में ही वे आजन्म प्रवृत्ता रहे। इनकी भाषा टकसाली ब्रजभाषा है, वे संस्कृत के विद्वान् होकर भी अपनी रचना में संस्कृत के शब्दों का अधिक व्यवहार नहीं करते थे। इनकी रचना में प्रवाह है और उसमें एक बड़ी ही मनोहर गति पायी जाती है। अन्य भाषा या उर्दू के शब्द भी कहीं-कहीं इनके पद्यों में आ जाते हैं परंतु वे नियमित होते हैं। उनकी व्यंजनाएँ मधुर हैं और भाव स्पष्ट। कहीं-कहीं उत्तामोत्ताम धवनियाँ भी उनमें मिल जाती हैं। अन्योक्ति की रचनाएँ जितनी सुन्दर और सरस इन्होंने कीं उसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। इनके कुछ पद्य देखिए-
1. छाडयो गृहकाज कुललाज को समाज सबै
एक व्रजराज सो कियो री प्रीतिपन है।
रहत सदाई सुखदाई पद पंकज में
चंचरीक नाईं भईं छाँड़ैं नाहिं छन है।
रति-पति मूरति बिमोहन को नेमधारि
विषै प्रेमरंग भरि मति को सदन है।
कँवर कन्हाई की लुनाई लखि माई मेरो
चेरो भयो चित औ चितेरो भयो मन है।
2. कोमल मनोहर मधुर सुरताल सने
नूपुर निनादनि सों कौन दिन बोलि हैं।
नीके मम ही के बुंद वृंदन सुमोतिन को
गहि कै कृपा की अब चोंचन सों तोलि हैं।
नेम धारि छेम सों प्रमुद होय दीन द्याल
प्रेम कोक नद बीच कब धौं कलोलि हैं।
चरन तिहारे जदुवंस राजहंस कब
मेरे मन मानस मैं मंद-मंद डोलि हैं।
3. पराधीनता दुख महा सुखी जगत स्वाधीन।
सुखी रमत सुक बनविषै कनक पींजरे दीन।
4. केहरि को अभिषेक कब कीन्हों विप्र समाज।
निज भुजबल के तेज ते विपिन भयो मृगराज।
5. नाहीं भूलि गुलाब तू गुनि मधुकर गुंजार।
यह बहार दिन चार की बहुरि कटीली डार।
बहुरि कटीली डार होहिगी ग्रीषम आये।
लुवैं चलेंगी संग अंग सब जैहैं ताये।
बरनै दीन दयाल फूल जौ लौं तौ पाहीं।
रहे घेरि चहुँ फेर फेरि अलि ऐहैं नाहीं।
6. चारों दिसि सूझै नहीं यह नद धार अपार।
नाव जर्जरी भार बहु खेवन हार गँवार।
खेवनहार गँवार ताहि पै है मतवारो।
लिये भँवर में जाय जहाँ जल जंतु अखारो।
बरनै दीन दयाल पथी बहु पौन प्रचारो।
पाहि पाहि रघुबीर नाम धारि धीर उचारो।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में कुछ ऐसे कवि भी हुए हैं जो न तो रीति ग्रन्थकार हैं, न प्रबन्धाकार, वरन प्रेममार्गी हैं अथवा शृंगारिक कवि। उनकी संख्या बहुत बड़ी है, परन्तु मैं उनमें से कुछ विशेषता प्राप्त सहृदयों का ही उल्लेख करूँगा, जिससे यह ज्ञात हो सके कि उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा किस प्रकार हिन्दी साहित्य को अलंकृत किया। इन लोगों में से सबसे पहले हमारे सामने ठाकुर कवि आते हैं। ठाकुर तीन हो गये हैं। इनमें से दो ब्रह्मभट्ट थे, और एक कायस्थ। असनी के रहने वाले प्राचीन ठाकुर सत्राहवीं सदी के अन्त में या अठारहवीं के आदि में पड़ते हैं। इन तीनों ठाकुरों की रचनाएँ एक-दूसरे के साथ इतनी मिल गयी हैं कि इनको अलग करना कठिन है। तीनों ठाकुरों की सवैयाओं में कुछ ऐसी मधुरता है कि वह अपनी ओर हृदय को खींच लेती है, इससे अनेक सहृदयों को ठाकुर की सवैयाओं को पढ़ते सुना जाता है। प्राचीन ठाकुर के विषय में कोई ऐसा परिचय चिद्द नहीं मिलता कि जिसके आधार से उनको औरों से अलग किया जा सके। परन्तु जो दो ठाकुर उन्नीसवीं शताब्दी में हुए हैं, उनका अन्तर जानने के लिए जो बातें कही जाती हैं वे ये हैं। असनी वाले ब्रह्मभट्ट की रचना अधिकतर कवित्ताों में है। उन्होंने सवैया भी लिखे हैं, किन्तु उसके अंत में कोई कहावत लाने का नियम उन्होंने नहीं रखा है। दूसरे ठाकुर, जो कायस्थ थे, उन्होंने प्राय: अपनी रचना सवैया में की है और उसके अंत में कोई न कोई कहावत अवश्य लाये हैं। इसी परिचय चिद्द के आधार से उन लोगों की रचना आप लोगों के सामने उपस्थित करूँगा। प्राचीन ठाकुर की रचना मैं हिन्दी साहित्य के इतिहास से लेता हूँ, क्योंकि उसके रचयिता ने यह बतलाया है कि यह रचना उन्हीं की है। प्राचीन ठाकुर के विषय में यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि वे असनी के ब्रह्मभट्ट थे। परन्तु उनकी और बातों के विषय में सभी चुप हैं। ऐसी अवस्था में मुझको भी चुप रहना पड़ता है। उनकी रचनाओं के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे एक सरस हृदय कवि थे और ब्रजभाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। दो पद्य देखिए-