भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


पंडित अम्बिकादत्ता व्यास संस्कृत के प्रसिध्द विद्वान् थे। बाबू हरिश्चन्द्र आपको बहुत आदर की दृष्टि से देखते थे। बिहार प्रान्त में आपका बड़ा सम्मान था। वहाँ आप संस्कृत के प्रोफेसर थे। वे संस्कृत के विद्वान् ही नहीं थे, बहुत बड़े वक्ता भी थे। व्याख्यान के समय जनता को अपनी मूठियों में कर लेना उनके बाएँ हाथ का खेल था। बिहार में आर्यसमाज के संग जब-जब उनका शास्त्रार्थ हुआ, तब-तब उन्होंने विजय-पत्रा प्राप्त किये। धारा-प्रवाह संस्कृत बोलते थे और कठिन से कठिन शास्त्रीय विषयों को इस प्रकार सुलझाते थे कि प्रतिपक्षियों के दाँत खट्टे हो जाते थे। वे शास्त्रा-पारंगत विद्वान् तो थे ही, उनकी धारणा शक्ति भी बड़ी प्रबल थी। एक काल में वे कई कार्य साथ-साथ कर सकते थे। इस विषय में उनकी कई बार परीक्षा ली गयी और वे सदा उसमें सफलता के साथ उत्ताीर्ण हुए। उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की भी रचना की है। बाबू हरिश्चन्द्र की ‘ललिता’ नाटिका का अनुवाद संस्कृत में किया था। वे घटिका शतक थे। एक घंटे में संस्कृत के 100 अनुष्टुप वृत्ताों की रचना कर देते थे। संस्कृत के इतने बड़े विद्वान होने पर भी हिन्दी भाषा के बड़े अनुरागी थे। उन्होंने हिन्दी भाषा में ‘पीयूष-प्रवाह’ नाम का एक मासिक पत्रा भी निकाला था। उनकी गद्य और पद्य दोनों की रचनाएँ सुंदर और सरस होती थीं। वे आशु कवि थे। इसलिए हिन्दी समस्याओं की पूर्ति बात की बात में कर देते थे। उनके पिता पंडित दुर्गादत्ता भी हिन्दी भाषा के बड़े अच्छे कवि थे। उन्हीं के प्रभाव से ये सब विलक्षणताएँ उनमें एकत्राीभूत थीं। एक बार उन्हें समस्या दी गयी-

मूँदि गयी ऑंखैं तब लाखैं कौन काम की।

उन्होंने तत्काल उसकी पूर्ति की-

चमकि चमाचम रहे हैं मनिगन चारु

सोहत चहूँगा धूम धाम धान धाम की।

फूल फुलवारी फलफैलि कै फबे हैं तऊ

छबि छटकीली यह नाहिंन अराम की।

काया हाड़ चाम की लै राम की बिसारी सुधि

जामकी को जानै बात करत हराम की।

अम्बादत्ता भाखैं अभिलाखैं क्यों करत झूठ

मूँदि गयीं ऑंखैं तब लाखैं कौन काम की।

वे साहित्याचार्य तो थे ही, ‘भारत-रत्न’, ‘बिहार-भूषण’, ‘शतावधान’ और ‘भारत-भूषण’ आदि पदवियाँ भी उन्हें राजे-महाराजाओं तथा सनातन धर्म मण्डल दिल्ली से प्राप्त हुई थीं। उनको कितने ही स्वर्ण पदक भी मिले थे। जब तक जीवित रहे,पटना कॉलेज की प्रोफेसरी बड़ी ख्याति के साथ की । उनके जीवन का बहुत बड़ा काम यह है कि उन्होंने बिहार में ‘संस्कृत-संजीवनी-समाज’ नाम की एक संस्था स्थापित की थी। इस समाज के द्वारा संस्कृत की अनियमित शिक्षा प्रणाली का ऐसा सुधार हुआ कि अब भी उसकी सहायता से सैकड़ों विद्यार्थी संस्कृत शिक्षा पाकर प्रतिवर्ष नाना उपाधियाँ प्राप्त करते हैं। संस्कृत के अतिरिक्त वे बँगला, मराठी, गुजराती और कुछ ऍंग्रेजी भी जानते थे। उनकी संस्कृत और हिन्दी की छोटी-बड़ी पुस्तकों की संख्या लगभग 78 है, जिसमें ‘बिहारी-बिहार’ जैसे बड़े ग्रंथ भी हैं। बिहारीलाल के 700 दोहों पर उन्होंने जो कुंडलियाँ बनाई थीं,मुद्रित रूप में उन्हीं का नाम ‘बिहारी-बिहार’ है। इस ग्रंथ की भूमिका भी बड़ी विशद और सुन्दर है। उसी से इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। इनका हिन्दी उपनाम सुकवि था-

1. मेरी भव वाधा हरो राधा नागरि सोय।

जा तन की झाईं परे स्याम हरित दुति होय।

स्याम हरितदुति होय परत तन पीरी झाईं।

राधाहूँ पुनि हरी होति लहि स्यामल छाईं।

नैन हरे लखि होत रूप औ रंग अगाधा।

सुकवि जुगुल छवि धाम हरहु मेरी भव बाधा।

2. सोहत ओढ़े पीति पट स्याम सलोने गात।

मनो नीलमनि सैल पर आतप परयो प्रभात।

आतप परयो प्रभात ताहि सों खिल्यो कमल मुख।

अलक भौंर लहराय जूथ मिलि करत विविधा सुख।

चकवा से दोउ नैन देखि एहि पुलकत मोहत।

सुकवि विलोकहु स्याम पीतपट ओढ़े सोहत।

देखिए ‘भौंह’ सम्बन्धी उनकी यह रचना कितनी सुन्दर है-

3. नैन कमल लखि उमँग भरे से।

भृकुटिब्याज जनु पाँति करे से।

फरफरात पुनि ठटकारे से।

घूमत मलिंद मतवारे से।

उनके दो दोहे भी देखिए-

4. गुंजा री तू धान्य है बसत तेरे मुख स्याम।

याते उर लाये रहत हरि तोको बसुयाम।

5. मोर सदा पिउ पिउ करत नाचत लखि घनश्याम।

या सों ताकी पाँख हूँ सिर धारी घनश्याम।

व्यास जी जयपुरनिवासी थे। इसलिए बड़ी सरस ब्रजभाषा में रचना करते थे। जिसे इसके प्रमाण की आवश्यकता हो, वह इनकी रची ‘सतसई’ को देखे। वे जब तक जीवित रहे, हिन्दी संसार में भारतेन्दु के समान ही उनकी कीर्ति भी थी। उन्होंने हिन्दी-संसार को गद्य और पद्य के जितने ग्रन्थ दिये हैं वे बड़े अमूल्य हैं और उनके लिये हिन्दी संसार उनका सदा ऋणी रहेगा।

बाबा सुमेरसिंह सिक्ख गुरु और पटने के महन्त थे। जिला आजमगढ़ के निजामाबाद कस्बे में उनका निवास था। वे सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास के वंशज थे। इसलिए साहबजादे कहे जाते थे। जाति के भले खत्री थे। परमात्मा ने उनको बड़ा सुन्दर रूप दिया था। जैसा सुन्दर स्वरूप था, वैसा ही सुन्दर उनका हृदय भी था। हिन्दी भाषा के बड़े प्रेमी थे, इस भाषा का ज्ञान भी उन्हें अच्छा था। वे संस्कृत भी जानते थे। बाबू हरिश्चन्द्र से उनकी बड़ी मैत्राी थी। बनारस के महल्ले रेशम-कटरे की बड़ी संगत में आकर वे प्राय: रहते थे और यहीं दोनों का बड़ा सरस समागम होता था। बाबा सुमेरसिंह ब्रजभाषा की बड़ी सरस कविता करते थे। उन्होंने इस भाषा में एक विशाल प्रबंधा काव्य लिखा था, जो लगभग नष्ट हो चुका है। केवल उसका दशम मंडल अब तक यत्रा-तत्रा पाया जाता है। इस ग्रन्थ का नाम ‘प्रेम-प्रकाश’ था। इसमें उन्होंने सिक्खों के दश गुरुओं की कथा दश मंडलों में बृहत् रूप से बड़ी ललित भाषा में लिखी थी। दशम मंडल में गुरु गोविंद सिंह का चरित्रा था। गुरुमुखी में वह मुद्रित हुआ और वही अब भी प्राप्त होता है। शेष नौ मण्डल कराल काल के उदर में समा गये। बहुत उद्योग करने पर भी न तो वे प्राप्त हो सके, न उनका पता चला। उन्होंने ‘कर्णभरण’ नामक एक अलंकार ग्रन्थ भी लिखा था। अब वह भी अप्राप्य है। गुरु गोविंदसिंह ने परसी में जो ‘जपरनामा’ लिखा था, उसका अनुवाद भी उन्होंने ‘विजय-पत्रा’ के नाम से किया था। वह भी लापता है। उन्होंने संत निहालसिंह के साथ दशम ग्रन्थ साहब के जापजी की बड़ी बृहत् टीका लिखी थी, जो बहुत ही अपूर्व थी। वह मुद्रित भी हुई है, किन्तु अब उसका दर्शन भी नहीं होता। उन्होंने छोटे-छोटे और भी कई ग्रन्थ धार्मिक और रस-सम्बन्धी लिखे थे। परन्तु उनमें से एक भी अब नहीं मिलता। उन्होंने जितने ग्रन्थों की रचना की थी, सब में हिन्दू भाव ओत-प्रोत था और यही उनकी रचनाओं का महत्तव था। आजकल कुछ सिक्ख सम्प्रदाय वाले अपने को हिन्दू नहीं मानते, वे उनके विरोधी थे। इसलिए भी उनके ग्रन्थ दुष्प्राप्य हो गये। फिर भी उनकी स्फुट रचनाएँ ‘सुन्दरी-तिलक’ इत्यादि ग्रन्थों में मिल जाती हैं। जब वे पटने में महन्त थे तो वहाँ से उन्होंने एक कविता-सम्बन्धी मासिक पत्रिका भी हिन्दी में निकाली थी। वह एक साल चलकर बन्द हो गई। उसमें भी उनकी अनेक कविताएँ अब तक विद्यमान हैं। उनकी दो कविताएँ मुझे याद हैं। उनको मैं यहाँ लिखता हूँ। उन्हीं से आप लोग उनकी कविता की भाषा और उनके विचार का अनुमान कर सकते हैं-

1. सदना कसाई कौन सुकृत कमाई नाथ

मालन के मन के सुफेरे गनिका ने कौन।

कौन तप साधाना सों सेवरी ने तुष्ट कियो

सौचाचार कुबरी ने कियो कौन सुख भौन।

त्यों हरि सुमेर जाप जप्यो कौन अजामेल

गज को उबारयो बार-बार कवि भाख्यो तौन।

एते तुम तारे सुनो साहब हमारे राम।

मेरी बार विरद बिचारे कौन गहि मौन।

2. बातें बनावती क्यों इतनी हमहूँ

सों छप्यो नहीं आज रहा है।

मोहन के बनमाल को दाग दिखाइ

रह्यो उर तेरे अहा है।

तू डरपै करै सौहैं सुमेर हरी

सुन साँच को ऑंच कहाँ है।

अंक लगी तो कल( लग्यो जो

न अ( लगी तो कल( कहा है।

बाबा सुमेर सिंह ने आजीवन कविता देवी ही की आराधाना की। उन्होंने न तो गद्य लिखने की चेष्टा की और न गद्य ग्रन्थ रचे। उनका जीवन काव्यमय था और वे कविता पाठ करने और कराने में आनन्द लाभ करते थे। अपनी कविता के विषय में उनकी बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। वे उसका बहुत प्रचार चाहते थे अैर कहा करते थे कि हिन्दू सिक्खों की भेद-नीति का संहार इसी के द्वारा होगा। परन्तु दुख से कहना पड़ता है कि अपने उद्योग में सफलता लाभ करने के पहले ही उनका स्वर्गवास हुआ और उनके स्वर्गवास होने पर उनकी कविता का अधिकांश लोप हो गया। जो कुछ शेष है वह यद्यपि उनको वास्तविक कीर्ति के विस्तार के लिए पर्याप्त नहीं है, फिर भी अब उसी पर संतोष करना पड़ता है। काल की लीला ही ऐसी है।

भारतेन्दु का काल गद्य के उत्थान का काल था। सामयिक आवश्यकताओं के कारण इस समय गद्य का बहुत अधिक प्रचार हुआ। इन दिनों अनेक पत्रा पत्रिकाएँ निकलीं और गद्य की पुस्तकें भी अधिक छपीं। स्कूलों एवं ग्रामीण पाठशालाओं के लिए कोर्स की बहुत अधिक पुस्तकें भी गद्य में ही लिखी गयीं। सनातन धर्म और आर्य समाज के विवाद के कारण अधिकतर वाद सम्बन्धी ग्रन्थ भी गद्य में ही लिखे गये। इसी प्रकार बहुत-सी सामाजिक और राजनीतिक पुस्तकों को भी गद्य का अवलम्बन ग्रहण करना पड़ा, क्योंकि पद्य द्वारा ये सब कार्य न तो व्यापक रूप से किये जा सकते थे और न वह सुविधा ही प्राप्त हो सकती थी जो गद्य द्वारा प्राप्त हो सकी। पश्चिमोत्तार प्रांत में ही नहीं, बिहार मधयभारत और पंजाब तक में हिन्दी भाषा का विस्तार इन दिनों हुआ और इसका आधार गद्य ही था। जितनी हिन्दी पत्रा-पत्रिकाएँ इन प्रांतों में निकलीं या जो ग्रन्थ आवश्यकतानुसार लिखे गये, उनमें से अधिकांश का आधार भी गद्य ही था। इसलिए इस समय के जितने विद्वान् धार्मिक अथवा राजनीतिक पुरुष किंवा शिक्षा प्रचारक साहित्य क्षेत्र में उतरे, उनको गद्य से ही अधिकतर काम लेना पड़ा फिर क्यों न इस समय अधिकतर गद्य ग्रन्थकार ही उत्पन्न होते। बाबू हरिश्चन्द्र के समय में जितने हिन्दी के प्रसिध्द लेखक हुए वे अधिकतर गद्य ग्रन्थकार हैं। उनका वर्णन मैं आगे चलकर करूँगा। गद्य के साथ-साथ उस समय जिन प्रतिष्ठा प्राप्त लेखकों ने पद्य-रचनाएँ भी कीं, उनका वर्णन मैं ऊपर कर चुका। महामहोपाधयाय पं. सुधाकर द्विवेदी ऐसे कुछ मान्य पुरुषों ने भी उस समय गद्य के साथ कुछ पद्य-रचना भी की थी। परन्तु उनकी पद्य-रचनाएँ बहुत थोड़ी हैं। इसलिए पद्य विभाग में मैंने उन्हें स्थान नहीं दिया। यद्यपि किसी-किसी के कुछ पद्य बड़े सुन्दर हैं। द्विवेदीजी की भी कोई-कोई खास रचना बड़ी ही हृदय-ग्राहिणी है, एक पद्य देखिए-

1. पिया हो कसकत कुस पग बीच।

लखन लाज सिय पिय सन बोलीं हरुए आइ नगीच।

सुनि तुरंत पठयो लखनहिं प्रभु जलहित दूरि सुजान।

लेइ अंक सिय जोवत कुस कन धोवत पग ऍंसुआन।

बार बार झारत कर सों रज निरखत छत बिललात।

हाय प्रिये मान्यो न कह्यो लखु नहिं बन बिच कुसलात।

सहस सहचरी त्यागि सदन मधि सासु ससुर सुखकारि।

हठ करि लगि मो संग सहत तुम हाहा यह दुख भारि।

कहत जात यों प्रभु बहु बतियाँ तिया पिया की छाँह।

देइ गल बहियाँ चलीं बिहँसि कहि यह सुख नाथ अथाह।

तो भी यह उचित नहीं ज्ञात हुआ कि उनको पद्य-विभाग में स्थान दिया जाय। क्योंकि उल्लेख योग्य पद्य-ग्रन्थों के रचयिताओं को ही उसमें अब तक स्थान मिलता आया है। बाबू हरिश्चन्द्र के स्वर्गारोहण के उपरान्त हिन्दी संसार में एक बहुत बड़ा आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। वह विवाद यह था कि हिन्दी पद्य-रचना भी ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली में होनी चाहिए। उनके सामने इसका सूत्रापात्रा मात्रा हुआ था। कुछ लोगों के जी में यह बात उत्पन्न हो रही थी और आपस में इसकी चर्चा भी होने लगी थी। परन्तु विचार ने आन्दोलन का रूप नहीं ग्रहण किया था। अब वह वास्तविक आन्दोलन बन गया था और ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली के पक्षपातियों में द्वन्द्व होने लगा था। इसका कारण सामयिक परिस्थिति थी। उर्दू का इस समय बोलबाला था और सरकारी कचहरियों में उसको स्थान प्राप्त हो गया था। वह दिन-दिन वृध्दि लाभ कर रही थी और हिन्दी-क्षेत्रों पर भी अधिकार करती जाती थी। पंजाब से बिहार की सीमापर्यन्त उसका डंका बज रहा था और अन्य प्रान्तों में भी प्रवेश-लाभ की चेष्टा वह कर रही थी। उसके पुष्ट पोषक मुस्लिम समाज और उसके नेता ही नहीं थे, हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा दल भी उसका पक्षपाती था। उसके जहाँ और गुण वर्णन किये जाते थे वहाँ यह भी कहा जाता था कि उर्दू के गद्य और पद्य की भाषा एक है,हिन्दी को तो यह गौरव भी नहीं प्राप्त है। वास्तव बात यह है कि इन सुविधाओं के कारण वह उत्तारोत्तार उन्नत हो रही थी और उसका साहित्य-भंडार दिन-दिन उपयोगी ग्रन्थों से भर रहा था। उस समय जितने ग्रन्थ हिन्दी के निकले उनकी गद्य की भाषा तो खड़ी बोली की और पद्य की ब्रजभाषा होती थी। यह पद्य की भाषा युक्त प्रान्त के सब विभागों में तो किसी प्रकार समझ भी ली जाती थी, परन्तु बिहार या पंजाब या मधय हिंद में उसका समझना दुस्तर था, क्योंकि वह एक प्रान्तीय भाषा थी। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि उसका विस्तार एक प्रान्त ही तक परिमित नहीं था, वह अन्य प्रान्तों तक विस्तृत हो चुकी थी, जिसकी चर्चा मैं पहले कर भी चुका हूँ। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उस समय जैसी सुगमता से खड़ी बोलचाल या गद्य की भाषा को लोग पश्चिमोत्तार प्रान्त या अन्य प्रान्तों में समझ लेते थे, ब्रजभाषा को नहीं समझ सकते थे। इस कारण हिन्दी भाषा उतनी निर्बाधा रूप से उन्नति नहीं कर सकती थी जितना उर्दू। यह एक ऐसी बात थी जिससे उक्त आन्दोलन को उस समय बहुत बड़ा बल मिला। उन दिनों यह भी देखा जाता था कि अंग्रेजी स्कूलों और ग्रामीण् पाठशालाओं के अधिकतर हिन्दू लड़के कोर्स में उर्दू लेना ही पसन्द करते थे। जहाँ और कारण थे वहाँ एक यह कारण भी उपस्थित किया जाता था कि हिन्दी पुस्तकों की गद्य की भाषा और होती है और पद्य की और, जिससे हिन्दू बालकों को एक प्रकार से कठिनता का सामना करना पड़ता है और विवश होकर उन्हें (सुविधा की दृष्टि से) हिन्दी के स्थान पर उर्दू लेना पड़ता है। उन दिनों इस विचार से भी उक्त आन्दोलन को बहुत कुछ सहायता मिली थी। मुझको स्मरण है कि इस आन्दोलन को लेकर उस समय के दैनिक’हिन्दुस्थान’ तथा अन्य पत्रों में उभय पक्ष के लोगों में बड़ा द्वंद्व हुआ था। बिहार प्रान्त के बाबू अयोधयाप्रसाद खत्री के हाथ में इस आन्दोलन का झण्डा था, वे बिहार और पश्चिमोत्तार प्रान्तों के अनेक स्थानों में घूम-घूमकर उन दिनों यह प्रयत्न कर रहे थे कि पद्य में भी खड़ी बोली को स्थान मिले और ब्रजभाषा का बहिष्कार किया जाय। यह आन्दोलन सामयिक परिस्थिति के कारण सफल हुआ और हिन्दी साहित्यिकों का एक दल इसके लिए कटिबध्द हो गया कि ब्रजभाषा के स्थान पर वह खड़ी बोलचाल में कविता करे। इस दल के नेता पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी कहे जा सकते हैं। ‘सरस्वती’ के सम्पादन काल में उन्होंने खड़ी बोली का बड़ा आदर किया और बहुतों को उत्साहित कर खड़ी बोली की रचनाएँ उनसे कराईं। स्वयं भी उन्होंने खड़ी बोली की कविताएँ लिखीं परन्तु स्व. पं. श्रीधार पाठक ही ऐसे पहले पुरुष हैं जिन्होने खड़ी बोलचाल में एक कविता पुस्तक आदि में लिखी। यह कविता पुस्तक ‘हरमिट’ (Hermit) का अनुवाद है, जिसका हिन्दी नाम एकान्तवासी योगी है। उन्होंने पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के पहले ही इस आन्दोलन में अग्र भाग लिया था और पंडित प्रतापनारायण मिश्र से खड़ी बोली के पक्ष में खड़े होकर पूरा वाद-विवाद किया था। मैं ऊपर लिख आया हूँ कि बाबू हरिश्चन्द्र ने भी खड़ी बोली की कविता की है। ऐसे ही पं. बदरीनारायण चौधरी, पं. प्रतापनारायण मिश्र की भी कुछ रचनाएँ खड़ी बोली की हैं। परन्तु ग्रन्थ रूप में खड़ी बोली में सर्वप्रथम रचना करने का श्रेय पं. श्रीधार पाठक को ही प्राप्तहै।

खड़ी बोली और ब्रजभाषा में क्या अन्तर है, यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है। यहाँ यह भी धयान रखना चाहिए कि ब्रजभाषा के विरोधा के अन्तर्गत अवधी भाषा भी है। विवाद के समय खड़ी बोली के सामने ब्रजभाषा ही इसलिए रखी गई कि जिस समय आन्दोलन आरम्भ हुआ, उस समय ब्रजभाषा ही सर्वोत्ताम समझी जाती थी और उसी का व्यापक विस्तार था,अवधी लगभग साहित्य संसार से उठ चुकी थी। कभी-कभी कोई उसको निस्संदेह स्मरण कर लेता था। वास्तव बात तो यह है कि दोनों का बहुत बड़ा सम्बन्धा प्राकृत भाषा से है। दोनों अनेक अंशों में प्राकृत भाषा के ढंग में ढली हुई हैं। दोनों में प्राकृत भाषा के कई शब्द बिना परिवर्तित हुए पाये जाते हैं। दोनों का बहुत बड़ा सम्बन्धा बोलचाल की भाषा से है। परन्तु खड़ी बोलचाल जिस रूप में गृहीत है, उस रूप में न तो वह जनता की बोलचाल की भाषा से अपेक्षित मात्रा में सम्बन्धा रखती है,न प्राकृत भाषा से और यह बहुत बड़ा अन्तर ब्रजभाषा और खड़ी बोली में है। इस बात को और स्पष्ट करने के लिए मैं दोनों की विशेषताओं पर विशेष प्रकाश डालना चाहता हूँ।

ब्रजभाषा और अवधी की विशेषताएँ मैं पहले बता चुका हूँ। उनसे आप लोग अभिज्ञ हैं। अब मैं खड़ी बोली की विशेषताओं को बतलाऊँगा जिससे उनके परस्पर अन्तर का ज्ञान यथातथ्य हो सके। हिन्दी भाषा के अब तक जितने व्याकरण बने हैं,उनका सम्बन्धा खड़ी बोली से ही है। न तो कभी ब्रजभाषा और अवधी का व्याकरण बना और न इधार किसी की दृष्टि गई। आजकल कुछ लोगों का धयान इधार आकर्षित है। नहीं कहा जा सकता कि यह कार्य होगा या नहीं। खड़ी बोली भाग्यवान है कि गद्य में स्थान मिलते ही उसके एक क्या कई व्याकरण बन गये। मुझको व्याकरण-सम्बन्धी सब बातें यहाँ नहीं लिखनी हैं और न ब्रजभाषा अवधी और खड़ी बोली के कारक चिद्दों, सर्वनामों और धातु-सम्बन्धी नाना रूपों के पारस्परिक अन्तरों को विशद रूप में दिखलाना इष्ट है। मैं यहाँ केवल यही दिखलाना चाहता हूँ कि अवधी और ब्रजभाषा से खड़ी बोलचाल में कवितागत शब्दविन्यास और प्रयोगों का क्या अन्तर है। अवधी एवं ब्रजभाषा का अधिकतर सम्बन्धा तद्भव और अर्ध्द तत्सम शब्दों से है। इसके विरुध्द खड़ी बोली का सम्बन्धा अधिकतर तत्सम शब्दों से है। खड़ी बोलचाल का यह नियम है कि उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में ही लिखने की चेष्टा की जाती है। खड़ी बोली वालों को तद्भव शब्द लिखने में कोई आपत्तिा नहीं। परन्तु वे जहाँ तक हो सकेगा हिन्दी के शब्दों को तत्सम रूप में ही लिखेंगे। ब्रजभाषा और अवधी में शकार, णकार, क्षकार आते ही नहीं। परन्तु खड़ी बोलचाल में ये तीनों अपने शुध्द रूप में आते हैं। उसमें लोग ‘गुन’, ‘ससि’और ‘पच्छ’ कभी न लिखेंगे। जब लिखेंगे तब ‘गुण’, ‘शशि’ और ‘पक्ष’ ही लिखेंगे, जो संस्कृत के तत्सम शब्द हैं। ब्रजभाषा और अवधी वाले शब्द के आदि के यकार को प्राय: ‘ज’ लिखते हैं, परन्तु खड़ी बोलचाल वाले ऐसा नहीं करेंगे। वे ‘जोग’, ‘जस’, ‘जाम’, ‘जम’ न लिखकर ‘योग’, ‘यश’, ‘याम’ और ‘यम’ ही लिखेंग।े युक्त विकर्ष अवधी और ब्रजभाषा का प्रधान गुण है। परन्तु खड़ी बोलचाल वाले ऐसा करना उचित नहीं समझते। वे ‘गरब’, ‘दरप’, ‘सरप’, ‘बरन’, ‘धारम’, ‘करम’ न लिख कर ‘गर्व’, ‘दर्प’, ‘सर्प’, ‘वर्ण’, ‘धर्म’, ‘कर्म’ आदि ही लिखेंगे। व्यंजनों का पंचम वर्ण ब्रजभाषा और अवधी में प्राय: अनुस्वार बन जाता है। खड़ी बोलचाल वाले संस्कृत के शुध्द रूप की धुन में उनको मुख्य रूप में ही लिखना अच्छा समझते हैं। जैसे’कल(‘, ‘अ)न’, ‘कण्ठ’, ‘अन्त’, ‘लम्पट’ को ‘कलंक’, ‘अंजन’, ‘कंठ’, ‘अंत’, ‘लंपट’ न लिखेंगे। किन्तु कुछ लोग ऐसा करना पसंद नहीं करते। वे इस विषय में ब्रजभाषा की प्रणाली ही ग्रहण करते हैं। मेरा विचार है कि सुविधा की दृष्टि से ऐसा ही होना चाहिए, विशेष अवस्थाओं की बात दूसरी है। अवधी और ब्रजभाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के वकार प्राय: बकार बन जाते हैं, किन्तु खड़ी बोली में वे अपने शुध्द रूप में ही रहते हैं। अधिकांश यह बात शब्द के आदिगत वकार के विषय में ही कही जा सकती है। मधयगत या शब्दांत के वकार के विषय में नहीं। खड़ी बोलचाल के कवियों की रुचि यह देखी जाती है कि वे ‘मुँह’ के स्थान पर ‘मुख’, ‘सिर’ के स्थान पर ‘शिर’, ‘होठ’ या ‘ओठ’ के बजाय ‘ओष्ठ’, ‘बाँह’ के स्थान पर ‘बाहु’ इत्यादि लिखना ही पसंद करेंगे, यद्यपि उनका हिन्दी रूप लिखा जाय तो भाषा सदोष न हो जायगी। कुछ इस विचार के लोग हैं कि’स्नेह’, के स्थान पर ‘सनेह’, ‘आलाप’ के स्थान पर ‘अलाप’ ‘केश’ के स्थान पर ‘केस’, ‘पलाश’ के स्थान पर ‘पलास’, ‘कमल’के स्थान पर ‘कँवल’ या ‘कौल’ लिखना ठीक नहीं समझते, यद्यपि इनका लिखा जाना अनुचित नहीं। क्योंकि बोलचाल में वे इसी रूप में गृहीत हैं। ये वे तद्भव शब्द हैं हिन्दी भाषा जिनके आधार से ही प्राकृत भाषा से अलग होकर अपने मुख्य रूप में परिणत हुई। ब्रजभाषा और अवधी में समस्त कारक-चिद्दों का आवश्यकतानुसार लोप कर दिया जाता है, विशेषकर कत्तर्,कर्म, करण और अधिकरण के चिद्दों का। किन्तु खड़ी बोलचाल की रचनाओं में इनमें से किसी एक का भी लोप नहीं किया जाता। गद्य के अनुसार समस्त कारक-चिद्दों का अपने स्थान पर विद्यमान रहना नियम के अंतर्गत माना जाता है। उन्हीं अवस्थाओं में ऐसा नहीं किया जाता जब वाक्य मुहावरे के अंतर्गत हो जाता है। जैसे ‘कान पड़ी आवाज़’, ‘ऑंखों देखी बात’, ‘रात बसे’ इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी में आवश्यकता होने पर लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु प्राय: कर देते हैं और ऐसा करना उनमें नियमानुकूल माना जाता है। किन्तु खड़ी बोली इस प्रणाली को सदोष समझती है, इसलिए उससे बचती है। हाँ,पढ़ने के समय वह दीर्घ कारक चिद्दों और सर्वनामों को Ðस्व अवश्य पढ़ लेती है और पदान्त में Ðस्व वर्ण को दीर्घ मान लेती है। परंतु कभी-कभी, सब जगह नहीं। शब्दों का तोड़ना-मरोड़ना और शब्द गढ़ लेना भी खड़ी बोली के नियमानुकूल नहीं है। वह ऐसा करना अच्छा नहीं समझती। खड़ी बोली में एक यह बात भी देखी जाती है कि संस्कृत के जिन शब्दों से अवधी या ब्रजभाषा का लिंग-भेद हो गया है उनको वह संस्कृत के अनुसार लिखती है। पवन, वायु इत्यादि शब्द इसके उदाहरण हैं। ब्रजभाषा और अवधी में प्राय: ये शब्द स्त्रीलिंग लिखे जाते हैं, परंतु खड़ी बोली में अब ये पुल्लिंग लिखे जाने लगे हैं,यद्यपि यह सिध्दान्त अभी सर्व-सम्मत नहीं है। संस्कृत का यह नियम है कि संयुक्त वर्णों के आदि का अक्षर दीर्घ समझा जाता है और उसका उच्चारण् भी वैसा ही होता है। ब्रजभाषा और अवधी में ऐसा सब अवस्थाओं में नहीं होता, विकल्प से होता है। किन्तु खड़ी बोली में उसको दीर्घ ही माना जाता है और प्राय: उसका उच्चारण भी संस्कृत के अनुसार ही होता है। जैसे’रामप्रसाद’, ‘देवस्वरूप’, ‘गर्वप्रहारी’ इत्यादि। इन तीनों शब्दों में हिन्दी बोलचाल में ‘राम’ के म का, ‘देव’ के व का और ‘गर्व’के ब का उच्चारण विशेषकर अवधी और ब्रजभाषा में Ðस्व ही करेंगे। परंतु खड़ी बोली में उसका दीर्घ उच्चारण करने की चेष्टा की जाती है, यद्यपि अब तक यह प्रणाली हिन्दी भाषा में कुछ संस्कृत प्र्रेमियों ने ही ग्रहण की है। मेरा विचार है कि ऐसा करने से सरल हिन्दी भाषा में एक प्रकार की कठोरता आ जाती है। विशेष अवस्था अथवा विकल्प की बात दूसरी है। ब्रजभाषा और अवधी के नियमों के बहिष्कार के साथ-साथ उनके सुन्दर और मधुर शब्दों का भी खड़ी बोली में परित्याग किया जा रहा है। वरन यह कहना चाहिए कि लगभग परित्याग कर दिया गया है। तो भी कुछ क्रियाएँ ऐसी हैं जो अब तक खड़ी बोली के गद्य पद्य दोनों में गृहीत हैं मैं समझता हूँ ऐसी क्रियाओं का संयत प्रयोग अनुचित नहीं। जैसे ‘लखना’, ‘निहारना’, ‘निरखना’इत्यादि। ब्रजभाषा में ‘दरसाना’ एक क्रिया है जो संस्कृत के ‘दर्शन’ शब्द का तद्भव रूप है। कुछ लोग खड़ी बोलचाल में इसका अब इस रूप में लिखना पसन्द नहीं करते। वे उसके स्थान पर ‘दर्शाना’ लिखते हैं। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में ‘न’, ‘नि’और ‘न्ह’ को शब्दों के अन्त में लाकर एक वचन से बहुवचन बनाया जाता है। खड़ी बोली में ऐसा नहीं किया जाता। उसने अपने गद्य की प्रणलाी ही को स्वीकृत कर लिया है। विशेष विशेष बातें मैंने बतला दीं। इस विषय में और अधिक लिखना बाहुल्य होगा।

खड़ी बोली की कविता में अधिकतर संस्कृत तत्सम शब्दों को ग्रहण कर लेने और उसको बिलकुल गद्य की प्रणाली में ढाल देने का यह परिणाम हुआ है कि वह कर्कश हो गई है। उसमें जैसा चाहिए वैसा माधार्ुय्य अब तक नहीं आया। खड़ी बोली की कविता ने प्राय: वही मार्ग ग्रहण किया है जो उर्दू भाषा की कविता का है। परंतु ब्रजभाषा या अवधी के शब्दों को लेने में वह उससे भी संकीर्ण है वरन संकीर्णतम है। उर्दू में आवश्यकतानुसार अब भी ब्रजभाषा के कोमल शब्द गृहीत हैं, यहाँ तक कि संस्कृत के शब्द भी अपने ढंग में ढालकर ले लिये जाते हैं। परंतु खड़ी बोली के प्रेमी ऐसा करना पाप समझते हैं। यद्यपि वे अपने इस उद्योग में पूर्णतया सफलता नहीं लाभ कर सके। उर्दू भाषा की कविता अधिकांश अरबी शब्द में की जाती है, जिसमें अधिकतर धयान वज़न पर रक्खा जाता है। इसलिए उसकी कविताओं का शब्द-विन्यास शिथिल नहीं जान पड़ता। वरन् उसमें एक प्रकार का विचित्र ओज आ जाता है। हाँ, यह अवश्य है कि इस ओज के प्रपंच में पड़कर हिन्दी के कितने शब्दों,सर्वनामों, कारक चिद्दों का कचूमर निकल जाता है और कितने बेतरह पिस जाते हैं। परंतु उर्दू वालों के छन्दोनियम कुछ ऐसे हैं कि वे इस प्रकार शब्दों की तोड़-मरोड़ को सदोष नहीं मानते। हिन्दी-भाषा में यह प्रणाली गृहीत नहीं हो सकती, क्योंकि उससे कविता की भाषा अधिकतर दूषित हो जावेगी। ऐसी दशा में मेरा विचार है कि खड़ी बोली के पद्यकारों को हिन्दी के उपयुक्त शब्दों का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए, चाहे वह अवधी का हो चाहे ब्रजभाषा का। इससे भाषा सरस और ललित बन जावेगी और उसका कर्कशपन जाता रहेगा।

आन्दोलन के समय में बहुत-सी ऐसी बातें गृहीत हो जाती हैं जो यथार्थ उपयोगिनी नहीं होतीं, किंतु स्थिरता आने पर उनका परित्याग ही उचित समझा जाता है। खड़ी बोली के आन्दोलन काल में कुछ ऐसे नियम स्वीकृत हुए हैं जो पद्य को सरस,सुन्दर, मनोहर और कोमल बनाने के बाधाक हैं। मैं सोचता हूँ, अब उनका विचारपूर्वक परित्याग किया जाना अनुचित नहीं। परिस्थिति के अनुसार सदा त्याग और ग्रहण होता आया है। अब भी इस सिध्दान्त से काम लिया जा सकता है। कुछ भाषा मर्मज्ञों का यह कथन है कि भाषा की कोमलता और मधुरता का बहुत अधिक सम्बन्धा संस्कार से है। यदि यह हम स्वीकार भी कर लें तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि गद्य और पद्य की भाषा में कोई अन्तर नहीं होता और पद्य के लिए कोमल,सरस और मधुर शब्द चुनने की आवश्यकता नहीं होती। संसार के साहित्य पर दृष्टि डालकर देखिए, सब जगह इस सिध्दान्त का पालन हुआ है और वर्तमान काल में भी हो रहा है। फिर संस्कार विषयक तर्क कैसा? मेरा कथन इतना ही है कि पद्य की भाषा को यदि पद्य के योग्य बनाना अभीष्ट हो तो उसी भाषा के विभिन्न अंगों के उपयुक्त शब्दों का त्याग नहीं होना चाहिए। विशेषकर ऐसे शब्दों का जो व्यापक हों और जिनमें प्रान्तिकता अथवा ग्रामीणता की छूत अधिक न लगी हो। मैं यह भी मानता हूँ कि हिन्दी भाषा राष्ट्रीयता की ओर बढ़ रही है, इसलिए उसके गद्य और पद्य में भी ऐसे ही शब्द प्रयुक्त होने चाहिए जो अन्य प्रान्तों में भी सुगमता से समझे जा सकें। निस्संदेह अगर ऐसे शब्द हैं तो संस्कृत ही के शब्द हैं। इसीलिए मैं भी उनके अधिक व्यवहार का विरोधी नहीं हूँ। पंरतु क्या संस्कृत में कोमल, मधुर और सरस शब्द नहीं हैं। फिर क्यों खड़ी बोली के पद्यों में संस्कृत के परुष शब्दों का प्रयोग प्राय: किया जाता है। दूसरी बात यह कि अवधी अथवा ब्रजभाषा के ऐसे ही शब्दों के लेने का अनुरोधा किया जाता है जो व्यापक, उपयुक्त और संस्कृत-सम्भूत हों, विदेशी भाषा के शब्द लिये जायँ और उनको खड़ी बोली की रचना में स्थान दिया जाय और अपने उपयोगी शब्दों को यह कहकर त्याग किया जावे कि वे ब्रजभाषा या अवधी के हैं तो यह कहाँ तक युक्तिसंगत है। ब्रजभाषा, खड़ी बोली और अवधी अन्य नहीं हैं, वे एक ही हैं, आवश्यकता और देशकालानुसार हम उनके भण्डार से उपयुक्त शब्द-संचय कर सकते हैं। इससे सुविधा ही होगी, असुविधा नहीं। मत-भिन्नता भी हितकारी है, यदि उसमें व्यर्थर् ईष्या-द्वेष की मात्रा न हो।

जिस समय यह खड़ी बोली और ब्रजभाषा का आन्दोलन चल रहा था, उस समय एक और आन्दोलन भी बल प्राप्त कर रहा था। वह था सरकारी कचहरियों में हिन्दी भाषा के प्रचलित होने का उद्योग। हिन्दी-हितैषियों का दल महर्षि-कल्प पूज्य पं. मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में उस काल इस आन्दोलन की ओर विशेष आकर्षित था। इसलिए हिन्दी की समुन्नति के लिए उन दिनों जो साधान उपयुक्त समझे गये काम में लाये गये। नगर-नगर में नागरी-प्रचारिणी-सभाओं का जन्म हुआ। नागरी के स्वत्व और उसके महत्तव-सम्बन्धी छोटी-बड़ी अनेक पुस्तिकाएँ निकाली गईं। स्थान-स्थान पर नागरी लिपि के प्रचार की महत्ता का राग अलापा गया और दूसरे यत्न जो उचित समझे गये, काम में लाये गये। इस आन्दोलन से भी खड़ी बोली की कविता के आन्दोलन को बड़ी सहायता पहुँची क्योंकि विपक्षी हिन्दी भाषा पर जो दोषारोपण करते थे, उचित मात्रा में उनका निराकरण करना भी आवश्यक ज्ञात हुआ। उस समय ऐसी बातें अवश्य कही गईं कि खड़ी बोली की कविता ऐसी हो जो उर्दू कविताओं से पूरी तौर पर टक्कर ले सके। इस अवसर से कुछ कट्टर खड़ी बोली के प्रेमियों ने लाभ उठाकर इस बात का अवश्य प्रचार किया कि जहाँ तक हो, ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का कोई सम्पर्क न रहे। इसको बहुत कुछ व्यावहारिक रूप भी दिया गया, परन्तु यह उत्तोजना के समय की बात थी। वह समय निकल जाने पर इस विषय में जो कट्टरता व्यापक रूप ग्रहण कर रही थी वह बहुत कुछ कम हो गई और विवेकशील हृदयों से वह दुर्भाव निकल गया जो ब्रजभाषा से किसी प्रकार की सहायता न लेने के पक्ष में था। इस स्थिरता के समय में खड़ी बोलचाल की जो रचनाएँ हुई हैं, उनमें ब्रजभाषा के सरस शब्दों का प्रयोग देखा जाता है। परन्तु अब तक इस विषय में संतोषजनक प्रवृत्तिा नहीं उत्पन्न हुई। मेरी सम्मति यह है कि अब वह समय आ गया है जब संयत चित्ता से भाषा मर्मज्ञ लोग इस विषय पर विचार करें और खड़ी बोली की कविता को कर्कशता दोष से दूषित होने से बचावें।

इस खड़ी बोली के आन्दोलन के समय में जो कवि उत्पन्न हुए और कार्य-क्षेत्र में आये उनकी चर्चा इस स्थान पर आवश्यक है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि किस प्रकार खड़ी बोली की कविता साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर हुई। यहाँ यह बात स्मरण रखना चाहिए कि ब्रजभाषा के कवि उस समय भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। केवल अन्तर इतना ही है कि अब हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में खड़ी बोली को प्रधानता प्राप्त हो गई है। आन्दोलन के पहले बाबू हरिश्चन्द्र और उनके सम-सामयिक कवियों को भी खड़ी बोली की दो-एक स्फुट कविताएँ करते देखा जाता है, यद्यपि उनमें खड़ी बोली का वह आदर्श नहीं पाया जाता जो बाद को दृष्टिगत हुआ। बाबू हरिश्चन्द्र के एक पद्य का कुछ अंश नीचे दिया जाता है जिससे आप अनुमान कर सकेंगे कि वे भी उस समय खड़ी बोली की रचना की ओर कुछ आकर्षित हुए थे। वे पंक्तियाँ ये हैं-

कहाँ हो ऐ हमारे राम प्यारे।

किधार तुम छोड़ कर हमको सिधारे।

बुढ़ापे में यह दुख भी देखना था।

इसी के देखने को मैं बचा था।

इनके उपरान्त पं. बदरीनारायण चौधरी और पं. प्रतापनारायण मिश्र को भी हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की दो-एक स्फुट कविता करते देखा जाता है। मैं इनकी कविताएँ पहले के पृष्ठों में उद्धृत कर आया हूँ। इसके बाद हमारे सामने श्रीधार पाठक आते हैं, जिन्होंने ‘एकान्तवासी योगी’ नामक खड़ी बोलचाल की एक पद्य पुस्तक ही लिख डाली।

पं. श्रीधार पाठक ब्रज प्रान्त के रहने वाले थे, आगरे में उनका निवास था। इसीलिए ब्रजभाषा से उनको स्वाभाविक प्रेम था। वे अंग्रेजी और संस्कृत दोनों के विद्वान थे। किन्तु सरस-प्रकृति होने के कारण कविता रचने की ओर उनकी विशेष प्रवृत्तिा थी। पहले वे ब्रजभाषा में ही कविता करते थे। परन्तु समय की गति उन्होंने पहिचानी और बाद को खड़ी बोली की ओर आकर्षित हुए। वे हिन्दी-संसार में खड़ी बोली के पहले पद्यकार होने की दृष्टि से ही आदृत हैं। हिन्दी के कुछ स्फुट गद्य लेख और’तिलस्माती मुँदरी’ नामक एक उपन्यास भी उन्होंने लिखा है। परन्तु कीर्ति उन्होंने पद्य-ग्रन्थ लिखकर ही पाई। संयुक्त प्रांत की गवर्नमेंट के दफ्तर में पहले वे डिप्टी सुपरिन्टेण्डेण्ट थे, किन्तु बाद को सुपरिन्टेण्डेण्ट हो गये थे। इस कारण उनको समयाभाव था। फिर भी वे यथावकाश हिन्दी देवी की सेवा में रत रहे। खड़ी बोली का उनका पहला पद्य ग्रन्थ एकान्तवासी योगी है। इसके बाद उन्होंने जगत सचाई सार और श्रान्त पथिक नामक दो और छोटे ग्रंथ लिखे। जगत सचाई सार उनका स्वरचित ग्रंथ है,शेष दोनों ग्रंथ अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद हैं। ये दोनों ग्रंथ भी छोटे हैं परन्तु इन्हीं के द्वारा उनको खड़ी बोली का पहला ग्रन्थकार होने का गौरव प्राप्त है। इन दोनों ग्रंथों की भाषा अधिकतर संस्कृत गर्भित है, उनमें खड़ी बोलचाल के नियमों की रक्षा भी यथार्थ रीति से नहीं हुई है। किसी भाषा की आदिम रचना में जो त्रुटियाँ होती हैं, वे सब उनमें मौजूद हैं। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने इन ग्रन्थों की रचना करके खड़ी बोली की कविता का मार्ग बहुत कुछ प्रशस्त बनाया, उनके कुछ पद्य देखिए-

1. साधारण अति रहन सहन

मृदु बोल हृदय हरने वाला।

2. मधुर मधुर मुसक्यान मनोहर

मनुज वंश का उँजियाला।

3. सभ्य सुजन सत्कर्म परायण सौम्य सुशील सुजान।

4. शुध्द चरित्रा उदार प्रकृति शुभ विद्या बुध्दि निधान।

5. प्राण पियारे की गुण गाथा साधु कहाँ तक मैं गाऊँ।

6. गाते गाते नहीं चुके वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ।

7. विस्व निकाई विधि ने उसमें की एकत्रा बटोर।

8. बलिहारौं त्रिभुवन धान उस पर वारौं काम करोर।

– एकान्तवासी योगी

9. शीतल मृदुल समीर चतुर्दिक

सुखित चित्ता को करती है।

10. कोमल कल संगीत सरस धवनि

तरु तरु प्रति अनुसरती है।

11. सकल सृष्टि की सुघर सौम्य

छबि एकत्रित तहँ छाई है।

12. अति की बसै मनुष्यों ही के

मन में अति अधिकाई है।

13. मनन वृत्तिा प्रति हृदय-मधय

दृढ़ अधिकृत पाई जाती है।

14. अति गरिष्ट साहसिक लक्ष्य

उत्साह अमित उपजाती है।

15. गति में गौरव गर्व दृष्टि में

दर्प धाृष्टता युत धारी।

16. देखूँ हूँ मैं इन्हें मनुज कुल

नायकता का अधिकारी।

17. सदा बृहतव्यवसाय निरत

सुविचारवंत दीखे सारे।

18. सुगम स्वल्प आचार शील

औ शुध्द प्रकृति के गुण धारे।

19. कृषिकर भी प्रत्येक स्वत्व की

जाँच गर्व युत करता है।

20. त्यों मनुष्य होने का मान

सबके समान मन धारता है।

21. धान तृष्णा का घृणित एक

सामान्य कुण्ड बन जावैगा।

22. नृपति शूर विद्वान आदि।

कोई भी मान नहिं पावैगा।

– श्रान्त पथिक

1. इन पद्यों में किस प्रकार संस्कृत तत्सम शब्दों का आधिक्य है, यह कथन करने की आवश्यकता नहीं। यह मैं स्वीकार करूँगा कि चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा की कविता में संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग होने लगा था। उत्तारोत्तार यह प्रवृत्तिा बढ़ती गई। यहाँ तक कि अवधी भाषा के मुसलमान कवियों ने भी अवसर आने पर संस्कृत के तत्सम शब्दों का व्यवहार किया। परंतु इन लोगों का संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग परिमित है। उनकी प्रवृत्तिा तद्भव या अर्धा तत्सम शब्दों के व्यवहार की ओर ही अधिक देखी जाती है। संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग वे किसी कारण विशेष के उपस्थित हो जाने पर ही करते थे। हाँ, गोस्वामी तुलसीदास अथवा प्रज्ञाचक्षु सूरदास आदि कुछ महाकवियों ने किसी-किसी रचना में विशेषकर स्तुति और वंदना-सम्बन्धी पद्यों में संस्कृत शब्दों का प्रयोग बहुत अधिक किया है और इस प्रकार किसी-किसी पद्य को संस्कृतमय बना दिया है। परंतु ऐसे पद्यों की संख्या बहुत थोड़ी है। हम उनको अपवाद मानते हैं, वे नियम के अंतर्गत नहीं। पाठक जी के पद्यों में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य नियम के अंतर्गत है और यही खड़ी बोलचाल की रचना की बहुत बड़ी विशेषता है। तत्सम शब्दों के प्रयोग का जो आदर्श इन पद्यों में पाया जाता है, वह खड़ी बोली-संसार में आज तक गृहीत है। किसी-किसी ने पाँव आगे भी बढ़ाया है और इससे अधिक संस्कृत-परुष शब्दों से गर्भित रचनाएँ की हैं। अब तक यह प्रवाह चल रहा है। परंतु कुछ लोगों ने इसका पूरा अनुकरण नहीं किया, उन्होंने कोमल तथा ललित शब्दों को ही अपनी रचनाओं में स्थान दिया। आजकल विशेषकर कोमल और सरस शब्दों में रचना करने की ओर लोगों की दृष्टि आकर्षित है, और पहले से खड़ी बोलचाल की रचनाएँ अधिक कोमल और सरस होने लगी हैं। प्राकृत भाषाएँ संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग के प्रतिकूल थीं। इसकी कुछ प्रतिक्रिया अवधी और ब्रजभाषा में हुई। खड़ी बोली की रचना में वह पूर्णता में परिणत हो गई।

2. ब्रजभाषा और अवधी में हलन्त का सस्वर प्रयोग होता है। प्राकृत में भी अनेक स्थलों पर यह प्रणाली गृहीत है। श्रीधारजी ने अपनी खड़ी बोली की रचना में इस प्रणाली को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए उनके ऊपर के पद्यों में चतुर्दिक’बृहत’, एवं ‘विद्वान’ के अंतिम अक्षर जिन्हें हलन्त होना चाहिए, सस्वर लिखे गये हैं। आजकल कुछ लोगों को देखा जाता है कि हलन्त वर्णों को हलन्त ही लिखना चाहते हैं। मैं समझता हूँ ऐसा करने से मुद्रण कार्य में ही असुविधा न होगी, अनेक खड़ी बोली के पद्यों की रचना में भी कठिनता होगी। विशेषकर उन रचनाओं में जो संस्कृत वृत्ताों में की जायेगी। इसलिए मेरा विचार है कि इस प्रणाली को स्वीकृत रहना चाहिए।

3. संस्कृत का नियम है कि संयुक्त वर्ण के पहले जो वर्ण होता है उसका उच्चारण दीर्घ होता है। एक शब्द के अन्तर्गत इस प्रकार का उच्चारण स्वाभाविक होता है। इसलिए उसमें जटिलता नहीं आती। वह स्वयं सरलता से दीर्घ उच्चरित होता रहता है। जैसे ‘समस्त’, ‘कलत्रा’, ‘उन्मत्ता’ आदि। परंतु जहाँ वह समस्त रूप में होता है वहाँ उसका उच्चारण दीर्घ रूप में करने से हिन्दी-रचनाओं में एक प्रकार की जटिलता आ जाती है। इसलिए विशेष अवस्थाओं को छोड़कर, मेरा विचार है कि उसका Ðस्व उच्चरित होना ही सुविधाजनक है। ऊपर के पद्यों में ‘सरस ध्वनि’ और ‘वृहत व्यवसाय’ ऐसे ही प्रयोग हैं। संस्कृत के नियमानुसार ‘सरस’ के अंतिम ‘स’ को और ‘बृहत’ के ‘त’ को दीर्घ होना चाहिए। किंतु उसको दीर्घ बनाने से छन्दोभंग होगा। इसीलिए पद्यकार ने उसको Ðस्व रूप ही में ग्रहण किया। हिन्दी भाषा के पहिले आचार्यों की भी यही प्रणाली है। मेरा विचार है,इस प्रणाली को स्वीकृत रहना चाहिए। विशेष अवस्थाओं में उसके दीर्घ करने का मैं विरोधी नहीं।

4. ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर आया है ‘तरुतरुप्रति’ और दूसरे स्थान पर आया है ‘मन धारता है’। खड़ी बोल-चाल के नियमानुसार इनको ‘तरुतरु के प्रति’ और ‘मन में धारता है’ होना चाहिए। इनमें कारक चिद्दों का लोप है। यह प्रयोग खड़ी बोलचाल के नियम के विरुध्द है। ‘के’ का प्रयोग क्षम्य भी हो सकता है, क्योंकि वहाँ उसके बिना अर्थ की भ्रांति नहीं होती। परन्तु ‘में’ का प्रयोग न होने से वाक्य का यह अर्थ होता है कि ‘मन’ स्वयं किसी वस्तु को धारता या पकड़ता है। कवि का भाव यह नहीं है। वह यह कहता है कि अपने ‘मन’ में कोई कुछ रखता या धारता है। ऐसा प्रयोग निस्सन्देह सदोष है। ऐसा होना नियमानुकूल नहीं। कवि ने ऐसा प्रयोग संकीर्णता में पड़कर किया है। इससे उसकी असमर्थता प्रकट होती है। मेरा विचार है कि खड़ी बोलचाल के कवियों को इस असमर्थता-दोष से बचना चाहिए। खड़ी बोलचाल की रचनाओं में वहीं ऐसा प्रयोग करना चाहिए जहाँ वह मुहावरों के अंतर्गत हो, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूँ।

5. समस्त पदों को पद्य में यदि लाया जावे तो उसको उसी रूप में लाना चाहिए जो शुध्द है। उनके शब्दों को उलटना-पुलटना नहीं चाहिए। परन्तु प्राय: हिन्दी-पद्यों में इस नियम की रक्षा पूर्णतया नहीं हो पाती। प्रयोजन यह कि सुन्दर बालक,कमल-दल, कमल-नयन, पंचमुख और बहुचिद्दित इत्यादि वाक्यों को इसी रूप में लिखा जाना चाहिए किन्तु वृत्ता एवं छन्द के बन्धानों में पड़कर उनके शब्दों को उलट-पुलट दिया जाता है। ऐसा अन्य भाषाओं में भी होता है। किन्तु यथासम्भव इस दोष से बचना चाहिए। विशेषकर तत्पुरुष और बहुब्रीहि समासों में। ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर ‘साधारण अति’ लिखा गया है। ऐसा प्रयोग उचित नहीं था। विशेषकर उस अवस्था में जब ‘अति साधारण’ लिखा जा सकता था। मैं समझता हूँ ऐसा अमनोनिवेश के कारण असावधानी से हो गया है। ऐसी असावधानी कदापि वांछनीय नहीं।

6. ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर ‘तहाँ’ के स्थान पर ‘तहँ’ और दूसरी जगह ‘नहीं’ के स्थान पर ‘नहि’ आया है। खड़ी बोलचाल के नियमानुसार उनको शुध्द रूप में ही आना चाहिए था। संस्कृत में ‘नहि’ का प्रयोग ‘नहीं’ के अर्थ में होता है, जैसे’नहि नहि रक्षति डुक्रिय करणम्’। इस दृष्टि से देखा जावे तो ‘नहि’ का प्रयोग सदोष नहीं है। क्योंकि वह संस्कृत का तत्सम शब्द है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि गद्य में ‘नहिं’ का प्रयोग न होना इस विचार का बाधाक है। किन्तु मैं इस बात को इसलिए नहीं मानता कि इससे पद्य की वह सुविधा नष्ट होती है जो गद्य की अपेक्षा उसे अधिक प्राप्त है। मेरा विचार है कि पद्य में संस्कृत के तत्सम शब्द होने का धयान रखकर यदि उसका प्रयोग संकीर्ण स्थलों पर किया जाय तो वह सदोष न होगा। हाँ, ‘नहि’ के ‘हि’ पर बिन्दी नहीं लगानी चाहिए। पद्य की बीसवीं पंक्ति का ‘का’ और बाईसवीं पंक्ति का ‘भी’ लघु पढ़ा जाता है यद्यपि वह लिखा गया है दीर्घ। हिन्दी भाषा के प्रचलित नियमानुसार दीर्घ को लघु पढ़ना छन्दो-नियम के अन्तर्गत है। सवैया में प्राय: ऐसा किया जाता है। परन्तु इस प्रकार का प्रयोग न होना ही वांछनीय है, क्योंकि प्राय: लोग ऐसे स्थानों पर अटक जाते हैं और छन्द को ठीक-ठीक नहीं पढ़ सकते। यद्यपि उर्दू में ऐसे प्रयोगों की भरमार है। उर्दू में इस प्रकार का प्रयोग इसलिए नहीं खटकता कि उर्दू वाले इस प्रकार के प्रयोगों के पढ़ने के अभ्यस्त हैं। हिन्दी पद्यों में इस प्रकार के प्रयोग बहुत ही अल्प मिलते हैं, इसलिए प्राय: पढ़ने में रुकावट उत्पन्न करते हैं। ऐसी दशा में जहाँ तक सम्भव हो, इस प्रकार के प्रयोग से बचने की चेष्टा की जानी चाहिए।

7. अठारहवीं पंक्ति में ‘और’ के स्थान पर ‘औ’ लिखा गया है। खड़ी बोलचाल की कविता में प्राय: ‘और’ ही लिखा जाना अच्छा समझा जाता है। कुछ लोग अंग्रेजी प्रणाली के अनुसार ‘औ’ के ऊपर ‘कामा’ लगाकर उसके ‘र’ को उड़ा देते हैं। उनका कथन है कि जब औ’ से और का भाव प्रगट हो जाता है, तो संकीर्ण स्थलों में उसका प्रयोग क्यों न किया जाय। मैं भी इस विचार से सहमत हूँ। उर्दू वाले लिखने को तो अपने पद्यों में ‘और’ लिख देते हैं, परन्तु अनेक स्थानों में उसका उच्चारण ‘औ’ही कर लेते हैं। यह प्रणाली अच्छी नहीं, और न हिन्दी के लिए उपयुक्त है। इसलिए जहाँ तीन मात्रा वाला ‘और’ न प्रयुक्त हो सके, द्विमात्रिक ‘औ’ का लिखना आक्षेप-योग्य नहीं।

8. पंक्ति सात और आठ में ‘निकाई’ और ‘करोर’ शब्द आये हैं। ‘निकाई ठेठ ब्रजभाषा’ है, ‘करोर’ ब्रजभाषा के नियमानुसार अनुप्रास के झमेले में पड़कर ‘करोड़’ से बनाया गया है। पाठक जी के बाद के खड़ी बोली के कविगण इस प्रकार के प्रयोग को अच्छा नहीं समझते और वे ब्रजभाषा के इस प्रकार के शब्दों से बचना चाहते हैं। परन्तु फिर भी ‘निकाई’, की निकाई पर कुछ लोग मुग्धा हैं। वे अब तक इसको अपनी रचनाओं में स्थान देते हैं। मेरा विचार है कि ब्रजभाषा के ऐसे सरस शब्दों का बहिष्कार उचित नहीं। ऐसे शब्दों के ग्रहण करने से ही खड़ी बोली की कर्कशता दूर होगी। ‘करोड़’ को ‘करोर’ कर देना मैं भी अच्छा नहीं समझता। ऐसे परिवर्तनों से बचना चाहिए यदि भावुकता भी साथ दे।

9. दसवीं पंक्ति में अनुसरती है। और अठारहवीं पंक्ति में ‘धारे’ क्रियाओं का प्रयोग है। न तो खड़ी बोली में अनुसरना कोई क्रिया है, न धारना। खड़ी बोलचाल में ‘धारना’ के स्थान पर ‘रखना’ का प्रयोग होता है। फिर भी उन्होंने इन क्रियाओं का प्रयोग अपनी खड़ी बोली की रचना में किया है। ‘धारना’ क्रिया के रूपों का व्यवहार अब तक खड़ी बोलचाल की कविता में हो रहा है। 21वीं और 22वीं पंक्तियों में ‘जावैगा’, ‘पावैगा’ लिखा गया है। ये दोनों क्रियाएँ हिन्दी की हैं और अब तक इनका प्रयोग भी खड़ी बोली की रचना में हो रहा है। अन्तर इतना ही है कि ‘जावेगा’, ‘पावेगा’ अथवा ‘जाएगा’, ‘पाएगा’ लिखा जाता है।’जावेगा’, ‘पावेगा’ के विषय में मुझको कुछ अधिक नहीं कहना है। यदि थोड़ा सम्हलकर प्रयोग किया जावे तो खड़ी बोलचाल में उसका प्रयोग शुध्द रूप में हो सकता है। हाँ, ‘धारना’ क्रिया के रूपों का प्रयोग अवश्य विचारणीय है। क्योंकि उसका प्रयोग दो अर्थों में होता है एक ‘रखना’ के और दूसरा ‘पकड़ना’ क्रिया के रूप में। उर्दू वाले इसके स्थान पर ‘रखना’ और ‘पकड़ना’ क्रिया रूपों ही का प्रयोग करते हैं। हिन्दी गद्य में भी ऐसा ही होता है। इसलिए उसका प्रयोग खड़ी बोली की कविता के लिये अधिक अनुकूल नहीं है। उसमें एक प्रकार की ग्रामीणता है। परन्तु यह क्रिया उपयोगिनी बड़ी है। अनेक अवसरों पर वह अकेली दो-दो क्रियाओं का काम दे जाती है और इसीलिए वह अब तक खड़ी बोली के पद्यों में स्थान पाती आती है। मेरा विचार है कि उसका सर्वथा त्याग उचित नहीं। हाँ, उसका बहुल प्रयोग अच्छा नहीं कहा जा सकता। अब रहा अनुसरती है का प्रयोग। निस्सन्देह’अनुसरना’ हिन्दी में कोई धातु नहीं है। यह क्रिया ब्रजभाषा से ही आई है, परन्तु उसको खड़ी बोली का रूप दे दिया गया है। क्रिया है बड़ी मधुर। इस पर कवित्व की छाप है। मेरा विचार है कि ब्रजभाषा की ऐसी क्रियाओं को खड़ी बोलचाल का रूप देकर ग्रहण कर लेना युक्ति-संगत है। इससे खड़ी बोली वह सिध्दि प्राप्त कर लेगी जो सरसता की जननी है। पंक्ति 12 में’अधिकाई’ और ‘बसैहै’ का प्रयोग है। ‘बसैहै’ में गहरा दूरान्वय दोष है। वह तो ग्रहणीय नहीं। अब रहा यह कि ‘बसैहै’, ‘जलैहै’इत्यादि प्रयोग खड़ी बोलचाल की कविता में होना चाहिए या नहीं। किसी क्रिया का वर्तमान काल का रूप खड़ी बोलचाल में इस प्रकार नहीं बनता। इसलिए इस प्रकार का प्रयोग अच्छा नहीं ‘अधिकाई’ लिखा जाना भी असुन्दर है। ‘देखूँहूँ’ और ‘दीखैं’क्रियाओं का प्रयोग पंक्ति 16 और 17 में हुआ है, यह प्रयोग भी खड़ी बोली के नियमों के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार पंक्ति 8के ‘बलिहारौ’, ‘वारौ’ क्रियाओं का व्यवहार भी खड़ी बोली के नियमों के अनुसार नहीं। इसलिए मेरी सम्मति यही है कि इस प्रकार की क्रियाओं से खड़ी बोलचाल की रचनाओं को सुरक्षित रखना चाहिए। पाठक जी की खड़ी बोली की आदिम रचनाओं में इस प्रकार की क्रियाओं का आना उतना तर्क-योग्य नहीं, क्योंकि वह खड़ी बोली के प्रसार का आदिम काल था। मुझे हर्ष है कि उनके बाद के सहृदय कवियों ने इस प्रकार के प्रयोगों की उपेक्षा करके खड़ी बोली की कविता का मार्ग अधिकतर निर्दोष बना दिया है।

आप लोग यदि एक बार सिंहावलोकन से काम लेंगे तो यह ज्ञात हो जायगा कि खड़ी बोली का अस्तित्व उसी समय से है जब से ब्रजभाषा अथवा अवधी का। खुसरो की कविता में उसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वरन् यह कहा जा सकता है कि जैसा सुन्दर आदर्श खड़ी बोली की कविता का उन्होंने उपस्थित किया, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक वैसा आदर्श नहीं उपस्थित किया जा सका। कबीर साहब की रचनाओं में भी उसका रंग पाया जाता है। भूषण् के कवित्ताों में भी उसकी झलक मिलती है। महन्त सीतल ने तो एक प्रकार से उसकी बाँह ही पकड़ ली और उस निरावलम्बा को बहुत कुछ अवलम्बन दिया। इंशा अल्ला खाँ ने अपनी रानी केतकी की कहानी में और नजीर अकबराबादी ने अपनी स्फुट रचनाओं में उसका रंग रूप दिखलाया। रघुनाथ, ग्वाल कवि और सूदन की रचनाओं में भी उसकी छटा दृष्टिगत होती है और वह करवट बदलती ज्ञात होती है। बाबू हरिश्चन्द्र, पं. प्रतापनारायण और पं. बदरीनारायण चौधरी ने तो उसके कतिपय स्फुट पद्य बनाकर उसे वह शक्ति प्रदान की जिसके आधार से पं. श्रीधार पाठक ने उसको दो सुन्दर पुस्तकें भी प्रदान कीं। इसी समय पं. अम्बिकादत्ता व्यास ने ‘कंस वधा’ नामक एक साधारण काव्य निदर्शन रूप में लिखा परन्तु अपने उद्योग में वे सर्वथा असफल रहे। खड़ी बोलचाल की कविता का रूप इन लोगों की रचनाओं में अधिकतर अस्पष्ट है और उसके शब्द विन्यास भी अनियमबध्द पाये जाते हैं। परन्तु पाठक जी के दो ग्रन्थों (एकान्तवासी योगी और श्रान्त पथिक) में उसका रूप बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है और उसके शब्द-विन्यास के नियम भी बहुत कुछ व्यवस्थित देखे जाते हैं। पाठक जी का हृदय वास्तव में ब्रजभाषामय था। उनकी ब्रजभाषा की रचनाएँ जितनी हैं, बड़ी सरस और सुन्दर हैं। उनकी ‘काश्मीर-सुखमा’ नाम की पुस्तिका उनकी समस्त रचनाओं में सर्वोत्ताम है,किन्तु उसकी भाषा ब्रजभाषा है। उनके जीवन का अन्तिम समय भी ब्रजभाषा की सेवा ही में बीता। यदि वे इस स्वाभाविक प्रेम के जाल में न फँसते और दो एक मौलिक ग्रन्थ खड़ी बोल-चाल के पद्यों में और लिख जाते तो उस समय वह कुछ और अधिक उन्नत हो जाती। फिर भी उन्होंने पहले पहल जितना किया, उसके लिए वे चिर स्मरणीय हैं और खड़ी बोली कविता का क्षेत्र उसके लिए उनका कृतज्ञहै।

पाठकजी के उपरान्त खड़ी बोली के कविता-क्षेत्र में हमको पं. नाथूराम शंकर शर्मा का दर्शन होता है। ये ब्रजभाषा के ही कवि थे और उसमें सुन्दर और सरस रचना करते थे। परन्तु सामयिक रुचि का इन पर भी प्रभाव पड़ा और ये खड़ी बोली में ही कविता लिखने लगे। शर्माजी आर्य-समाजी विचार के हैं। आर्य-समाज की कट्टरता प्रसिध्द है। शर्मा जी भी अपने विचार के कट्टर हैं। इनकी यह कट्टरता इनकी रचना में ही नहीं, इनके शब्दों में भी फूटी पड़ती है। आर्य-समाज के सिध्दान्त के अनुसार समाज संशोधान सम्बन्धी विचार प्रकट करने के लिए इनको खड़ी बोली उपयुक्त ज्ञात हुई। इसलिए इनका उसकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था। इनके धार्मिक विचारों में भी उग्रता है। इस सूत्रा से भी इनको खड़ी बोली की कविता करनी पड़ी क्योंकि उस समय आर्य-समाज को जनता में अपना सिध्दान्त प्रचार करने के लिए ब्रजभाषा से खड़ी बोली ही उन्हें अधिक प्रभाव जनक जान पड़ी। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनकी खड़ी बोली की रचना में ब्रजभाषा का पुट बराबर आवश्यकता से अधिक रहा और अब तक है। इन्होंने छोटी-मोटी कई पुस्तकें बनाई हैं किन्तु इनकी छपी हुई चार पुस्तकें अधिक प्रसिध्द हैं। इनके नाम ये हैं-शंकर सरोज, अनुराग-रत्न, गर्भ रण्डारहस्य और वायस विजय। इनकी रचना की विशेषता यह है कि उसमें समाज संशोधान, मिथ्याचार खंडन और परम्परागत रूढ़ियों का निराकरण उत्कट रूप में पाया जाता है। इनसे पहले इस ढंग की रचनाओं का अभाव था। समय ने इनके ही द्वारा इस अभाव की पूर्ति कराई। खड़ी बोलचाल में आपकी ही ऐसी पहली रचना है, जिसमें समाज को उसके अन्धाविश्वासों के लिए गहरी फटकार मिलती है। इस विषय में हिन्दी साहित्य क्षेत्र में कबीर के बाद इनका ही स्थान है। मुँहफट और अक्खड़ भी ये वैसे ही हैं। जब आवेश में आते हैं तो इनके उद्गार में ऐसे शब्द भर जाते हैं जिनसे एक प्रकार का स्फोट-सा होता ज्ञात होता है। शर्मा जी हिन्दी संसार के एक ख्याति प्राप्त और मान्य कवि हैं। इनको गुण ग्राहकों ने पदक और उपयुक्त पदवियाँ भी प्रदान की हैं। इनका ब्रजभाषा का एक पद्य नीचे लिखा जाता है-

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