भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


1. मंगल करन हारे कोमल चरन चारु

मंगल से मान मही गोद में धारत जात।

पंकज की पाँखुरी सी ऑंगुरी ऍंगूठन की

जाया पंचबान जी की भँवरी भरत जात।

शंकर निरख नख नग से नखत ò ेनी

अंबर सों छूटि छूटि पाँयन परत जात।

चाँदनी में चाँदनी के फूलन की चाँदनी पै

हौले हौले हंसन की हाँसी सी करत जात।

एक पद्य खड़ी बोलचाल का देखिए-

2. कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है

कि श्याम घनमंडल में दामिनी की धारा है।

यामिनी के अंक में कलाधार की कोर है

कि राहु के कबंधा पै कराल केतु तारा है।

शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है

कि तेज ने तिमिर के हिये में तीर मारा है।

काली पाटियों के बीच मोहिनि की माँग है

कि ढाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है।

एक पद्य ऐसा देखिए जिसमें खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों का गहरा रंगहै-

3. ताकत ही तेज न रहैगो तेजधारिन में

मंगल मयंक मंद पीले पड़ जायँगे।

मीन बिन मारे मर जायँगे तड़ागन में

डूबडूब शंकर सरोज सड़ जायँगे।

खायगो कराल काल केहरी कुरंगन को

सारे खंजरीटन के पंख झड़ जायँगे।

तेरी ऍंखियान सों लड़ैगे अब और कौन

केवल अड़ीले दृग मेरे अड़ जायँगे।

एक पद्य डाँट फटकार का भी देखिए-

4. ईश-गिरिजा को छोड़ यीशु गिरजा में जाय

शंकर सलोने मैन मिस्टर कहावेंगे।

बूट पतलून कोट कमफाट टोपी डाटि

जाकेट की पाकेट में वाच लटकावेंगे।

घूमेंगे घमंडी बने रंडी का पकड़ हाथ

पिएँगे बरंडी मीट होटल में खावेंगे।

फारसी की छार सी उड़ाय ऍंग्रेजी पढ़ि

मानो देवनागरी का नाम ही मिटावेंगे।

इनकी एक रचना विचित्र भाषा भाव की देखिए-

5. बाबा जी बुलाये बीर डूँगरा के डोकरा ने

जैमन को आसन बछेल के बिछाये री।

ओंड़े ऊदला महेरी के सपोट गये झार

गये झोर रोट झार पेट भरे खाये री।

छोड़ी न गजरभत नेक हूँ न दोरिया में

रोंथ रोंथ रूखी दर भुजिया अघाये री।

संतन के रेवड़ जो चमरा चरावत हैं

शंकर सो बाने बंद बेदुआ कहाये री।

एक पद्य ऐसा देखिए जिसमें परसी के मुहावरे और शब्द दोनों कसरत से शामिल है-

बाग़ की बहार देखी मौसिमे बहार में तो

दिल अन्दलीप को रिझाया गुल तरसे।

हम चकराते रहे आसमाँ के चक्कर में

तौभी लौ लगी ही रही माह के महर से।

आतिशे मुसीबत ने दूर की गुदूरत को

बात की नबात मिली लज्ज़ते शकर से।

शंकर नतीजा इस हाल का यही है बस

सच्ची आशिकी में नप होता है ज़रर से।

एक उर्दू पद्य देखिए जो हसब हाल है-

बुढ़ापा नातवानी ला रहा है।

ज़माना ज़िन्दगी का जा रहा है।

किया क्या ख़ाक आगे क्या करेगा।

आख़ीरी वक्त दौड़ा आ रहा है।

इस खड़ी बोली के उत्थान के समय में ब्रजभाषा के कवियों की कमी नहीं है। इस समय भी ब्रजभाषा के सुकवि उत्पन्न हुए और उन्होंने उसी की सेवा आजन्म की। उनमें से जो दो से अधिक प्रसिध्द हैं, वे हैं लाला सीताराम बी. ए. और स्वर्गीय रायदेवी प्रसाद पूर्ण। लाला सीताराम बी. ए. बहुभाषाविद् हैं। उनको संस्कृत, अंगरेज़ी, परसी, अरबी आदि कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान है। उन्होंने कई अंग्रेजी नाटकों का अनुवाद उर्दू में भी किया है। ब्रजभाषा की उन्होंने यह सेवा की ‘मेघदूत’, ‘ऋतु-संहार’, ‘रघुवंश’ का पद्यानुवाद सरल भाषा में करके उसे सौंपा। संस्कृत के ‘मालती माधाव’, ‘उत्तार राम चरित’ आदि नाटकों का अनुवाद भी गद्यपद्यमयी भाषा में किया। आप गद्य-पद्य दोनों लिखने में अभ्यस्त हैं। अपनी वृध्दावस्था में भी कुछ न कुछ हिन्दी-सेवा करते ही रहते हैं। आपके पद्य के कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं जो रघुवंश के पद्यानुवाद से लिये गये हैं-

भये प्रभात धोनु ढिग जाई।

पूजि रानि माला पहिराई।

बच्छ पियाइ बाँधि तब राजा।

खोल्यो ताहि चरावन काजा।

परत धारनि गा चरन सुवाहन।

सो मगधूरि होत अति पावन।

चली भूप तिय सोई मग माहीं।

स्मृति , श्रुति अर्थ संग जिमि जाहीं।

चौसिंधुन थन रुचिर बनाई।

धारनिहिं मनहुँ बनी तहँ गाई।

प्रिया फेरि अवधोश कृपाला।

रक्षा कीन्ह तासु तेहि काला।

कबहुँक मृदु तृन नोचि खिलावत।

हाँकि माछि कहुँ तनहिं खुजावत।

जो दिसि चलत चलत सोई राहा।

एहि बिधि तेहि सेवत नरनाहा।

राय देवीप्रसाद ‘पूर्ण’ कानपुर के एक प्रसिध्द वकील थे। आपने आजन्म हिन्दी भाषा की सेवा की और जब तक जिये उसको अपनी सरस रचनाओं से अलंकृत करते रहे। आप बड़े सहृदय कवि और वक्ता थे, धर्म प्रेमी भी थे। ब्रह्मर्वत्ता सनातनधर्म मण्डल की स्थापना भी आप ही ने की थी। ‘काव्य-शास्त्रा विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्’ के आप प्रत्यक्ष प्रमाण थे। उन्होंने रसिक-वाटिका नामक एक मासिक पत्रिका भी निकाली थी। पीछे से धर्म कुसुमाकर नामक एक मासिक पत्रा भी प्रकाशित किया। आपने ब्रजभाषा में अनेकसुन्दर रचनाएँ की हैं। उनमें से कुछ पुस्तकाकार भी छपी हैं। उन्होंने मेघदूत का’धाराधार धावन’ नाम से बड़ा सुन्दर और सरस अनुवाद किया है। उनका ‘चन्द्र कला भानुकुमार’ नाटक भी अच्छा है। उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

वर्षा-आगमन

1. सुखद सीतल सुचि सुगन्धिात पवन लागी बहन।

सलिल बरसन लगो बसुधा लगी सुखमा लहन।

लहलहीलहरान लागीं सुमन बेली मृदुल।

हरित कुसुमित लगे झूमन वृच्छ मंजुल बिपुल

हरित मनि के रंग लागी भूमि मन को हरन।

लसति इन्द्रबधून अवली छटा मानिक बरन।

बिमल बगुलन पाँति मनहुँ बिसाल मुक्तावली।

चन्द्रहास समान-दमकति चंचला त्यों भली

नील नीरद सुभग सुरधुन बलित सोभाधाम।

लसत मनु बनमाल धारे ललित श्री घनस्याम।

कूप कुंड गँभीर सरवर नीर लाग्यो भरन।

नदी नद उफनान लागे लगे झरना झरन

रटत दादुर त्रिविधि लागे रुचन चातक बचन।

कूक छावत मुदित कानन लगे केकी नचन।

मेघ गरजत मनहुँ पावस भूप को दल सकल।

विजय दुंदुभि हनत जग में छीनि ग्रीसम अमल।

2. तुम्हरे अद्भुत चरित मुरारी।

कबहूँ देत बिपुल सुख जग में कबहुँ देत दुख झारी।

कहुँ रचि देत मरुस्थल रूखो कहुँ पूरन जल रासि।

कहुँ ऊसर कहुँ कुंज विपिन कहुँ कहुँ तम हूँ परकास।

3. माता के समान परपतिनी बिचारी नहीं ,

रहे सदा पर धान लेन ही के धयानन मैं।

गुरुजन पूजा नहीं कीन्हीं सुचि भावन सों ,

गीधो रहे नानाविधि विषय विधानन मैं।

आयुस गँवाई सबै स्वारथ सँवारन मैं ,

खोज्यो परमारथ न वेदन पुरानन मैं।

जिनसों बनी न कछु करत मकानन मैं ,

तिनसों बनैगी करतूत कौन कानन मैं।

उनका एक बिरहा भी देखिए-

1. अच्छे अच्छे फुलवा बीन री मलिनियाँ

गूँधि लाओ नीके नीके हार।

फूलन को हरवा गोरी गरे डरिहौं

सेजिया में होइ है बहार।

वर्तमान-काल

यह वर्तमान काल बीसवीं ईस्वी शताब्दी के आदि से ही प्रारम्भ होता है। हिन्दी भाषा के लिए इसको स्वर्णयुग कह सकते हैं। इस काल में जितना वह विस्तृत हुई, फूली फली, उन्नत बनी, वह उल्लेखनीय है। कोई वह समय था जब हिन्दी भाषा के विद्वान् इने-गिने थे और उसको एक साधारण भाषा समझ कर हिन्दी संसार के प्रतिष्ठित पुरुषों की दृष्टि भी उसकी ओर आकर्षित होते संकुचित होती थी। किंतु वर्तमान काल में संस्कृत और अंग्रेजी के उच्च कोटि के विद्वान् ही क्या उसके पुनीत चरणों पर भारतवर्ष के वे महापुरुष भी पुष्पांजलि अर्पण करते दृष्टिगत होते हैं, जो लोकमान्य और देश-पूज्य हैं। मेरा अभिप्राय महर्षिकल्प पं. मदन मोहन मालवीय और महात्मा गांधी से है। मालवीय जी चिरकाल से हिन्दी भाषा के लिए वध्द-परिकर और उत्सर्गीकृत-जीवन हैं।र् वत्तामान काल में उनको महात्मा गांधी की सहयोगिता भी प्राप्त हो गयी है, जिससे हिन्दी भाषा की समुन्नति और सौन्दर्य वृध्दि के लिए मणि-कांचन-योग उपस्थित हो गया है। राष्ट्रीयता के भावों के साथ देश में एक भाषा का प्रश्न भी छिड़ा। इस आन्दोलन ने हिन्दी भाषा को उस उच्च सिंहासन पर बैठाला जिसकी वह अधिकारिणी थी। आज दिन देश के बड़े-बड़े नेता तथा अधिकतर सर्वमान्य विद्वान् सम्मिलित स्वर से यही कह रहे हैं कि राष्ट्रभाषा यदि हो सकती है तो हिन्दी भाषा। इस विचार से उसमें एक नवीन स्फूर्ति आ गयी है और उसके प्रत्येक विभागों में यथेष्ट उन्नति होती दृष्टिगत हो रही है। भारतवर्ष का कोई प्रान्त ऐसा नहीं है जहाँ इस समय हिन्दी भाषा की पहुँच न हो और जहाँ से हिन्दी भाषा का कोई न कोई पत्रा अथवा पत्रिका न निकल रही हो। उसके प्रसार का भी यथेष्ट यत्न किया जा रहा है और उसके प्रत्येक विभागों के भण्डार की वृध्दि में लोग सयत्न हैं। इस समय मेरे सामने उसके पद्य-विभाग का विषय है। मैं देखना चाहता हूँ कि इस शताब्दी के आरम्भ से आज तक वह किस प्रकार उत्तारोत्तार उत्कर्ष लाभ कर रहा है।

मैं खड़ी बोली की कविता के आन्दोलन के विषय में पहले चर्चा कर आया हूँ। यह आन्दोलन सबलता से चला और उसको सफलता भी प्राप्त हुई। परंतु नियमबध्दता और स्थिरता का उसमें अभाव था। कोई ऐसा संचालक उस समय तक उसको प्राप्त नहीं हुआ था जो उसका मार्ग प्रशस्त करे और तन-मन से इस कार्य में लगकर वह आदर्श उपस्थित करे जिस पर अन्य लोग चलकर उसको उन गुणों से अलंकृत कर सकें जो सत्कविता के लिए वांछनीय होते हैं। सौभाग्य से उस समय प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ का सम्पादकत्व लाभ कर पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी कार्य-क्षेत्र में उतरे और उन्होंने इस दिशा में प्रशंसनीय प्रयत्न किया। कविताप्रणाली का मार्ग धीरे-धीरे प्रशस्त होता है। काल पाकर ही उसकी कोई पध्दति सुनिश्चित होती है। कार्य-क्षेत्र में आने पर ज्यों-ज्यों उसके दोष प्रकट होते हैं, उस पर तर्क-वितर्क और मीमांसाएँ होती हैं, त्यों-त्यों वह परमार्जित बनती है और उसमें आवश्यकतानुसार सरस, सुंदर और भावमयी पदावली का समावेश होता है। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जिस समय अपना कार्य प्रारम्भ किया, उस समय हिन्दी खड़ी बोली की कविता का आरम्भिक काल था। उल्लेख योग्य दस-पाँच पद्य-ग्रन्थ उस समय तक निर्मित हुए थे और भाषा एक अनिश्चित और असंस्कृत मार्ग पर चल रही थी। प्रत्येक लेखक खड़ी बोली की कविता-रचना का एक अपना सिध्दांत रखता था और उसी के अनुसार कार्यरत था। यह मैं स्वीकार करूँगा कि उर्दू भाषा का आदर्श उस समय सबके सामने था जो यथेष्ट उन्नत थी। किन्तु कई विशेष कारणों से उसका यथातथ्य अनुकरण हिन्दी भाषा की खड़ी बोली की कविता नहीं कर सकती थी। हिन्दी और उर्दू में बहुत साधारण अन्तर है। उर्दू की जननी हिन्दी भाषा ही है। कुछ लोगों का यह विचार है कि हिन्दी उर्दू के आदर्श पर बनी है। कम से कम मेरा हृदय इसको स्वीकार नहीं करता। उर्दू के क्रियापद अधिकांश हिन्दी भाषा के हैं। हिन्दी भाषा के सर्वनाम कारक और अनेक प्रत्यय उर्दू भाषा के जीवन हैं। उनके अभाव में उर्दू का अस्तित्व लोप हो जायेगा। वह परसी बन जायेगी अथवा कोई ऐसी भाषा जिसका नामकरण भी न हो सकेगा। परसी अरबी के अधिक शब्द हिन्दी में मिला कर उर्दू गढ़ी गयी है अथवा उसका आविर्भाव हुआ है। ऐसी दशा में वह हिन्दी भाषा का रूपान्तर छोड़ और कुछ नहीं है। जब उर्दू की प्रवृत्तिा अधिकतर परसी और अरबी प्रयोगों की ओर झुकी और लम्बे-लम्बे समस्त पद भी उसमें इन भाषाओं के आने लगे, उस समय वह हिन्दी से सर्वथा भिन्न ज्ञात होने लगी। यह बात हिन्दी के अस्तित्व की बाधाक थी इसलिए उसका कोई निज का मार्ग होना आवश्यक था, जिससे वह अपने मुख्य रूप को सुरक्षित रख सके। उसका अपने वास्तविक रूप में विकसित होना भी वांछनीय था। अतएव खड़ी बोली की कविता उस मार्ग पर चली जो उसका लक्ष्य था। उसके कुछ पथ-प्रदर्शक इस मार्ग को जानते थे। अतएव वे उसके लक्ष्य की ओर सतर्क होकर चल रहे थे। परन्तु कुछ लोग उर्दू की अनेक बातों का अन्धानुकरण करना चाहते थे। ऐसे अवसर पर जिन लोगों ने खड़ी बोली की कविता को उचित पथ पर चलाया उनमें से पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी अन्यतम हैं। अपनी ‘सरस्वती’ नामक मासिक पत्रिका में उन्होंने अधिकतर खड़ी बोली की कविता ही प्रकाशित करने की ओर दृष्टि रखी और अनेक कृत-विद्यों को इस कार्य के लिए उत्साहित करके अपनी ओर आकर्षित किया। मुझको यह ज्ञात है कि जो खड़ी बोलचाल की कविताएँ उनके पास उस समय’सरस्वती’ में प्रकाशित करने के लिए जाती थीं, उनका संशोधान वे बड़े परिश्रम से करते थे और संशोधित कविता को ही’सरस्वती’ में प्रकाशित करते थे। इससे बहुत बड़ा लाभ यह होता था कि खड़ी बोली की कविता करने वालों का ज्ञान बढ़ता था और वे यह जान सकते थे कि उनको किस मार्ग पर चलना चाहिए। इस प्रणाली से धीरे-धीरे खड़ी बोली की कविता का मार्ग भी प्रशस्त हो रहा था। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इतना ही नहीं किया, उन्होंने कुछ खड़ी बोली की रचनाएँ भी कीं और इस रीति से भी उन्होंने खड़ी बोली की कविता-प्रणाली जनता के सामने उपस्थित की। उनका ‘कुमार-सम्भव-सार’ यद्यपि छोटी पुस्तक है,परन्तु उसकी खड़ी बोली की कविता बहुत परिमार्जित और सुंदर है। उसका प्रभाव भी उस काल की खड़ी बोली की कविता पर बहुत कुछ पड़ा। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी संस्कृत के विद्वान् और उसके प्रेमी हैं। इसलिए उनके गद्य और पद्य दोनों की भाषा संस्कृत बहुला है। गद्य तो गद्य, उनके पद्य में भी संस्कृत के कर्कश शब्द आ गये हैं। जिसका प्रभाव उनके शिष्यों की रचना पर भी पड़ा है। आदिम अवस्थाओं में ऐसा होना स्वाभाविक था। सुधार विशेषकर कविता में, यथाक्रम ही होता है।

जो भाषा साहित्यिक बनकर बोलचाल की भाषा से अधिक दूर पड़ जाती है, काल पाकर वह साहित्य ही में रह जाती है और उसका स्थान धीरे-धीरे एक नयी भाषा ग्रहण करने लगती है। इस दृष्टि से और इस विचार से भी कि उर्दू और हिन्दी भाषा की रचनाएँ अधिकतर पास-पास हो जाएँ, कुछ मननशील विद्वानों का यह विचार हुआ कि खड़ी बोलचाल की कविता की भाषा जहाँ तक हो बोलचाल के निकट हो और उसमें अधिकतर संस्कृत के तत्सम शब्द न भरें तो अच्छा। संस्कृत शब्दमयी रचना को सर्वसाधारण समझ भी नहीं सकते। इसलिए भी बोलचाल की सरल भाषा में कविता रचने की आवश्यकता होती है। यह मैं स्वीकार करूँगा कि अन्य प्रान्तों से सम्बन्धा स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि जैसे गद्य संस्कृत भाषामय होता है। वैसे ही पद्य भी हो क्योंकि संस्कृत के शब्द समान रूप से सब प्रान्तों में समझे जाते हैं। मेरा ‘प्रिय-प्रवास’ इसी विचार से अधिकतर संस्कृत गर्भित है। मैं इसका विरोधा नहीं करता। आवश्यकतानुसार कुछ ऐसे ग्रन्थ भी लिखे जायँ। परन्तु अधिकतर ऐसे ही ग्रन्थों की आवश्यकता है जिनकी भाषा बोलचाल की हो, जिससे अधिक हिन्दी भाषा-भाषी जनता को लाभ पहुँच सके। अभी इधार धयान बहुत कम गया है, उस समय भी ऐसी भाषा लिखने वालों को लोग कड़ी दृष्टि से देखते थे और समझते थे कि ऐसा करके वह हिन्दी भाषा के उच्च आदर्श को अधा:पतित कर रहा है। सन् 1900 ईस्वी में नागरी प्रचारिणी सभा का भवन-प्रवेशोत्सव था। उस समय मैंने एक लम्बी कविता हिन्दी भाषा सम्बन्धिानी लिखी थी। यह कविता ‘प्रेम-पुष्पोपहार’ के नाम से अलग पुस्तकाकार छपी है। मैंने उसे बोलचाल की भाषा में लिखा है। उत्सव में बाबू अयोधया प्रसाद खत्री भी आये थे। उन्होंने मेरे पढ़ने से पहले ही उस कविता को मुझसे लेकर पढ़ लिया। पढ़कर बहुत आनन्दित हुए, बोले-खड़ी बोली की कविता ऐसी ही भाषा में होनी चाहिए। परन्तु मेरी इस कविता को स्व. पं. बदरीनारायण चौधरी (प्रेमघन) ने उनकी दृष्टि से नहीं देखा। जब मैंने उत्सव के समय सभा में यह कविता पढ़ी तो कविता समाप्त होने पर वे मेरे पास अपने स्थान से उठकर आये और कहा कि यह उर्दू कविता है। आप इसे हिन्दी क्यों कहते हैं। मुझसे उन्होंने सभा भवन से बाहर आकर भी उसके विषय में बड़ा तर्क-वितर्क किया। बाबू काशी प्रसाद जायसवाल से भी उन्होंने उसके विषय में अनेक तर्क किये।

उस ग्रन्थ के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

चार डग हमने भरे तो क्या किया।

है पड़ा मैदान कोसों का अभी।

काम जो हैं आज के दिन तक हुए।

हैं न होने के बराबर वे सभी।

हो दशा जिस जाति की ऐसी बुरी।

बन गयी हो जो यहाँ तक बेख़बर।

फिर भले ही जाय गरदन पर छुरी।

पर जो उप करने में करती है कसर।

आप ही जिसकी है इतनी बेबसी।

है तरसती हाथ हिलाने के लिए।

आस हो सकती है उससे कौन सी।

हो सके हैं क्या भला उसके किये।

कम नहीं जिन से ऍंधोरी टूटती।

भूल सकता है समय जिनको नहीं।

पर अमावस के सितारों की तरह।

लोग जो इसमें चमकते हैं कहीं।

ये पद्य बिलकुल बोलचाल के हैं। इनमें कुछ शब्द परसी के भी आ गये हैं। इसलिए प्रेमघन जी ने इनको हिन्दी का पद्य नहीं माना। इतना ही नहीं, मुझसे ही तर्क-वितर्क करके वे शान्त नहीं हुए, उसकी चर्चा उन्होंने उक्त बाबू साहब से भी की,जिससे पाया जाता है कि उस समय हिन्दी के ऐसे लब्धा-प्रतिष्ठ विद्वान् भी हिन्दी की खड़ी बोली रचना के विषय में क्या विचार रखते थे। पंडित जी का तर्क यह था कि जो हिन्दी छन्दों में कविता की जावे और संस्कृत तत्सम शब्द जिसमें अधिक आवें,वही खड़ी बोली की हिन्दी कविता मानी जा सकती है अन्यथा वह उर्दू है। मेरी रचना में हिन्दी के तद्भव शब्द अधिक आये हैं,और कहीं-कहीं परसी के शब्द भी आ गये हैं, संस्कृत के तत्सम शब्द कम हैं, इसीलिए वे उसको हिन्दी की रचना मानने के लिए तैयार नहीं थे। उस समय हिन्दी की खड़ी बोली कविता के लिए अधिकतर लोगों के ये ही विचार थे। अब भी कुछ लोगों के ये ही विचार हैं! मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। तद्भव शब्दों में लिखी गई शिष्ट बोलचाल की हिन्दी ही वास्तव में खड़ी हिन्दी भाषा की रचना कही जा सकती है और ऐसी ही रचना सर्वसाधारण के लिए उपकारक हो सकती है। इस तर्क का कोई अर्थ नहीं कि यदि ‘अइली-गइली’ का प्रयोग किया जावे, और ग्रामीण भाषा लिखी जावे, तब तो वह हिन्दी है और यदि शिष्ट बोलचाल की भाषा के आधार से तद्भव शब्दों में हिन्दी भाषा की कविता लिखी जावे तो वह उर्दू है। यह बिलकुल अयथा विचार है। कुछ मुसलमान विद्वानों का विचार भी ऐसा ही है। वे ‘ज़फर’ और ‘नज़ीर’ की निम्नलिखित रचनाओं को उर्दू की कहते हैं, हिन्दी की नहीं-

1. यों ही बहुत दिन गुड़िया मैं खेली।

कभी अकेली कभी दुकेली।

जिससे कहा चल तमाशा दिखला।

उसने उठा कर गोदी में ले ली।

कुछ कुछ मोहें समझ जो आई।

एक जा ठहरी मोरी सगाई।

आवन लागे बाम्हन नाई।

कोई ले रुपया कोई ले धोली।

व्याह का मेरे समाँ जब आया।

तेल चढ़ाया मढ़ा छवाया।

सालू सूहा सभी पिन्हाया।

मेंहदी से रँग दिये हाथ हथेली।

सासरे के लोग आये जो मेरे।

ढोल दमामे बजे घनेरे।

सुभ घड़ी सुभ दिन हुए जो फेरे।

सइयां ने मोहें हाथ में लेली।

– ज़पर

2. यारो सुनो ए दधि के लुटैया का बालपन।

औ मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन।

मोहन सरूप नृत्य करैया का बालपन।

बन बन में ग्वाल गौएं चरैया का बालपन।

ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन।

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन।

परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे।

जोती सरूप कहिये जिन्हें सो वो आप थे।

– नज़ीर

परन्तु, हम देखते हैं कि इंशा अल्ला खाँ ठेठ हिन्दी लिखने का प्रण करके भी अपनी ‘रानी केतकी की कहानी’ में निम्नलिखित पद्यों को लिखते हैं-

आतियाँ जातियाँ जो साँसें हैं।

उनके बिन धयान यह सब फाँसें हैं।

बात यह है कि इंशा इनको हिन्दी का पद्य ही समझते हैं। शिष्ट भाषा में लिखे जाने के कारण वे उनको उर्दू नहीं मानते। यदि वे उनको उर्दू मानते तो उन्हें अपने ठेठ हिन्दी के ग्रन्थ में स्थान न देते। उनका सोचना ठीक था। जो उन पद्यों को उर्दू कहते हैं वे यह समझते ही नहीं कि हिन्दी किसे कहते हैं। तद्भव शब्दों में लिखी गई हिन्दी वास्तविक हिन्दी है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द मिल जायँ तो भी वह हिन्दी है। उर्दू उसको किसी प्रकार से नहीं कहा जा सकता। बोलचाल के उर्दू शब्द मिल जाने पर भी वह हिन्दी ही रहेगी, उर्दू तब भी न होगी। अधिकतर परसी अरबी के शब्द मिलने ही पर उसको उर्दू नाम दिया जा सकेगा। फिर भी वह हिन्दी का रूपान्तर मात्रा है। क्योंकि जब तक क्रिया, कारक, सर्वनाम हिन्दी के रहेंगे तब तक कुछ अन्य भाषा के शब्द उसके हिन्दी कहलाने का अधिकार नहीं छीन सकते। मुझको इसकी चर्चा यहाँ इसलिए करनी पड़ी कि इस शताब्दी के आरम्भ में खड़ी बोली की पद्य रचना का विषय कितना विवादास्पद था। इस समय यह विषय बहुत स्पष्ट हो गया है, पर अब भी अधिकतर खड़ी बोलचाल की हिन्दी कविता में तत्सम संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग होता है। मेरा विचार है कि अब वह समय आ गया है कि सरल और तद्भव शब्दों ही में खड़ी बोली की कविता की जावे, जिसमें कहीं-कहीं कोमल,मधुर एवं सरस संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी हो। मैंने अपने चुभते चौपदे, चोखे चौपदे, बोलचाल नामक ग्रन्थों की रचना इसी आदर्श पर कीहै।

पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के उपरान्त बहुत-से खड़ी बोली के कवि हिन्दी संसार के सामने आये। उनमें कुछ ऐसे हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं उनकी चर्चा कर देना आवश्यक समझता हूँ। इन कवियों में अधिकतर पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के ‘स्कूल’ वाले ही हैं। कोई-कोई ऐसे हैं जिनका मार्ग भिन्न है। भिन्न मार्गियों में सबसे पहले मेरी दृष्टि स्व. लाला भगवानदीन की ओर जाती है। इसलिए पहले मैं उनकी चर्चा करके तब आगे बढूँगा।

1. लाला भगवानदीन प्रसिध्द साहित्य-सेवियों में थे। प्राचीन साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। उन्होंने कई ग्रन्थों की सुन्दर टीकाएँ लिखी हैं और अलंकार का भी एक ग्रंथ प्रचलित गद्य में निर्माण किया है। वे अच्छे समालोचक भी थे। उन्होंने पद्य में भी चार-पाँच ग्रन्थ लिखे हैं। वे ब्रजभाषा में ही पहले कविता करते थे। बाद को खड़ी बोली की ओर प्रवृत्ता हुए। वे कायस्थ थे,इसलिए परसी और उर्दू का ज्ञान भी उनका यथेष्ट था। उनकी खड़ी बोली की हिन्दी कविता की विशेषता यह है कि उन्होंने उसमें उर्दू का रंग उत्पन्न करने की चेष्टा की और अरबी शब्दों से भी काम लिया। उनके ‘वीर प×चरत्न’ और ‘वीर-माता’नामक ग्रन्थ ऐसे ही हैं। उनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं-

चाँदनी

1. लिख रही है आज कैसी

भूमि तल पर चाँदनी।

खोजती फिरती है किसको

आज घर घर चाँदनी।

घन-घटा घूँघट हटा मुसकाई

है कुछ ऋतु शरद।

मारी मारी फिरती है इस

हेतु दर दर चाँदनी।

रात की तो बात क्या दिन में

भी बन कर कुंद कास।

छाई रहती है बराबर

भूमि तल पर चाँदनी।

सेत सारी युक्त प्यारी

की छटा के सामने।

जँचती है ज्यों फूल के

आगे हो पीतर चाँदनी।

स्वच्छता मेरे हृदय की

देख लेगी जब कभी।

सत्य कहता हूँ कि कँप

जायेगी थर थर चाँदनी।

नाचने लगते हैं मन

आनन्दियों के मोद से।

मानुषी मन को बना

देती है बन्दर चाँदनी।

भाव भरती है अनूठे

मन में कवियों के अनेक।

इनके हित हो जाती है

जोगी मछन्दर चाँदनी।

वह किसी की माधुरी

मुसकान की मनहर छटा।

‘ दीन ‘ को सुमिरन करा

देती है अकसर चाँदनी।

2. होमर जो यूनान का कवि आदि कहाया।

उसने भी सुयश वीरों का है जोश से गाया।

फिरदोसी ने भी नाम अमर अपना बनाया।

जब परसी वीरों का सुयश गाके सुनाया।

सब वीर किया करते हैं सम्मान वलम का।

एक पद्य ब्रजभाषा का देखिए-

सघन लतान सों लखात बरसात छटा

सरद सोहात सेत फूलन की क्यारी में।

हिमऋतु काल जल जाल के फुहारन में

शिशिर लजात जान पाटल कतारी में।

सौरभित पौन ते बसन्त दरसात नित

ग्रीषम लौं दुख दहक्यो है चटकारी में।

दीन कवि सोभाषट ऋतु की निहारी सदा

जनक कुमारी की पियारी फुलवारी में।

2. पं. गयाप्रसाद शुक्ल वर्तमान कवियों में विशेष स्थान के अधिकारी हैं। आपकी राष्ट्रीय रचनाएँ बड़ी ओजस्विनी हैं और खड़ी बोली के क्षेत्र में आपका यही उल्लेखनीय कार्य है। खड़ी बोली की कविता में आपने जातीयता का वह राग अलापा है,जिसकी धवनि हृदयों में ओज का संचार करती रहती है। आपकी राष्ट्रीय कविताएँ त्रिसूल नाम से निकली हैं। आपने अपने’सनेही’ उपनाम से जो रचनाएँ की हैं, वे बड़ी ही सरस और मधुर हैं। आप ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों ही भाषाओं में रचना करते हैं। किन्तु आपकी प्रसिध्दि खड़ी बोली की रचनाओं के लिए ही है। क्योंकि उनकी पंक्तियाँ प्राय: बड़ी सजीव होती हैं। आप ‘सुकवि’ नामक एक मासिक पत्रिका भी निकालते हैं। उनकी दोनों भाषाओं की कुछ कविताएँ नीचे लिखी जातीहैं।

वह बेपरवाह बने तो बने

हमको इसकी परवाह का है।

वह प्रीति का तोड़ना जानते हैं

ढँग जाना हमारा निबाह का है।

कुछ नाज़ जप पर है उनको

तो भरोसा हमें बड़ा आह का है।

उन्हें मान है चन्द्र से आनन पै

अभिमान हमें भी चाह का है।

दाह रही दिल में दिन द्वैक बुझी

फिर आपै कराह नहीं अब।

मानि कै रावरे रूरे चरित्रा गुन्यो

हिय में कि निबाह नहीं अब।

चाहक चारु मिले तुमको चित

माँहि हमारे भी चाह नहीं अब।

जो तुममें न सनेह रहा हमको भी

नहीं परवाह रही अब।


रावन से बावन बिलाने हैं बचे न एक

चाल नहिं काल से किसी की चल पाई है।

कौरव कुटिल कुल कुल के कुठार भये

कृष्ण जू से कंस की न दाल गल पाई है।

हाय की हवा सों जल गये हैं जवन जूथ

हासिल हुकुम पै न लागे पल पाई है।

याते बल पाय फल पाय लेहु जीवन को

दीन कलपाय कहो कौने कलपाई है।


चित्ता के चाव चोचले मन के

वह बिगड़ना घड़ी घड़ी बन के।

चैन था नाम था न चिन्ता का

थे दिवस और ही लड़कपन के।

झूठ जाना कभी न छल जाना

पाप का पुण्य का न फल जाना।

प्रेम वह खेल से खिलौनों से

चन्द तक के लिए मचल जाना।

चन्द्र था और और ही तारे

सूर्य भी और थे प्रभा धारे।

भूमि के ठाट कुछ निराले थे

धूलिकण थे बहुत हमें प्यारे।

सब सखा शुध्द चित्ता वाले थे

प्रौढ़ विश्वास प्रेम पाले थे।

अब कहाँ रह गईं बहारें वे

उन दिना रंग ही निराले थे।


सत्य रूप हे नाथ तुम्हारी शरण गहूँगा।

जो व्रत है ले लिया लिये आमरण रहूँगा।

ग्रहण किये मैं सदा आपके चरण रहूँगा।

भीत किसी से और न हे भयहरण रहूँगा।

पहली मंज़िल मौत है प्रेम पंथ है दूर का।

सुनता हूँ मत था यही सूली पर मंसूर का।

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