भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध


3. पंडित रामचरित उपाधयाय ने खड़ी बोली की कविता करने में कीर्ति अर्जन की है। वे भी वर्तमान काल के प्रसिध्द कवियों में हैं। वे संस्कृत के विद्वान हैं और हिन्दी भाषा पर भी उनका अच्छा अधिकार है। पहले वे ब्रजभाषा में कविता करते थे। उन्होंने बिहारीलाल के ढंग पर एक सतसई भी लिखी है। परन्तु अब तक वह हिन्दी संसार के सामने नहीं आई। उन्होंने’रामचरित-चिन्तामणि’ नामक एक बड़ा काव्य खड़ी बोली में लिखा है और इसके अतिरिक्त और भी पाँच-सात पुस्तकें खड़ी बोली ही में लिखी हैं। खड़ी बोली की रचना करने में ये निपुण हैं और शुध्द भाषा लिखने की अधिकतर चेष्टा करते हैं। इनकी भाषा प्राय: संस्कृत-शैली की होती है और उसमें संस्कृत के ढंग से ही भाव-प्रकाशन देखा जाता है। इनकी रचनाओं में भी सामयिकता पाई जाती है, अन्योक्ति द्वारा व्यंग्य करने में आप अपने समान आप हैं। उनका वाक्य-विन्यास प्राय: मधुर, कोमल और सरस है। ये ही खड़ी बोली के ऐसे कवि हैं जिन्होंने जब से उसकी सेवा का व्रत लिया, अन्य भाषा की ओर प्रवृत्ता नहीं हुए। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे दी जाती हैं-

सरसता सरिता जयिनी जहाँ

नव नवा नव नीति पदावली।

तदपि हा! वह भाग्यविहीन की

सुकविता कवि ताप करी हुई।

मन रमा रमणी रमणीयता

मिल गयीं यदि ये विधि योग से।

पर जिसे न मिली कविता-सुधा

रसिकता सिकता सम है उसे।

सुविधि से विधि से यदि है मिली

रसवती सरसीव सरस्वती।

मन तदा तुझ को अमरत्वदा

नव सुधा बसुधा पर ही मिली।

चतुर है चतुरानन सा वही

सुभग भाग्य विभूषित भाल है।

मन जिसे मन में पर काव्य की

रुचिरता चिर ताप करी न हो।

बातें थी करती सखी सँग

मुझे तो भी रही देखती।

गत्वा सा कतिचित् पदानि

सुमुखी आगे खड़ी हो गयी।

जाने क्यों हँसती चली फिर गयी

क्या मोहिनी मूर्ति थी।

स्वप्ने साथ न दृश्यते क्षण-

महो हा राम मैं क्या करूँ।

ऐनक दिये तने रहते हैं।

अपने मन साहब बनते हैं।

उनका मन औरों के काबू।

क्यों सखि सज्जन नहिं सखि बाबू।

ठठरी उसकी बच जाती है।

जिसको हा वह धार पाती है।

छुड़ा न सकते उसे हकीम।

क्यों सखि डाइन नहीं अपीम।

4. पं. रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी गद्य के एक मननशील गम्भीर लेखक हैं। किन्तु उन्होंने खड़ी बोलचाल के पद्य लिखने में भी विशेषताएँ दिखलाई हैं, इसलिए उनका कुछ वर्णन यहाँ भी आवश्यक ज्ञात होता है। वे भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में भावमयी रचना करने में समर्थ हैं। (लाइट ऑफ एशिया) ‘Light of si’ का जो अनुवाद उन्होंने ब्रजभाषा में किया है, उसमें उनकी विलक्षण प्रतिभा का विकास हुआ है। पढ़ने से उस ग्रन्थ में मौलिकता का-सा आनन्द आता है। ऐसा सरस और सुन्दर अनुवाद दुर्लभ है। खड़ी बोलचाल की रचनाएँ उनकी थोड़ी ही हैं, परन्तु उनमें भी विलक्षणता है। प्रकृति-निरीक्षण-सम्बन्धिानी कविताएँ हिन्दी साहित्य में अल्प मिलती हैं। उन्होंने यह कार्य करके इस न्यूनता की बहुत कुछ पूर्ति की है और खड़ी बोली को एक नवीन उपहार प्रदान किया है। उनकी इस प्रकार की कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

दृग के प्रतिरूप सरोज हमारे

उन्हें जग ज्योति जगाती जहाँ ;

जलबीच कलम्ब करम्बित कूल से

दूर छटा छहराती जहाँ ;

घन अंजन वर्ण खड़े तृण ताल की

झाँई पड़ी दरसाती जहाँ ;

बिखरे बक के निखरे सित पंख

बिलोक बकी बिक जाती जहाँ ;

निधि खोल किसानों के धूल सने

श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ ;

चुनके कुछ चोंच चला करके

चिड़िया निज भाग बँटातीं जहाँ ;

कगरों पर कास की फैली हुई

धावली अवली लहराती जहाँ ;

मिल गोपों की टोली कछार के

बीच है गाती औ गाय चराती जहाँ ;

जननी धारणी निज अंक लिये

बहु कीट पतंग खिलाती जहाँ ;

ममता से भरी हरी बाँह की छाँह

पसार के नीड़ बसाती जहाँ ;

मृदु वाणी मनोहरवर्ण अनेक

लगा कर पंख उड़ाती जहाँ ;

उजली कँकरीली तटी में धाँसी

तनु धार लटी बल खाती जहाँ ;

दल राशि उठी खरे आतप में

हिल चंचल औंधा मचाती जहाँ ;

उस एक हरे रँग में हलकी

गहरी लहरी पड़ जाती जहाँ ;

कलकर्बुरतानभ की प्रतिबिम्बित

खंजन में मन भाती जहाँ ;

कविता वह हाथ उठाये हुए

चलिये कविवृंद बुलाती वहाँ।

5. पंडित गोकुलचन्द्र शर्मा एम. ए. उन चुपचाप कार्य करने वालों में हैं जो ख्याति के पीछे न पड़कर अपनेर् कर्तव्य का पालन करते हैं। किसी जाति के उत्कर्ष और सभ्यता को परिमार्जित रूप से निष्पन्न करने के लिये महापुरुषों के चरित्रों और जीवनियों की बड़ी आवश्यकता होती है। विशेषकर उस अवस्था में जब देश और समाज की प्रवृत्तिा राष्ट्रीयता की ओर आकर्षित हो। खड़ी बोली की कविता के उत्थान के समय यदि किसी सुकवि की दृष्टि इधार आकर्षित हुई तो वे पं. गोकुलचन्द्र शर्मा हैं। उनके ‘गांधी-गौरव’, ‘तपस्वी-तिलक’ नामक दो ग्रन्थ महापुरुषों के इतिवृत्ता के रूप में लिखे गये हैं, जो सामयिकता के आदर्श उपहार हैं। इन दोनों ग्रन्थों की जैसी उत्ताम और परिमार्जित भाषा है, वैसी ही विचारशैली और भाव-प्रवीणता। उन्होंने और भी छोटे-मोटे गद्य-पद्य ग्रन्थ लिखे हैं, परन्तु उनके प्रधान ग्रन्थ ये ही दो हैं। जो इस योग्य हैं कि उन्हें खड़ी बोली के कविता-क्षेत्र में एक उल्लेख योग्य स्थान प्रदान किया जावे। उनके कुछ पद्य देखिए-

इच्छा हमें नहीं है भगवन् हो सम्पत्तिा हमारे पास।

नहीं चाहिए प्रासादों का वह विलास मय सुखद निवास।

सोवें सूखी तृण शय्या पर कर फल पत्ताों पर निर्वाह।

पर समता का हृदय भूमि पर स × चालित हो प्रेम प्रवाह।

दृष्टि हमारी धुँधाली होकर धोखा कभी न दे सर्वेश।

भ्रातृ भाव के शीशे में से देखें बन्धुवर्ग के क्लेश।

पतिता जन्म भूमि के हित हो बच्चा-बच्चा बीर बराह।

रुधिर रूप में उमड़े अच्युत हृन्निर्झर से प्रेम प्रवाह 2

6. पंडित रामनरेश त्रिपाठी एक प्रतिभावान पुरुष हैं। उनकी समस्त रचनाओं में कुछ-न-कुछ विशेषता पाई जाती है। यह उनकी प्रतिभा का ही फल है। उनकी लेखनी आदि से ही खड़ी बोली की सेवा में रत है। उन्होंने दो खंड काव्य खड़ी बोली में लिखे हैं। दोनों सुंदर हैं और सामयिकता पूर्णतया उनमें विराजमान है। उनकी भाषा परिमार्जित और सुन्दर है। खड़ी बोली का विशेष आदर्श सामने उपस्थित न होने पर भी उन्होंने उसकी रचना करने में जितनी सफलता लाभ की है वह कम नहीं है। उनकी रचनाएँ भावमयी हैं और उनमें आकर्षण और मार्मिकता भी है। उन्होंने ‘कविता-कौमुदी’ नामक ग्रन्थमाला का संकलन कर और ‘ग्रामगीत’ नामक एक सुन्दर संग्रह प्रस्तुत कर हिन्दी भाषा की अच्छी सेवा की है। ऐसी रचनाएँ अथवा कविताएँ जो देश में प्रचलित हैं, पर्वोत्सवों पर गाई जाती हैं, विवाह और यज्ञोपवीत आदि के अवसरों पर स्त्रिायों के कण्ठों से सुनी जाती हैं,या जिनको ग्रामीण जन-श्रुति परम्परा से स्मरण रखते आये हैं, उनके उध्दार की उनकी प्रवृत्तिा आदरणीय है। इस प्रकार की रचनाओं में सरसता, हृदय-ग्राहिता, मधुरता की कमी नहीं है। उनमें आकर्षण भी बड़ा है, उपयोगिता भी कम नहीं। फिर भी अब तक वे कंठाग्र ही रहती आई हैं। कुछ लोगों की प्रवृत्तिा उनको पुस्तक रूप में परिणत करने की पाई गई, किन्तु जैसी चाहिए वैसी लगन के अभाव में उनको इस विषय में सफलता नहीं मिली। पंडित रामनरेश त्रिपाठी को इस विषय में यथेष्ट सफलता मिल रही है। यह उनकी सच्ची लगन और वांछनीय प्रवृत्तिा ही का फल है, जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। हिन्दी-संसार उनकी इस प्रकार की कृतियों का आदर कर रहा है और आशा है आगे भी वे आदृत होंगी। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे दी जाती हैं-

होते जो किसी के बिरहाकुल हृदय हम।

होते यदि ऑंसू किसी प्रेमी के नयन के।

गर पतझड़ में बसंत की बयार होते।

होते हम कहीं जो मनोरथ सुजन के।

दुख दलितों में हम आस की किरन होते।

होते यदि शोक अविवेकियों के मन के।

मानते तो विधि का अधिक उपकार हम

होते गाँठ के धानी कहीं जो दीन जन के।

मैं ढूँढ़ता तुझे था जब कुंज और बन में।

तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में।

तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था।

मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में।

मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू।

मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में।

बन कर किसी का ऑंसू मेरे लिए बहा तू।

मैं देखता तुझे था माशूक के बदन में।

मैं था विरक्त तुझसे जग की अनित्यता पर।

उत्थान भर रहा था तब तू किसी पतन में।

तेरा पता सिकन्दर को मैं समझ रहा था।

पर तू बसा हुआ था परहाद कोहकन में।

7. बाबू मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी-संसार के प्रसिध्दि प्राप्त सुकवि हैं। हिन्दी देवी की सेवा करने वाले और उसके चरणों पर अभिनव पुष्पांजलि अर्पण करने वाले जो कतिपय सर्व-सम्मत, सहृदय भावुक हैं, उनमें आप भी अन्यतम हैं। आप खड़ी बोली कविता के अनन्य भक्त हैं और अब तक उसमें अनेक ग्रन्थों की रचना आपने की हैं। उन्होंने स्वयं ही रचना करके हिन्दी भाषा के भण्डार को नहीं भरा है, कई ग्रन्थों का सरस अनुवाद करके भी उसकी पूर्ति की चेष्टा की है। अनुवादित ग्रन्थों में बँगला मेघनाद का अनुवाद विशेष उल्लेख-योग्य है। जो एक विशाल ग्रन्थ है। उनका ‘भारत-भारती’ नामक ग्रन्थ देश-प्रेम से ओत-प्रोत है। उसका आदर भी बहुत अधिक हुआ। खड़ी बोली के किसी ग्रन्थ के इतने अधिक संस्करण नहीं हुए जितने’भारत-भारती’ के। काव्य की दृष्टि से वह उच्च कोटि का न हो, परन्तु उपयोगिता उसकी सर्व-स्वीकृत है। उनकी भाषा की शुध्दता की प्रशंसा है। वे निस्सन्देह शब्दों को शुध्द रूप में लिखते हैं। यद्यपि इससे उनकी भाषा प्राय: क्लिष्ट हो जाती है। उन्होंने ‘साकेत’ नामक एक महाकाव्य भी लिखा है, जो प्रकाशित भी हो चुका है। उनकी रचना के समस्त गुण इसमें विद्यमान हैं। इस ग्रन्थ में भाषा की कोमलता, मधुरता और सरसता की ओर उनकी दृष्टि अधिक गई है। इसलिए इसमें ये बातें अधिक मात्रा में पाई जाती हैं। उन्होंने कई खंड काव्य लिखे हैं। ‘झंकार’ नामक एक पुस्तिका भी उन्होंने हाल में प्रकाशित की है। यह पुस्तिका भी भाव और भाषा दोनों की दृष्टि से सरस, सुन्दर और मधुर है। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जातीहैं-

1. इस शरीर की सकल शिराएँ

हों तेरी तन्त्राी के तार।

आघातों की क्या चिन्ता है

उठने दे उनकी झंकार।

नाचे नियति प्रकृति-सुर साधो

सब सुर हों शरीर साकार।

देश देश में काल काल में

उठे गमक गहरी गुंजार।

कर प्रहार हाँ , कर प्रहार तू

मार नहीं यह तो है प्यार।

प्यारे और कहूँ क्या तुझसे

प्रस्तुत हूँ मैं हूँ तैयार।

मेरे तार तार से तेरी

तान तान का हो विस्तार।

अपनी ऍंगुली के धाक्के से

खोल अखिल श्रुतियों के द्वार।

ताल ताल पर भाल झुका कर

मोहित हों सब बारंबार।

लय बँधा जाय और क्रम क्रम से

सब में समा जाय संसार।

2. तुम्हारी वीणा है अनमोल।

हे विराट जिसके दो तूंबे हैं भूगोल खगोल।

दयादण्ड पर न्यारे न्यारे चमक रहे हैं प्यारे प्यारे।

कोटि गुणों के ताल तुम्हारे खुली प्रलय की खोल।

तुम्हारी वीणा है अनमोल।

हँसता है कोई रोता है जिसका जैसा मन होता है।

सब कोई सुधा बुधा खोता है क्या विचित्र है बोल।

तुम्हारी वीणा है अनमोल।

इसे बजाते हो तुम जबलौं नाचेंगे हम सब भी तबलौं

चलने दो न कहो कुछ कबलौं यह क्रीड़ा-कल्लोल।

तुम्हारी वीणा है अनमोल।

8. बाबू सियाराम शरणगुप्त बाबू मैथिली शरण गुप्त के लघु भ्राता हैं। वे भी सुन्दर कविता करते हैं और वास्तव में अपने ज्येष्ठ भ्राता की दूसरी मूर्ति हैं। वे उनके सहोदर तो हैं ही, समान-हृदय भी हैं। उनकी रचना की विशेषता यह है कि उनकी पदावली कोमल एवं कान्त होती है। इस विषय में वे अपने बड़े भाई से भी बड़े हैं। उनकी रचना में मार्मिकता के साथ-साथ मधुरता भी होती है। उन्होंने पाँच-चार पद्य-ग्रंथों की रचना की है। उनकी भी समस्त रचनाएँ खड़ी बोली ही में हैं। उनकी रचनाएँ थोड़ी भले ही हों, परन्तु खड़ी बोली की शोभा हैं। उनके कुछ पद्य देखिए-

जग में अब भी गूंज रहे हैं गीत हमारे।

शौर्य वीर्य गुण हुए न अब भी हमसे न्यारे।

रोम मिश्र चीनादि काँपते रहते सारे।

यूनानी तो अभी अभी हमसे हैं हारे।

सब हमें जानते हैं सदा भारतीय हम हैं अभय।

फिर एक बार हे विश्व तुम गाओ भारत की विजय।

9. पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय मधयम प्रान्त के प्रसिध्द कवि हैं। आपने छोटी- बड़ी पचीस-तीस गद्य-पद्य पुस्तकें लिखी हैं। आप उड़िया भाषा में भी कविता करते हैं। मधयप्रान्त जैसे दूर के निवासी होकर भी उन्होंने खड़ी बोलचाल में सरस रचनाएँ की हैं। उनकी रचनाओं का आदर उनके प्रान्त में विशेष है और प्राय: पाठशालाओं में उनकी पुस्तकें कोर्स के रूप में गृहीत हैं। डॉक्टर जी.ए. ग्रियर्सन ने भी उनकी कविता-पुस्तकों की प्रशंसा की है। मधय प्रदेश में खड़ी बोली की कविता-सम्बन्धी जागृति उत्पन्न करने में आपका विशेष हाथ है। इस विषय में आपने अपनी कविता द्वारा भी विशेष प्रभाव डाला है। जैसा भावमय उनका हृदय है, वैसी ही भावमयी उनकी भाषा। उनका पद विन्यास भी तुला हुआ और सरस होता है। भरती के शब्दों से वे बहुत बचते हैं। उनकी कविता में ओज के साथ माधुर्य भी है और सहृदयता के साथ सामयिकता भी। उनके कुछ पद्य भी देखिए-

भोले भाले कृषक देश के अद्भुत बल हैं।

राज मुकुट के रत्न कृषक के श्रम के फल हैं।

कृषक देश के प्राण कृषक खेती की कल हैं।

राजदण्ड से अधिक मान के भाजन हल हैं।

हल की पूजा दिव्य देश गौरव-सम्बल है।

हल की पूजा सभ्य जाति का व्रत निर्मल है।

हल की पूजा देश शान्ति का नियम अचल है।

हल की पूजा मुक्ति भुक्ति का मार्ग विमल है।


कमल कुल छटा है लोचन प्राणहारी।

जिन पर करते हैं भृंग गुंजार प्यारी।

मधुमय बहती है माधाव प्रीति धारा।

कब बन सकते हैं ये तुझे शान्ति द्वारा।

विधिवत् चलता है देख संसार सारा।

थकित कब हुई है लोक में कर्मधारा।

दुख रज भय बाधा विश्व में है सदा से।

कब जग रुकता है एक की आपदा से।

10. पं. रूपनारायण पाण्डेय हिन्दी-संसार के प्रसिध्द अनुवादक हैं। आपने जितने ग्रन्थों का अनुवाद किया है, उनकी संख्या पचास से भी ऊपर है। इस कार्य में ये सिध्दहस्त हैं और ख्याति प्राप्त सहृदय हैं, इसलिए सरस कविता भी करते हैं। आपकी कुछ कविता-पुस्तकें छपी भी हैं और उनकी यथेष्ट प्रशंसा भी हो चुकी है। पहले ये ब्रजभाषा में कविता करते थे, बाद में खड़ी बोली के क्षेत्र में आये और कीर्ति भी पायी। उनकी खड़ी बोली की कविता में विशेषता यह है कि उसमें भावुकता तरंगायित मिलती है। उनका शब्द-विन्यास भी सुन्दर होता है जिसमें एक मधुर लचक पायी जाती है। कुछ पद्य ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों के नीचे दिये जाते हैं-

सारद विसारद विसारद को पारद

विरंचि हरि नारद अधीन कहियत है।

मण्डित भुजा में बर बीना है प्रवीना जू के

एक कर अभय बरादि गहियत है।

चहियत पद अवलम्ब अम्ब तेरे

पाय हरख कदम्ब ना बिलंब सहियत है।

हरन हजार दुख सुख के करन चारु

चरन सरन मैं सदा ही रहियत है।

बुध्दि विवेक की जोति बुझी

ममता मद मोह घटा घन घेरी।

है न सहारो अनेकन हैं

ठग पाप के पन्नग की रहै फेरी।

त्यों अभिमान को कूप इतै

उतै कामना रूप सिलान की ढेरी।

तू मन मूढ़ सम्हारि चलै किन

राह न जानी है रैनि ऍंधोरी।

अहह अधाम ऑंधी आ गयी तू कहाँ से।

प्रलय घन घटा-सी छा गयी तू कहाँ से।

पर दुख-सुख तूने हा न देखा न भाला।

कुसुम अधाखिला ही हाय क्यों तोड़ डाला।

तड़प-तड़प माली अश्रु-धारा बहाता।

मलिन मलिनियाँ का दुख देखा न जाता।

निठुर फल मिला क्या व्यर्थ पीड़ा दिये से।

इस नव लतिका की गोद सूनी किये से।

सहृदय जन का जो कण्ठ का हार होता।

मुदित मधुकरी का जीवनाधार होता।

वह कुसुम रँगीला धूल में जा पड़ा है।

नियति नियम तेरा भी बड़ा ही कड़ा है।

बाबू गोपालशरणसिंह ने खड़ी बोल-चाल में कवित्ता और सवैयों की रचना कर थोड़े ही समय में अच्छी कीर्ति पाई है। खड़ी बोलचाल के कवियों में से कतिपय सुकवियों ने ही कवित्ता और सवैयों की रचना कर सफलता लाभ की है। अधिकांश खड़ी बोली के अनुरक्त कवि कवित्ता और सवैयों मेंं रचना पसन्द नहीं करते और रचना करने पर सफल भी नहीं होते। बाबू गोपालशरण सिंह की लेखनी ने यह दिखला दिया कि उक्त वर्ण वृत्ताों में भी खड़ी बोली की कविता उत्तामता के साथ हो सकती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली की ऐसी मँजी भाषा लिखी है, जो उनकी कृति को मधुर और सरस तो बनाती ही है, हृदयग्राही भी कर देती है। वे शुध्द भाषा लिखने की चेष्टा करते हैं। पर ब्रजभाषा और अवधी के सुन्दर शब्दों का भी उपयुक्त स्थानों पर प्रयोग करने में संकोच नहीं करते। उन्होंने अपनी कविताओं के संग्रह का नाम ‘माधावी’ रखा है। मैं कहूँगा, उनकी कविता-पुस्तक का यह सार्थक नाम है। वास्तव में वह मधुमयी है। उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

बार बार मुख घनियों का नहीं देखता तू

झूठी चाटुकारि नहीं उनको सुनाता है।

सुनता नहीं तू कटु वाक्य अभिमान सने

पीछे भी कदापि उनके नहीं तू धाता है।

खाता है नवीन तृण तो भी तू समय में ही

सोता सुख से ही जब निद्राकाल आता है।

कौन ऐसा उग्र तप तूने था किया कुर ú

जिससे स्वतन्त्राता समान सुख पाता है।


इस नादान निगोड़े मन को

किस प्रकार समझाऊँ।

इसकी उलझन सुलझ न सकती

मैं कैसे सुलझाऊँ।

स्वयं मुझे कुछ नहीं सूझता

क्या मैं इसे सुझाऊँ।

बिना स्वाति जल के चातक की

किस विधा प्यास बुझाऊँ।

होकर भी मैं विमन कहाँ

तक मन की बात छिपाऊँ।

मन जिसके हित विकल हो

रहा उसे कहाँ मैं पाऊँ।

है यह मचल रहा बालक सा

किस विधि मैं बहलाऊँ।

इसके लिये कहाँ से मैं

वह चन्द्र खिलौना लाऊँ।

12. मैं सुभद्रा कुमारी चौहान की चर्चा यहाँ गौरवपूर्वक करता हूँ। इसलिए कि उन्होंने ही स्त्री-कवियों में खड़ी बोली की रचना करने में सफलता पाई। अभी हाल ही में सुन्दर कृति के लिए 500 का सकसेरिया पुरस्कार साहित्य-सम्मेलन द्वारा उन्हें प्राप्त हुआ है। स्त्री-सुलभ भाव उनकी कविताओं में बड़ी सुन्दरता से अंकित पाये जाते हैं। सामयिकता का विकास भी उनमें यथेष्ट देखा जाता है। उनकी भाषा अधिकांश सरल होती है, परन्तु सरस और मधुर। वाच्यार्थ उनका स्पष्ट है और भाव प्रकाशन-प्रणाली सुन्दर। वे क्षत्राणी हैं, इसलिए आवेश आने पर उनके हृदय से जो उद्गार निकलता है, उसमें सच्ची वीरता झंकृत मिलती है। कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

थीं मेरा आदर्श बालपन

से तुम मानिनि राधो।

तुम सी बन जाने को मैंने

व्रत नियमादिक साधो।

अपने को माना करती थी

मैं वृषभानु किशोरी।

भाव गगन के कृष्णचन्द्र की

मैं थी चारु चकोरी।

बचपन गया नया रँग आया

और मिला यह प्यारा।

मैं राधा बन गयी न था वह

कृष्ण-चन्द्र से न्यारा।

किन्तु कृष्ण यदि कभी किसी

पर जरा प्रेम दिखलाता।

नख सिख से तो जल जाती

खाना पीना नहिं भाता।

मुझे बता दो मानिनि राधो

प्रीति रीति वह न्यारी।

क्योंकर थी उस मनमोहन

पर निश्चल भक्ति तुम्हारी।

ले आदर्श तुम्हारा मन को

रह रह समझाती हूँ।

किन्तु बदलते भाव न मेरे

शान्ति नहीं पाती हूँ।

13. प्रति शताब्दी में कोई न कोई मुसलमान कवि हमको हिन्दी देवी की अर्चना करते दृष्टिगत होता है। हर्ष है, इस शताब्दी के आरम्भ में ही हमको एक सहृदय मुसलमान सज्जन चिर-प्रचलित परम्परा की रक्षा करते दिखलायी देते हैं। वे हैं सैयद अमीर अली ‘मीर’ जो मधय-प्रान्त के निवासी हैं। पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय के समान ये भी वहाँ प्रतिष्ठित हिन्दी भाषा के कवि माने जाते हैं। इनको पदवियाँ और पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। ये प्राचीन हिन्दी-प्रेमी हैं। पहले ब्रजभाषा में कविता करते थे। अब वे समय देखकर खड़ी बोली की सेवा में ही निरत हैं। इनकी खड़ी बोली की रचनाओं में कोई विशेषता नहीं, परन्तु इनका खड़ी बोली की ओर आकर्षित होना ही उसको गौरवित बनाता है। उर्दू और परसी में सुशिक्षित होकर भी ये शुध्द खड़ी बोली की हिन्दी में रचना करके उसका सम्मान बढ़ाते हैं, यह कम आनन्द की बात नहीं, इनके कुछ पद्य देखिए-

कोयल तू मन मोहि के गयी कौन से देश।

तब अभाव में काग मुख लखनो परो भदेस।

लखनो परो भदेस बेस तोही सो कारो।

पै बोलत है बोल महा कर्कस कटु न्यारो।

कहें मीर हे दैव काग को दूर करो दल।

लाओ फेर बसन्त मनोहर बोलैं कोयल।

आ गया प्यारा दसहरा छा गया उत्साह बल।

मातृ पूजा पितृ पूजा शक्ति पूजा है बिमल।

हिन्द में यह हिन्दुओं का विजय उत्सव है ललाम।

शरद की इस सुऋतु में है पूजा धाम धाम।

इनके अतिरिक्त पं. जगदम्बाप्रसाद हितैषी, पं. अनूप शर्मा, बाबू द्वारिकाप्रसाद रसिकेन्द्र इत्यादि अनेक कवि खड़ी बोली की सुन्दर रचनाएँ करने में इस समय प्रसिध्द हैं और उन लोगों ने कीर्ति भी पायी है।

वर्तमान काल में ब्रजभाषा की क्या दशा है, इस पर प्रकाश डालना भी आवश्यक जान पड़ता है। ब्रजभाषा के जो कवि आज तक उसकी सेवा में निरत हैं, उनका स्मरण न करना अकृतज्ञता होगी। ब्रजभाषा हो चाहे खड़ी बोली, दोनों ही हिन्दी भाषा हैं। अतएव ब्रजभाषा देवी की अर्चना में निरत सज्जन हिन्दी भाषा-सेवी ही हैं अन्य नहीं। उनकी अमूल्य रचनाएँ हिन्दी भाषा का ही शृंगार हैं और उनके अर्पण किये हुए रत्नों से हिन्दी भाषा का भण्डार ही भर रहा है, इसको कौन अस्वीकार कर सकता है। ब्रजभाषा के कुछ ऐसे अनन्य भक्त अब भी विद्यमान हैं जो उसकी कोमल कान्त पदावली ही के अनुरक्त हैं और इतने अनुरक्त हैं कि दूसरी भाषा की ओर ऑंख उठाकर भी देखना नहीं चाहते। इनमें उल्लेख-योग्य बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर और पं. हरिप्रसाद द्विवेदी (उपनाम वियोगी हरि) हैं। इस शताब्दी में ही ऐसे ही ब्रजभाषा के एक और अनन्य भक्त थे। परंतु दुख है कि उनका स्वर्गवास हो गया। उनका नाम था पंडित सत्यनारायण, उपाधि थी कविरत्न। वे बड़े ही होनहार थे। परन्तु अकाल काल-कवलित हो जाने से वह सुधा-श्रोत बन्द हो गया जो प्रवाहित होकर श्रोताओं में संजीवन रस का संचार करता था। मैं क्रमश: इन तीनों कवियों के विषय में कुछ लिखकर इनका परिचय आप लोगों को देना चाहता हूँ।

1. बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर की गणना इस समय के ब्रजभाषा के प्रसिध्द कवियों में है। वास्तव में ब्रजभाषा पर उनका बड़ा अधिकार है और वे उसमें बड़ी सुन्दर और सरस रचना करते हैं, उन्होंने ब्रजभाषा के कई ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें’गंगावतरण’ अधिक प्रसिध्द है। आप ग्रेजुएट हैं, परसी भाषा का भी अच्छा ज्ञान रखते हैं। उर्दू-शायरी अच्छी कर सकते हैं। खड़ी बोलचाल की कविता करने में भी समर्थ हैं, किन्तु ब्रजभाषा में उनकी कुछ ऐसी अनन्य भक्ति है कि वे अन्य भाषाओं में रचना करना पसंद नहीं करते। उनके हृदय की यह प्रतिधवनि है-

“ रह्यो उर में नाहिंन ठौर।

नंद नंदन त्यागि कै उर आनिये केहि और। “

“ ऊधो मन न भयो दस बीस।

इक मन हुतो स्याम सँग अटक्यो कौन भजै जगदीस। “

भगवान् कृष्णचन्द्र के प्रति गोपियों का जो भाव है वही भाव रत्नाकर जी का ब्रजभाषा के प्रति है। उनकी ब्रजभाषा की रचना मर्मभरी, ओजस्विनी और सरस होती है। उन्होंने आजन्म इसी भाषा की सेवा की है और अब तक इसी की समर्चना में संलग्न हैं। उनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

बोधि बुधि बिधि के कमंडल उठावत ही

धाक सुर धुनि की धाँसी यों घट घट मैं।

कहै रतनाकर सुरासुर ससंक सबै

बिबस बिलोकत लिखे से चित्रापट मैं।

लोकपाल दौरन दसौ दिसि हहरि लागे

हरि लागे हेरन सुपात बर बट में।

खसन गिरीस लागे त्रासन नदीस लागे

ईस लागे कसन फनीस कटि तट मैं।

ढोंग जात्यो ढरकि हर कि उर सोग जात्यो

जोग जात्यो सरकि सकंप पँखियानि तें।

कहै रतनाकर न करते प्रपंच ऐंठि

बैठि धारा देखते कहूँ धौ नखियानि तें।

रहते अदेख नहीं बेख वह देखत हूँ

देखत हमारे जान मोर पखियानि तें।

ऊधो ब्रह्मज्ञान को बखान करते न नैकु

देखि लेत कान्ह जो हमारी ऍंखियानि तें।

सीतलसुखद समीर धीर परिमल बगरावत

कूजत विविधा बिहंग मधुप गूँजत मनभावत

वह सुगंधा वह रंग ढंग की लखि चटकाई।

लगति चित्रा सी नंदनादि बन की रुचिराई।

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