2. वियोगी हरिजी अपना जीवन प्राचीन भक्तों की प्रणाली से व्यतीत कर रहे हैं। ब्रजभाषा की तदीयता के साथ उपासना करना और भगवद्भजन में, देश-सेवा में, सामयिक सुधारों के प्रचार में निरत रहना ही इनका लक्ष्य है। वे गद्य-पद्य दोनों लिखने में दक्ष हैं और दोनों ही में उन्होंने कई एक सुंदर ग्रन्थों की रचना की है। ‘वीर सतसई’ उनका प्रसिध्द ग्रन्थ है। साहित्य-सम्मेलन से उस पर उनको 1200 रु‑ का पुरस्कार भी मिल चुका है। इस पुरस्कार को उन्होंने साहित्य-सम्मेलन को ही अर्पण कर दिया, स्वयं नहीं लिया। उनका यह त्याग भी उनकी विरक्ति का सूचक है। उनकी ब्रजभाषा की रचनाएँ अष्टछाप के वैष्णवों के ढंग की होती हैं, उनमें सरसता और सहृदयता भी प्रचुर मात्रा में मिलती है। ‘वीर सतसई’ उनका आदर्श ग्रन्थ है। सामयिक गति पर दृष्टि रखकर उन्होंने इस ग्रन्थ में जिस प्रकार देश और जाति की ऑंखें खोली हैं, उसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। लगभग उनकी अधिकांश रचनाएँ उपयोगिनी और भावमयी हैं। वर्तमान ब्रजभाषा कवियों में उनका भी विशेष स्थान है। कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-
जाके पान किये सबै जग रस नीरस होत।
जयति सदा सो प्रेमरस उर आनन्द उदोत
बैन थके तन मन थके थके सबै जग ठाट।
पै ये नैना नहिं थके जोवत तेरो बाट
प्रेम तिहारे धयान में रहे न तन को भान।
ऍंसुवन मग बहि जाय कुल कान मान अभिमान
पावस ही में धानुष अब , नदी तीर ही तीर।
रोदन ही में लाल दृग नौरस ही में बीर
जोरि नाँव सँग ‘ सिंह ‘ पद करत सिंह बदनाम।
ह्नै हौ कैसे सिंह तुम करि सृगाल के काम
या तेरी तरवार में नहिं कायर अब आब।
दिल हूँ तेरो बुझि गयो वामें नेक न ताब
वियोगी हरि जी ब्रजभाषा के अनन्य भक्त होकर भी कभी-कभी कुछ पद्य खड़ी बोली के भी लिख जाते हैं। दो ऐसे पद्य भी देखिए-
तू शशि मैं चकोर तू स्वाती मैं चातक तेरा प्यारे।
तू घन मैं मयूर तू दीपक मैं पतंग ऐ मतवारे।
तू धान मैं लोभी तू सर्वस मैं अति तुच्छ सखा तेरा।
सब प्रकार से परम सनेही मैं तेरा हूँ तू मेरा।
देखी प्यारे गगन तल में लालिमा ज्यों प्रभा की।
धाया त्योंही समझकर मैं हाथ तेरे गहूँगा।
ठंडा होगा हृदय पर हा! नाथ धोखा दिया क्यों।
मेरा ही है रुधिर उसमें दग्धा जो था बहाया।
3. जो फूल असमय कुम्हला कर सहृदय मात्रा को व्यथित कर जाता है, पंडित सत्यनारायण कविरत्न वही प्रसून हैं। वे एक होनहार युवक थे और बड़ी तन्मयता के साथ ब्रजभाषा देवी की सेवा में निरत थे। ब्रजभाषा से उनको इतना अधिक प्रेम था कि जब वे ब्रजभाषा की करुण कथा किसी सभा या किसी उत्सव में अपने सुस्वर और सुमधुर कण्ठ से सुनाते तो सुनने वालों को मन्त्रा-मुग्धा बना लेते थे। थोड़े ही समय में उन्होंने अच्छी ख्याति भी पायी। वे बी. ए. तक शिक्षा-प्राप्त थे और हिन्दी भाषा पर बड़ा अधिकार रखते थे। संस्कृत का ज्ञान भी उनका अच्छा था। जैसी उनकी रहन-सहन प्रणाली सादी थी, वैसा ही उनका जीवन भी सादा था। बड़े विनीत थे, और नम्र भाव उनके हृदय का प्रधान सम्बल था। उनकी कविताओं में उनका यह भाव स्फुटित होता रहता था। उन्होंने कई संस्कृत नाटकों का सरस ब्रजभाषा में अनुवाद किया था, दो-तीन उनके ब्रजभाषा के पद्य ग्रन्थ भी हैं। बड़ी सरस और टकसाली ब्रजभाषा लिखते थे। शुध्द ब्रजभाषा लिखने की धुन में कभी-कभी ग्रामीण ब्रजभाषा शब्दों का प्रयोग भी कर जाते थे, जिससे कहीं-कहीं उनकी रचना में जैसी चाहिए वैसी सुबोधाता नहीं रह जाती थी। ब्रजभाषा की सेवा के विषय में उनके बहुत बड़े-बड़े विचार थे, किन्तु उसकी पूर्ति किये बिना ही वे धाराधाम से उठ गये। सच है mn proposes God disposes, मेरे मन कछु और है, करता के मन और। उनकी कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-
मृदु मंजु रसाल मनोहर मंजरी
मोर पखा सिर पै लहरैं।
अलबेली नवेलिन बेलिन में
नव जीवन ज्योति छटा छहरैं।
पिक भृंग सुगुंज सोई मुरली
सरसों सुभ पीत पटा फहरैं।
रसवंत विनोद अनंत भरे
व्रजराज बसंत हिये बिहरैं।
श्री राधाबर निज जन बाधा सकल नसावनि।
जाकौ व्रजमान भावन जो व्रज कौ मन भावनि।
रसिक सिरोमनि मन हरन निरमल नेह निकुंज।
मोद भरन उर सुख करन अविचल आनँद पुंज।
रँगीलो साँवरो
कंस मार भूभार उतारन खल दल तारन।
विस्तारन विज्ञान विमल सेतु सँवारन।
जन मन रंजन सोहना गुन आगर चित चोर।
भवभय भंजन मोहना नागर नंद किसोर।
गयो जब द्वारिका
पावन सावन मास नई उनई घन पाँती।
मुनि मन भाई छई रसमयी मंजुल काँती।
सोहत सुन्दर चहुँ सजल सरिता पोखर ताल।
लोल लोल तहँ अति अमल दादुर बोल रसाल।
छटा चूई परै
अलबेली कहुँ बेलि द्रुमन सों लिपटि सुहाई।
धोये धोये पातन की अनुपम कमनाई।
चातक सुक कोयल ललित बोलत मधुरे बोल।
कूकि कूकि केकी कलित कुंजन करत कलोल।
निरखि घन की छटा
इंद्र धानुष अरु इंद्र बधूटिनि की सुचि सोभा।
को जग जनम्यो मनुज जासु मन निरखि न लोभा।
प्रिय पावन पावस लहरि लहलहान चहुँ ओर।
छाई छबि छिति पै छहरि ताको ओर न छोर।
लसै मनमोहना
4. इस खड़ी बोली के समुन्नत काल में जिन युवकों ने ब्रजभाषा की सेवा करना ही अपना धयेय बना रखा है, जो उसकी कीर्ति-धवजा के उत्ताोलन करने में आज भी आनंदानुभव करते हैं, उनमें पंडित रामशंकर शुक्ल एम. ए. प्रधान हैं। इन्होंने प्रयाग में ब्रजभाषा की हित-चेष्टा से एक रसिक-मण्डल नामक संस्था ही स्थापित कर रखी है। वे और उनके लघु भ्राता पं. रामचन्द्र शुक्ल सरस उसकी वृध्दि करने और उसको प्रभावशाली बनाने में आज भी जी से यत्नवान हैं। सौभाग्य से उनको ब्रजभाषा प्रेमियों का एक दल भी प्राप्त हो गया है। जो इस सत्कर्म में उनकी यथेष्ट सहायता कर रहा है। इस दल में डॉक्टर रामप्रसाद त्रिपाठी एम. ए. और पं. युगल किशोर ‘जुगुलेश’ बी. ए. ऐसे सहृदय और विद्वज्जन भी सम्मिलित हैं। त्रिपाठी जी इसके सभापति हैं और सच्ची लगन के साथ उसको समुन्नत बनाने में सचेष्ट हैं। पं. रामशंकर का उपनाम ‘रसाल’ है। वास्तव में ‘रसाल’ रसाल और ‘सरस’ सरस हैं। इन दोनों बंधुओं की ब्रजभाषा की रचनाएँ सुन्दर, सरस और भावमयी होती हैं। इन लोगों की विशेषता यह है कि ये लोग समय की गति पहचानते हैं और ब्रजभाषा देवी का शृंगार सामयिक रुचि के अनुसार करना चाहते हैं। ये लोग दूर-दूर तक कवि-सम्मेलनों में जाकर ब्रजभाषा का रस आस्वादन बहुत बड़ी जनता को कराते हैं और ब्रजभाषा के उस अनुराग को सुरक्षित रखना चाहते हैं जो अब भी हिन्दी-प्रेमी जनता के हृदय में वर्तमान है। ‘सरस’ जी का’अभिमन्यु वधा’ नामक एक काव्य-ग्रन्थ भी हाल में निकला है। उसकी रचना ओजस्विनी और मनोहर है और उसमें सामयिक भावों का सफलता के साथ अनुकूल भाषा में सुन्दर चित्राण है। ‘जुगुलेश’ जी का भी ‘श्रध्दांजलि’ नामक एक संग्रह ग्रन्थ निकल चुका है। उनकी कविताएँ भी हृदय-ग्राहिणी और मनोमुग्धाकर हैं। ‘जुगुलेश’ और ‘सरस’ जी की कविता-पठन-शैली भी बहुत आकर्षक है। हम इस रसिक मण्डल की उन्नति के कामुक हैं। आशा है कि इन सहृदयों और ब्रजभाषा के सच्चे सेवकों द्वारा वह यथेष्ट उन्नति लाभ कर सकेगा। ‘रसाल’ और ‘सरस’ की कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-
1. जामैं न सुमन फैलि फूलत फबीले कहूँ
जामैं गाँस फाँस को विसाल जाल छायो है।
काया कूबरी है पोर पोर में पोलाई परी।
जीवन बिफल जासु बिधि ने बनायो है।
ताहू पै दवारी बारि बंस-बंस नासिबे को
विधि ने सकल विधि ठाट ठहरायो है।
देखि हरियारी अपनायो ताहि बंसी करि
हरि ने रसाल अधारामृत पियायो है।
2. सुबरन स्यंदन पै सैलजा सुनंदन लौं
सुभट सुभद्रा सुत ठमकत आवै है।
‘ सरस ‘ बखानै करबीर वास पूरो किये
श्री हरि सिंगार रस गमकत आवै है।
कैधों दिव्यदाम अभिराम आफताब आब
दाबतम तोम ताब तमकत आवै है।
दमकत आवै चारु चोखो मुख मंद हास
कर बर चंद्रहास चमकत आवै है।
5. आज दिन भी ब्रजभाषा के अनेक प्राचीन कवि जीवित हैं। खड़ी बोली की कविता करने वालों में भी अनेक कवि ऐसे हैं जो खड़ी बोली के साथ ब्रजभाषा की कविता करने में प्रसिध्दि-प्राप्त हैं अनेक युवकों का प्रेम भी ब्रजभाषा के प्रति अब भी देखा जाता है और वे ब्रजभाषा की रचना करने में ही आत्म-प्रसाद लाभ करते हैं। पंडित गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ के नेतृत्व में कानपुर में भी ब्रजभाषा कविता की बहुत कुछ चर्चा पाई जाती है। उनकी मण्डली में भी अनेक प्राचीन और नवयुवक जन ब्रजभाषा की सेवा के लिए आज भी कटिबध्द हैं और तन्मयता के साथ अपनेर् कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ब्रजभाषा की ओर से सर्वथा हिन्दी-प्रेमियों को विरक्ति हो गई है। ‘सनेही’ जी का एक सिध्दान्त है। वे कहा करते हैं, जिस भाषा में सुन्दर भाव मिले, जिस रचना में कवित्व पाया जावे, जो सुन्दर, सरस पदावली का आधार हो, उसका त्याग नहीं हो सकता। उनके इस विचार का उनकी मण्डली वालों पर बड़ा प्रभाव है और इस सूत्रा से भी ब्रजभाषा को बड़ा सहारा मिल रहा है। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि खड़ी बोलचाल की रचना का आजकल विशेष आदर है। कारण इसका यह है कि उसकी वही भाषा है जो गद्य की। उसमें सामयिकता भी अधिक है और वह समय की गति देखकर चल भी रही है। इसलिए उसे सफलता मिल रही है। फिर भी ब्रजभाषा अपना बहुत कुछ प्रभाव रखती है और आशा है, कि उसका यह प्रभाव अभी चिरकाल तक सुरक्षित रहेगा। आज दिन भी खड़ी बोली की कविता करने वालों से ब्रजभाषा की कविता करने वालों की संख्या अधिक है।
इसी स्थान पर मैं ठाकुर गुरु भक्त सिंह बी.ए., एल-एल. बी. की चर्चा भी आवश्यक समझता हूँ। आप एक होनहार सुकवि हैं। आपकी रचनाएँ प्रकृति-निरीक्षण सम्बन्धिानी बिलकुल नये ढंग की होती हैं। आपने अंग्रेजी कवि वड्र्सवर्थ का मार्ग ग्रहण किया है। प्राकृतिक छोटे से छोटे दृश्यों और पदार्थों का वर्णन वे बड़ी सहृदयता के साथ करते हैं। आपका भविष्य उज्ज्वल है। आपने ‘सरस सुमन’ और ‘कुसुम कुंज’ नामक जिन दो ग्रंथों की रचना की है, वे सरस और सुंदर है।
आजकल हिन्दी-संसार में छायावाद की रचनाओं की ओर युवक दल की रुचि अधिकतर आकर्षित है। दस-बारह वर्ष पहले जो भावनाएँ कुछ थोड़े से हृदयों में उदित हुई थीं, इन दिनों वे इतनी प्रबल हो गयी हैं कि उन्हीं का उद्धोष चारों ओर श्रुति-गोचर हो रहा है। जिस नवयुवक कवि को देखिए आज वही उसकी धवनि के साथ अपना कण्ठस्वर मिलाने के लिए यत्नवान है। वास्तव बात यह है कि इस समय हिन्दी भाषा का कविता-क्षेत्र प्रतिदिन छायावाद की रचना की ओर ही अग्रसर हो रहा है। इस विषय में वाद-विवाद भी हो रहा है, तर्क-वितर्क भी चल रहे हैं, कुछ लोग उसके अनुकूल हैं, कुछ प्रतिकूल। कुछ उसको स्वर्गीय वस्तु समझते हैं और कुछ उसको कविता भी नहीं मानते। ये झगड़े हों, किन्तु यह सत्य है कि दिन-दिन छायावाद की कविता का ही समादर बढ़ रहा है। यह देखकर यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसमें कोई बात ऐसी अवश्य है जिससे उसकी उत्तारोत्तार वृध्दि हो रही है और अधिक लोगों के हृदय पर उसका अधिकार होता जाता है।
संस्कृत का एक सिध्दान्त है-‘समयमेव करोति बलाबलम्’। समय ही बल प्रदान करता है और अबल बनाता है। मेरा विचार है कि यह समय क्रान्ति का है। सब क्षेत्रों में क्रान्ति उत्पन्न हो रही है तो कविता क्षेत्र में क्रान्ति क्यों न उत्पन्न होती?दूसरी बात यह है कि आजकल योरोपीय विचारों; भावों और भावनाओं का प्रवाह भारतवर्ष में बह रहा है। जो कुछ विलायत में होता है उसका अनुकरण करने की चेष्टा यहाँ की सुशिक्षित मण्डली द्वारा प्राय: होती है। इस शताब्दी के आरम्भ में ही रहस्यवाद की कविताओं का प्रचार योरप में हुआ। उमर ख़य्याम की रुबाइयों का अनुवाद योरप की कई भाषाओं में किया गया जिससे वहाँ की रहस्यवाद की रचनाओं को और अधिक प्रगति मिली। इन्हीं दिनों भगवती वीणापाणि के वरपुत्र कवीन्द्र रवीन्द्र ने कबीर साहब की कुछ रहस्यवाद की रचनाओं का ऍंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया और उसकी भूमिका में रहस्यवाद की रचनाओं पर बहुत कुछ प्रकाश डाला। इसके बाद उनकी गीतांजलि के ऍंग्रेजी अनुवाद का योरप में बड़ा आदर हुआ और उनको ‘नोबल प्राइज़’मिला। कवीन्द्र रवीन्द्र का योरप पर यदि इतना प्रभाव पड़ा तो उनकी जन्मभूमि पर क्यों न पड़ता। निदान उन्हीं की रचनाओं औरर् कीत्तिामालाओं का प्रभाव ऐसा हुआ कि हिन्दी भाषी प्रान्त वाले भी उनकी इस प्रकार की रचनाओं का अनुकरण करने के लिए लालायित हुए। उनकी रचनाओं का असर यहाँ की छायावाद की कविताओं पर स्पष्ट दृष्टिगत होता है। कुछ लोगों ने तो उनका पद्य का पद्य अपना बना लिया है।
हमारे प्रान्त के हिन्दी भाषा के कुछ प्राचीन ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें रहस्यवाद की रचना पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। ऐसी रचना उन लोगों की है जो अधिकतर सूफी सम्प्रदाय के थे। इस प्रकार की सबसे अधिक रचना कबीर साहब के ग्रन्थों में मिलती है। जायसी के ‘पदमावत’ और ‘अखरावट’ में भी इस प्रकार की अधिक कविताएँ हैं। यह स्पष्ट है कि इन दोनों की रचनाएँ सूफी प्रभाव से ही प्रभावित हैं। जायसी के अनुकरण में बाद को जितने प्रबंधा-ग्रन्थ मुसलमान कवियों द्वारा लिखे गये हैं, उनमें भी रहस्यवाद का रंग पाया जाता है। जब देखा गया कि इस प्रकार की रचनाएँ समय के अनुकूल हैं और वे प्रतिष्ठा का साधान बन सकती हैं तो कोई कारण् नहीं था कि कुछ लोग उनकी ओर आकर्षित न होते। इस शताब्दी के आरम्भ में सूफियाना खयाल की जितनी उर्दू रचनाएँ हुई हैं, उनका प्रभाव भी ऐसे लोगों पर कम नहीं पड़ा। इसके अतिरिक्त इस प्रकार की रचनाएँ शृंगाररस का नवीन संस्करण भी हैं। जब देश में देश-प्रेम का राग छिड़ा और ऐसी रचनाएँ होने लगीं जो सामयिक परिवर्तनों के अनुकूल थीं और शृंगार रस की कुत्सा होने लगी, तो उसका छायावाद की रचना के रूप में रूपान्तरित हो जाना स्वाभाविक था। एक और बात है। वह यह कि जब वर्णनात्मक अथवा वस्तु प्रधान (Objective) रचनाओं का बाहुल्य हो जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया भावात्मक अथवा भाव प्रधान (Subjective) रचनाओं के द्वारा हुए बिना नहीं रहती। दूसरी बात यह है कि व्यंजना और धवनि प्रधान काव्य ही का साहित्य-क्षेत्र में उच्च स्थान है। इसलिए चिन्ताशील मस्तिष्क और भाव-प्रवण हृदय इस प्रकार की रचनाओं की ओर ही अधिक खिंचता है। यह स्वाभाविकता भी है। क्योंकि वर्णनात्मक रचना में तरलता होती है और भावात्मक रचनाओं में गंभीरता और मोहकता। ऐसी दशा में इस प्रकार की रचनाओं की ओर कुछ भावुक एवं सहृदय जनों का प्रवृत्ता हो जाना आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रवृत्तिा ही किसी कार्य का कारण होती है। छायावाद की कविताओं के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। ‘छायावाद’ शब्द कहाँ से कैसे आया, इस बात की अब तक मीमांसा न हो सकी। छायावाद के नाम से जो कविताएँ होती हैं, उनको कोई ‘हृदयवाद’ कहता है और कोई प्रतिबिम्बवाद। अधिकतर लोगों ने छायावाद के स्थान पर रहस्यवाद कहने की सम्मति ही दी है। किन्तु अब तक तर्क-वितर्क चल रहा है और कोई यह निश्चित नहीं कर सका कि वास्तव में नूतन प्रणाली की कविताओं को क्या कहा जाय। इस पर बहुत लेख लिखे जा चुके हैं, पर सर्व-सम्मति से कोई बात निश्चित नहीं की जा सकी। छायावाद की अनेक कविताएँ ऐसी हैं जिनको रहस्यवाद की कविता नहीं कह सकते, उनको हृदयवाद कहना भी उचित नहीं, क्योंकि उसमें अति व्याप्ति दोष है। कौन-सी कविता ऐसी है जिससे हृदय का सम्बन्धा नहीं? ऐसी अवस्था में मेरा विचार है कि ‘छायावाद’ ही नाम नूतन प्रणाली की कविता का स्वीकार कर लिया जाय तो अनेक तर्कों का निराकरण हो जाता है। यह नाम बहुत प्रचलित है और व्यापक भी बन गया है।
‘रहस्यवाद’ शब्द में एक प्रकार की गंभीरता और गहनता है। उसमें एक ऐसे गंभीर भाव की धवनि है जो अनिर्वचनीय है और जिस पर एक ऐसा आवरण है जिसका हटाना सुगम नहीं। किन्तु ‘छायावाद’ शब्द में यह बात नहीं पायी जाती। उसमें कोई अज्ञेय दृष्टिगत न हो, परन्तु कम से कम उसका प्रतिबिम्ब मिलता है और कविकर्म्म के लिए इतना अवलम्बन अल्प नहीं। इसलिए रहस्यवाद शब्द से छायावाद शब्द में स्पष्टता और बोधागम्यता है। छायावाद का अनेक अर्थ अपने विचारानुसार लोगों ने किया है। परन्तु मेरा विचार यह है कि जिस तत्तव का स्पष्टीकरण असम्भव है, उसकी व्याप्त छाया का ग्रहण कर उसके विषय में कुछ सोचना, कहना, अथवा संकेत करना असंगत नहीं। परमात्मा अचिन्तनीय हो, अव्यक्त हो, मन-वचन-अगोचर हो,परन्तु उसकी सत्ता कुछ न कुछ अवश्य है। उसकी यही सत्ता संसार के वस्तुमात्रा में प्रतिबिम्बित और विराजमान है। क्या उसके आधार से उसके विषय में कुछ सोचना विचारना युक्तिसंगत नहीं। यदि युक्तिसंगत है तो इस प्रकार की रचनाओं को यदि छायावाद नाम दिया जावे तो क्या वह विडम्बना है? यह सत्य है कि वह अनिर्वचनीय तत्तव अकल्पनीय एवं मन, बुध्दि चित्ता से परे है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हम उसके विषय में कुछ सोच-विचार ही नहीं सकते। उसके अपरिमित और अनन्त गुणों को हम न कह सकें, यह दूसरी बात है, किन्तु उसके विषय में हम कुछ कह ही नहीं सकते ऐसा नहीं कहा जा सकता। संसार-समुद्र अब तक बिना छाना हुआ पड़ा है। उसके अनन्त रत्न अब तक अज्ञातावस्था में हैं। परन्तु फिर भी मनीषियों ने उसकी अनेक विभूतियों का ज्ञान प्राप्त किया है। जिससे एक ओर मनुष्यों को सांसारिक और आधयात्मिक कई शक्तियाँ प्राप्त हुईं और दूसरी ओर संसार के तत्तवों का विशेष ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा और जाग्रत हो गयी। उस परम तत्तव के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि छायावाद शब्द की व्याख्या यदि कथित रूप में ग्रहण की जाय तो उसके नाम की सार्थकता में व्याघात उपस्थित न होगा। मेरी इन बातों को सुनकर कहा जा सकता है कि यह तो छायावाद को रूपान्तर से रहस्यवाद का पर्यायवाची शब्द बनाना है। फिर रहस्यवाद शब्द ही क्यों न ग्रहण कर लिया जावे, छायावाद शब्द की क्लिष्ट कल्पना क्यों की जावे? ईश्वर-सम्बन्धी विषयों के लिए यह कथन ठीक है। परंतु सांसारिक अनेक विषय और तत्तव ऐसे हैं कि छायावाद की कविता में जिनका वर्णन और निरूपण होता है। उन वर्णनों और निरूपणों को रहस्यवाद की रचना नहीं कहा जा सकता। मैं समझता हूँ, इस प्रकार की कविताओं और वर्णनों के समावेश के लिए भी छायावाद नाम की कल्पना की गयी है। दूसरी बात यह है कि ‘छायावाद’ कहने से आजकल जिस प्रकार की कविता का बोधा होता है। वह बोधा ही छायावाद का अर्थ क्यों न मान लिया जावे? मेरा विचार यह है कि ऐसा मान लेने में कोई आपत्तिा नहीं। अनेक रूढ़ि शब्दों की उत्पत्तिा इसी प्रकार हुई है। आइए, एक दूसरे मार्ग से इस पर और विचार करें।
प्रात:काल फूल हँसते हैं। क्यों हँसते हैं? यह कौन जाने। वे रंग लाते हैं, महकते हैं, मोती जैसी बूँदों से अपनी प्यास बुझाते हैं, सुनहले तारों से सजते हैं, किसलिए! यह कौन बतलावे। एक कालाकलूटा आता है, नाचता है, गीत गाता है, भाँवरें भरता है,झुकता है, उनके कानों में न जाने क्या क्या कहता है, रस लेता है और झूमता हुआ आगे बढ़ता है क्यों? रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने, ताकती झाँकती अठखेलियाँ करती, एक रँगीली आती है, उनसे हिलती-मिलती है, रंगरलियाँ मनाती है, उन्हें प्यार करती है, फिर यह गई, वह गई, कहाँ गई? कौन कहे? कोई इन बातों का ठीक-ठीक उत्तार नहीं दे सकता। अपने मन की सभी सुनाता है, पर पते की बात किसने कही। ऑंख उठाकर देखिए, इधार-उधार हमारे आगे-पीछे, पल-पल ऐसी अनन्त लीलाएँ होती रहती हैं, परन्तु भेद का परदा उठाने वाले कहाँ हैं? यह तो बहिर्जगत की बातें हुईं। अन्तर्जगत और विलक्षण है। वहाँ एक ऐसा खिलाड़ी है जो हवा को हवा बताता है, पानी में आग लगाता है, आसमान के तारे तोड़ता है, आग चबाता है, धारती को धूल में मिलाता है, स्वर्ग में फिरता है, नन्दनवन के फूल चुनता है और बैकुण्ठ में बैठकर ऐसी हँसी हँसता है कि जिधार देखो उधार बिजली कौंधाने लगती है। संसार उसकी कल्पना है, कार्यकलाप, केलि और उत्थान-पतन रंग-रहस्य। उसके तन नहीं परन्तु भव का तानाबाना उसी के हाथों का खेल है। वह अंधा है, किन्तु वही तीनों लोकों की ऑंखों का उजाला है। वह देवतों के दाँत खट्टे करता है, लोक को उँगलियों पर नचाता है, और उन गुत्थियों को सुलझाता है, जिनका सुलझाना हँसी-खेल नहीं। जहाँ वह रहता है वहाँ की वेदनाओं में मधुरिमा है, ज्वालाओं में सुधा है, नीरवता में राग है, कुलिशता में सुमनता है और है गहनता में सुलभता। वहाँ चन्द्र नहीं, सूर्य नहीं, तारे नहीं, किन्तु वहाँ का आलोक विश्वालोक है। वहाँ बिना तार की तन्त्राी बजती है, बिना स्वर का आलाप होता है, बिना बादल रस बरसता है और बिना रूप रंग के ऐसे मनोहर अनन्त प्रसून विकसित होते हैं कि जिनके सौरभ से संसार सौरभित रहता है। बहिर्जगत और अन्तर्जगत का यह रहस्य है। इनका सूत्रा जिनके हाथ में है, उसकी बात ही क्या! उसके विषय में मुँह नहीं खोला जा सकता। जिसने जीभ हिलाई उसी को मुँह की खानी पड़ी। बहुतों ने सर मारा पर सब सर पकड़ के ही रह गये।
सब सही, पर रहस्यभेद का भी कुछ आनन्द है। यदि समुद्र की अगाधाता देखकर लोग किनारा कर लेते तो चमकते मुक्ता दाम हाथ न आते। पहाड़ों की दुर्गमता विचार कर हाथ पाँव-डाल देते तो, रत्न राशि से अलंकृत न हो सकते। लोक ललाम लोकातीत हो, उनकी लीलाएँ लोकोत्तार हों, उनको लोचन न अवलोक सकें, गिरा न गा सके। उनके प्रवाह में पड़कर विचारधारा डूब जावे, मतितरी भग्न हो और प्रतिभा विलीन। किन्तु उनके अवलम्बन भी तो वे ही हैं। उनका मनन, चिन्तन अवलोकन ही तो उनके जीवन का आनन्द है। आकाश असीम हो, अनन्त हो तो, खगकुल को इन प्रपंचों से क्या काम? वह तो पर खोलेगा और जी भर उसमें उड़ेगा। उसके लिए यह सुख अल्प नहीं। पारावार अपार हो, लाखों मीलों में फैला हो, अतल स्पर्शी हो, मीन को इससे प्रयोजन नहीं। वह जितनी दूरी में केलि करता फिरता है, उछलता रहता है उतना ही उसका सर्वस्व है और वही उसका जीवन और अवलम्बन है। मनुष्य भी अपने भावानुकूल लोक ललाम की कल्पना करता है। संसार के विकास में, उसकी विभूतियों में उस लीलामय की लीलाएँ देखता, मुग्धा होता और अलौकिक आनन्दानुभव करता है। क्या इसमें उसके जीवन की सार्थकता नहीं है? मनुष्यों में जो विशेष भावुक होते हैं, वे अपनी भावुकता को जिह्ना पर भी लाते हैं, उसको सुमनोपम कान्त पदावली द्वारा सजाते हैं, तरह-तरह के विचार-सूत्रा में गूँथते हैं और फिर उसे सहृदयता सुन्दरी के गले का हार बनाते हैं। इस कला में जो जितना पटु होता है, कार्य-क्षेत्र में उसको उतनी ही सफलता हाथ आती है। उसकी कृतियाँ भी उतनी ही हृदय-ग्राहिणी और सार्वजनीन होती हैं। इसलिए परिणाम भी भिन्न-भिन्न होता है। जो जितना ही आवरण हटाता है, जितना ही विषय को स्पष्ट करता है, जितना ही दुर्बोधाता और जटिलताओं का निवारण करता है, वह उतना ही सफलीभूत और कृतकार्य समझा जाता है। यह सच है कि ऐसे भाग्यशाली सब नहीं होते। समुद्र में उतरकर सभी लोग मौक्तिक लेकर ऊपर नहीं उठते। अधिकांश लोग घोंघे, सिवार पाकर ही रह जाते हैं। किन्तु इससे उद्योगशीलता और अनुशीलन परायणता को व्याघात नहीं पहुँचता। रहस्य की ओर संकेत किया जा सकता है। उसका आभास सामने लाया जा सकता है, हृदय-दर्पण पर जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, अन्तर्दृष्टि उसकी ओर खींची जा सकती है, क्या यह कम सफलता है? मनुष्य की जितनी शक्ति है, उस शक्ति से यथार्थ रीति से, काम लेने से मनुष्यता की चरितार्थता हो जाती है, और चाहिए क्या? रहस्य-भेद किसने किया? परमात्मा को लाकर जनता के सामने कौन खड़ा कर सका? तथापि संसार के जितने महज्जन हैं, उन्होंने अपने र्कत्ताव्य का पालन किया,जिससे अनेक गुत्थियाँ सुलझीं। अब भी उद्योग करने से और बुध्दि से यथार्थतापूर्वक कार्य लेने से कितनी गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं। इन गुत्थियों के सुलझाने में आनन्द है, तृप्ति है और है अलौकिक फल-लाभ जिससे मनुष्य जीवन स्वर्गीय बन जाता है। रहस्यवाद की रचनाओं की ओर प्रवृत्ता होने का उद्देश्य यही है। जो लोग इस तत्तव को यथार्थ रीति से समक्ष कर उसकी ओर अग्रसर होते हैं, वे वन्दनीय हैं और उनकी कार्यावली अभिनन्दनीय है। उनका विरोधा नहीं किया जा सकता। आधिभौतिक और आधयात्मिक जितने कार्य-कलाप हैं, उनका यथातथ्य ज्ञान एक प्रकार से असम्भव है। परन्तु उसकी कुछ न कुछ छाया या प्रतिबिम्ब प्रत्येक हृदय-दर्पण में यथासमय पड़ता रहता है। कहीं यह छाया धुँधाली होती है, कहीं उससे स्पष्ट, कहीं अधिकतर स्पष्ट। इसी का वर्णन अनुभूति और मेधा-शक्ति द्वारा होता आया है और अब भी हो रहा है, और आगे भी होगा। इन अनुभूतियों का प्रकाश वचन-रचना द्वारा करना प्रशंसनीय है, निन्दनीय नहीं। चाहे उसको रहस्यवाद कहा जावे अथवा छायावाद। इसका प्राचीन नाम रहस्यवाद ही है, जिसे अंग्रेजी में (mysticism) ‘मिस्टिज्म’ कहते हैं। उसी का साधारण संस्करण छायावाद है। अतएव उस पर अधिक तर्क-वितर्क उचित नहीं, उसके मार्ग को प्रशस्त और सुन्दर बनाना ही अच्छा है।
अब तक मैंने जो निवेदन किया है उसका यह अभिप्राय नहीं है कि छायावाद के नाम पर जो अनर्गल और बेसिर पैर की रचनाएँ हो रही हैं, मैं उनको प्रश्रय दे रहा हूँ। मेरे कथन का यह प्रयोजन है कि गुण का आदर अवश्य होना चाहिए। अनर्गल प्रलाप कभी अभिनन्दनीय नहीं रहा। उसका जीवन क्षणिक होता है, और थोड़े ही समय में अपने आप वह नष्ट हो जाता है। दूसरी बात यह कि सच्चे समालोचक और सत्समालोचना का कार्य ही क्या है। यही न कि साहित्य से उसकी बुराइयाँ दूर की जावें और जो भ्रान्त हैं उनको पथ पर लगाया जावे, जो चूके हैं उनको सुधारा जावे और साहित्य में जो कूड़ा-करकट हो उसको निकाल बाहर किया जावे। दोष-गुण सब में हैं, गुण का ग्रहण और दोष का संशोधान एवं परिमार्जन ही वांछनीय है। छायावाद की अनेक रचनाएँ मुझको अत्यन्त प्रिय हैं और मैं उन्हें बड़े आदर की दृष्टि से देखता हूँ। जिनमें सरस धवनि और व्यंजना है उनका आदर कौन सहृदय न करेगा? क्या काँटों के भय से फूल का त्याग किया जावेगा। यह भी मैं मुक्त कंठ से कहता हूँ कि छायावादी कवियों ने खड़ी बोलचाल की कर्कशता और क्लिष्टता को बहुत कम कर दिया है। जैसे प्राचीन खड़ी बोली की रचनाओं का यह गुण है कि उन्होंने भाषा को बहुत परिमार्जित और शुध्द बना दिया, उसी प्रकार छायावादी कविता का यह गुण है कि उसने कोमल कान्त पदावली ग्रहण कर खड़ी बोलचाल की कविता के उस दोष को दूर कर दिया जो सहृदयजनों को काँटों की तरह खटक रहा था।
संसार में जितनी विद्याएँ हैं, सब नियमबध्द हैं, जितनी कलाएँ हैं, सब सीखनी पड़ती हैं। उनकी भी रीति और पध्दति है। उनकी उपेक्षा करना विद्या और कला को आघात पहुँचाना है। साहित्य का सम्बन्धा विद्या और कला दोनों से है। इसलिए जो उसकी पध्दतियाँ हैं उनका त्याग नहीं किया जा सकता। उनको परिवर्तित रूप में ग्रहण करें अथवा मुख्य रूप में, परन्तु उनके ग्रहण से ही कार्य-सिध्दि, पथ प्रशस्त हो सकता है। साहित्य यदि साधय है तो नियम उसके साधान हैं। इसलिए उनको अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक प्रतिभावान पुरुष नयी उद्भावनाएँ कर सकता है, और ये उद्भावनाएँ भी साधानाओं में गिनी जा सकती हैं। परन्तु उनका उद्देश्य साधय मूलक होगा, अन्यथा वे उद्भावनाएँ उपयोगिनी न होंगी। गद्य लिखने के लिए छन्द की आवश्यकता नहीं। किन्तु पद्य लिखें और यह कहें कि छन्द प्रणाली बिलकुल व्यर्थ है तो क्या यह कहना यथार्थ होगा? यदि छन्द-प्रणाली व्यर्थ है तो पद्य-रचना हुई कैसे? कुछ नियमित अक्षरों और मात्राओं में जो रचना होती है वही तो पद्य कहलाता है। यह दूसरी बात है कि पद्य की पंक्तियों और अक्षरों की गणना प्रथम उद्भावित छन्द-प्रणाली से भिन्न हो। किन्तु वह भी है छन्द ही, कोई अन्य वस्तु नहीं। ऐसी अवस्था में छन्द की कुत्सा करना मूल पर ही कुठाराघात करना है और उसी डाल को काटना है जो उसकी अवलम्बन स्वरूपा है। ऐसी ही बातें साहित्य के और अंगों के विषय में भी कही जा सकती हैं। हिन्दी साहित्य का जो वर्तमान रूप है वह अनेक प्रतिभावान पुरुषों की चिन्ताशीलता का ही परिणाम है। वह क्रमश: उन्नत होता और सुधारता आया है और नयी-नयी उद्भावनाओं से भी लाभ उठाता आया है। अब भी इस विषय में वह बहुत कुछ गौरवित हो सकता है, यदि उसको सुदृष्टि से देखा जाय। चाहिए यही कि उसका मार्ग और सुंदर बनाया जावे न यह कि उसमें काँटे बिछाये जावें और उच्छृंखलता को स्वतंत्राता कहकर उसकी बची-खुची प्रतिष्ठा को भी पददलित किया जावे। परमात्मा ने जिसको प्रतिभा दी है, कविता-शक्ति दी है, विद्वत्ता दी है, और प्रदान की है वह मनोमोहिनी उक्ति जो हृदयों में सुधाधारा बहाती है, वह अवश्य राका-मयंक के समान चमकेगा और उसकी कीर्ति-कौमुदी से साहित्य-गगन जगमगा उठेगा और वे तारे जो चिरकाल से गगन को सुशोभित करते आये हैं, अपने आप उसके सामने मलिन हो जावेंगे। वह क्यों ऐसा सोचे कि आकाश के तारक-चय को ज्योतिर्विहीन बनाकर ही हम विकास प्राप्त कर सकेंगे। हिन्दी-साहित्य की वर्तमान परिस्थिति को देखकर मुझको ये कतिपय पंक्तियाँ लिखनी पड़ीं। मेरा अभिप्राय यह है कि साहित्य-क्षेत्र में जो अवांछनीय, असंयत भाव देखा जा रहा है उसकी ओर हमारे भगवती वीणापाणि के वरपुत्र देखें और वह पथ ग्रहण करें जिसमें सरसता से बहती हुई साहित्य-रस की धारा आविल होने से बचे और उनके ‘छायावाद’ की रचनाओं को वह महत्तव प्राप्त हो जो वांछनीय है।
यह देखा जाता है कि युवक दल अधिकतर आजकल छायावाद की रचनाआ की ओर आकर्षित है। युवक-दल ही समाज का नेता है, वही भविष्य को बनाता है और सफलता की कुंजी उसी के हाथ में होती है। उसके छायावाद की ओर खिंच जाने से उसका भविष्य बड़ा उज्ज्वल है, किन्तु उसको यह विचारना होगा कि क्या हिन्दी भाषा के चिर-संचित भंडार को धवंस कर और उस भण्डार के धान के संचय करने वालों कीर् कीत्तिा को लोप कर ही यह उज्ज्वलता प्राप्त होगी? इतिहास यह नहीं बतलाता। जो रत्न हमारी सफलता का संबल है, उसको फेंककर हमारी इष्ट-सिध्दि नहीं हो सकती। भविष्य बनाने के लिए वर्तमान आवश्यक है, परन्तु भूत पर भी दृष्टि होनी चाहिए। हम योग्य न हों और योग्य बनाने का दावा करें, हमारा ज्ञान अधूरा हो और हम बहुत बडे ज्ञानी होने की डींग हाँकें, हम कवि पुंगव होने का गर्व करें और साधारण कवि होने की भी योग्यता न रखें, छायावाद की कविता लिखें और यह जानें भी नहीं कि कविता किसे कहते हैं, धूल उड़ावें प्राचीन कविवरों की और करने बैठें कवि-कर्म की मिट्टी पलीद, तो बताइये हमारी क्या दशा होगी? हम स्वयं तो मुँह की खाएँगे ही, छायावाद की ऑंखें भी नीची करेंगे। आजकल छायावाद के नाम पर कुछ उत्साही युवक ऐसी ही लीला कर रहे हैं। मेरी उनसे यह प्रार्थना है कि यदि उनमें छायावाद का सच्चा अनुराग है तो अपने हृदय में वे उस ज्योति की छाया पड़ने दें, जिससे उनका मुख उज्ज्वल हो और’छायावाद’ का सुन्दर कविता क्षेत्र उद्भासित हो उठे। मेरा विचार है कि छायावाद कविता-प्रणाली का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। जैसे पावस का तमोमय पंकिल काल व्यतीत होने पर ज्योतिर्मय स्वच्छ शरद ऋतु का विकास होता है वैसे ही जो न्यूनताएँ’छायावाद’ के क्षेत्र में इस समय विद्यमान हैं वे दूर होंगी और यह वांछनीय पूर्णता को प्राप्त होगी। किंतु यह तभी होगा जब युवक-दल अपनी इष्ट-सिध्दि के लिए भगवती वीणापाणि की सच्ची आराधाना के लिए कटिबध्द होगा।
किसी-किसी छायावादी कवि का यह विचार है कि जो कुछ तत्तव है वह छायावाद की कविता में ही है। कविता-सम्बन्धी और जितने विभाग हैं वे तुच्छ ही नहीं तुच्छातितुच्छ हैं और उनमें कोई सार नहीं। अपना विचार प्रगट करने का अधिकार सबको है, किन्तु विचार प्रगट करने के समय तथ्य को हाथ से न जाने देना चाहिए। जो छायावाद के अथवा रहस्यवाद के आचार्य कहे जाते हैं, क्या उन्होंने आजीवन रहस्यवाद की ही रचना की? प्राचीन कवियों में ही हम प्रसिध्द रहस्यवादी कबीर और जायसी को ले लें तो हमें ज्ञात हो जाएगा कि सौ पद्यों में यदि दस पाँच रचनाएँ उनकी रहस्यवाद की हैं तो शेष रचनाएँ अन्य विषयों की। क्या उनकी ये रचनाएँ निन्दनीय, अनुपयुक्त तथा अनपुयोगी हैं! नहीं, उपयोगी हैं और अपने स्थान पर उतनी ही अभिनन्दनीय हैं जितनी रहस्यवाद की रचनाएँ। एकदेशीय ज्ञान अपूर्ण होता है और एकदेशीय विचार अव्यापक। जैसे शरीर के सब अंगों का उपयोग अपने-अपने स्थानों पर है, जैसे किसी हरे वृक्ष का प्रत्येक अंश उसके जीवन का साधान है, उसी प्रकार साहित्य तभी पुष्ट होता है जब उसमें सब प्रकार की रचनाएँ पायी जाती हैं, क्योंकि उन सबका उपयोग यथास्थान होता है। जो कविता आन्तरिक प्रेरणा से लिखी जाती है, जिसमें हृत्तांत्राी की झंकार मिलती है, भावोच्छ्वास का विकास पाया जाता है, जिसमें सहृदयता है, सुन्दर कल्पना है, प्रतिभा तरंगायित है, जिसका वाच्यार्थ स्पष्ट है, सरल है, सुबोधा है, वही सच्ची कविता है, चाहे जिस विषय पर लिखी गयी हो और चाहे जिस भाषा में हो। कौन उसका सम्मान न करेगा और कहाँ वह आदृत न होगी? कवि-हृदय को उदार होना चाहिए, वृथा पक्षपात और खींचतान में पड़ कर उसको अपनी उदात्ता वृत्तिा को संकुचित न करना चाहिए। मेरा कथन इतना ही है कि एकदेशीय विचार अच्छा नहीं, उसको व्यापक होना चाहिए। किसी फूल में रंग होता है, किसी की गठन अच्छी होती है, किसी का विकास सुन्दर होता है, किसी में सुगंधि पाई जाती है-सब बात सब फूलों में नहीं मिलती। कोई ही फूल ऐसा होता है जिसमें सब गुण पाये जाते हैं। जिस फूल में सब गुण हैं, यह कौन न कहेगा कि वह विशेष आदरणीय है। परन्तु अन्यों का भी कुछ स्थान है और उपयोग भी। इसीलिए जिसमें जो विशेषता है वह स्वीकार-योग्य है,उपेक्षणीय नहीं। कला का आदर कला की दृष्टि से होना चाहिए। यदि उसमें उपयोगिता मिल जावे तो क्या कहना। तब उसमें सोना और सुगंधा वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है।
कवि-कर्म का विशेष गुण वाच्यार्थ की स्पष्टता है। प्रसाद गुणमयी कविता ही उत्ताम समझी जाती है। वैदर्भी वृत्तिा का ही गुणगान अब तक होता आया है। किन्तु यह देखा जाता है कि छायावादी कुछ कवि इसकी उपेक्षा करते हैं और जानबूझ कर अपनी रचनाओं को जटिल से जटिल बनाते हैं, केवल इस विचार से कि लोग उसको पढ़कर यह समझें कि उनकी कविता में कोई गूढ़ तत्तव निहित है, और इस प्रकार उनको उच्च कोटि का रहस्यवादी कवि होने का गौरव प्राप्त हो। ऐसा इस कारण से भी होता है कि किसी-किसी भावोच्छ्वास उनको उस प्रकार की रचना करने के लिए बाधय करता है। वे अपने विचारानुसार उसको बोधागम्य ही समझते हैं, पर भाव प्रकाशन में अस्पष्टता रह जाने के कारण् उनकी रचना जटिल बन जाती है। कवि-कर्म की दृष्टि से यह दोष है। इससे बचना चाहिए। यह सच है कि गूढ़ता भी कविता का एक अंग है। गम्भीर विषयों का वर्णन करने में या अज्ञेयवाद की ओर आकर्षित होकर अनुभूत अंशों के निरूपण करने में गूढ़ता अवश्य आ जाती है किन्तु उसको बोधागम्य अवश्य होना चाहिए। यह नहीं कि कवि स्वयं अपनी कविता का अर्थ करने में असमर्थ हो। वर्तमान काल की अनेक छायावादी कविताएँ ऐसी हैं कि जिनका अर्थ करना यदि असंभव नहीं तो बहुत कष्टसाधय अवश्य है। मेरा विचार है, इससे छायावाद का पथ प्रशस्त होने के स्थान पर अप्रशस्त होता जाता है। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कविता में कुछ ऐसी गिरह होनी चाहिए जिसके खोलने की नौबत आवे। जो कविता बिलकुल खुली होती है उसमें वह आनंद नहीं प्राप्त होता, जो गिरह वाली कविता की गुत्थी सुलझाने पर मिलता है। किन्तु यह गिरह या गाँठ दिल की गाँठ न हो जिसमें रस का अभाव होता है। सुनिए एक सुकवि क्या कहता है-
सम्मन रस की खान , सो हम देखा ऊख में।
ताहू में एक हानि , जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं।
कविता यदि द्राक्षा न बन सके तो रसाल ही बने, नारिकेल कदापि नहीं। साहित्य-मर्मज्ञों की यही सम्मति है। किसी-किसी का यह कथन है कि भावावेश कितनों को दुरूहतर कविता करने के लिए बाधय करता है। मेरा निवेदन यह है कि वह भावावेश किस काम का जो कविता के भाव को अभाव में परिणत कर दे। भावुकता और सहृदता की सार्थकता तभी है जब वह असहृदय को भी सहृदय बना ले। जिसने सहृदय को असहृदय बना दिया वह भावुकता और सहृदयता क्या है, इसे सहृदय जन ही समझें।
छायावाद की कविताएँ व्यंजना और धवनि-प्रधान होती हैं। वाच्यार्थ से जहाँ व्यंजना प्रधान हो जाती है वही धवनि कहलाती है। छायावाद की कविता में इसकी अधिकता मिलती है। इसीलिए वह अधिक हृदयग्राहिणी हो जाती है। छायावादी कवि किसी बात को बिलकुल खोलकर नहीं कहना चाहते। वे उसको इस प्रकार से कहते हैं जिससे उसमें एक ऐसी युक्ति पाई जाती है जो हृदय को अपनी ओर खींच लेती है। वे जिस विषय का वर्णन करते हैं उसके ऊपरी बातों का वर्णन करके ही तुष्ट नहीं होते। वे उसके भीतर घुसते हैं और उससे सम्बन्धा रखने वाली तात्तिवक बातों को इस सुंदरता से अंकित करते हैं, जिससे उनकी रचना मुग्धाकारिणी बन जाती है। वे अपनी आन्तरिक वृत्तिायों को कभी साकार मानकर उनकी बातें एक नायक नायिका की भाँति कहते हैं, कभी सांसारिक दृश्य पदार्थों को लेकर उसमें कल्पना का विस्तार करते हैं और उसको किसी देव-दुर्लभ वस्तु अथवा किसी व्यक्ति-विशेष के समान अंकित करते हैं। कभी वे अपनी ही सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में देखते हैं और उनके आधार से अपने समस्त आन्तरिक उद्गारों को प्रकट करते हैं। उनकी वेदनाएँ तड़पती हैं, रोती-कलपती हैं, कभी मूर्ति नई आह बन जाती है, और कभी जलधारों समान अजò अश्रु विसर्जन करने लगती है। उनकी नीरवता में राग है, उनके अन्धाकार में अलौकिक आलोक और उनकी निराशा में अद्भुत आशा का संचार। वे ससीम में असीम को देखते हैं, बिन्दु में समुद्र की कल्पना करते हैं, और आकाश में उड़ने के लिए अपने विचारों को पर लगा देते हैं। आलोकमयी रजनी को कलित कौमुदी की साड़ी पहिना कर और तारकावली की मुक्तामाला से सुसज्जित कर, जब उसे चन्द्रमुख से सुधा बरसाते हुए वे किसी लोकरंजन की ओर गमन करते अंकित करते हैं, तो उसमें एक लोकरंजिनी नायिका-सम्बन्धी समस्त लीलाओं और कलाओं की कल्पना कर देते हैं, और इस प्रकार अपनी रचनाओं को लालित्यमय बना देते हैं। उनकी प्रतिभा विश्वजनीन भावों की ओर कभी मन्थर गति से, कभी बड़े वेग से गमन करती है और उनके समागम से ऐसा रस सृजन करती है, जो अनेक रसिकों के हृदय में मन्द-मन्द प्रवाहित होकर उसे स्वर्गीय सुख का आस्वादन कराती है। थोड़े में यह कहा जा सकता है कि उनकी रचना अधिकतर भाव प्रधान (Subjective) होती है, वस्तु प्रधान (Objective) नहीं। इसी से उसमें सरसता, मधुरता और मनमोहकता होती है। मैंने उनके लक्ष्य की ही बात कही है। मेरे कथन का यह अभिप्राय नहीं कि छायावाद के नाम पर जितने कविता करने वाले हैं,उनको इस लक्ष्य की ओर गमन करने में पूरी सफलता मिलती है। छायावाद के कुछ प्रसिध्द कवि ही इस लक्ष्य को सामने रखकर अपनी रचना को तदनुकूल बनाने में कुछ सफल हो सके हैं। अन्यों के लिए अब तक वह वैसा ही है जैसा किसी वामन का चन्द्रमा को छूना। किन्तु इस ओर प्रवृत्तिा अधिक होने से इन्हीं में से ऐसे लोग उत्पन्न होंगे जो वास्तव में अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल होंगे। अभ्यास की आदिम अवस्था ऐसी ही होती है किन्तु असफलता ही सफलता की कुंजी है। एक बात यह अवश्य देखी जाती है कि छायावाद के अधिकांश कवियों की दृष्टि न तो अपने देश की ओर है, न अपनी जाति और समाज की ओर, हिन्दू जाति आज दिन किस चहले में फँसी है, वे ऑंख से उसको देख रहे हैं पर उनकी सहानुभूति उसके साथ नहीं है। इसको दुर्भाग्य छोड़ और क्या कहें। जिसका प्रेम विश्वजनीन है वह अपने देश के, जाति के, परिवार के, कुटुम्ब के दुख से दुखी नहीं, इसको विधि-विडम्बना छोड़ और क्या कहें? शृंगारिक कवियों की कुत्सा करने में जिनकी लेखनी सहòमुखी बन जाती है,उनमें इतनी आत्म-विस्मृति क्यों है? इसको वे ही सोचें। यदि शृंगार-रस में निमग्न होकर उन्होंने देश को रसातल पहुँचाया तो विश्वजनीन प्रेम का प्रेमिक उनको संजीवनी सुधा पिलाकर स्वर्गीय सुख का अधिकारी क्यों नहीं बनाता? जिस देश, जाति और धर्म की ओर उनकी इतनी उपेक्षा है, उनको स्मरण रखना चाहिए कि वह देश जाति और धर्म ही इस विश्वजनीन महामंत्रा का अधिष्ठाता, òष्टा और ऋषि है। जो कवीन्द्र रवीन्द्र उनके आचार्य और पथ-प्रदर्शक हैं, उन्हीं का पदानुसरण क्यों नहीं किया जाता? कम-से-कम यदि उन्हीं का मार्ग ग्रहण किया जाय तो भी निराशा में आशा की झलक दृष्टिगत हो सकती है। यदि स्वदेश-प्रेम संकीर्णता है तो विश्वजनीन-प्रेम की दृष्टि से ही अपने देश को क्यों नहीं देखा जाता? विश्व के अंतर्गत वह भी तो है। यदि संसार भर के मनुष्य प्रेम-पात्रा हैं तो भरत-कुमार स्नेह भाजन क्यों नहीं? क्या उनकी गणना विश्व के प्राणियों में नहीं हैं? यदि सत्य का प्रचार किया जा रहा है, प्रेम की दीक्षा दी जा रही है, विश्व-बंधुत्व का राग अलापा जा रहा है, तो क्या भारतीयजन उनके अधिकारी नहीं? जो अपना है, जिस पर दावा होता है उसी को उपालम्भ दिया जाता है। जिससे आशा होती है, उसी का मुँह ताका जाता है। मैंने जो कुछ यहाँ लिखा है वह ममतावश होकर, मत्सर से नहीं। मैंने इसकी चर्चा यहाँ इसलिए की कि यदि छायावाद की रचना ही सर्वेसर्वा है, तो इसमें इन भावों का सन्निवेश भी पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए,अन्यथा हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में एक ऐसी न्यूनता हो जावेगी, जो युवकों के एक उल्लेख-योग्य दल को भ्रान्त ही नहीं बनावेगी,देश के समुन्नति-पथ में भी कुसुम के बहाने वे काँटे बिछावेगी जो भारतीय-हित प्रेमिक पथिकों के लिए अनेक असमंजसों के हेतु होंगे। मैंने जो विचार एक सदुद्देश्य से यहाँ प्रकट किये हैं यदि कार्यत: उनको भ्रान्त सिध्द कर दिया जावेगा तो मैं अपना अहोभाग्य समझूँगा।
छायावाद की कविता पर मैंने अपने विचारानुसार जो प्रकाश डाला, सम्भव है उसका कुछ अंश रंजित हो। परन्तु मैंने सत्य बात को प्रकट करने की चेष्टा की है। सम्भव है, अपेक्षित ज्ञान होने के कारण मैं उसके सर्व्वांश का परिचय न दे सका होऊँ। परन्तु जो कुछ मैंने लिखा है, आशा है उससे उसकी प्रणाली का कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य पाठकों को होगा। अब मैं उन लोगों की चर्चा करना चाहता हूँ जो उसके प्रसिध्द कवि और उद्भावक हैं। उनकी रचनाओं को पढ़कर आशा है, आप लोगों का ज्ञान छायावाद के विषय में और अधिक हो जायेगा। छायावाद के कवियों की बहुत बड़ी संख्या है। परन्तु उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिन्होंने थोड़े ही दिन से इस क्षेत्र में पदार्पण किया है। मैं पहले उन्हीं लोगों के विषय में कुछ लिखूँगा जिन्होंने प्रसिध्दि प्राप्त कर ली है और जो छायावाद के मान्य कवि हैं। इसके उपरान्त कुछ ऐसे लोगों की भी चर्चा करूँगा, जो छायावाद के क्षेत्र में बहुत कुछ अग्रसर हो चुके हैं-
1. सबसे पहले मेरी दृष्टि बाबू जयशंकर प्रसाद पर पड़ती है। आपने छायावाद के कई ग्रन्थ लिखे हैं। पहले आप भी ब्रजभाषा में ही कविता करते थे। खड़ी बोली के आन्दोलन के समय खड़ी बोली में कविता करने लगे। अब छायावाद कविता का पथ प्रशस्त करने में दत्ताचित्ता हैं। आपकी रचना सुन्दर और भावमयी है, भाषा भी भावानुगामिनी है। आपके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-
1. भूलि भूलि जात पद कमल तिहारो कहो
ऐसी नीति मूढ़ मति कीन्ही है हमारी क्यों।
धाय के धाँसत काम क्रोधा सिंधु संगम में
मन की हमारे ऐसी गति निरधारी क्यों।
झूठे जग लोगन में दौरि के लगत नेह
साँचे सच्चिदानन्द में प्रेम ना सुधारी क्यों।
बिकल बिलोकत न हिय पीर मोचत हौ
ए हो दीनबन्धु दीनबन्धुता बिसारी क्यों ?
ले चल वहाँ भुलावा दे कर
मेरे नाविक धीरे धीरे।
जिस निर्जन में सागर लहरी
अम्बर के कानों में गहरी।
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो
तज कोलाहल की अवनी रे।
जहाँ साँझ सी जीवन छाया
ढीली अपनी कोमल काया।
नील नयन से ढुलकाती हो
ताराओं की पाँति धानी रे।
जिस गम्भीर मधुर छाया में
विश्व चित्रापट चल माया में।
विभुता पड़े दिखाई विभु-सी
दुख सुख वाली सत्य बनी रे।
श्रम-विश्राम क्षितिज बेला से
जहाँ सृजन करते मेला से।
अमर जागरण उषा नयन से
बिखराती हो ज्योति घनी रे।
2. पं. सुमित्रानंदन पन्त की गणना भी प्रसिध्द छायावादी कवियों में है। उन्होंने दो-तीन ग्रन्थ भी लिखे हैं, ‘पल्लव’उनका सबसे प्रसिध्द ग्रन्थ है। उनकी रचनाएँ एक अनूठापन लिये हुए हैं, जिनमें उनकी हृत्तांत्राी बड़ी मधुरता से झंकृत होती है। उनकी अधिकतर कविताएँ भाव-प्रधान हैं, उसमें मार्मिकता भी पायी जाती है। जितने युवक छायावादी कवि हैं उनमें इनका प्रधान स्थान है, और वास्तव में ये हैं भी इस योग्य। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-
सुख-दुख
मुझको न चाहिए चिर सुख
चाहिए न रे अविरत दुख।
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख।
सुख दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन।
फिर घन में ओझल हो शशि
फिर शशि से ओझल हो घन।
जग पीड़ित है अति दुख से
जग पीड़ित रे अति सुख से
दुख-सुख से औ सुख-दुख से
अविरत दुख है उत्पीड़न।
अविरत सुख भी उत्पीड़न
सोता जगता जग-जीवन।
यह साँझ उषा का ऑंगन
आलिंगन विरह मिलन का।
चिरहास अश्रुमय आनन
रे इस मानव जीवन का।
याचना
बना मधुर मेरा जीवन
नव नव सुमनों से चुन चुन कर धूल सुरभि मधु-रस हिम कण।
मेरे उर की मृदु कलिका में भरदे करदे विकसित मन।
बना मधुर मेरा भाषण
वंशी से ही करदे मेरे सरल प्राण औ सरस बचन।
जैसा जैसा मुझको छेड़े बोलूँ और अधिक मोहन।
जो अकर्ण अहि को भी सहसा कर दे मंत्रामुग्धानतफन।
रोम रोम के छिद्रों से मां फूटे तेरा राग गहन।
बना मधुर मेरा तन मन
3. पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ छायावादियों में सबसे निराले हैं। यदि प्राचीनों के प्रति किसी छायावादी में कुछ श्रध्दा और प्रेम है तो इन्हीं में। इनमें सहृदयता भी अधिक है। ये सरस और भावमय रचना का आदर करते हैं, वह चाहे जहाँ मिले। इनकी रचनाओं में इस भाव की सच्ची झलक मिलती है। इनमें मनस्विता अधिक है, इसलिए उसका विकास भी इनकी कृतियों में यथेष्ट मिलता है। बंगाल में अधिकतर रहने के कारण इनकी रचनाओं में बंगभाषा के कवियों का भाव और ढंग भी पाया जाता है। भाव प्रकाशन-शैली इनकी गंभीर है, किन्तु इतनी नहीं कि वह बोधागम्य न हो। छायावादी कवियों में इनका भी विशेष स्थान है। इनकी दो कविता पुस्तकें भी निकल चुकी हैं, जो सरस और सुन्दर हैं। उनके कुछ पद्य देखिए-
गीत
जग का एक देखा तार।
कण्ठ अगणित देह सप्तक मधुर स्वर झंकार।
बहु सुमन बहु रंग निर्मित एक सुन्दर हार।
एक मृदु कर से गुँथा उर एक शोभा भार।
गंधा अगणित मंद नंदन विश्ववंदन सार।
सकल उर चंदन अलौकिक एक अनिल उदार।
सतत सत्य अनादि निर्मल सकल सुख-विस्तार।
अयुत अधारों में सुसिंचित एक किंचित प्यार।
तत्तव नभ-तम में सकल भ्रम शेष प्रेमाकार।
अलक-मंडल में यथा मुखचन्द्र निरलंकार।
4. पं. मोहनलाल महतो कवि हैं और चित्राकार भी। इसलिए वे चित्राण कला का मर्म पहचानते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं का रंग मनोहर होता है। उनमें भावों का ऐसा सुन्दर विकास होता है कि जटिलता नहीं आने पाती। छायावादी कवि होकर भी प्रांजल कविता करने की ओर आप की रुचि अभिनन्दनीय है। आपके दो ग्रंथ निकल चुके हैं और दोनों सुन्दर हैं। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-
वरदान
मिले अधारों को वह मुसकान।
जिसे देख सहृदय का अन्तर भर जावे भगवान।
नयनों को ऐसी चितवन दे जो करुणा छलका दे।
रो दें वीणापाणि कण्ठ को देना ऐसे गान।
मिले हृदय जिसकी धाड़कन से मिली विश्वतंत्राी हो।
न्योछावर होना सिखला दें देना ऐसे प्राण।
इस कवि को ऐसे अवरोहण आरोहण सिखलाना।
हों जिसके अनुरूप जगत के पतन और उत्थान।
दे ऐसी तन्मयता जिसमें अपनापन खो बैठूँ।
फिर तुझको अपने में पाऊँ दे ऐसे वरदान।
तुम्हारे अश्रु कणों का दान।
नयनों को इस सजल भीख पर है सकरुण अभिमान।
यौवन की मधुमय दोपहरी में अपनापन भूला।
शतदल की पंखड़ियों से मिल विकसित होते प्राण।
आलोकित था अन्तरतर किसकी मुसकान विभा से।
सुला रहे थे चेतनता को थपकी देकर गान।
था निसर्ग प्याला सारी सुखमा मादक मदिरा थी।
मैं पीता था और पिलाता था कोई अनजान।
तू करुणामय करुणा में था ये ऑंखें पगली थीं।
तू रोदन में मैं विनोद में था विलीन भगवान।
अच्छा किया छिपा छलना से ममता पूर्ण खिलौना।
मिथ्या सुख विस्मृति को अपनी ओर दिलाया धयान।
सर्वशून्य जीवन का तू है आशामय आधार।
तेरी निर्ममता में है करुणा का छिपा प्रमाण।
5. बाबू सत्यप्रकाश एम.एस-सी. की एक ही पुस्तक निकली है, उसका नाम है ‘प्रतिबिम्ब’ किन्तु उस एक ही पुस्तक से उनकी सरस हृदयता का पता चलता है। उसमें जितनी रचनाएँ हैं, परिमार्जित रुचि की हैं और यह बतलाती हैं कि उनका लेखक चिन्ताशील और कवि-कर्म का मर्मज्ञ है। उनकी रचना में प्रवाह है और मधुरता भी। उन्होंने अपनी रचना में जटिलता नहीं आने दी, यह प्रशंसा की बात है। उनके कुछ पद्य देखिए-
सान्त बनाकर मुझको नटवर का हो जाना परम अनन्त।
निर्जन बन में मुझे छोड़कर भटकाना जीवन पर्यंत।
संख्यातीत रूप धारण कर बहला कर भग जाना।
मेरी फिर इस विकट व्यथा पर कभी-कभी मुसकाना।
लीला यह सर्वज्ञ शक्य की उसके यदि ये ही व्यापार।
तो फिर कैसे सान्त पथिक का हो सकता है अब उध्दार।
6. श्रीमती महादेवी वर्मा, बी. ए. पहली महिला हैं जिन्होंने छायावाद की रचना प्रारम्भ की है। स्त्री हृदय में जो स्वाभाविक कोमलता होती है, इनकी रचनाओं में वह पायी जाती है। स्त्री-सुलभ भावों का चित्राण यथार्थ रीति से स्त्री ही कर सकती है। इनके पद्यों को पढ़कर यह बात असंदिग्धा हो जाती है। उनमें स्थान-स्थान पर जटिलता है, किन्तु मधुर कोमलकान्त पदावली में वह छिप जाती है। इनके कोई-कोई पद्य इतने भावमय हैं कि यह स्वीकार करना पड़ता है कि उनमें भावुकता की मात्रा यथेष्ट है। इनके कुछ पद्य देखिए-
कहीं से आयी हूँ कुछ भूल।
रहरह कर आधी सुधि किसकी , रुकती-सी गति क्यों जीवन की
क्यों अभाव छाये लेता , विस्मृति सरिता के कूल।
किसी अश्रुमय घन का हूँ कन टूटी स्वर-लहरी का कम्पन।
या ठुकराया गिरा धूलि में हूँ मैं नभ का फूल।
दुख का कण हूँ या सुख का पल करुणा का घन या मरुनिर्जल।
जीवन क्या है मिला कहाँ सुधि बिसरी आज समूल।
प्याले में मधु है या आसव बेहोशी है या जागृति नव।
बिन जाने पीना पड़ता है ऐसा विधि प्रतिकूल।
अब छायावाद के कुछ अग्रसर कविता लेखकों की चर्चा करता हूँ-
1. पंडित माखनलाल चतुर्वेदी आरम्भ काल से ही छायावादी कविता के प्रेमी हैं। जहाँ तक मेरा ज्ञान है उन्होंने जब लिखी तब छायावादी कविता ही लिखी। उनकी रचनाएँ थोड़ी हैं, परन्तु हैं बड़ी भावमयी और सुन्दर। यदि मैं भूलता नहीं हूँ तो यह कह सकता हूँ कि पत्रा-पत्रिकाओं में ‘भारतीय आत्मा’ के नाम से जितनी कविताएँ निकली हैं वे सब उन्हीं की कृति हैं। चतुर्वेदी जी की वक्तृताओं में जैसा प्रवाह होता है वैसा ही प्रवाह उनकी रचनाओं में भी है। उनकी अधिकांश रचनाएँ मर्म-स्पर्शिनी हैं। मैं समझता हूँ, आप ही ऐसे छायावादी कवि हैं जिनकी रचनाओं में देश-प्रेम का रंग यथेष्ट पाया जाता है। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।
चाह नहीं प्रेमी-माला में ¯ बधा प्यारी को ललचाऊँ।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ।
चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ईँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना बन माली उस पथ पर तुम देना फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।
2. पं. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ छायावादी कविता करने में कुशल हैं। वे अपनी रचनाओं के लिए बहुत कुछ प्रशंसा प्राप्त कर चुके हैं। उनका मानसिक उद्गार ओजमय होता है। इसलिए उनकी रचनाओं में भी यह ओज पाया जाता है। वे कभी-कभी ऐसी रचनाएँ करते हैं जिनसे चिनगारियाँ कढ़ती दृष्टिगत होती हैं। परन्तु जब शान्त चित से कविता करते हैं तो उनमें सरसता और मधुरता भी पायी जाती है। उनकी कविता भावमयी के साथ प्रवाहमयी भी होती है। उनमें देश-प्रेम भी है, एक पद्य देखिए-
साखी
साकी मन घन गन घिर आये उमड़ी श्याम मेघमाला।
अब कैसा बिलम्ब तू भी भर भर ला गहरी गुल्लाला।
तन के रोम रोम पुलकित हों लोचन दोनों अरुण चकित हों।
नस नस नव झंकार कर उठे हृदय विकम्पित हो , हुलसित हो।
कब से तड़प रहे हैं , खाली पड़ा हमारा यह प्याला।
अब कैसा विलम्ब साकी भर भर ला अंगूरी हाला।
और और मत पूछ दिये जा मुँह माँगा बरदान लिये जा।
तू बस इतना ही कह साकी और पिये जा और पिये जा।
हम अलमस्त देखने आये हैं तेरी यह मधुशाला।
अब कैसा बिलम्ब…
बड़े बिकट हम पीने वाले तेरे गृह आये मतवाले।
इसमें क्या संकोच लाज क्या भर भर ला प्याले पर प्याले।
हम-से बेढब प्यासों से पड़ गया आज तेरा पाला।
अब कैसा बिलम्ब…
तू फैला दे मादक परिमल जग में उठे मदिर रस छल छल।
अतल बितल चल अचल जगत में मदिरा ,
झलक उठे झल झल।
कल् कल् छल् छल् करती बोतल से उमड़े मदिरा वाला।
अब कैसा बिलम्ब…
3. बाबू रामकुमार वर्मा, एम. ए. ने थोड़े ही समय में छायावाद के क्षेत्र में अपना अच्छा नाम कर लिया। जैसा उनका कण्ठ मधुर है वैसी ही मधुर उनकी कविता भी है। कविता-पाठ के समय जैसा वे रस की वर्षा करते हैं वैसी ही रसमयी उनकी कविता भी है। इनका शब्द-चयन भी अच्छा है और भावानुकूल उसका प्रयोग करने में भी वे समर्थ हैं। जिस प्रकार की कविता उनकी होती है, वैसी कविताओं को वे छायावाद कहने को प्रस्तुत नहीं है। परन्तु प्रचलित परम्परानुसार उनकी कविता को भी मुझको छायावाद की कविता ही मानना पड़ा। उनकी कविताएँ छायावाद न हों, जो हों, पर हैं हृदयग्राहिणी। इनके कुछ पद्य देखिए-
रूपराशि
यह प्रशान्त छाया।
सोती है शिशु-पल्लव के हिलने से कम्पन आया।
प्रेयसि शयन धारा पर करने में है स्वर्गोल्लास।
देखो छाया पड़ी हुई है मृत पल्लव के पास।
और तुम्हारे उर में जो है भाग्यवान वह हार।
कभी गिरेगा भूपर लेकर अपना सूखा भार।
आओ हम दोनों समीप बैठें देखें आकाश।
वे दोनों तारे देखो कितने कितने हैं पास।
उपसंहार
हिन्दी साहित्य का विकास किस प्रकार हुआ और कब-कब वह किन-किन रूपों में कैसे परिणत हुआ, मुझको यही प्रकट करना इष्ट था। यह यथासम्भव प्रकट किया गया। इतना ही नहीं, इस विषय में जितने आवश्यक साधान थे उनको भी ग्रहण किया गया। हिन्दी भाषा का वर्तमान रूप बहुत समुन्नत है और वह दिन-दिन विस्तृत और सुपरिष्कृत हो रही है। किंतु एक बात मुझको यहाँ और निवेदन कर देने की आवश्यकता ज्ञात होती है, वह यह कि जितना सुगठित, प्रांजल और नियमबध्द हिन्दी-गद्य इस समय है, उतना उसका पद्य भाग नहीं। गद्य हिन्दी के अधिकांश नियम भारतवर्ष के उन सब प्रान्तों और भागों में सर्वसम्मति से स्वीकृत हैं, जहाँ उसका प्रचार अथवा प्रवेश है। किन्तु पद्य के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। पद्य-विभाग में अभी तक बहुत कुछ मनमानी हो रही है, जिसके मन में जैसा आता है उस रूप में उसको वह लिखता है। मैं पहले खड़ी बोली के कुछ नियम बतला आया हूँ। उन नियमों का अब तक अधिकतर पालन हो रहा है। परन्तु थोड़े दिनों से कुछ लोगों के द्वारा उनकी उपेक्षा हो रही है। यह उपेक्षा यदि भ्रान्ति अथवा बोधा की कमी के कारण होती तो मुझको उसकी विशेष रूप से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं थी। किन्तु कुछ लोग तो जान-बूझकर इस प्रकार के कितने प्रयोग कर रहे हैं, जिनको वे प्रचलित करना चाहते हैं, और कुछ लोग इस विचार से ऐसा कर रहे हैं कि वे अपने विचारानुसार भाषा की उन्मुक्त धारा को बंधान में डालना नहीं चाहते। सम्भव है कि कुछ भाषा-मर्मज्ञ इसको अनुचित न समझते हों। परन्तु मेरा निवेदन यह है कि यदि नियमों की आवश्यकता स्वीकृत न होगी तो न तो भाषा की कोई शैली निश्चित होगी और न काव्य शिक्षा-प्रणाली का कोई मार्ग निधर्रित हो सकेगा। किसी विद्या के पारंगत के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु प्रत्येक विद्या और कला सीखनी पड़ती है। कोई किसी विद्या का पारंगत यों ही नहीं हो जाता, पहले उसको शिक्षा-लाभ करने की आवश्यकता होती है। यदि कोई नियम ही न होगा तो शिक्षा-सम्बन्धी इस आरम्भिक जीवन का मार्ग ही प्रशस्त न हो सकेगा। इसीलिए साहित्य और व्याकरण के नियम निश्चित किये गये हैं और उन नियमों का पालन करके चलने से ही प्रत्येक शिक्षार्थी इष्ट की प्राप्ति कर सका। मैं जानता हूँ कि भाषा परिवर्तनशील है। वह बदलती है और उसके नियम भी बदलते हैं। परन्तु नियम ही बदलते हैं, यह नहीं होता कि उसका कुछ नियम ही न हो। ऐसी अवस्था में नियम का त्याग नहीं हो सकता।
कहा जाता है कि स्वतंत्रा विचार वाले परतंत्रता कभी स्वीकार नहीं करते। एक सज्जन कहते हैं कि जो लोग उच्छृंखलता का राग अलापते हैं उनको सोचना चाहिए कि उच्छृंखलता शब्द ही में बंधान और परस्परागत पराधीनता का भाव भरा है। उनसे मेरा यह निवेदन है कि नियम के भीतर रहकर जो आवश्यक सुधार अथवा परिवर्तन किये जाते हैं। उनको कोई उच्छृंखलता नहीं कहता। मनमानी करना ही उच्छृंखलता है। इसी मनमानी से सुरक्षित रहने के लिए ही नियम की आवश्यकता होती है। फिर उसमें क्या बंधान है और क्या परम्परागत पराधीनता? प्रतिभावान और साहित्य-मर्मज्ञ जिस मार्ग पर चलते हैं उसका विरोधा कुछ काल तक भले ही हो, परन्तु काल पाकर उनकी प्रणाली आदर्श बन जाती है और उसी पर लोग चलने लग जाते हैं। अतएव विचारणीय यह है कि क्या साहित्य-पारंगत और मर्मज्ञ जन उन्मार्गगामी होते हैं? मेरा विचार है वे उन्मार्गगामी नहीं होते। वे सत्पथ-प्रदर्शक होते हैं। इसीलिए उनके पथ पर स्वीकृति की मुहर लग जाती है। इसका विरोधा मैं नहीं करता और न यह बात है कि मैं इस स्वाभाविकता को स्वीकार नहीं करता हूँ। मेरा कथन यह है कि जो विविधारूपता और अनियमबध्दता साहित्य में दिखलायी दे रही है उसका प्रतिकार किया जावे और खड़ी बोलचाल की कविता की ऐसी प्रणाली निश्चित की जावे, जिसमें एकरूपता हो, जो एक प्रकार से सर्वमान्य हो सके। इसी बात को सामने रखकर मैं कुछ ऐसे प्रयोग भाषा मर्मज्ञों के सामने रखता हूँ जिन पर विचार होने की आवश्यकता है। यदि वे प्रयोग उचित हैं तो जाने दीजिये, मेरी बातों को न सुनिये। यदि अनुचित हैं तो उचित मीमांसा होकर उनके विषय में कोई सिध्दान्त निश्चित कीजिए।
आजकल उर्दू में जिसको रोजमर्रा कहते हैं उनकी परवा हिन्दी रचनाओं में, विशेषकर आधुनिक खड़ी बोली की कविताओं में, कम की जाती है। रोजमर्रा का अर्थ यह है कि जैसा आपस में बोलते-चालते हैं वैसा ही शब्दों का व्यवहार गद्य और पद्य में भी करें। यदि हम बोलते हैं ‘ऑंख देखी बात’ तो ‘ऑंख देखी बात’ ही लिखना चाहिए, ‘ऑंख बिलोकी’ या ‘ऑंख निहारी बात लिखना’ संगत नहीं। बोलचाल है कि हमारा पाँव दुख रहा है। यदि इसके स्थान पर हम लिखें कि ‘हमारा पाँव दुख पा रहा है’तो ऐसा लिखना उचित न होगा। इसी प्रकार मुहावरे के जितने वाक्य हैं वे उन्हीं शब्दों में परिमित हैं, जिन शब्दों में बोले जाते हैं। उनके शब्दों को बदल देना और उसी मुहावरे में उस वाक्य को ग्रहण करना नियम-विरुध्द है। मुहावरा है ‘दाँत निकालना’। यदि हम ‘दाँत’ के स्थान पर ‘दसन’ या ‘दंत’ प्रयोग कर देंगे तो यह प्रयोग नियमानुकूल न होगा। परंतु ऐसे प्रयोग किये जाते हैं। मेरा कथन यह है कि ऐसा होना उचित नहीं।
एक पक्ष वालों का यह सिध्दांत है कि ब्रजभाषा के शब्द खड़ी बोलचाल की कविता में आने ही नहीं चाहिए, उसकी क्रियाओं का प्रयोग तो किसी अवस्था में न होना चाहिए। दूसरे पक्ष के लोग कहते हैं कि ब्रजभाषा के कोमल और मुधार शब्द अवश्य ले लिये जायँ और विशेष अवस्थाओं में क्रिया भी ले ली जाय, परंतु तब जब उसको खड़ी बोली का रूप दे दिया जावे। आजकल की रचनाओं में दोनों प्रकार के प्रयोग मिलते हैं और उन लोगों को इस प्रकार का प्रयोग करते देखा जाता है जिनकी रचनाएँ प्रामाणिक मानी जाती हैं। इस भिन्नता से दूर होने की आवश्यकता है। मेरा पक्ष दूसरा है। परंतु मैं ‘पत्ता’ के स्थान पर ‘पात’, ‘पुष्प’ के स्थान पर ‘पुहुप’, ‘हृदय’ के स्थान पर ‘हिय, हिया’ अथवा ‘रिदै’, ‘ऑंखें’ के स्थान पर ‘ऍंखियाँ’, ‘समय’ के स्थान पर’समै’, ‘पवन’ के स्थान पर ‘पौन’ ‘भवन’ के स्थान पर ‘भौन’, ‘गमन’ के स्थान पर ‘गौन’, ‘नयन’ के स्थान पर ‘नैन’, ‘वचन’के स्थान पर ‘बैन’ या ‘बयन’, ‘मदन’ के स्थान पर ‘मैन’ या ‘मयन’, ‘यम’ के स्थान पर ‘जम’, ‘यज्ञ’ के स्थान पर ‘जग्य’, ‘योग’ के स्थान पर ‘जोग’ आदि लिखना अच्छा नहीं समझता। इसलिए कि इससे शब्द अधिक बिगड़ते हैं और उस रूप में सामने आते हैं जो खड़ी बोली के नियम के विरुध्द हैं।
खड़ी बोली का यह नियम है कि उसके कारक के चिद्द लोप नहीं किये जाते। पहले इस नियम की रक्षा सतर्कता के साथ की जाती थी किन्तु अब यह देखा जाता है कि इस बात की परवा कम की जाती है विशेषकर पद्य के अन्त में। यह ब्रजभाषा का अनुकरण है। खड़ी बोलचाल के नियमानुसार या मुहावरों में जहाँ कारक के चिद्द लुप्त रहते हैं, उनके विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। परन्तु अन्य अवस्थाओं में कारक के चिद्दों का त्याग न होना चाहिए।
खड़ी बोली में अब तक यह होता आया था कि ‘न’ का अनुप्रास ‘ण’ को मान लेते थे। परंतु ‘प्राण’ के स्थान पर ‘प्रान’लिखना पसंद नहीं करते थे। इसी प्रकार युक्त विकर्ष को भी अच्छा नहीं समझते थे। अब देखते हैं कि युक्त विकर्ष भी होने लगा है और णकार का नकार किया जाने लगा है। शकार को भी सकार कर दिया जाता है, कभी अनुप्रास के लिए, कभी कोमलता की दृष्टि से। जब सकार का अनुप्रास शकार मान लिया गया है तब अनुप्रास के लिए ‘शकार’ का सकार करना उचित नहीं। शब्द की कोमलता के धयान से शकार का सकार होना अच्छा नहीं। क्योंकि ऐसी अवस्था में शब्द की शुध्दता का लोप हो जाता है।
यह देखा जाता है कि अंग्रेजी मुहावरों का अनुवाद करके ज्यों का त्यों पद्यों में रख दिया जाता है। जैसे, ‘golden end’ का’स्वर्ण अवसान’ ‘Golden dream’ का ‘स्वर्ण स्वप्न’, ‘Golden shadow’ का ‘कनक छाया’, और ‘Dreamy splendour’ का ‘स्वप्निल आभा’। इसका परिणाम यह होता है कि कोई अंग्रेजी का विद्वान् उन अनुवादित मुहावरों का अर्थ भले ही समझ ले, परन्तु अधिकांश हिन्दी भाषा भाषी जनता उसको नहीं समझ सकती। इसका कारण पद्य की जटिलता और दुरूहता होती है। इसलिए इस प्रकार का प्रयोग वांछनीय नहीं। एक भाषा के मुहावरे का अनुवाद दूसरी भाषा में नहीं होता। इसका नियम यह है कि या तो उसका भाव अपनी भाषा में रख दिया जाय अथवा उसी भाव का द्योतक कोई मुहावरा अपनी भाषा का चुन कर पद्य में रखा जावे। मैं यह नहीं कहता हूँ कि नये मुहावरे नहीं बनते या नहीं बनाये गये। मेरा कथन इतना ही है कि मुहावरों की रचना के भी नियम हैं। उर्दू में कितने ही मुहावरे बन गये हैं, जैसे ‘हवा बाँधना’, ‘हवा हो जाना’, ‘हवा बिगड़ जाना’ इत्यादि। किन्तु विचारना यह है कि ये मुहावरे बने कैसे? ये मुहावरे बोलचाल में आकर बने और फिर कवियों और लेखकों द्वारा गृहीत हुए। प्रमाण इसका यह है कि हिन्दी के जितने मुहावरे हैं, वे सब प्राय: तद्भव शब्दों से बने हैं। हिन्दी का कोई मुहावरा प्राय: संस्कृत शब्दों से नहीं बना है। कारण इसका यह है कि जनता की बोलचाल ही मुहावरों को जन्म देती है। संस्कृत के तत्सम शब्द कभी जनता की बोलचाल में नहीं थे। इसलिए मुहावरों में वे न आ सके। उर्दू के मुहावरों की भी उत्पत्ति ऐसे ही हुई है। यही प्रणाली ग्रहण कर यदि नये मुहावरे बनाये जायँ तो कोई आपत्ति नहीं। अन्यथा पद्यविभाग जटिल से जटिलतर हो जावेगा। दूसरी बात यह है कि जब गद्य में इस प्रकार के मुहावरे नहीं लिखे जाते तो पद्य में उनका प्रयोग कहाँ तक संगत है। विशेषकर उस अवस्था में जब गद्य और पद्य की भाषा की एकता का राग अलापा जाता है। मैं यह जानता हूँ कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा का कुछ अन्तर होता है। किन्तु इसके भी कुछ नियम हैं। उन नियमों की रक्षा के विषय में ही मेरा निवेदन है।
आजकल यह भी देखा जाता है कि कुछ ऐसे समस्त शब्द बना लिये जाते हैं जो संस्कृत के नियमानुसार अशुध्द तो हैं ही, हिन्दी भाषा के नियमानुसार भी वे न तो गृहीत होने योग्य हैं, न उनका इस प्रकार प्रयोग होना उचित है। ऐसे समस्त शब्छ भी कुछ अंग्रेजी प्रणाली के अनुसार बनाये जाते हैं, और कुछ कवि की अहम्मन्यता अथवा प्रमाद के परिणाम होते हैं। ऐसे शब्दों या वाक्यों का अर्थ इतना दुर्बोधा हो जाता है कि उसके कारण् प्रांजल से प्रांजल पद्य भी जटिल बन जाते हैं। यदि कहा जाय ‘उन्मत्ता क्रोधा’, ‘सरसईर्षा’, ‘ललित-आवेश’, ‘विहँसित-क्रन्दन’, ‘रुदित हँसी’, ‘खिलखिलाती चिन्ता’, ‘नाचती निद्रा’, ‘जागती नींद’, ‘उड़ता हृदय’, ‘सोता कलेजा’ तो बतलाइये, इन शब्दों का क्या अर्थ होगा बोलचाल में तो इनका स्थान है ही नहीं, कवि-परम्परा में भी ऐसे से प्रयोग गृहीत नहीं हैं फिर कहिये इस प्रकार का प्रयोग यदि किया जाता है तो उसको निरंकुशता छोड़ और क्या कह सकते हैं। जहाँ दोषों की गणना की गई है वहाँ एक दोष ‘अप्रयुक्त’ भी माना गया है। जिसका प्रयोग न हुआ हो, उस शब्द या वाक्य का प्रयोग करना ही अप्रयुक्त दोष कहलाता है। जैसा वाक्य मैंने ऊपर लिखा है, इस प्रकार का वाक्य विन्यास तो अप्रयुक्त दोष से भी दो कदम आगे है। फिर भी आज दिन इस प्रकार के प्रयोग होते हैं। मेरा विचार है कि ऐसे प्रयोग चाहे नवीन आविष्कार कहलावें और प्रयोग कत्तर् के सिर पर नवीन आविष्कारक होने का सेहरा बाँध दें, परन्तु भाषा में ऐसा विप्लव उपस्थित करेंगे, जिससे वह पतनोन्मुख होगी और उसका स्थान कोई दूसरी उन्नतिशील और सुगठित भाषा ग्रहण कर लेगी। हम इस प्रकार के प्रयोगों को चमत्कृत बुध्दि का विलास नहीं कह सकते और न वह विलक्षण प्रतिभा की ही विभूति है। हाँ, उसे किसी अवांछनीय मनोवृत्तिा का फल अवश्य मान सकते हैं। यह मैं मानूँगा कि इस प्रकार की निरंकुशता और उच्छृंखलता होती आई है। यदि ऐसा न हो तो ‘निरंकुशा: कवय:’ क्यों कहा जाता? सब भाषाओं में ऐसे लेखक और कवि मिलते हैं कि नियमबध्दता होने पर भी उनके विषय में यह कहावत चरितार्थ होती है-मुरारे: तृतीय: पन्था:। यह मान भी लें तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सब बातों की सीमा होती है। सीमोल्लंघन होना अच्छा नहीं होता। दूसरी बात यह कि निरंकुशता निरंकुशता ही है, उस पर निन्दनीयता की मुहर लगी हुई है। वह नियम के अन्तर्गत नहीं है,अपवाद है। यदि उच्छृंखला एवं निरंकुशता की उपेक्षा होती तो समालोचना प्रणाली का जन्म ही न होता। समालोचना का कार्य यही है कि वह इस प्रकार की नियम-प्रतिकूलता को साहित्य में स्थान न ग्रहण करने दे। जिससे किसी व्यक्ति विशेष का इस प्रकार का अनियम अन्यों का आदर्श बन सके। यह भी देखा गया है कि समालोचना के आतंक ने उनको भी सावधान कर दिया है, जो निरंकुश कहलाने ही में अपना गौरव समझते थे। सारांश यह कि साहित्य के हित की दृष्टि से जो बात उचित हो,उसकी ओर साहित्य-मर्मज्ञों की दृष्टि का आकर्षित होना आवश्यक है, जिससे साहित्य लांछित होने से बचे और इसी सदुद्देश्य से इस बात की चर्चा यहाँ की गयी है।
मेरा विचार है और मुझको आशा है कि खड़ी बोली का पद्य विभाग सुविकसित होकर बहुत उन्नत होगा और वह साहित्य सम्बन्धी ऐसा आदर्श उपस्थित करेगा जो उसके सामयिक विकास के अनुकूल होगा। यहाँ जो कुछ लिखा गया वह इसी विचार से लिखा गया कि हमारी यह आशा फलीभूत हो और इस मार्ग में जो बाधाएँ हैं उनका नियन्त्राण हो, और जो बातें सुधार-योग्य हों उनका सुधार हो, मुझको यह भी विश्वास है कि यदि मेरी बातों में कुछ भी सार होगा तो अवश्य वे सुनी जायँगी और उनका प्रभाव भी होगा।