भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

इसी स्थान पर मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि इस पन्द्रहवीं शताब्दी में जिस निर्गुणवाद धारा की अधिक चर्चा की जाती है, वास्तव में वह धारा उस काल से प्रारम्भ होती है जिस समय स्वामी शंकराचार्य ने वेदान्तवाद का प्रचार किया। उनकी निर्गुण धारा का रूप वास्तविकता की दृष्टि से सर्वोत्ताम है किन्तु वह इतनी उच्च है कि सर्वसाधारण की बोधागम्य नहीं। मैक्समूलर ने एक स्थान पर लिखा है कि ईश्वरी विद्या के विषय में स्वामी शंकराचार्य जितना ऊँचा नहीं उठा जा सकता। गुरु गोरखनाथ जी ने इस निर्गुणवाद की जटिलताओं को बहुत कुछ सरलता का रूप दिया और भगवान शिव की उपासना का प्रचार करके अव्यक्त विषयों को व्यक्त रूप देने की प्रशंसनीय चेष्टा की। उसका विकास ज्ञानदेव और नामदेव की रचनाओं में अधिकतर बोधागम्य रूप में देखा जाता है। पन्द्रहवीं सदी के सन्तमत के प्रचारकों में विशेष कर कबीर साहब की उक्तियों में वह निर्गुणवाद कुछ और स्पष्ट हुआ, किन्तु वह पौराणिक भावों से ओतप्रोत है। पौराणिक धर्म का उत्थान गुप्त सम्राटों के समय में अर्थात् तीसरी और चौथी ईस्वी शताब्दी में हुआ और उत्तारोत्तार वृध्दि पाकर ईस्वी दसवीं शताब्दी में वह प्रबल बन गया था। यही कारण है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में जितने धार्मिक प्रचार हुए वे सब पौराणिक धर्म पर अवलंबित हैं। कबीर साहब के निर्गुणवाद पर भी उसकी छाप लगी हुई है, अन्तर केवल इतना ही है कि उनके निर्गुणवाद पर सूफियों के ईश्वरवाद की भी छाया पड़ी है। वैष्णव धर्म में जैसा निर्गुणवाद है और उसके साथ जैसा सगुणवाद सम्मिलित है कबीर साहब का निर्गुणवाद ब्रह्म-सम्बन्धी सिध्दान्त भी लगभग वैसा ही है। कारण इसका यह है कि उनकी अधिकांश शिक्षाएँ वैष्णव धर्म से प्रभावित हैं और ऐसा होना इसलिए अनिवार्य था कि स्वामी रामानन्द का उन पर बहुत बड़ा प्रभाव था। कबीर साहब का निर्गुण ब्रह्म अनिर्वचनीय ही नहीं है, वह भक्तवत्सल है और पतित पावन भी है। प्रेमातिरेक में वे उसके दास बनते हैं और वह उनका स्वामी; वे उसके पुत्र बनते हैं और वह उनका पिता; वे उसकी प्रेमिका बनते हैं और वह उनका प्रेमी। वे नरक और आवागमन से भीत होकर उसकी शरण में जाते हैं और वह उध्दारक बनकर उनका उध्दार करता है। वे कहते हैं कि वह विपत्तिा में त्राण देता है, भवसागर से पार करता है और अशरण का शरण बनता है और इन बातों को पौराणिक आख्यानों और उदाहरणों द्वारा प्रमाणित करते हैं। जब वे और ऊँचा उठते हैं तो उसको सर्व जगत में व्याप्त पाते हैं और विश्व की विभूतियों में नाना रूपों में उसे विकसित देखकर अलौकिक आनन्द का अनुभव करते हैं। कभी जब आत्मविश्वास का उदय होता है, तब वह आत्मज्ञान अथवा आत्मा ही में परमात्मा को देखने का उद्योग करते हैं और कभी समाधि में बैठकर योग के अनेक साधानों द्वारा ब्रह्मानन्द-सुख-भोगी बनते हैं। कभी मुक्ति की कामना करते हैं, कभी मुक्ति को तुच्छ गिनकर भगवद्भक्ति को ही प्रधानता देते हैं। कभी संकेत और इंगितों द्वारा लोकातीत की अलौकिकता बतलाने में रत देखे जाते हैं, कभी अनिर्वचनीय की अनिर्वचनीयता देख मौनता मंत्रा ग्रहण करना ही समुचित समझते हैं। सारांश यह कि निर्गुण और सगुण के विषय में जो विचार-परम्परा पुराणवादियों और वेदान्तियों की देखी जाती है, पद-पद पर वे उसी का अनुसरण करते दृष्टिगत होते हैं। कोई पुराण ऐसा नहीं है जिसमें परमात्मा का वर्णन इसी रूप में न किया गया हो। पुराण्ों का सद्गुणवाद जैसा प्रबल है वैसा ही निर्गुणवाद भी। वे भी वेदान्त के भावों से प्रभावित हैं और वैष्णव पुराणों में उनका बड़ा ही हृदयग्राही विवेचन है। परन्तु वे जानते हैं कि निर्गुणवाद के तत्तवों को समझाना कतिपय तत्तवज्ञों का ही काम है। इसलिए उनमें सगुणवाद का ही विस्तार है, क्योंकि यह बोधा-सुलभ है। बिना उपासना किये उपासक सिध्दि नहीं पाता। उपासना-सोपान पर चढ़कर ही साधाक उस प्रभु के सामीप्य लाभ का अधिकारी बनता है जो ज्ञान-गिरा-गोतीत है। उपासना के लिए उपास्य की प्रयोजनीयता अविदित नहीं। यदि उपास्य अचिन्तनीय, अव्यक्त, अथवा ज्ञान का विषय नहीं तो उसमें भावों का आरोप नहीं हो सकता। ऐसी अवस्था में भक्ति किसकी होगी? प्रेम किससे किया जायगा और किसके गुणों का मनन चिन्तन करके मनुष्य अपनी आत्मा को उन्नत बना सकेगा। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर परमात्मा के सगुण स्वरूप की कल्पना है। जो यह समझता है कि बिना सगुणोपासना किये हम परमात्मा के निर्गुण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, वह उसी जिज्ञासु के समान है जो विश्व-नियन्ता का परिचय प्राप्त करना चाहता है किन्तु यह जानता ही नहीं कि विश्व क्या है। पुराण सगुणपथ का पथिक बनाकर निर्गुण की प्राप्ति कराते हैं, किन्तु बड़ी बुध्दिमत्ता और विवेक के साथ। यही कारण है कि मुख से निर्गुणवाद का गीत गाने वाले भी अन्त में पुराणशैली की परिधि के अन्तर्गत हो जाते हैं। चाहे कबीर साहेब हों, अथवा पन्द्रहवीं सदी के दूसरे निर्गुणवादी, उन सबके मार्ग-प्रदर्शक गुप्त या प्रकट रूप से पुराण ही हैं। हम देखते हैं कि निर्गुणवाद का नाद करने वाले जब बिना किसी प्रतीक के अवलम्बित पथ पर चलने में असमर्थ होते हैं तो गुरुदेव ही को ईश्वर स्वरूप मानकर उपासना में अग्रसर होते हैं, यह क्या है? सगुण की उपासना ही तो है। आजकल निर्गुणवादियों में यह प्रवृत्तिा अधिक प्रबल हो गई है। निर्गुणवादियों के एक नवीन संप्रदाय ने तो ईश्वर से मुँह मोड़कर खुल्लमखुल्ला गुरु को ही ईश्वर मान लिया है। चाहे जितना रूप बदला जाय, परन्तु यह भी पौराणिक सिध्दान्तों का ही अनुगमन है, क्योंकि वे कहते हैं-

गुरुर्ब्रह्मा , गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: ,

गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:।

पन्द्रहवीं शताब्दी में मुसलमानों का प्रभाव भारतवर्ष पर बहुत पड़ रहा था। उनकी राज्य-सत्ता उस समय तो प्रबल थी ही,उनके धर्मयाजक अथवा पीर भी अपने धर्म के विस्तार में तन, मन से निरत थे। इसलिए हिन्दू जाति पर उनके विचारों और भावों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ रहा था। मुसलमान धर्म अवतारवाद, मूर्ति-पूजा और देववाद का कट्टर विरोधी है, और अपने विचारानुसार एकेश्वरवाद का प्रबल प्रचारक। यही कारण है कि उस समय के कबीर साहब जैसे कुछ धर्म प्रचारकों को निर्गुणवाद का राग अलापते देखा जाता है। क्योंकि समय उनकी अनुकूलता करता था और वे समय की गति पहचानकर स्वधर्म प्रचार में सफलता लाभ करने के कामुक थे। परन्तु सगुणवाद का विरोधी होने पर भी वे कभी सन्तों को ईश्वर का स्वरूप कहते थे और कभी गुरु को। कबीर साहब स्वयं कहते हैं-

निराकार की आरसी साधों ही की देह।

लखा जो चाहै अलख को इनही में लखि लेह।

कबिरा ते नर अंधा हैं गुरु को कहते और।

हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर।

तीन लोक नौ खंड में गुरु ते बड़ा न कोय।

करता करै न करि सकै गुरु करै सो होय।

यह क्या है? रूपान्तर से सगुणवाद का प्रतिपादन है और प्रच्छन्न रूप से उस उद्देश्य का प्रतिपालन है जिसकी जननी पौराणिकता है।

इस शताब्दी में कुछ और ऐसे कवि हुए हैं जो कबीर साहब के पुत्र या शिष्य हैं, जैसे कमाल भग्गादास, धारमदास और श्रुति गोपाल। इन लोगों की रचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी पन्द्रहवीं शताब्दी की हिन्दी रचनाएँ अब तक उपस्थित की गई हैं। विषय भी इन लोगों का धार्मिक ही है। इसलिए इन लोगों की रचनाओं को लेकर कुछ विवेचन करना बाहुल्य मात्रा होगा। चरणदास, दयासागर और जयसागर जैन भी इसी शताब्दी में हुए हैं। परन्तु उनकी रचनाएँ भी लगभग वैसी ही हैं और समय के प्रवाहानुसार धर्म-सम्बन्धी ही हैं। इसलिए उनको भी छोड़ता हूँ। हाँ-इस शताब्दी का एक दामो नामक कवि ऐसा है जिसने सामयिक प्रवाह के प्रतिकूल ‘पदमावती’ नामक प्रेम कहानी की रचना की है। उसके ग्रंथ की कुछ पंक्तियाँ ये हैं-

सुणौ कथा रसलीन विलास।

योगी मरण (अउर) बनबास।

पदमावती बहुत दुख सहई।

मेलो करि कवि दामो कइर्ह।

इस पद्य की भाषा प्रांजल है और वैसी ही है जैसा स्वरूप पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी को प्राप्त हुआ था। केवल ‘सुणौ’ शब्द राजस्थानी है जो प्रान्तिक रचना होने के कारण उसमें आ गया।

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सोलहवीं ई. शताब्दी को हम हिन्दी भाषा का स्वर्णयुग कह सकते हैं। इसी शताब्दी के आरम्भ में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने प्रसिध्द ‘पदमावत’ नामक ग्रन्थ की रचना की जो अवधी भाषा का आदिम ग्रन्थ है। इसी शताब्दी में हिन्दी-साहित्य गगन के उस सूर्य और चन्द्रमा का उदय हुआ, जिनकी आभा से वह आज तक उद्भासित है। आचार्य केशव, जो हिन्दी साहित्य के भामह और मम्मट हैं, उनका आविर्भाव भी इसी शताब्दी में हुआ और अकबर के राजस्व का वह उल्लेखनीय समय भी, जो मुसलमान साम्राज्य का उच्चतम काल कहा जाता है, इस शताब्दी का ही अधिकांश भाग है। इस शताब्दी में अवधी और ब्रज भाषा का जैसा शृंगार हुआ फिर कभी वैसा गौरव उनको नहीं प्राप्त हुआ। इस शताब्दी के हिन्दी साहित्य के विकास पर प्रकाश डालने के पहले मुझको एक बहुत बड़े धार्मिक परिवर्तन का वर्णन कर देना आवश्यक ज्ञात होता है। क्योंकि, ब्रज-भाषा के उत्थान और उसके बहुप्रान्तव्यापी होने का आधार वही है।

मैं पहले कह चुका हूँ कि किस प्रकार सूफी सम्प्रदाय वाले प्रेम मार्ग का विस्तार मुसलमानों की साम्राज्य-वृध्दि के साथ कर रहे थे और कैसे उनके इन मधुर भावों का प्रभाव भारतीय जनता पर पड़ रहा था। सूफी सम्प्रदाय वाले संसार की समस्त विभूतियों में ईश्वरीय सत्ता का विकास देखते हैं। वे परमात्मा की कल्पना प्रेम स्वरूप के रूप में करते हैं और अपने को उसका प्रेमिक मानकर प्रेम सम्बन्धी भावों को बड़ी ही मधुरता और सरसता से वर्णन करते हैं। उसके सम्मिलन के लिए जो उत्सुकता उनके हृदय में उत्पन्न होती है। उसका बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रा उनकी रचनाओं में अंकित है। उनकी विरह वेदनाएँ भी बहुत ही विमुग्धाकारी और हृदयद्रवीभूत करने वाली हैं। वे जब अपनी उस अवस्था का वर्णन करते हैं जिस समय उनको इस बात का अनुभव होता है कि वे उससे किसी अवस्था विशेष के कारण पृथक हो गये हैं तो उसमें बड़ी मर्म-वेधिनी उक्तियाँ होती हैं, जो मनों को बेतरह अपनी ओर खींचती हैं। उस समय उनके प्रेम-मार्ग के इन बड़े विमोहक भावों ने हिन्दू जनता को बहुत कुछ अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। पर हिन्दुओं के किसी धर्म सम्प्रदाय में ऐसी मधुरतम कल्पनाओं का आविष्कार तब तक नहीं हुआ था, जो सफलता के साथ उनका प्रतिकार कर सके। हिन्दू धर्म का भक्ति-मार्ग उच्च कोटि का है और बहुत ही सरस और मधुर भी है, परन्तु उतना सुलभ नहीं, उसमें कुछ गहनता भी है। वह सर्वसाधारण के लिए उतना मोहक नहीं जितना प्रेम। भक्ति में उच्चता है और वह महत्तामय उच्चकोटि के व्यक्तियों पर ही आधारित है। उसमें विशेषता के साथ त्यागमय धार्मिकता है परन्तु प्रेम में साधारणता है और उसमें सांसारिकता भी पाई जाती है। व्यापक प्रेम या प्रीति की पराकाष्ठा ही भक्ति है। इसीलिए भक्ति से उसमें अधिक व्यावहारिकता है और इस व्यावहारिकता के कारण ही मानव-समाज पर उसका अधिक अधिकार है। प्रेम के आदर्श की न्यूनता हिन्दू संसार में किसी काल में नहीं रही। प्रेम की महत्ता और उसकी लोकप्रियता के आदर्श का अभाव हिन्दू संस्कृति में कभी नहीं हुआ। परन्तु यह समय ऐसा था कि जब उसके व्यापक और महान आदर्शों को ऐसे मधुर और मोहक रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता थी, जो सर्वसाधारण् को अपनी ओर आकर्षित कर सके, और सूफी सम्प्रदाय के उन प्रभावों को विफल बनावे जो उसके चारों और अविरामगति से विस्तृत हो रहे थे। मानव सम्प्रदाय में भक्ति-भावना जितनी प्रबल है, उतनी प्रेम भावना नहीं। भगवान रामचन्द्र मर्यादा पुरुषोत्ताम हैं और इसी रूप में वे हिन्दू संसार के सामने आते हैं। उनका कार्यक्षेत्र भी ऐसा है जहाँ धीरता, गम्भीरता, कर्मशीलता, कार्य करती दृष्टिगत होती है। उनके आदर्श उच्च हैं, साथ ही अतीव संयत। या तो वे कर्म्म-क्षेत्र में विचरण करते देखे जाते हैं या धर्म-क्षेत्र में। इसीलिए उनमें मधुर भाव की उपासना पहले नहीं लाई जा सकी जो बाद को गृहीत हुई। सबसे पहले समयानुसार इस ओर मधवाचार्य जी की दृष्टि गई। उन्होंने श्रीमद्भागवत के आधार से भगवान् श्रीकृष्ण की मधुर भावनामय उपासना की नींव डाली। पहले वे स्वामी शंकराचार्य के और रामानुज सम्प्रदाय के सिध्दान्तों ही की ओर आकर्षित थे। परन्तु श्रीमद्भागत की भक्ति-भावना ही उनके हृदय में स्थान पा सकी और उन्होंने दक्षिण प्रान्त में इस प्रकार की उपासना का आजीवन प्रचार किया। इनकी उपासना-पध्दति में भगवान कृष्णचन्द्र प्रेम के महान् आदर्श के रूप में गृहीत हुए हैं और गोपिकाएँ उनकी प्रेमिका के रूप में। जो सम्बन्धा गोपिकाओं का भगवान श्रीकृष्ण के साथ प्रेम के नाते स्थापित होता है, भगवान के साथ भक्त का वही सम्बन्धा वर्णित करके उन्होंने अपनी उपासना-पध्दति ग्रहण की। इसीलिए उनका सिध्दान्त द्वैतवाद कहलाता है। उन्हीं के सिध्दान्तों का प्रचार विष्णुस्वामी और निम्बार्काचार्य ने किया, केवल इतना अन्तर अवश्य हुआ कि गोपियों का स्थान उन्होंने श्रीमती राधिका को दिया। स्वामी बल्लभाचार्य ने इसी उपासना की नींव उत्तार-भारत और गुजरात में बड़ी ही दृढ़ता के साथ डाली और थोड़े परिवर्तन के साथ इस मधुर भावना का प्रसार बड़ी ही सरसता से भारतवर्ष के अनेक भागों में किया। स्वामी बल्लभाचार्य ने बालकृष्ण की उपासना ही को प्रधानता दी है इसीलिए उनका दार्शनिक सिध्दान्त शुध्दाद्वैतवाद कहलाता है। परन्तु जैसा मैंने ऊपर अंकित किया, समय की गति देखकर उनको राधाकृष्ण की युगलमूर्ति की उपासना ही को प्रधानता देनी पड़ी। उस समय यह उपासना पध्दति बहुत अधिक प्रचलित और आद्रित भी हुई। क्योंकि इस प्रणाली में सूफियों के उस प्रेम और प्रेमिक-भाव का उत्तामोत्ताम प्रतिकार था जिसका प्रचार वे उस समय भारत के विभिन्न भागों में तत्परता के साथ कर रहे थे। सूफियों के सम्प्रदाय में परमात्मा प्रेमपात्रा के रूप में देखा जाता है और सूफीभक्त अपने को उसके प्रेमिक के रूप में अंकित करते हैं। यह प्रणाली भारत के लिए इसलिए अधिक उपयोगिनी नहीं सिध्द हो सकती थी जितनी कि स्वामी बल्लभाचार्य की उद्भावित पध्दति। कारण इसका यह है कि पुरुष के प्रति पुरुष के प्रेम में वह स्वारस्य नहीं है जो पुरुष के प्रति स्त्राी के प्रेम में। भारत की यह चिर प्रचलित परंपरा और इस देश का ही आदर्श है कि स्त्रिायाँ पुरुषों पर आसक्त दिखलायी जाती हैं इसलिए श्रीमती राधिका को भगवान कृष्णचन्द्र पर उत्सर्गीकृत-जीवन बनाकर स्वामी वल्लभाचार्य या उनके पहले के आचार्यों ने जिस मर्मज्ञता का परिचय दिया और परमात्मा की जिस उपासना-पध्दति का आदर्श उपस्थित किया वह अभूतपूर्व और अधिकतर भाव-प्रवण है। योरोप का प्रसिध्द विद्वान् न्यूमैन क्या कहता है, उसे सुनिये1 “पुरुषों में तुम कितने ही पौरुष-विकास-सम्पन्न क्यों न हो, उच्चतर आधयात्मिक आनन्द की ओर प्रगति करने के लिए तुम्हारी आत्मा को नारीरूप ही ग्रहण करना होगा।”

भगवान के बालभाव की उपासना की कल्पना बड़ी ही मधुर है, साथ ही सर्वथा नवीन। स्वामी बल्लभाचार्य को छोड़कर यह उपासना पध्दति किसी के धयान में नहीं आई। जो धर्म अवतारवाद का मर्म नहीं समझ सकते, वे बालभाव की उपासना की कल्पना कर भी नहीं सकते। संसार के कुछ धाम्र्मों में परमात्मा को पिता और अपने को पुत्र मानकर उपासना करने की प्रणाली है। पर परमात्मा को बाल स्वरूप मानकर इसी भाव से उसकी उपासना करने की उद्भावना स्वामी वल्लभाचार्य का ही आविष्कार है। उपासना का प्रयोजन यह है कि परमात्मा के अशेष गुणों का मनन और चिन्तन करके तदनुरूप अपने को बनाना, आर्य धर्म का यह सिध्दान्त वाक्य है ‘यच्चिन्तति तद्भवति’ मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बनता है। पौराणिक धर्म के नाम जपने की बड़ी महिमा है। निर्गुणवादियों में यह सिध्दान्त बहुत व्यापक रूप में गृहीत है।

1. -“If my soul is to go on into high spiritual blessedness, it must become a woman; yes, however, manly thou may be among men.”-Newwman.]

उद्देश्य इसका यही है कि बिना नाम के परिचय नहीं होता, और बिना परिचय के गुण-ग्रहण की संभावना नहीं। किन्तु नाम जपने का लक्ष्य भी तादात्म्य और गुण-ग्रहण ही है, अन्यथा उपासना व्यर्थ हो जाती है। इसीलिए भगवद्गीता का यह महावाक्य है, ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान् तथैव भजाम्यहम्’। मुझको जो जिस रूप में भजता है, मैं उसको उसी रूप में प्राप्त होता हूँ। बालभाव की उपासना का अर्थ है बालकों के समान निरीह, निर्दोष और सरल अवस्था को प्राप्त करना। कहा जाता है, बालक सदैव स्वर्गीय वातावरण में विचरता रहता है, इस कथन का मर्म यह है कि वह समस्त सांसारिक बन्धानों और झगड़ों से मुक्त होता है और उसके भावों में एक स्वर्गीय मधुरता विद्यमान रहती है। बालभाव की उपासना में माधार्ुय्य-भावना की चरम सीमा दृष्टिगत होती है। परन्तु इस अवस्था का प्राप्त करना सहज नहीं। बाल्यावस्था के बाद जो अवस्थाएँ सामने आती हैं,उनको बिलकुल भूल जाना बहुत बड़ी साधाना से सम्बन्धा रखता है। भारतवर्ष में सौ-डेढ़ सौ वर्ष के भीतर अनेक महात्माओं का आविर्भाव हुआ है। उनमें से एक परमहंस रामकृष्ण को कभी बालभाव में मग्न देखा जाता था। परन्तु उनको भी यह अवस्था कुछ काल के लिए ही प्राप्त होती थी। सदैव इस दशा में वे नहीं रह सकते थे। इसी असम्भवता के कारण स्वामी वल्लभाचार्य प्रचारित बालभाव उपासना की पध्दति को व्यापकता नहीं प्राप्त हुई। उनकी प्रेमिका और प्रेमिक भाव की उपासना ही व्यापक रूप से गृहीत हुई और आज भी उसकी मधुरता उसके अधिकारियों को विमुग्धा कर रही है। अद्वैतवाद में साधाक को अपनी सत्ता को विलोप कर देना पड़ता है, क्योंकि द्वैत का भाव उत्पन्न होते ही अद्वैत भाव सुरक्षित नहीं रह सकता। इसीलिए इस मार्ग पर चलना अत्यन्त दुर्लभ है। कोई-कोई सच्चा उच्च कोटि का ज्ञानमार्गी ही उस पध्दति का अधिकारी हो सकता है। भक्ति मार्ग में अपनी सत्ता को सर्वथा लोप करना नहीं पड़ता। परन्तु, मर्यादा पद-पद पर उसकी सहचरी रहती है, क्योंकि भक्ति महत्ता के अभाव में उत्पन्न नहीं होती और महान् पुरुष के साथ मर्यादा का उल्लंघन नहीं हो सकता। इसलिए मानवी सत्ता भक्ति-मार्ग में बन्धानों से मुक्त नहीं होती और अनेक अवस्थाओं में उसकी वांछित स्वतंत्राता में बाधा भी पड़ती रहती है। प्रेम-पथ इन बन्धानों से मुक्त रहता है। उसमें अपनी सत्ता तो बहुत कुछ सुरक्षित रहती ही है उसकी स्वतंत्राता में भी उतनी बाधा नहीं पड़ती। प्रेमिका प्रेम-पात्रा को यथावसर टेढ़ी-मेढ़ी बातें भी कह देती हैं और दिल खोलकर उपालम्भ देने में भी संकुचित नहीं होती। ऐसा वह प्रेमातिरेक के वश में होकर ही करती है। दम्भ अथवा अभिमान से नहीं। यही कारण है कि यह उपासनापध्दति अधिकतर गृहीत हुई और माधुर्य भावना कही गई। आज दिन भारतवर्ष काकौन-सा प्रदेश है, जिसमें वल्लभाचार्य सम्प्रदाय के मन्दिर नहीं और जिसमें राधा-कृष्ण की मूर्ति विराजमान नहीं? रामावत सम्प्रदाय भी इस माधुर्य भाव की उपासना से प्रभावित हुआ और उसमें भी आजकल सखी भाव की सृष्टि होकर यह पध्दति गृहीत हो गईहै।

भगवान कृष्णचन्द्र जैसे विलक्षण प्रेमस्वरूप प्रेमिक हैं। श्रीमती राधिका वैसी ही प्रेम-प्रतिमा। असंख्य ब्रह्माण्ड के अधिप आकाश का जो वर्ण है, वही वर्ण प्रेमावतार श्रीकृष्णचन्द्र का है, जो इस बात का सूचक है कि जो इस रंग में सच्चे जी से रँगा उसने माधुर्य समुद्र में ही प्रवेश किया, आजन्म उसमें ही निमग्न रहा। श्यामायमाना वसुन्धारा में भी वही छटा दृष्टिगत होती है और विश्वविरामदायिनी रजनी में भी वे विश्वरूप हैं, इसलिए सूर्य, शशांक, वद्दि नयन हैं; मयूर-मुकुट-मण्डित, बनमाली, एवं गिरिधार भी हैं। ब्रह्माण्ड की चोटी के धवन्यात्मक स्वर से उनको मुरलिका स्वरित है, जिसको सुन सलिल-प्रवाह रुक जाता है,पवन नर्तन करने लगता है, दिशाएँ प्रफुल्ल हो जाती हैं और वृक्ष का पत्ता-पत्ता तक आनन्द से आन्दोलित होने लगता है। वे लोक ललाम हैं। अतएव कोटिकाम कमनीय हैं, वे सच्चिदानन्द हैं, इसलिए संसार सुख के सर्वस्व हैं, माधुर्यमय विभूति के मूल हैं, एवं लोक-लीलाओं के लोकोत्तार आधार। उन्हीं की तद्गता प्रेमिका और आराधिका श्रीमती राधिका हैं। वे भी उन्हीं के समान लोकोत्तार सुन्दरी और अलौकिक शक्तिशालिनी हैं। उनका संयोगमय जीवन बड़ा ही भावमय, उदात्ता और सहृदय-हृदय-संवेद्य है। उनकी रागात्मिका प्रकृति जितनी ही लोक-रंजिनी है उतनी ही चमत्कारमयी। वे इतनी प्रेमपरायणा हैं कि प्रियतम का क्षणिक वियोग भी सह्य नहीं, किन्तु इतनी आत्मावलंबिनी हैं कि वियोग अवस्था उपस्थित होने पर वे विश्वमात्रा में अपने आराधयदेव की विभूतियों को अवलोकन करती हैं और इस प्रकार अपने उन्मत्ताप्राय हृदय में वह रसधारा बहाती हैं जिसको सुधाधारा से भी सरस कह सकते हैं। उनकी वियोग वेदनाएँ पत्थर को भी द्रवीभूत करती हैं, किन्तु इस सिध्दान्त का अनुभव कराती हैं कि ‘प्रेम की पीड़ाएँ बड़ी मधुर होती हैं।’

-(Love’s pain is very sweet)

महाप्रभु वल्लभाचार्य का सिध्दान्त इन्हीं युगल मूर्तियों पर अवलम्बित है। इसीलिए वह इतना हृदयग्राही, मनोहर और व्यापक है कि वही विविधा विदेशी भाव-प्रवाह में बहती हुई हिन्दू जनता का प्रधान पोत बना। उनके इस लोक-मोहक सिध्दान्त के मूर्तिमन्त अवतार चैतन्य देव थे। यह भी हिन्दू जनता का सौभाग्य है कि वे भी उसी समय में अवतीर्ण हुए और अपने आचरणों द्वारा उन्होंने ऐसा आदर्श उपस्थित किया, जिससे इस युगल-मूर्ति के प्रेम प्रवाह में बंगाल प्रान्त निमग्न हो गया। उनके विषय में बंगाल प्रान्त के प्रसिध्द विद्वान् और प्रतिष्ठित लेखक दिनेशचन्द्र सेन बी. ए. क्या कहते हैं, सुनिये-

“यदि चैतन्यदेव न जन्म लेते तो श्रीराधा का जलद-जाल को देखकर नेत्रों से अश्रु बहाना, कृष्ण का कोमल अंग समझ कर कुसुमलता का आलिंगन करना,टकटकी बाँधाकर मयूर-मयूरी के कण्ठ को देखते रह जाना, और नव-परिचय का सुमधुर भावावेश

कवि की कल्पना बन जाती एवं भाव के उच्छ्वास से उत्पन्न हुई उनकी विभ्रममय आत्मविस्मृति आजकल के असरस युग में कवि-कल्पना कही जाकर उपेक्षित होती। किन्तु चैतन्यदेव ने श्रीमद्भागवत और वैष्णव गीतों की सत्यता प्रमाण्0श्निात कर दी। उन्होंने दिखलाया कि यह विराट् शास्त्रा भक्ति की मित्तिा पर, नयनों के अश्रु पर, और चित्ता की प्रीति पर अचल भाव से खड़ा है। इस शास्त्रा के शोभा सर्वस्व पूर्वराग, विरह, सम्भोग, मिलन इत्यादि से सम्बन्धा रखने वाली जितनी ललित लीलाओं की सरस धाराएँ वही हैं, वे कल्पित नहीं हैं। उनका आस्वादन हुआ है और वे आस्वादन योग्य हैं। प्रेम की अद्भुत स्फूर्ति से चैतन्य देव की देह कदम्ब पुष्प के समान रोमाि×चत बनती, उन्हें समुद्र की लहरें यमुना की लहरें जान पड़तीं, चटक पर्वत गोवर्ध्दन प्रतीत होता, और उनके लिए पृथ्वी कृष्णमय हो जाती। इसी अपूर्व भक्ति और प्रेम की सामग्री के आधार से श्रीमती राधिका सुन्दरी सृष्ट हुई हैं। उनके विरहजन्य कष्ट की एक कणिका धारण करे, अथवा उनके सुख की एक लहरी का अनुभव कर सके, इस प्रकार का नारी-चरित्रा पृथ्वी तल के काव्योद्यान में नहीं पाया जाता”। 1अब तक इस विषय में जो कुछ लिखा गया उससे यह सिध्द होता है कि सोलहवीं शताब्दी में महाप्रभु वल्लभाचार्य ने कृष्ण-प्रेम की जो सरस धारा बहाई वह समयोपयोगी थी और उसका उस काल और उसके बाद के हिन्दी साहित्य पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।

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इस शताब्दी में जिस प्रकार एक नवीन धर्म का प्रवाह प्रवाहित होकर हिन्दू-जाति की धार्मिक प्रवृत्तिा में एक अभिनव स्फूर्ति उत्पन्न करने का साधान हुआ। उसी प्रकार हिन्दी भाषा सम्बन्धी साहित्य में ऐसी दो मुग्धाकारी मूत्तिायाँ भी सामने आईं, जो उसको बहुत बड़ी विशेषता प्रदान करने में समर्थ हुईं। वे दोर् मूत्तिायाँ ब्रजभाषा और अवधी की हैं। इन दोनों उपभाषाओं में जैसा सुन्दर और उच्चकोटि का साहित्य इस शताब्दी में विरचित हुआ फिर अब तक वैसा साहित्य हिन्दू-संसार सर्वसाधारण के सामने उपस्थित नहीं कर सका। इसलिए इस काल के कविगण की चर्चा करने के पहले यह उचित ज्ञात होता है कि इन उपभाषाओं की विशेषता पर कुछ प्रकाश डाला जाये, जिससे इनमें हुई रचनाओं की महत्ता और स्वाभाविकता स्पष्टतया बतलायी जा सके। इस विचार को सामने रखकर अब मैं इनकी विशेष प्रणालियों को यहाँ उपस्थित करता हूँ।

अवधी और ब्रजभाषा की कुछ विशेषताएँ तो ऐसी हैं जो दोनों ही में समान हैं। इसलिए मैं पहले उन्हीं की चर्चा करता हूँ,बाद में उनकी भिन्नताएँ भी बतलाऊँगा। इन दोनों भाषाओं में प्राकृत भाषा के समान संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिकतर

1. देखिए, बंग भाषा और साहित्य का पृ. 243, 244।

नहीं देखा जाता। ये दोनों अर्ध्दतत्सम विशेष कर तद्भव शब्दों ही पर अवलम्बित हैं। सुख, मन, धान जैसे थोड़े से संस्कृत के तत्सम शब्द ही इनमें पाये जाते हैं। स्वरों में ऋ िंऔर लृ लृ का प्रयोग होता ही नहीं। ऋ के स्थान पर रि का ही प्रयोग प्राय: मिलता है। इनमें ऋतु और ऋजु रितु और रिजु बन जाते हैं। हाँ! कृपा जैसे शब्दों में संयुक्त ऋ का व्यवहार अवश्य देखा जाता है। इन दोनों में एक प्रकार से ‘श’, ‘ण’, और ‘क्ष’ का अभाव है। क्रमश: उनके सथान पर स, न, और छ लिखा जाता है। केवल ‘श्री’ में शकार का उच्चारण सुरक्षित रहता है। ष का प्रयोग होता है, पर पढ़ा वह ख जाता है। युक्त विकर्ष इनका प्रधान गुण है। अर्थात् संयुक्त वर्णों को ये अधिकतर सस्वर कर लेती हैं, जैसे सर्व को सरब, गर्व को गरब, कर्म को करम, धर्म को धारम, स्नेह को सनेह इत्यादि। ऊधर्वगामी रेफ या रकार अवश्य सस्वर हो जाता है, परन्तु जो रकार ऊधर्वगामी नहीं पाद लग्न होता है वह प्राय: संयुक्त रूप ही में देखा जाता है, विशेष कर वह जो आदि अक्षर के साथ सम्मिलित होता है, जैसे क्रम इत्यादि। ऐसे ही कोई-कोई संयुक्त वर्णसस्वर नहीं होता जैसे अस्त का स। यह देखा जाता है कि संयुक्त वर्ण को जहाँ सस्वर करने से शब्दार्थ भ्रामक हो जाता है वहाँ वह सुरक्षित रह जाता है जैसे यदि क्रम को करम और अस्त को असत लिख दिया जाय तो जिस अर्थ में उनका प्रयोग होता है उस अर्थ की उपलब्धिा दुस्तर हो जाती है। दोनों में जितने हलन्त वर्ण संस्कृत के आते हैं, वे सब सस्वर हो जाते हैं, जैसे वरन् का न् इत्यादि। व्यंजनों का प्रत्येक अनुनासिक अथवा पंचम वर्ण दोनों ही में अनुस्वार बन जाता है जैसे अ(, कल(, प(ज, इत्यादि को क्रमश: अंक, कलंक पंकज लिखा जायगा। इसी प्रकार चझल, सझय,किझित इत्यादि क्रमश: चंचल, संचय और किंचित हो जाएँगे। कण्टक, खंडन, मण्डन, पण्डित का रूप क्रमश: कंटक, खंडन,मंडन, पंडित होगा। आनन्द, अन्त और सन्त का रूप क्रमश: आनंद, अंत और संत हो जायगा और सम्पत्तिा, दम्पती, कम्पित इत्यादि क्रमश: संपत्तिा, दंपती और कंपित बन जायँगे। प्राकृत के कुछ प्राचीन शब्द ऐसे हैं जो दोनों में समान रूप से गृहीत हैं जैसे नाह, लोयन, सायर इत्यादि। कुछ शब्दों के मधय का ‘व’, ‘औ’, से, और ‘य’, ‘ऐ’ से प्राय: बदल जाता है, जैसे पवन का पौन, भवन का भौन, रवन का रौन इत्यादि और नयन का नैन, बयन का बैन, सयन का सैन इत्यादि। परन्तु विकल्प से तत्सम रूप भी कहीं-कहीं वाक्य के स्वारस्य पर दृष्टि रखकर लिख दिया जाता है। अपभ्रंश के प्रथमा, द्वितीया और षष्ठी विभक्तियों का लोप प्राय: देखा जाता है। अवधी और ब्रजभाषा में इनका तो लोप होता ही है, सप्तमी विभक्ति का लोप भी होता है यथावसर अन्य विभक्तियों का भी। अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के एकवचन में प्राय: उकार का संयोग प्रातिपदिक शब्दों के अंतिम अक्षर में देखा जाता है। अवधी और ब्रजभाषा में भी यह प्रणाली गृहीत है। कभी-कभी विशेषण और अव्ययों में भी वह दिखलाई पड़ता है। गुरु को लघु और लघु को गुरु आवश्यकतानुसार दोनों में कर दिया जाता है। पूर्व कालिक क्रिया बनाने के समय धातु का चिद्द ‘ना’ दूर करके उसके बाद वाले वर्ण में इकार का प्रयोग दोनों करती हैं, जैसे ‘करि’, ‘धारि’, ‘सुनि’इत्यादि। यह इकार तुकान्त में दीर्घ भी हो जाता है। ब्रजभाषा में बहुवचन के लिए न का प्रयोग होता है। जैसे ‘घोरा’ का’घोरान’, और ‘छोरा’ का ‘छोरान’, परन्तु दूसरा रूप ‘घोरन’ और ‘छोरन’ भी बनता है। अवधी में केवल दूसरा ही रूप होता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-‘तुरत सकल लोगन पँह जाहू’, पुरवासिन देखे दोउ भाई ‘ हरिभक्तन’ देखेउ दोउ भ्राता। परन्तु जायसी को न के स्थान पर न्ह का प्रयोग ही बहुधा करते देखा जाता है। प्रकृति के साथ विभक्ति मिलाकर लिखने की प्रणाली दोनों भाषाओं में समान रूप से पाई जाती है। ब्रजभाषा का पुराना रूप ‘रामहि’, ‘बनहि’, ‘घरहि’ और नये ‘रामै’, ‘बनै’, ‘घरै’ इसके प्रमाण हैं। अवधी में भी यह बात देखी जाती है, जैसे ‘घरे जात बाटी’ का ‘घरे’, ‘नैहरे जोय’ 1का नैहरे। ‘जाना’, ‘होना’ के भूतकाल के रूप ‘गवा’ और भवा में से ‘व’ निकालने पर जैसे अवधी में ‘गा’ ‘भा’ रूप बनते हैं वैसे ही ब्रजभाषा में भी गयो,भयो, के ‘य’ को हटाकर ‘गो’ ‘भो’ बनाया जाता है जो बहुवचन में ‘गे’ ‘भे’ हो जाता है। ब्रजभाषा के करण का चिद्द ‘ते’ और अवधी के करण का चिद्द ‘से’ भूतकालिक कृदन्त में ही लगते हैं, जैसे ‘किये ते’ और ‘किये से’ जिनका अर्थ है ‘करने से’। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में कृदन्त का रूप समान अर्थात् लघ्वन्त होता है, जैसे ‘गावत’, ‘खात’, अलसात, ‘जम्हात’इत्यादि। अन्तर इतना ही है कि ब्रजभाषा में ‘गावतो’, ‘अलसातो’ इत्यादि भी लिख सकते हैं। ब्रजभाषा में धातु के अन्त में’नो’ होता है जैसे ‘करनो’ ‘कहनो’ आदि; दूसरे के अन्त में ‘न’ पाया जाता है जैसे ‘लेन’ ‘देन’ इत्यादि और तीसरे के अन्त में’बो’ होता है, जैसे ‘दैबो’ ‘लैबो’। देना लेना के दीबो, लीबो भी रूप बनते हैं। इन तीनों रूपों में से पहला रूप कारक चिद्द-ग्राही नहीं होता। शेष दो में कारक चिद्द लगते हैं, जैसे लेन को, देन को, लैबे को, दैबे को इत्यादि। अवधी में साधारण क्रिया के अन्त में केवल ‘ब’ रहता है, जैसे ‘आउब’ ‘जाब’ ‘करब’ इत्यादि। मधयम पुरुष का विधि ‘ब’, में ‘ई’ मिलाकर ब्रज के दक्षिण भाग में बुन्देलखंड तक बोलते हैं, जैसे ‘आयबी’ ‘करबी’ इत्यादि। यह ब्रजभाषा का व्यापक प्रयोग है।

अब मैं ब्रजभाषा और अवधी के उन प्रयोगों को बतलाता हूँ जिनमें भिन्नता है। ब्रजभाषा में भूतकाल की सकर्मक क्रिया के कत्तर् के साथ ‘ने’ का चिद्द आता है। हाँ, यह अवश्य है कि इस भाषा के कुछ कवियों ने ही इसका प्रयोग कदाचित किया है। सूरदासादि महाकवियों ने प्राय: ऐसा प्रयोग नहीं किया। अवधी में ‘ने’ का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता। बचन के सम्बन्धा में यह देखा जाता है कि ब्रजभाषा में एकवचन का बहुवचन सभी अवस्थाओं में होता है, जैसे ‘लड़का’ का ‘लड़के’ अलि का अलियाँ इत्यादि। अवधी में एकवचन का बहुवचन कारक चिद्द लगने पर

1. बन में अहिर नैहरे जोय। जल में केवट केहुक न होय।

ही होता है। ब्रजभाषा में भविष्यकाल की क्रिया केवल तिङ्न्त ही नहीं होती, उसमें खड़ी बोली के समान ‘ग’ का व्यवहार भी होता है। जैसे, ‘गावैगो’ इत्यादि। परन्तु अवधी में ‘करिहइ’, ‘कहिहइ’ आदि तिड्न्त रूप ही बनता है। अवधी इकार-बहुला और ब्रजभाषा यकार-बहुला है। पूर्वकालिक क्रिया का अवधी रूप ‘उठाइ’, ‘लगाइ’, ‘बनाइ’, ‘होइ’, ‘रोइ’, इत्यादि होगा। किन्तु ब्रजभाषा का रूप ‘उठाय’, ‘लगाइ’, ‘लगाय’, ‘बनाय’, ‘होय’, रोय आदि बनेगा। इसी प्रकार अवधी का ‘करिहइ’, ‘चलिहइ’, ‘होइहइ’ब्रजभाषा में ‘करिहय’, ‘चलिहय’, ‘होइहय’ हो जायगा। परन्तु अन्तर यह होता है कि लिखने अथवा व्यवहार के समय ब्रजभाषा में ‘हय’, ‘है’ हो जाता है। इसलिए उसको ‘करिहै’, ‘चलिहै’, ‘होयहै’ इत्यादि लिखते हैं। इसी प्रकार अवधी का ‘इहाँ’ ब्रजभाषा में’यहाँ’ बन जाता है। अवधी का ‘उ’ ब्रजभाषा में ‘व’ हो जाता है जैसे ‘उहाँ’ का वहाँ और ‘हुऑं’ का ‘ह्नाँ’, ब्रजभाषा के शब्द प्राय: खड़ी बोली के समान दीर्घान्त होते हैं। खड़ी बोली की ऐसी पुलिú संज्ञाएँ, जो कि आकारान्त हैं, ब्रजभाषा में ओकारान्त बन जाती हैं। विशेषण एवं सम्बन्धा कारक के सर्वनाम भी इसी रूप में दृष्टिगत होते हैं। जैसे ‘रगरो’, ‘झगरो’, ‘छोरो’, ‘थोरो’, ‘साँवरो’, ‘गोरो’, ‘कैसो’, ‘जैसो’, ‘तैसो’, ‘बड़ो’, ‘छोटो’, ‘हमारो’, ‘तुम्हारो’, ‘आपनो’ इत्यादि इसी प्रकार आकारान्त साधारण भूत कालिक कृदन्त क्रियाएँ भी ओकारान्त बनती हैं, जैसे ‘आयो’, ‘दीबो’, ‘लीबो’ इत्यादि। पर अवधी के शब्द अधिकतर लघ्वन्त या अकारान्त होते हैं जिससे लिंग भेद का प्रपंच कम होता है जैसे, ‘अस’, ‘जस’, ‘तस’, ‘छोट’, ‘बड़’, ‘थोड़’, ‘गहिर’, ‘साँवर’ ‘गोर’, ‘ऊँच’, ‘नीच’, ‘हमार’, ‘तोहार’ इत्यादि। ‘मोट’, ‘दूबर’, ‘पातर’ इत्यादि विशेषण और आपन, मोर, तोर, सर्वनाम एवं ‘केर’, ‘सन’, तथा ‘कहँ’, ‘महँ’ कारक के चिद्द भी इसके प्रमाण हैं। अवधी में साधारण क्रिया का रूप भी प्राय: लघ्वन्त ही होता है जैसे ‘करब’, ‘धारब’, ‘हँसब’, ‘बोलब’, इत्यादि। अवधी के ‘हियाँ’, ‘सियार’, ‘कियारी’, ‘बियाह’, ‘बियाज’, ‘नियाव’, ‘पियास’आदि शब्द ब्रजभाषा में ‘ह्याँ’, ‘स्यार’, ‘क्यारी’, ‘ब्याह’, ‘ब्याज’, ‘न्याव’, ‘प्यास’, आदि बन जाते हैं। अर्थात् ऐसे शब्दों के आदि वर्ण का इकार स्वर लोप हो जाता है और वह हलन्त होकर परवर्ण में मिल जाता है। ऐसा अधिकांश उसी शब्द में होता है जिसके मधय में ‘या’ होता है। ‘उ’ के पश्चात् ‘आ’ का उच्चारण भी ब्रजभाषा के अनुकूल नहीं है। अवधी भाषा का ‘दुआर’ और’कुँआर’ ब्रजभाषा में ‘द्वार’ और ‘क्वार’ अथवा ‘क्वारो’ बन जाता है। ‘ऐ’ और ‘औ’ का उच्चारण अवधी में ‘अइ’ और ‘अउ’ के समान होता है, जैसे ‘अउर’, ‘अइसा’, ‘कउआ’, ‘हउआ’। परन्तु ब्रजभाषा में उसका उच्चारण प्राय: ऐ और ‘औ’ के समान होता है, जैसे ‘ऐसा’, ‘कन्हैया’, और ‘कौआ’ इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में वर्तमानकाल और भविष्यकाल के तिङन्त रूप भी मिलते हैं और उनमें लिंग भेद नहीं देखा जाता। किन्तु ब्रजभाषा के वर्तमान कालिक क्रिया के रूप में यह विशेष बात पाई जाती है कि उनमें इस प्रकार की क्रियाएँ ‘होना’ धातु के रूप के साथ बोली जाती हैं। ‘पढ़ना’ क्रिया का रूप उत्ताम पुरुष में’पढ़ै हौं’, या ‘पढ़ईँ हूँ’, मधयम पुरुष में ‘पढ़ो हो’ और अन्य पुरुष में ‘पढै है’ होगा। अवधी में भी इसी प्रकार का प्रयोग होता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-

‘ गहै घ्राण बिनु बास अशेषा ‘

‘ पंगु चढ़ै गिरवर गहन ‘

परन्तु भविष्य काल के तिङन्त रूप अवधी और ब्रजभाषा में एक ही प्रकार के होंगे। अवधी में होगा ‘करिहइ’, ‘होइहइ’और ब्रजभाषा में होगा करिहइ = करिहै, होइहय = होयहै या ह्नै है। अवधी के उत्ताम पुरुष में होगा ‘खइहउँ’, किन्तु ब्रजभाषा में होगा ‘खयहौं = खैहों। अन्तर केवल यही होगा कि जहाँ अवधी में ‘इ’ का प्रयोग होगा वहाँ ब्रजभाषा में य का। पहले सर्वनाम में जब कारक-चिद्द लगाया जाता था तब अवधी और ब्रजभाषा दोनों में ‘हि’ का प्रयोग कारक के पहले होता था। परन्तु अब दोनों में ‘हि’ को स्थान नहीं मिलता है। जैसे अवधी ‘केहिकर’ और ‘जेहिकर’, ‘केकर’ और ‘जेकर’ बन गया है,उसी प्रकार ब्रजभाषा का ‘काहि को’ ‘जाहि को’ अब ‘काको’, ‘जाको’ बोला जाता है। ब्रजभाषा में ‘आवहिं’, ‘जाहिं’ का प्रयोग भी मिलता है और उसके दूसरे रूप ‘आवैं,’ ‘जायँ’ का भी। कुछ लोगों का विचार है कि पहला रूप प्राचीन है और दूसरा आधुनिक। इसी प्रकार ‘इमि’, ‘जिमि’, ‘तिमि’ के स्थान पर ‘यों’, ‘ज्यों’, ‘त्यों’ का व्यवहार भी देखा जाता है। इनमें भी पहले रूप को प्राचीन और दूसरे को आधुनिक समझते हैं। परन्तु अब तक दोनों रूप ही गृहीत हैं, कुछ लोग आधुनिक काल में दूसरे प्रयोगों को ही अच्छा समझते हैं। कुछ भाषा मर्मज्ञ कहते हैं कि ब्रज की बोल-चाल की भाषा में केवल सर्वनाम के कर्म कारक में’ही’ कुछ रह गया है जैसे ‘जाहि’, ‘ताहि’ या जिन्हैं, तिन्हैं आदि में। परन्तु दिन-दिन उसका लोप हो रहा है और अब ‘जाहि’, ‘वाहि’, के स्थान पर ‘जाय’ ‘वाय’ बोलना ही पसंद किया जाता है। किन्तु यह मैं कहूँगा कि ‘जाय’ ‘वाय’ आदि को बोलचाल में भले ही स्थान मिल गया हो, पर कविता में अब तक ‘जाहि’ ‘वाहि’ का अधिकतर प्रयोग है।

अवधी और ब्रजभाषा की समानता और विशेषताओं के विषय में मैंने अब तक जितना लिखा है वह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता, परन्तु अधिकांश ज्ञातव्य बातें मैंने लिख दी हैं। अवधी और ब्रजभाषा के कवियों और महाकवियों की भाषा का परिचय प्राप्त करने और उनके भाषाधिकार का ज्ञान लाभ करने में जो विवेचना की गई है, मैं समझता हूँ उसमें वह कम सहायक न होगी। इसलिए अब मैं प्रकृत विषय की ओर प्रवृत्ता होता हूँ।

(4)

इस शताब्दी के आरम्भ में सबसे पहले जिस सहृदय कवि पर दृष्टि पड़ती है वह पर्िंवत के रचयिता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। यह सूफी कवि थे और सूफी सम्प्रदाय के भावों को उत्तामता के साथ जनता के सामने लाने के लिए ही उन्होंने अपने इस प्रसिध्द ग्रन्थ की रचना की है। जिन्होंने इस ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़ा है, वे समझ सकते हैं कि स्थान-स्थान पर उन्होंने किस प्रकार और किस सुन्दरता से सूफी भावों का प्रदर्शन इसमें किया है।

इनके ग्रन्थ के देखने से पाया जाता है कि इनके पहले ‘सपनावती’ ‘मुगधावती’, ‘मृगावती’, ‘मधुमालती’ और ‘प्रेमावती’नामक ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी। इनमें से मृगावती और मधुमालती नामक गन्थ प्राप्त हो चुके हैं। शेष-ग्रन्थों का पता अब तक नहीं चला। ‘मृगावती’ की रचना कुतबन ने की है और मधुमालती की मंझन नामक कवि ने। इन दोनों का समय पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्तिम काल ज्ञात होता है। ये दोनों सूफी कवि थे और इन्होंने भी अपने ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर अपने सम्प्रदाय के सिध्दान्तों का निरूपण बड़ी सरलता के साथ किया है। इन सूफी कवियों में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो लगभग सबमें पाई जाती हैं। पहली बात यह कि सब के ग्रन्थों की भाषा प्राय: अवधी है। सभी ने हिन्दी छन्दों को ही लिया है, और दोहा-चौपाई में ही अपनी रचनाएँ की हैं। प्रेम-कहानी ही का कथन उनका उद्देश्य होता है, क्योंकि उसी के आधार से संयोग, वियोग और प्रेम के रहस्यों का निरूपण वे यथाशक्ति करते हैं, इस प्रेम का नायक और नायिका अधिकांश कोई उच्च कुल का हिन्दू प्राय: कोई राजा या रानी होती है। इन सुकवियों की विशेषता यह है कि वे सद्भाव के साथ अपने ग्रन्थ की रचना करते देखे जाते हैं, कटुता बिलकुल नहीं आने देते। वर्णन में इतनी आत्मीयता होती है कि उनके पढ़ने से यह नहीं ज्ञात होता कि किसी दुर्भावना के वश होकर इनकी रचना की गयी है, या किसी विधार्मी या विजातीय की लेखनी से वह प्रसूत है। प्रेम-मार्गी होने के कारण वे प्रेम मार्ग का निर्वाह ही अपनी रचनाओं में करते हैं और सूफी मत की उदारता पर आरूढ़ होकर उसमें ऐसी आकर्षिणी शक्ति उत्पन्न करते हें जो अन्य लोगों के मानस पर बहुत कुछ प्रभाव डालने में समर्थ होती है। मलिक मुहम्मद जायसी इन सब कवियों में श्रेष्ठ हैं। और उनकी कृतियाँ इस प्रकार के सब कवियों की रचनाओं में विशेषता और उच्चता रखती हैं।

जायसी बड़े सहृदय, कवित्व-शक्ति-सम्पन्न कवि थे। प्रतिभा भी उनकी विलक्षण थी, साथ ही धार्म्मिक कट्टरता उनमें नहीं पायी जाती। वे अपने पीर, पैगम्बर और धर्मगुरु की प्रशंसा करते हैं और यह स्वाभाविकता है, विशेषता उनकी यह है कि वे अन्य धर्म वालों के प्रति उदार हैं और उनको भी आदर की दृष्टि से देखते हैं। उनका हिन्दू-धर्म का ज्ञान भी विस्तृत है। उसके भावों को बड़ी ही मार्मिकता से ग्रहण करते हैं। पात्रों के चरित्रा-चित्राण् में उनकी इतनी तन्मयता मिलती है जो यह प्रतीति उत्पन्न करती है कि वे उस समय सर्वथा उन्हीं के भावों में लीन हो गये हैं। इन कवियों की भाषा अधिकतर साफ-सुथरी है और सरसता उसमें पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है।

पहले कुतबन की रचना ही देखिए। वे लिखते हैं-

साहु हुसेन अहै बड़ राजा , छत्रासिंहासन उनको छाजा।

पंडित औ वुधिवंत सयाना , पढ़ै पुरान अरथ सब जाना।

धारम जुधिष्ठिर उनको छाजा , हमसिरछाँह कियो जगराजा।

दानदेह और गनत न आवै , बलिऔ करन न सरवरि पावै।

नायक के स्वर्गवास हो जाने पर नायिकाओं की दशा का वर्णन वे करते हैं-

रुक्मिनि पुनि वैसहिं मरि गयी , कुलवंती सतसों सति भई।

बाहर वह भीतर वह होई , घर बाहर को रहै न जोई।

विधिकर चरित न जानइ आनू , जो सिरजासो जाहि नियानू।

उर्दू की शाइरी में आप देखेेंगे कि उसके कवि फ़ारस की सभ्यता के ही भक्त हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हैं तो फ़ारस के ही दृश्यों को सामने लाते हैं। साक़ी व पैमाना बुलबुल व क़ुमरी, सरो व शमसाद, शमा व फ़ानूस, जबांनाने चमन व उरूसाने गुलशन नरगिस व सुम्बुल, फ़रहाद व मजनूं, मानी वह बहज़ाद, ज़बानेसुरही व खन्दएक़ुलक़ुल वगैर: उनके सरमायये नाज़ हैं। आमतौर से वे इन्हीं पर फ़िदा हैं, शाज़ व नादिर की बात दूसरी है। हज़रत आज़ाद इन्हीं की तरफ़ इशारा करके फ़रमाते हैं-

“इनमें बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो ख़ास फ़ारस और तुर्किस्तान के मुल्कों से तबई और ज़ाती तअल्लुकष् रखती हैं। इसके अलावा वाज़ ख़यालात में अकसर उन दास्तानों या किस्सों के इशारे भी आ गये हैं जो ख़ास मुल्क फ़ारस से तअल्लुक़ रखते हैं। इन ख़यालों ने और वहाँ की तशबीहों ने इस क़दर जोर पकड़ा कि उनके मशाबेह जो यहाँ की बातें थीं, उन्हें बिलकुल मिटा दिया।”1

इन सूफी कवियों की रचनाओं में ये दोष नहीं पाये जाते हैं। वे अपने को भारतवर्ष का समझते हैं और भारतवर्ष के उदाहरण आवश्यकता होने पर सामने लाते हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हैं उस समय भी भारत की सामग्रियों से ही काम लेते हैं। कुतुबन ने हुसेन के वर्णन में इसकी धर्मज्ञता की समता युधिष्ठिर से ही की है। दान देने का महत्तव बलि और कर्ण को ही सामने रखकर प्रकट किया है। यद्यपि उसका प्रशंसापात्रा मुसलमान था। ऊपर के पद्यों में दो स्त्रिायों का सती होना और उनकी दशा का वर्णन भी उसने हिन्दू सभ्यता के अनुसार ही किया है।

1. देखिए-चतुर्दश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापतित्व पद से लेखक का भाषण, पृ. 24

इससे सूचित होता है कि इन सूफी कवियों के हृदय में वह विजातीय भाव उस समय घर नहीं कर सका था जो बाद के मुसलमानों में पाया जाता है। शाह हुसेन शेरशाह का पिता था और कुतुबन भी उसी के समय में था। इस समय भी मुसलमानों का प्राबल्य बहुत कुछ था। फिर भी कुतुबन में हिन्दू भावों के साथ जो सहानुभूति देखी जाती है वह प्रेम-मार्गी सूफ़ी की उदारता ही का सूचक है। मंझन और मलिक मुहम्मद जायसी में यह प्रवृत्तिा और स्पष्ट रूप में दृष्टिगत होती है। मैं पहले कह आया हूँ कि सूफी धर्म के विद्वान् संसार की विभूतियों में परमात्मा की सत्ता को छिपी देखते हैं और उन्हीं के आधार से वे उसकी सत्ता का अनुभव करना चाहते हैं। मंझन कवि एक स्थान पर इस भाव को इस प्रकार प्रकट करता है-

देखत ही पहचानेउँ तोही। एही रूप जेहि छंदस्यो मोहो।

एही रूप बुत अहै छिपाना। एही रूप रब सृष्टि समाना।

एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिाभुवन कर जीऊ।

एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा।

संयोग (वस्ल) के कामुक सूफ़ी प्रेमिकों ने वियोगावस्था का वर्णन भी बड़ा ही मार्मिक किया है। वियोगावस्था में संयोग कामना कितनी प्रबल हो उठती है, इसका दृश्य प्रतिदिन दृष्टिगत होता रहता है। मानव-प्रेम-कहानियों में भी इसके बड़े सुन्दर वर्णन हैं। सूफ़ियों का वियोग यत: ईश्वर सम्बन्धी होता है, इसलिए यह अधिक उदात्ता और हृदयग्राही हो जाता है और उसकी व्यापकता भी बढ़ जाती है। मंझन इस वियोग का वर्णन निम्नलिखित पद्यों में किस प्रकार करता है, देखिए-

बिरह अवधि अवगाह अपारा।

कोटि माहिं एक परै त पारा।

बिरह कि जगत अबिरथा जाही ?

बिरह रूप यह सृष्टि सबाही।

नयन बिरह अंजन जिन सारा।

बिरह रूप दर्पन संसारा।

कोटि माँहि बिरला जग कोई।

जाहि सरीर बिरह दुख होई।

रतन कि सागर सागरहिं , गज मोती गज कोय।

चँदन कि बन बन उपजइ , बिरह कि तन तन होय ?

अब मलिक मुहम्मद जायसी की कुछ रचनाओं को भी देखिए। प्रेम मार्गी सूफ़ी कवियों में जिस प्रकार वे प्रधान हैं, वैसी ही उनकी रचना में भी प्रधानता है। उनकी प्रेम-कहानी लिखने की प्रणाली जैसी सुन्दर है वैसा ही स्थान-स्थान पर उसमें सूफ़ी भावों का चित्राण भी मनोरम है। वे कवि ही नहीं थे, वरन् उन पीरों में उनकी गणना की जाती है जो उस समय पहुँचे हुए ईश्वर के भक्त समझे जाते थे। इसलिए उनकी रचनाओं में ईश्वर परायणता की झलक भी स्थान-स्थान पर बड़ी ही मधुर दीख पड़ती है। पद्मावत के अतिरिक्त उनका ‘अखरावट’ नामक भी एक ग्रन्थ है। इसमें उन्होंने प्रेम-मार्ग के सिध्दान्तों और ईश्वर प्राप्ति के साधानों का वर्णन बोधा-सुलभ रीति से किया है। किन्तु उनका विशेष आद्रित ग्रन्थ पदमावत है। अतएव उसमें से विविधा भावों के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूँ। पहले संसार की असारता का एक पद्य देखिए-

1. तौ लहि साँस पेट महँ अही।

जौ लहि दसा जीउ कै रही।

काल आइ दिखरायी साँटी।

उठि जिउ चला छाँड़ि कै माटी।

काकर लोग कुटुम घर बारू।

काकर अरथ दरब संसारू।

ओही घड़ी सब भयेउ परावा।

आपन सोइ जो परसा खावा।

अहे जे हितू साथ के नेगी।

सबै लाग काढ़ै तेहि बेगी।

हाथ झारि जस चलै जुआरी।

तजा राज होइ चला भिखारी।

जब लगि जीउ रतनसब कहा।

भा बिन जीउ न कौड़ी लहा।

पदमावती एवं नागमती के सती होने के समय का यह पद्य कितना मार्मिकहै-

2. सर रचि दान पुत्र बहु कीन्हा।

सात बार फिर भाँवर लीन्हा।

एक जो भाँवर भईं बियाही।

अब दुसरे होइ गोहन जाहीं।

जियत कंत तुम्ह हम्ह गल लाईं।

मुये कंठ नहिं छोड़हिं साईं।

लेइ सर ऊपर खाट बिछाई।

पौढ़ीं दुवौ कंत गल लाई।

और जो गाँठ कंत तुम जोरी।

आदि अंत लहि जाइ न छोरी।

छार उठाइ लीन्ह एक मूठी।

दीन्ह उड़ाइ पिरथवी झूठी।

यह जग काह जो अथइ न जाथी।

हम तुम नाह दोऊ जग साथी।

लागीं कंठ अंग दै होरी।

छार भईं जरि अंग न मोरी।

3. राती पिउ के नेह की , सरग भयउ रतनार।

जोरे उवा सो अथवा , रहा न कोइ संसार।

4. तुर्की , अरबी , हिन्दवी , भाखा जेती आहि।

जामें मारग प्रेम का , सबै सराहैं ताहि।

उनके कुछ ऐसे पद्यों को भी देखिए जिनमें उनकी सूफ़ियाना रंगत बड़ी सरसता के साथ प्रतिबिम्बित हो रही है-

5. आजु सूर दिन अथयेउ।

आजु रयनि ससि बूड़।

आजु नाथ जिउ दीजिये।

आजु अगिन हम जूड़।

6. उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा।

वेधि रहा सगरौ संसारा।

गगन नखत जो जाहिं न गने।

वैसब बान ओहि के हने।

धारती बान बेधि सब राखी।

साखी ठाढ़ देहिं सब साखी।

रोम रोम मानुस तनु ठाढ़े।

सूतहि सूत बेधा अस गाढ़े।

बरुनि बान अस ओपँह , बेधो रन बन ढाँख।

सौजहि तन सब रोऑं , पंखिहिं तन सब पाँख।

पुहुप सुगंधा करइ यहि आसा।

मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा।

7. पवन जाइ तहँ पहुँचइ चहा।

मारा तैस लोट भुँइ रहा।

अगिनि उठी जरि उठी नियाना।

धुवाँ उठा उठि बीच बिलाना।

पानि उठा उठि जाइ न छूआ।

बहुरा रोइ आइ भूईं चूआ।

8. करि सिंगार तापहं का जाऊं।

ओही देखहुँ ठावहिं ठाऊँ।

जौ पिउ महँ तो उहै पियारा।

तन मन सों नहिं होइ निनारा।

नैन माँह है उहै समाना।

देखहुँ तहाँ नाहिं कोउ आना।

9. देखि एक कौतुक हौं रहा।

रा ऍंतर पट पै नहिं रहा।

सरवर देख एक मैं सोई।

रहा पानि औ पानि न होई।

सरग आइ धारती महँ छावा।

रहा धारति पै धारति न आवा।

पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने इन प्रेम मार्गी सूफी कवियों और मलिक मुहम्मद जायसी के विषय में जो कुछ लिखा है वह अवलोकनीय है। इसलिए मैं यहाँ उसको भी उद्धृत कर देता हूँ-

“कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया, वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिध्द हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो रागात्मक सम्बन्धा है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदय-साम्य का अनुभव मनुष्य कभी-कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतुबन, जायसी आदि इन प्रेम-कहानी के कवियों ने प्रेम का शुध्द मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन-दशाओं को सामने रक्खा, जिनका मनुष्य मात्रा के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटाने वालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिन्दुओं की कहानियाँ हिन्दुओं ही की बोली पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्म-स्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।”1

1. देखिए, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 103, 104

अब मैं इन प्रेम-मार्गी सूफी कवियों की भाषा पर कुछ विचार करना चाहता हूँ। प्रेममार्गी कवि लगभग सभी मुसलमान और पूर्व के रहने वाले थे। इसलिए इनके ग्रन्थों की भाषा पूर्वी अथवा अवधी है। किन्तु यह देखा जाता है कि वे कभी-कभी ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग भी कर जाते हैं। कारण यह है कि अवधी जहाँ ब्रजभाषा से मिलती है, वहाँ वह उससे बहुत कुछ प्रभावित है। दूसरी बात यह कि अवधी अर्ध्द मागधी ही का रूपान्तर है और अर्ध्द मागधी पर शौरसेनी का बहुत कुछ प्रभाव है। शौरसेनी का ही रूपान्तर ब्रजभाषा है। इसलिए इटावा इत्यादि के पास जहाँ अवधी ब्रजभाषा से मिलती है वहाँ की अवधी यदि ब्रजभाषा से प्रभावित हो तो यह स्वाभाविक है और उन स्थानों के निवासी यदि इस प्रकार की भाषा में रचना करें, तो यह बात लक्ष्य योग्य नहीं। परन्तु देखा तो यह जाता है कि पूर्व प्रान्त के रहने वाले कवि भी अपनी अवधी की रचनाओं में ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं। मेरी समझ में इसका कारण यही है कि अवधी और ब्रजभाषा का घनिष्ठ सम्बन्धा है। अधिकांश कवियों को यह ज्ञात भी नहीं होता कि वे किस भाषा के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं और अज्ञातावस्था में एक भाषा के शब्दों का प्रयोग दूसरी भाषा में कर देते हैं। वे अधिक पठित नहीं थे, इसलिए अपने आस-पास की बोलचाल की भाषा में ही रचना करते थे, परन्तु अपने निकटवर्ती प्रान्त के लोगों का कुछ संसर्ग उनका रहता ही था इसलिए उनकी बोलचाल की भाषा का प्रभाव कुछ-न-कुछ पड़ ही जाता था। संकीर्ण स्थलों पर कवि को समुचित शब्द विन्यास के लिए जिस उधोड़बुन में पड़ना होता है वह अविदित नहीं। ऐसी अवस्था में अन्य भाषाओं के कुछ शब्द उपयुक्त स्थलों पर कवियों की भाषा में आये बिना नहीं रहते। जिस समय प्रेममार्गी कवियों ने अपनी रचना प्रारम्भ की थी, उस समय कुछ धार्मिक रुचि, कुछ संस्कृत के विद्वानों के संसर्ग आदि से संस्कृत तत्सम शब्द भी हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इस कारण इन कवियों की रचनाओं में संस्कृत के तत्सम शब्द भी पाये जाते हैं। इन प्रेममार्गी कवियों में प्रधान मलिक मुहम्मद जायसी हैं। अतएव मैं उन्हीं की रचना को लेकर यह देखना चाहता हूँ कि वे किस प्रकार की हैं। आवश्यकता होने पर अन्य कवियों की रचनाओं पर भी दृष्टि डालने का उद्योग करूँगा। पदमावत के जिन पद्यों को मैंने ऊपर उद्धृत किया है, उन्हें देखिए। मैं पहले लिख आया हूँ कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों अधिकतर तद्भव शब्दों में लिखी जाती हैं। उनके पद्यों में यह बात स्पष्ट दिखाई देती है। तत्सम शब्द उनमें ‘काल’, ‘दान’, ‘बहु’, ‘आदि’, ‘संसार’, ‘प्रेम’, ‘नाथ’, ‘सूर’ इत्यादि हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय संस्कृत के तत्सम शब्द हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। मैं यह भी बतला आया हूँ कि इन दोनों भाषाओं में पंचम वर्ण अनुस्वार के रूप में लिखे जाते हैं; कंत, कंठ, अंत और अंग इस बात के प्रमाण हैं। इन दोनों भाषाओं का नियम भी यह है कि इनमें संयुक्त वर्ण सस्वर हो जाते हैं, ‘अरथ’, ‘अगिन’, ‘सरग’, ‘मारग’, ‘रतन’ आदि में ऐसा ही हुआ है। यह भी नियम मैं ऊपर बतला आया हूँ कि इन दोनों भाषाओं में शकार का सकार और णकार का नकार और क्षकार का छकार हो जाता है। ‘दसा’ और’ससि’ का ‘स’, ‘पुन्न’, का ‘न’ और ‘छार’ का ‘छ’ ऐसे ही परिवर्तन हैं। इन दोनों भाषाओं का यह नियम भी है कि प्रथमा,द्वितीया, षष्ठी, सप्तमी के कारक चिद्द प्राय: लोप होते रहते हैं। इन पद्यों में भी यह बात पाई जाती है। ‘आज सूर दिन अथयो’, ‘आज रयनि ससि बूड़’, ‘और रहा न कोई संसार’ में सप्तमी विभक्ति लुप्त है। ‘दिन में’ या दिन महँ, ‘रयनि में’ या ‘रयनि महँ’और ‘संसार में’ या ‘संसार महँ’ होना चाहिए था। ‘हम गल लायो’ में द्वितीया का ‘को’, लागी कंठ में तृतीया का ‘से’ सा सों नदारद हैं। ‘गगन नखत जो जाहिं न गने’ और ‘रोम रोम ‘मानुस तनु’ ठाढ़े, में षष्ठी विभक्ति का लोप है, ‘गगन नखत’ और मानुस तनु के बीच में सम्बन्धा-चिद्द की आवश्यकता है। ‘काल आइ दिखराई सांटी’, ‘जियत कंत तुम हम गल लायों’ इन दोनों पद्यों में प्रथमा विभक्ति नहीं आई है। ‘काल’ और ‘तुम’ के साथ ‘ने’ का प्रयोग होना चाहिए था। सच्ची बात यह है कि और विभक्तियाँ तो आती भी हैं, परन्तु प्रथमा की ‘ने’ विभक्ति अवधी में आती ही नहीं। Ðस्व का दीर्घ और दीर्घ का Ðस्व होना दोनों भाषाओं का गुण है। उपरिलिखित पद्यों में, ‘बारू’, ‘संसारू’, ‘आना’, ‘संसारा’, ‘ठाऊँ Ðस्व से दीर्घ हो गये हैं और अंतरपट’,धारति ‘बरुनि’, ‘पानि’, ‘सिंगार’, आदि दीर्घ से Ðस्व बन गये हैं। इन पद्यों में जो प्राकृत भाषा के शब्द आये हैं वे भी धयान देने योग्य हैं जैसे ‘नाह’, ‘तुम्ह’, ‘हम्ह’, ‘पुहुप’, ‘मुक’ इत्यादि। इनमें अवधी की जो विशेषताएँ हैं उनको भी देखिए, ‘पियारा’, ‘बियाही’ ठेठ अवधी भाषा के प्रयोग हैं। ब्रजभाषा में इनका रूप ‘प्यारा’ और ‘ब्याही’ होगा। ‘काकर’, ‘ओही’, ‘जिउ’, ‘आपन’, ‘जस’, ‘होइ’, ‘हुत’, ‘गर’, ‘जाइ’, ‘लेई’, ‘देइ’, ‘पिउ’, ‘उवा’, ‘अथवा’, ‘उठाई’, ‘उड़ाइ’, ‘उहै’, ‘भुइँ’, ‘बहुरा’, ‘रोइ’, ‘आइ’, ‘उन्ह’, ‘बानन्ह’, ‘अस’, ‘रोऍं रोऍं’, ‘ओपहँ’, ‘हिरकाइ’ इत्यादि भी ऐसे शब्द हैं जिनमें अवधी अपने मुख्य रूप में पाई जाती है। जायसी ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली के शब्दों का भी प्रयोग किया है, कहीं वे कुछ परिवर्तित हैं और कहीं अपने असली रूप में मिलते हैं-


बेधि रहा सगरौ संसारा।

भादौं बिरह भयउ अति भारी।

औ किंगरी कर गहेउ बियोगी।

तेइ मोहि पिय मो सौं हरा।

लागेउ माघ परै अब पाला।

ऐस जानि मन गरब न होई।

‘सगरौ’ ब्रजभाषा का स्पष्ट प्रयोग है। ‘सकल’ से ‘सगर’ पद बनता है। प्राकृत नियम के अनुसार ‘क’ का ‘ग’ हो जाता है और ब्रजभाषा और अवधी के नियमानुसार ‘ल’ का ‘र’। इसलिए अवधी में उसका पुल्लिंग रूप ‘सगर’ होगा और स्त्राीलिंग रूप ‘सगरी’। एक स्थान पर जायसी लिखते भी हैं-”भई अहा सगरी दुनियाई।” इसलिए ‘सगरौ’ रूप जब होगा तब ब्रजभाषा ही में होगा। उसके नीचे की चौपाइयों में ‘भयउ’ और ‘गहेउ’ पद आया है। ये दोनों शब्द भी ब्रजभाषा के ‘भयो’ और ‘गह्यो’ शब्दों के रूपान्तर हैं। ‘तेहि मोहि पिय मो सौं हरा’ इस पद्य में दो शब्द ब्रजभाषा के हैं एक ‘पिय’ और दूसरा ‘सौं’। ‘पिय’ शब्द ब्रजभाषा का और ‘पिउ’ शब्द अवधी का है। पदमावत में वैसे ही दोनों का प्रयोग देखा जाता है जैसे ‘प्रेम’ शब्द को जायसी अपनी रचना में ‘प्रेम’ भी लिखते हैं और ‘पेम’ भी, देखिए-‘किरिन करा भा प्रेम ऍंकूरू’ और ‘पेम सुनत मन भूल न राजा’। ‘सौं’शब्द भी ब्रजभाषा से ही अवधी में आया है। विद्वानों ने इस सौं को पश्चिमी अवधी के ‘कारण’ का चिद्द माना है। पश्चिमी अवधी ब्रजभाषा से प्रभावित है इसलिए उसमें यह सौं शब्द पाया जाता है। ठेठ अवधी के ‘करण’ का चिद्द है ‘से’ और’सन’। ‘लागेउ माघ परै अब पाला’ में ‘लागेउ’ का अवधी रूप होगा ‘लागा’। यह ‘लागेउ’ ब्रजभाषा के लाग्यो का ही रूपान्तर है।’ऐस जानि मन गरब न होई’ ब्रजभाषा का ‘ऐसो’, ‘जैसो’, ‘तैसो’ अवधी में ‘अस’, ‘जस’, ‘तस’ लिखा जाता है। वास्तव में ‘ऐस’अवधी शब्द नहीं है। यह ब्रजभाषा से ही उसमें आया है और ‘ऐसो’ की एक मात्रा कम करके बना लिया गया है। इस शब्द का प्रयोग ‘ऐस’, ‘ऐसे’ आदि के रूप में पदमावत में बहुत अधिक पाया जाता है और ऐसे ही ‘कैसो’, जैसो, तैसो के स्थान पर कैस, जैस, तैस इत्यादि भी। कुछ विद्वानों की सम्मति है कि ऐस, कैस, जैस, तैस आदि भी अवधी ही के रूप हैं, किन्तु मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। सच बात यह है कि ब्रजभाषा के बहुत से शब्द अवधी में पाये जाते हैं, जिनका प्रयोग इन प्रेम-मार्गी कवियों ने स्वतन्त्राता से किया है।

पदमावत में ब्रजभाषा शब्दों के अतिरिक्त अन्य प्रान्तिक भाषाओं के कुछ शब्द भी मिलते हैं। ‘स्यों’ बुंदेलखंडी है और हिन्दी के ‘सह’और से के स्थान पर लिखा जाता है। कविवर केशवदास ने इसका प्रयोग किया है। देखिए-‘अलिस्यों सरसीरुह राजत है।’

जायसी को भी इस शब्द का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे “रुण्ड मुण्ड अब टुटहिं स्यों बख्तर और कूँड”, ‘बिरिछ उपारि पेड़ि स्यों लेई’। बंगला में ‘आछे’ ‘है’ के अर्थ में आता है। इस शब्द का प्रयोग जायसी को भी करते देखा जाता है। जैसे, ‘कवँल न आछे आपनि बारी’, ‘का निचिंत रे मानुष आपनि चीते आछु’। वे अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी इच्छानुसार करते देखे जाते हैं। कुछ ऐसे पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

अबूबकर सिद्दीक ‘ सयाने।

पहले सिदिकष् दीन ओइ आने।

पुनि सो उमर ख़िताब सुहाये।

भा जग अदल दीन जो आये।

सेरसाह देहली सुलतानू A

चारो खण्ड तपै जस भानू।

तहँ लगि राज खरग करि लीन्हा।

इसकंद j जुलकरन जो कीन्हा।

नौसेरवा ¡ जो आदिल कहा।

साहि अदल सरि सोउ न अहा।

जिन शब्दों के नीचे रेखा खींची गई है वे फ़ारसी और अरबी के दुर्बोधा शब्द हैं। एक स्थान पर तो उन्होंने फ़ारसी के’सरतापा’ को अपनी कविता में पूरी तरह खपा दिया है, देखिए-

केस मेघावरि सिर ता पाई A

उनको सर्वसाधारण में अप्रचलित संस्कृत भाषा के तत्सम शब्दों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यों के काले शब्दों को देखिए। ‘सवै नास्ति वह अहथिर ऐस साज जेहि केर’, ‘बेनी छोरि झार जो बारा’, ‘बेधो जनौ मलैगिरि बासा’, ‘चढ़ा असाढ़ गगन घनगाजा’, ‘जनु घन महं दामिनी परगसी’ ‘का सरवर तेहि देहिं मयंकू’, ‘कनकपाट जनु बैठा राजा’, ‘मान सरोदक उलथहिं दोऊ’ ‘उठहिं तुरंग लेहि नहिं बागा’, ‘अधारसुरंग अमी रस भरे’, ‘हीरा लेइ सोविद्रुम धारा’, ‘केहि कहँ कँवल बिगासा, कोमधुकर रस लेइ’, ‘रसना कहौं जो कह रस बाता’, ‘क्षुद्र घंटिका मोहहि राजा’ ‘नाभिकुंड सो मलय समीरू’, ‘पन्नग पंकजमुख गहे खंजन तहाँ बईठ’।

वे ऐसे शब्दों का व्यवहार भी करते हैं जिनका व्यवहार न तो किसी ग्रन्थ में देखा जाता है, न वे जनता की बोलचाल में गृहीत हैं। ऐसे शब्द या तो कविता-गत संकीर्णता के कारण, वे स्वयं गढ़ लेते हैं, या अनुप्रास का झमेला उन्हें ऐसा करने के लिए विवश करता है। अथवा इस प्रकार की तोड़-मरोड़ एवं उच्छृंखलता को वे अनुचित नहीं समझते। नीचे के पद्यों के वे शब्द इसके प्रमाण हैं, जिन पर चिद्द बना दिये गये हैं-

कीन्हेसि राकस भूत परीता ]

कीन्हेसि भोकस देव दईता A

औ तेहि प्रीति सिहिटि उपराजी

बह अयगाह दीन्ह तेहि हाथी A

उहै धानुस किरसुन पहँ अहा।

बेग आइ पिय बाजहु गाजहु होइ सदूर A

जोबन जनम करै भसमंतू A

कैसे जिये बिछोही पखी A

तन तिनउर भा डोल।

बिरिधा खाई नव जोबन सौ तिरिया सों ऊड़ A

रिकवँछ कीन नाइ कै हींग मरिच औ आद A

बतलाइए, ‘प्रेत’ के स्थान पर ‘परीत’, ‘दैत्य’ के स्थान पर ‘दईत’, ‘सृष्टि’ के स्थान पर ‘सिहिटि’, ‘हाथ’ के स्थान पर’हाथी’, ‘कृष्ण’ के स्थान पर ‘किरसुन’, ‘शार्दूल’ के स्थान पर सदूर, ‘भस्म’ के स्थान पर ‘भसमंतू’, ‘पंखी’ के स्थान पर ‘पखी’, ‘तिनका’ के स्थान पर तिनउर, उड़ा के स्थान पर ऊड और आदी के स्थान पर ‘आद’ लिखना कहाँ तक संगत है, आप लोग स्वयं इसको विचार सकते हैं। इस प्रकार के प्रयोगों का अनुमोदन किसी प्रकार नहीं किया जा सकता। उनको चारणों के ढंग पर भी कुछ शब्दों का व्यवहार करते देखा जाता है, जिनमें राजस्थानी की रंगत पाई जाती है। नीचे कुछ पद्य ऐसे लिखे जाते हैं,जिनमें इस प्रकार के शब्द व्यवहृत हैं। शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं-

दीन्ह रतन बिधि चारि नैन बैन सर्वन्नमुख

गंग जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ।

हँसत दसन अस चमके पाहन उठे छरक्कि

दारिउं सरि जोन कैसका , फाटयो हिया दरक्कि A

‘ सुक्ख सुहेला उग्गवै दु:ख झरै जिमि मेंह। ‘

‘ बीस सहस घुम्मरहिं निसाना। ‘

जौ लगि सधौ न तप्पु ] करै जो सीस कलप्पु। ‘

ग्रामीणता के दोष से तो इनका ग्रन्थ भरा पड़ा है। इन्होंने इतने ठेठ ग्रामीण शब्दों का प्रयोग किया है जो किसी प्रकार बोधा सुलभ नहीं। ग्रामीण शब्दों का प्रयोग इसलिए सदोष माना गया है कि उनमें न तो व्यापकता होती है और न वे उतना उपयोगी होते हैं जितना कविता की भाषा के लिए उन्हें होना चाहिए, देखा जाता है, मलिक मुहम्मद जायसी ने इसका विचार बहुत कम किया है। कहीं-कहीं उनकी भाषा बहुत गँवारी हो गयी है जो उनके पद्यों में अरुचि उत्पन्न करने का कारण होती है। नीचे लिखे पद्यों के चिद्दित शब्दों को देखिए-

‘ मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा। ‘

‘ हिलगि मकोय न फारहु कंथा। ‘

‘ दीठि दवँगरा मेरवहु एका। ‘

‘ औ भिउं जस दुरजोधान मारा। ‘

‘ अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधो। ‘

‘ तन तन बिरह न उपनै सोई। ‘

‘ जौ देखा तीवइ है साँसा। ‘

‘ घिरित परेहि रहा तस हाथ पहुँच लगि बूड़। ‘

मैंने इनकी कविता की भाषा पर विशेष प्रकाश इसलिए डाला है कि जिससे उसके विषय में उचित मीमांसा हो सके। कहा जाता है कि ग्रंथ की भाषा ठेठ अवधी है। परन्तु जितने प्रमाण मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूँ उनसे स्पष्ट है कि उसमें अन्य भाषाओं और बोलियों के अतिरिक्त अधिकतर संस्कृत के तत्सम शब्द भी सम्मिलित हैं, जो ठेठ अवधी में कभी व्यवहृत नहीं हुए, ऐसी अवस्था में उसे हम ठेठ अवधी में लिखा गया स्वीकार नहीं कर सकते। हाँ, यह कहना संगत होगा कि पदमावत की मुख्य भाषा अवधी है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि पदमावत के रचयिता ने पहिले पहिल अवधी भाषा लिखने में यह सफलता प्राप्त की, जिसको उनके पूर्ववर्ती कवि कुतुबन और मंझन आदि नहीं प्राप्त कर सके थे। अब तक प्रेम-मार्गी कवियों के जितने ग्रन्थ हिन्दी संसार के सामने आये हैं, उनके आधार से यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि अवधी भाषा का प्रथम कवि होने का सेहरा कुतुबन के सिर है। मैं पहले लिख आया हूँ कि प्रान्तिक भाषा में रचना करने का सूत्रापात मैथिल-कोकिल विद्यापति ने किया। उनके दिखाये मार्ग पर चलकर अवधी में कविता करने वाला पहला पुरुष कुतुबन है। उसकी रचना और उसके बाद की मंझन की कविता पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि अवधी भाषा में कविता करने का जो मार्ग इन लोगों ने ग्रहण किया था, उसी मार्ग पर मलिक मुहम्मद जायसी भी चले, किन्तु प्रतिभा और भावुकता में उनका स्थान इन लोगों से बहुत ऊँचा है। जिस उच्च कोटि का कवि-कर्म्म पदमावत में दृष्टिगत होता है, उन लोगों के ग्रन्थ में नहीं। उन लोगों की रचनाओं में वह कमी पायी जाती है जो आदिम कृतियों में देखी जाती है। उन लोगों को यदि मार्ग-प्रदर्शन करने का गौरव प्राप्त है तो पदमावत के कवि को उसे पुष्टता प्रदान करने का। यह बात देखी जाती है कि हिन्दी भाषा में हिन्दू जाति की प्रेम-कथाओं को अंकित करने में प्रेम-मार्गी सूफ़ी कवियों ने जैसे हिन्दू भावों को सुरक्षित रखने की चेष्टा की है, वैसे ही मुख्य भाषा को हिन्दी रखने का भी उद्योग किया है और इसी मनोवृत्तिा के कारण उन्होंने आवश्यकतानुसार संस्कृत शब्दों को भी ग्रहण किया। उस समय उर्दू भाषा का जन्म भी नहीं हुआ था। इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में थोड़े से आवश्यक फ़ारसी अरबी शब्दों को ही स्थान दिया, जिससे हिन्दी भाषा का मुख्य रूप से व्याघात नहीं हुआ। जो आधार इस प्रकार पहले निश्चित हुआ था, उसके सबसे प्रभावशाली प्रवर्तक मलिक मुहम्मद जायसी हैं। उनके बाद भी प्रेमकथाएँ अवधी भाषा में लिखी गईं। परन्तु कोई उस उच्च पद को नहीं प्राप्त कर सका जिस पर मलिक मुहम्मद जायसी अब तक आसीन हैं। मैंने ऊपर लिखा है कि जायसी की भाषा कई कारणों से सदोष हो गयी है और उनकी भाषा में ग्रामीण्ता दोष भी प्रवेश कर गया है। परन्तु अवधी भाषा पर उनका जो अधिकार दृष्टिगत होता है और उन्होंने जिस उत्तामता से इस भाषा में रचना करने में योग्यता दिखलाई है, वे उनके उक्त दोषों और त्राुटियों को पूरा प्रतिकार कर देती है। जायसी की भावव्य×जना, मार्मिकता और कवि-सुलभप्रतिभा उल्लेखनीय है। उनकी रचना में हिन्दू भाव की मर्मज्ञता, हिन्दू पुराणों और शास्त्राों से सम्बन्धा रखने वाले विषयों की अभिज्ञता जैसी दृष्टिगत होती है, वह विलक्षण और प्रशंसनीय है। उन्होंने जिस सहानुभूति और निरपेक्षता के साथ हिन्दू-जीवन के रहस्यों का चित्राण किया है और वर्णनीय विषय के अन्तस्तल में प्रवेश करके जैसी सहृदयता दिखलायी है,उसके लिए उनकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। उनकी रहस्यवाद-चित्राण-प्रणाली, वर्णन-शैली उनका निरीक्षण और उनकी कवि कर्म्म कुशलता हिन्दी संसार के लिए गौरव की वस्तु है। मैं समझता हूँ, हिन्दी भाषा जब तक जीवित रहेगी तब तक उसके साहित्य-भण्डार का एक रत्न ‘पदमावत’ भी रहेगा।

मलिक मुहम्मद जायसी के सम्बन्धा में डॉक्टर ग्रियर्सन की यह सम्मति है1&

“वे (मलिक मुहम्मद जायसी) पदमावत के रचयिता थे, जो, मेरी समझ में, मौलिक विषय पर गौड़ी भाषा में लिखी हुई पहली ही नहीं प्राय: एकमात्रा कविता पुस्तक है। मैं नहीं जानता कि कोई अन्य ग्रन्थ भी ऐसा होगा जो पदमावत की अपेक्षा अधिक परिश्रमपूर्ण अधययन का पात्रा हो। निस्सन्देह परिश्रमपूर्ण अधययन इसके लिए आवश्यक है क्योंकि साधारण विद्यार्थी के लिए इस पुस्तक की एक पंक्ति का भी कठिनाई से ही बोधागम्य होना सम्भव है, क्योंकि यह जनता की ठेठ भाषा में लिखी गयी है। परन्तु काव्यसौन्दर्य और मौलिकता दोनों के उद्देश्य से इस पुस्तक के अधययन में जितना भी परिश्रम किया जाय,उचित है।

मलिक मुहम्मद जायसी के बाद की भी रचनाएँ प्रेम-मार्गी कवियों की मिलती हैं और यह परम्परा अठारहवीं शताब्दी तक चलती देखी है। परन्तु मलिक मुहम्मद जायसी के समान कोई दूसरा कवि प्रेममार्गी कवियों में नहीं उत्पन्न हुआ, इन कवियों

1. “He was the author of the Padmavat (Rag) which is, I believe, the first poem and almost the only one written in a Gaudian vernacular on an original subject. I do not know more deserving of hard study than the Padmavat. It certainly reuqires it, for scarcely a line is inteilligible to the ordirary scholar, it being couched in the veriest language of the people. But it is well worth any amount, both for its originality and for its poetical beauty.”

में ‘उसमान’ सत्राहवीं शताब्दी में और नूर मुहम्मद एवं निसार अठारहवीं में हुए हैं, जिनकी रचनाएँ प्राप्त हुई हैं। सत्राहवीं शताब्दी में शेख नबी और अठारहवीं शताब्दी में क़ासिम शाह और फ़ाजिलशाह भी हुए। इन लोगों ने भी अवधी भाषा में प्रेम मार्गी कवियों की प्रणाली ग्रहण कर रचनाएँ की हैं, किन्तु उनमें कोई विशेषता नहीं है और वे रचनाएँ मुझे हस्तगत भी नहीं हुईं।” इसलिए इनके विषय में विशेष कुछ नहीं लिखा जा सकता है। उसमान ‘चित्रावली’ नामक ग्रन्थ का रचयिता है। इसकी रचना का कुछ अंश नीचे उद्धृत किया जाता है-

“ सरवर ढूँढ़ि सबै पचि रहीं।

चित्रिानि खोज न पावा कहीं

निकसी तीर भईं वैरागी।

धारे धयान सब बिनवै लागीं।

गुपुत तोहि पावहिं का जानी।

परगट महँ जो रहै छपानी।

चतुरानन पढ़ि चारौ वेदू।

रहा खोजि पै पाव न भेदू।

हम अंधी जेहि आपु न सूझा।

भेद तुम्हार कहाँ लौं बूझा।

कौन सो ठाँउँ जहाँ तुम नाहीं।

हम चख जोति न देखहिं काही।

पावै खोज तुम्हार सो , जेहि दिखरावहु पंथ।

कहा होइ जोगी भये , ओ बहु पढे ग़रंथ। “

नूर मुहम्मद ने ‘इन्द्रावती’ नामक ग्रंथ की रचना की है। कुछ उनकी रचना का नमूना भी देखिए-

मन दृग सों इक राति मँझारा।

सूझि परा मोहिं सब संसारा।

देखेउँ नीक एक फुलवारी।

देखेउँ तहाँ पुरुष औ नारी।

दोउ मुख सोना बरनि न जाई।

चंद सुरुज उतरे भुइँ आई।

तपी एक देखेउँ तेहि ठाँऊँ।

पूछेउँ तासों तिनकर नाऊँ।

कहाँ अहैं राजा और रानी।

इन्द्रावती औ कुंवर गियानी।

निसार ने ‘मसनवी यूसुफ़-जुलेखा’ नामक ग्रंथ लिखा है। उसकी कुछ पंक्तियाँ ये हैं-

ऋतु बसंत आये बन फूला।

जोगी जती देखि रँग भूला।

पूरन काम कमान चढ़ावा।

बिरही हिये बान अस लावा।

फूलहिं फूल सुखी गुंजारहिं।

लागे आग अनार के डारहिं।

कुसुम केतकी मालति बासा।

भूले भँवर फिरइँ चहुँ पासा।

मैं का करउँ कहाँ अब जाँऊँ।

मों कहँ नाहिं जगत महँ ठाँऊ।

टेसू फूल तो कीन उँजेरा।

लागे आग जरैं चहुँ ओरा।

तैसे धान बाउर भई , बौरे आम लतान।

मैं बौरी दौरी फिरउँ , सुनि कोयल कै तान।

इस कवि का एक छन्द भी देखिए-

ऋतु असाढ़ घन घेर आयो लाग चमकै दामिनी।

ऋतु सुहावन देखि मन महँ हरष बाढ़ै भामिनी।

ऋतु घमंड सों मेघ धाये दिवस में जस जामिनी।

रैनि दिन करुना करैं घर में अकेली कामिनी।

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