जो रचनाएँ मैंने ऊपर उद्धृत की हैं उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि प्रेम-मार्गी सभी कवियों ने अवधी भाषा में लिखने की चेष्टा की है और अधिकतर अपनी परम्परा को सुरक्षित रखा है। सबकी भाषा ‘पदमावत’ का अनुकरण करती है और उस ग्रन्थ की अन्य प्रणाली भी इन रचनाओं में गृहीत मिलती है। रहस्यवाद और सूफी सम्प्रदाय के विचार भी सब रचनाओं में ही कुछ न कुछ दृष्टिगत होते हैं। इसलिए इस निश्चय पर पहुँचना पड़ता है कि मुहम्मद जायसी के परवर्ती कवियों ने कोई नई उद्भावना नहीं की और न अपनी रचनाओं में कोई ऐसी विशेषताएँ दिखलायीं, जिससे साहित्य में उनका विशेष स्थान होता। हाँ,यह अवश्य है कि निसार और फ़ाजिल शाह ने अपने ग्रन्थों के लिए स्वधार्मी पात्रों को चुना। निसार ने यदि यूसुफ़-जुलेखा की कहानी लिखी है तो फ़ाजिल शाह ने नूरशाह और मेहर-मुनीर की। परन्तु इसने अपने ग्रन्थ का हिन्दी नामकरण ही किया है, अर्थात् अपने ग्रन्थ का नाम ‘प्रेम-रतन’ रखा है।
परवर्ती कवियों की भाषा मुहम्मद जायसी की भाषा से कुछ प्रा×जल अवश्य है और उनकी रचनाओं में संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी अधिक देखा जाता है। परन्तु जो प्रवाह जायसी की रचना में मिलता है, इन लोगों की रचनाओं में नहीं। अवधी भाषा की जो सादगी, सरसता और स्वाभाविकता उनकी कविता में मिलती है, इन लोगों की कविता में नहीं। यह मैं कहूँगा कि परवर्ती कवियों की रचनाओं में गँवारी शब्दों की न्यूनता है किन्तु उनका कुछ झुकाव ब्रजभाषा की प्रणाली और खड़ी बोली के वाक्य-विन्यास और शब्दों की ओर अधिक पाया जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि वह उद्योग करके अपनी भाषा को अवधी बनाना चाहते हैं। उनकी लेखनी स्वत: उसकी ओर प्रवृत्ता नहीं होती, अनुकरण में जो कमी और अवास्तवता होती है, वह उनमें पाई जाती है। फिर भी यह स्वीकार करना पडेग़ा कि उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दू भावों की ओर अपना अनुराग प्रकट किया है और यथाशक्ति अपने यत्न में सफलता लाभ करने की चेष्टा भी की है।
मैंने मलिक मुहम्मद जायसी के परवर्ती कवियों की चर्चा यहाँ इसलिए कर दी है कि जिससे यह ज्ञात हो सके कि प्रेम-मार्गी कवियों की कविता-धारा कहाँ तक आगे बढ़ी और किस अवस्था में। इनकी चर्चा सत्राहवीं और अठारहवीं शताब्दी के अन्य कवियों के साथ की जा सकती थी किन्तु ऐसा करना यथास्थान न होता, इसलिए यहाँ पर ही जो कुछ उनके विषय में ज्ञातव्य बातें थीं, लिख दी गईं।
यहाँ पर यह प्रकट कर देना भी आवश्यक है कि इसी काल में कुछ और प्रेम-कहानियाँ भी हिन्दुओं द्वारा लिखी गईं। इनमें से लक्ष्मणसेन की बनाई ‘पदमावती’ की कथा ही उल्लेख योग्य है। उसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। पौराणिक कथाओं के आधार से कुछ अन्य रचनाएँ भी हुई हैं, जैसे ढोलामारू की चउपद्दी इत्यादि परन्तु उनमें अधिकतर पौराणिक प्रणाली ही का अनुकरण किया गया है और कहानी कहने की प्रवृत्तिा ही पाई जाती है। इसलिए उनमें वह विशेषता उपलब्धा नहीं होती जो उनका उल्लेख विशेष रीति से किया जाय। अतएव उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।
(5)
सोलहवीं शताब्दी में ही हिन्दी-संसार के सामने साहित्य गगन के उन उज्ज्वलतम तीन तारों का उदय हुआ, जिनकी ज्योति से वह आज तक ज्योतिर्मान है। उनके विषय में चिरप्रचलित सर्वसम्मति यह है-
सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसव दास।
अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करत प्रकास।
काव्य करैया तीन हैं , तुलसी केशव सूर।
कविता खेती इन लुनी , सीला बिनत मजूर।
यह सम्मति कहाँ तक मान्य है, इस विषय में मैं विशेष तर्क-वितर्क नहीं करना चाहता। परन्तु यह मैं अवश्य कहूँगा कि इस प्रकार के सर्वसाधारण के विचार उपेक्षा-योग्य नहीं होते, वे किसी आधार पर होते हैं। इसलिए उनमें तथ्य होता है और उनकी बहुमूल्यता प्राय: असंदिग्धा होती हैं। इन तीनों साहित्य-महारथियों में किसका क्या पद और स्थान है, इस बात को उनका वह प्रभाव ही बतला रहा है जो हिन्दी संसार में व्यापक होकर विद्यमान है। मैं इन तीनों महाकवियों के विषय में जो सम्मति रखता हूँ उसे मेरा वक्तव्य ही प्रकट करेगा, जिसे मैं इनके सम्बन्धा में यथास्थान लिखूँगा। इन तीनों महान् साहित्यकारों में काल की दृष्टि से सूरदास जी का प्रथम स्थान है, तुलसीदास जी का द्वितीय और केशवदास जी का तृतीय। इसलिए इसी क्रम से मैं आगे बढ़ता हूँ।
कविवर सूरदास ब्रजभाषा के प्रथम आचार्य हैं। उन्होंने ही ब्रजभाषा का वह शृंगार किया जैसा शृंगार आज तक अन्य कोई कवि अथवा महाकवि नहीं कर सका। मेरा विचार है कि कविवर सूरदास जी का यह पद हिन्दी-संसार के लिए आदिम और अंतिम दोनों है। हिन्दी भाषा की वर्तमान प्रगति यह बतला रही है कि ब्रजभाषा के जिस उच्चतम आसन पर वे आसीन हैं, सदा वे ही उस आसन पर विराजमान रहेंगे; समय अब उनका समकक्ष भी उत्पन्न न कर सकेगा। कहा जाता है, उनके पहले का’सेन’ नामक ब्रजभाषा का एक कवि है। हिन्दी संसार उससे एक प्रकार अपरिचित-सा है। उसका कोई ग्रन्थ भी नहीं बतलाया जाता। कालिदास ने औरंगजेब के समय में हज़ारा नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी। उसमें उन्होंने ‘सेन’ कवि का एक कवित्ता लिखा है, यह वह है।
जब ते गोपाल मधुबन को सिधारे आली ,
मधुबन भयो मधु दानव विषम सों।
सेन कहै सारिका सिखंडी खंजरीट सुक
मिलि कै कलेस कीनो कालिंदी कदम सों।
जामिनी वरन यह जामिनी मैं जाम जाम
बधिक की जुगुति जनावै टेरि तम सों।
देह करै करज करेजो लियो चाहति है ,
काग भई कोयल कगायो करै हमसों।
कविता अच्छी है, भाषा भी मँजी हुई है। परन्तु इस कवि का काल संदिग्धा है। मिश्र बन्धाुओं ने शिवसिंह सरोज के आधार से उसका काल सन् 1503 ई. बतलाया है। परन्तु वे ही इसको संदिग्धा बतलाते हैं। जो हो, यदि यह कविता कविवर सूरदास जी के पहले की मान भी ली जावे तो इससे उनके आदिम आचार्यत्व को बट्टा नहीं लगता। मेरा विचार है कि सूरदास जी के प्रथम ब्रजभाषा का कोई ऐसा प्रसिध्द कवि नहीं हुआ कि जिसकी कृति ब्रजभाषा कविता का साधारण आदर्श बन सके। दो चार कवित्ता लिखकर और छोटा-मोटा ग्रन्थ बनाकर कोई किसी महाकवि का मार्ग-दर्शक नहीं बन सकता। सूरदास जी से पहले कबीरदास, नामदेव, रविदास आदि सन्तों की बानियों का प्रचार हिन्दू संसार में कुछ न कुछ अवश्य था। संभव है कि ब्रजभाषा के ग्राम्य गीत भी उस समय कुछ अपनी सत्ता रखते हों। परन्तु वे उल्लेख योग्य नहीं। मैं सोचता हूँ कि सूरदास जी की रचनाएँ अपनी स्वतंत्रा सत्ता रखती हैं और वे किसी अन्य की कृति से उतनी प्रभावित नहीं हैं जो वे उनका आधार बन सकें। खुसरो की कविताओं में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ मिली हैं और ये रचनाएँ भी थोड़ी नहीं है। यदि उनकी रचनाओं का आधार हम ब्रजभाषा की किसी प्राचीन रचना को मान सकते हैं तो सूरदास जी की रचनाओं का आधार किसी प्राचीन रचना को क्यों न मानें? मानना चाहिए और मैं मानता हूँ। मेरा कथन इतना ही है कि सूरदास जी के पहले ब्रजभाषा की कोई ऐसी उल्लेख-योग्य रचना नहीं थी जो उनका आदर्शबनसके।
प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी अपना आदर्श आप थे। वे स्वयं-प्रकाश थे। ज्ञात होता है इसीलिए वे हिन्दी-संसार के सर्ूय्य कहे जाते हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य उनको सागर कहा करते थे। इसी आधार पर उनके विशाल ग्रन्थ का नाम सूर-सागर है। वास्तव में वे सागर थे और सागर के समान ही उत्तालतरंग-माला-संकुलित। उनमें गम्भीरता भी वैसी ही पायी जाती है। जैसा प्रवाह,माधुर्य, सौन्दर्य उनकी कृति में पाया जाता है अत्यन्त दुर्लभ है। वे भक्ति-मार्गी थे, अतएव प्रेम-मार्ग का जैसा त्यागमय आदर्श उनकी रचनाओं में दृष्टिगत होता है, वह अभूतपूर्व है। प्रेममार्गी सूफी सम्प्रदाय वालों ने प्रेम पंथ का अवलंबन कर जैसी रस-धारा बहाई उससे कहीं अधिक भावमय मर्मस्पर्शी और मुग्धाकारिणी प्रेम की धाराएँ सूरदास जी ने अथवा उनके उत्ताराधिकारियों ने बहाई हैं। यही कारण है कि वे धाराएँ अन्त में आकर इन्हीं धाराओं में लीन हो गईं। क्योंकि भक्ति मार्गी कृष्णावत सम्प्रदाय की धाराओं के समान व्यापकता उनको नहीं प्राप्त हो सकी। परोक्ष सत्ता सम्बन्धी कल्पनाएँ मधुर और हृदयग्राही हैं और उनमें चमत्कार भी है, किन्तु वे बोधा-सुलभ नहीं। इसके प्रतिकूल वे कल्पनाएँ बहुत ही बोधा-गम्य बनीं और अधिकतर सर्व साधारण् को अपनी ओर आकर्षित कर सकीं जो ऐसी सत्ता के सम्बन्धा में की गयीं, जो परोक्ष-सत्ता पर अवलम्बित होने पर भी संसार में अपरोक्षभाव से अलौकिक मूर्ति धारण कर उपस्थित हुईं। भगवान श्री कृष्ण क्या हैं? परोक्ष सत्ता ही की ऐसी अलौकिकतामयी मूर्ति हैं जिनमें ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ मूर्त होकर विराजमान है। सूफी मत के प्रेम मार्गियों की रचनाओं में यह बात दृष्टिगत हो चुकी है कि वे किसी नायक अथवा नायिका का रूप वर्णन करते-करते उसको परोक्ष-सत्ता ही की विभूति मान लेते हैं और फिर उसके विषय में ऐसी बातें कहने लगते हैं जो विश्व की आधारभूत परोक्ष सत्ता ही से सम्बन्धिात होती हैं। अनेक अवस्थाओं में उनका इस प्रकार का वर्णन बोधा-सुलभ नहीं होता। वरन एक प्रकार से सन्दिग्धा और जटिल बन जाता है। किन्तु भक्ति-मार्गी महात्माओं के वर्णन में यह न्यूनता नहीं पायी जाती। क्योंकि वे पहले ही से अपनी अपरोक्ष सत्ता को परोक्ष सत्ता का ही अंश-विशेष होने का संस्कार सर्व साधारण के हृदय में विविधा युक्तियों से अंकित करते रहते हैं। क्या किसी सूफी प्रेम-मार्गी कवि की रचनाओं में वह अलौकिक मुरली निनाद हुआ, वह लोक-विमुग्धाकर गान हुआ, उस सुरदुर्लभ शक्ति का विकास हुआ, उस शिव संकल्प का समुदय हुआ और उन अचिन्तनीय सत्य भावों का आविर्भाव हुआ जो महामहिम सूरदास जैसे महात्माओं की महान् रचनाओं के अवलम्बन हैं? और यही सब ऐसे प्रबलतम कारण हैं कि इन महापुरुषों की कृतियों का अधिकतर आदर हुआ और वे अधिकतर व्यापक बनीं। इन सफलताओं का आदिम श्रेय हिन्दी साहित्य में प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी ही को प्राप्त है।
मैं समझता हूँ, सूरदास जी का भक्ति-मार्ग और प्रेमपथ श्रीमद्भागवत के सिध्दान्तों पर अवलम्बित है और यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के सत्संग और उनकी गुरु-दीक्षा ही का फल है। सूरसागर श्रीमद्भागवत का ही अनुवाद है, परन्तु उसमें जो विशेषताएँ हैं वे सूरदास जी की निजी सम्पत्तिायाँ हैं। यह कहा जाता है कि उनकी प्रणाली ‘भक्तवर’ जयदेव जी के ‘गीत गोविन्द’एवं मैथिल कोकिल विद्यापति की रचनाओं से भी प्रभावित है। कुछ अंश में यह बात भी स्वीकार की जा सकती है, परन्तु सूरदास जी की-सी उदात्ता भक्ति-भावनाएँ इन महाकवियों की रचनाओं में कहाँ हैं? मैं यह मानूँगा कि सूरदास जी की अधिकतर रचनाएँ शृंगार रस-गर्भित हैं। परन्तु उनका विप्रलम्भ शृंगार ही, विशेषकर हृदय-ग्राही और मार्मिक है। कारण इसका यह है कि उस पर प्रेम-मार्ग की महत्ताओं की छाप लगी हुई है। यह सत्य है कि मैथिल कोकिल विद्यापति की विप्रलम्भ शृंगार की रचनाएँ भी बड़ी ही भावमयी हैं, परन्तु क्या उनमें उतनी ही हृदय-वेदनाओं की झलक है जितनी सूरदास जी की रचनाओं में?क्या वे उतनी ही अश्रु-धारा से सिक्त, उतनी ही मानसोन्मादिनी और उतनी ही मर्म्मस्पर्शिनी और हृदयवेधिनी हैं जितनी सूरदास जी की उक्तियाँ? क्या उनमें भी वैसा ही करुण क्रन्दन सुन पड़ता है जैसा सूरदास जी की विरागमयी वचनावली में? इन बातों के अतिरिक्त सूरदास जी की रचनाओं में और भी कई एक विशेषताएँ हैं। उनका बाललीला-वर्णन और बालभावों का चित्राण इतना सुन्दर और स्वाभाविक है कि हिन्दी-साहित्य को उसका गर्व है। कुछ लोगों की सम्मति है कि संसार के साहित्य में ऐसे अपूर्व बालभावों के चित्राण का अभाव है। मैं इस पर अपनी ठीक सम्मति प्रकट करने में असमर्थ हूँ, परन्तु यह अधिकार के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा में ऐसा वर्णन तो है ही नहीं, परन्तु भारतीय अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी वैसा अपूर्व वर्णन उपलब्धा नहीं होता। उनकी विनय और प्रार्थना सम्बन्धी रचनाएँ भी आदर्श हैं और आगे चलकर परवर्ती कवियों के लिए उन्होंने मार्ग-प्रदर्शन का उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं इस प्रकार के कुछ पद नीचे लिखता हूँ। उनको देखिए कि उनमें किस प्रकार हृदय खोलकर दिखलाया गया है, उनकी भाषा की प्रांजलता और सरसता भी दर्शनीय है।
1. जनम सिरानो ऐसे ऐसे।
कै घरघर भरमत जदुपति बिन कै सोवत कै बैसे।
के कहुँ खान पान रसनादिक कै कहुँ बाद अनैसे A
कै कहुँ रंक कहूँ ईसरता नट बाजीगर जैसे।
चेत्यो नहीं गयो टरि अवसर मीन बिना जल जैसे।
है गति भई सूर की ऐसी स्याम मिलैं धौं कैसे।
2. प्रभु मोरे औगुन चित न धारो।
समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो।
एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।
जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो।
एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो।
पारस गुन औगुन नहिं चितवै कंचन करत खरो।
यह माया भ्रम जाल कहावै सूरदास सगरो।
अबकी बार मोहिं पार उतारो नहिं प्रन जात टरो।
3. अपनपो आपन ही बिसरो A
जैसे स्वान काँच के मंदिर भ्रमि भ्रमि भूँकि मरो।
ज्यों केहरि प्रतिमा के देखत बरबस कूप पराे।
मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्हीं घरघर द्वार फिरो।
सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो।
4. मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पच्छी फिरि जहाज पै आवै।
कमल नयन को छाँड़ि महातम और देव को धयावै।
पुलिन गंग को छाँड़ि पियासो दुरमति कूप खनावै।
जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फल खावै।
सूरदास प्रभु कामधोनु तजि छेरी कौन दुहावै।
कुछ पद्य बाल भाव-वर्णन के भी देखिए-
5. मैया मैं नाहीं दधि खायो A
ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो A
देखु तुही छीके पर भाजन ऊँचे घर लटकायो A
तुही निरखु नान्हें कर अपने मैं कैसे कर पायो A
मुख दधि पोंछ कहत नँदनंदन दोना पीठि दुरायो।
डारि साँट मुसकाइ तबहिं गहि सुत को कंठ लगायो।
6. जसुदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुआवै।
तू काहें न वेग ही आवै तोको कान्ह बुलावै।
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं कबहुँ अधार फरकावै।
सोवत जानि मौन ह्नै ह्नै रहि करि करि सैन बतावै।
येहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नँदभामिनि पावै।
7. सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुन चलत रेनु-मंडित तनु मुख दधि लेप किये।
चारु कपोल लोल लोचन छबि गोरोचन तिलक दिये।
लर लटकत मनो मत्ता मधुपगन माधुरि मधुर पिये।
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत सखि रुचिर हिये।
धान्य सूर एकौ पल यह सुख कहा भये सत कल्प जिये।
मैं ऊपर लिख आया हूँ कि सूरदास जी का शृंगार-रस वर्णन बड़ा विशद है और विप्रलम्भ शृंगार लिखने में तो उन्होंने वह निपुणता दिखलायी जैसी आज तक दृष्टिगत नहीं हुई। कुछ पद्य इस प्रकार के भी देखिए-
8. सुनि राधो यह कहा बिचारै।
वे तेरे रँग तू उनके रँग अपने मुख काहे न निहारै।
जो देखे ते छाँह आपनी स्याम हृदय तव छाया।
ऐसी दसा नंदनंदन की तुम दोउ निरमल काया।
नीलाम्बर स्यामल तन की छबि तुम छबि पीत सुबासड्ड
घर भीतर दामिनी प्रकासत दामिनि घन चहुँ पास।
सुन री सखी विलच्छ कहौं तो सों चाहति हरि को रूप।
सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप।
9. काहे को रोकत मारग सूधो A
सुनहु मधुप निरगुन कंटक सों राजपंथ क्यों रूँधो।
याका s कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधो।
सूर मूर अक्रूर ले गये ब्याज निबेरत ऊधो।
10. बिलग मत मानहु ऊधो प्यारे।
यह मथुरा काजर की ओबरी जे आवहिं ते कारे।
तुम कारे सुफलक सुत कारे कारे स्याम हमारे।
मानो एक माँठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे।
ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम गुन न्यारे।
11. अरी मोहिं भवन भयानक लागै माई स्याम बिना।
देखहिं जाइ काहि लोचन भरि नंद महरि के ऍंगना।
लै जो गये अक्रूर ताहि को ब्रज के प्रान धाना।
कौन सहाय करै घर अपने मेरे विघन घना।
काहि उठाय गोद करि लीजै करि करि मन मगना।
सूरदास मोहन दरसनु बिनु सुख संपति सपना।
12. खंजन नैन रूप रस माते।
अतिसै चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते।
चलि चलि जात निकट ò वननि के
उलटि पलटि ताटंक फँदाते।
सूरदास अंजन गुन अटके नतरु अबहिं उड़ि जाते।
13. ऊधो ऍंखिया अति अनुरागी।
एक टकमग जोवति अरु रोवति भूलेहुँ पलक न लागी।
बिनु पावस पावस रितु आई देखत हैं बिदमान।
अबधौं कहा कियौ चाहति है छाँड़हु निरगुन ज्ञान।
सुनि प्रिय सखा स्याम सुंदर के जानत सकल सुभाय A
जैसे मिलैं सूर के स्वामी तैसी करहु उपाय।
14. नैना भये अनाथ हमारे।
मदन गोपाल वहां ते सजनी सुनियत दूरि सिधारे।
वे जलसर हम मीन बापुरी कैसे जिवहिं निनारे A
हम चातकी चकोर स्याम घन वदन सुधा निधि प्यारे।
मधुवन बसत आस दरसन की जोइ नैन मग हारे।
सूर के स्याम करी पिय ऐसी मृतक हुते पुनि मारे।
15. सखी री स्याम सवै एकसार।
मीठे बचन सुहाये बोलत अन्तर जारन हार।
भँवर कुरंग काम अरु कोकिल कपटिन की चटसार।
सुनहु साखोरी दोष न काहू जो विधि लिखो लिलार।
उमड़ी घटा नाखि कै पावस प्रेम की प्रीति अपार।
सूरदास सरिता सर पोषत चातक करत पुकार।
भाषा कविवर सूरदास के हाथों में पड़कर धान्य हो गई। आरम्भिक काल से लेकर उनके समय तक आपने हिन्दी भाषा का अनेक रूप अवलोकन किया। परन्तु जो अलौकिकता उनकी भाषा में दृष्टिगत हुई वह असाधारण है। जैसी उसमें प्रांजलता है वैसी ही मिठास है। जितनी ही वह सरस है उतनी ही कोमल। जैसा उसमें प्रवाह है वैसा ही ओज। भावमूर्तिमन्त होकर जैसा उसमें दृष्टिगत होता है, वैसे ही व्यंजना भी उसमें अठखेलियाँ करती अवगत होती है। जैसा शृंगार-रस उसमें सुविकसित दिखलाई पड़ता है, वैसा ही वात्सल्य-रस छलकता मिलता है। जैसी प्रेम की विमुग्धाकारी मूर्ति उसमें आविर्भूत होती है वैसा ही आन्तरिक वेदनाओं का मर्मस्पर्शी रूप सामने आता है। ब्रजभाषा के जो उल्लेखनीय गुण अब तक माने जाते हैं और उसके जिस माधार्ुय्य का गुणगान अब तक किया जाता है, उसका प्रधान अवलम्बन सूरदास जी का ही कवि कर्म है। एक प्रान्त-विशेष की भाषा समुन्नत होकर यदि देश-व्यापिनी हुई तो ब्रजभाषा ही है और ब्रजभाषा को यह गौरव प्रदान करने वाले कविवर सूरदास हैं। उनके हाथों से यह भाषा जैसी मँजी, जितनी मनोहर बनी, और जिस सरसता को उसने प्राप्त किया वह हिन्दी-संसार के लिए गौरव की वस्तु है। मैंने ब्रजभाषा की जो विशेषताएँ पहले बतलायी हैं, वे सब उनकी भाषा में पाई जाती हैं, वरन् यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा के आधार से ही ब्रजभाषा की विशेषताओं की कल्पना हुई। मेरा विचार है कि उन्होंने इस बात पर भी दृष्टि रखी है कि कोई भाषा किस प्रकार व्यापक बन सकती है। उनकी भाषा में ब्रजभाषा का सुन्दर से सुन्दर रूप देखा जाता है। परन्तु ग्रामीणता दोष से वह अधिकतर सुरक्षित है। उसमें अन्य प्रान्तिक भाषाओं के शब्द भी मिल जाते हैं। किन्तु इनकी यह प्रणाली बहुत मर्यादित है। गुरु को लघु और लघु को गुरु करने में उनको संयत देखा जाता है। वे शब्दों को कभी-कभी तोड़ते मरोड़ते भी हैं। किन्तु उनका यह ढंग उद्वेजक नहीं होता। उसमें भी उनकी लेखनी की निपुणता दृष्टिगत होती है। ब्रजभाषा के जो नियम और विशेषताएँ मैं पहले लिख आया हूँ उनकी रचनाओं में उनका पालन किस प्रकार हुआ है, मैं नीचे उसको उद्धृत पद्यों के आधार से लिखता हूँ-
1. उनकी रचनाओं में कोमल शब्द-विन्यास होता है। इसलिए उनमें संयुक्त वर्ण बहुत कम पाये जाते हैं जो वैदर्भी वृत्तिा का प्रधान लक्षण है। यदि कोई संयुक्त वर्ण आ भी जाता है तो वे उसके विषय में युक्त-विकर्ष सिध्दान्त का अधिकतर पालन करते जाते हैं जैसे ‘समदरसी’, ‘महातम’, ‘दुरलभ’, ‘दुरमति’ इत्यादि। वर्गों के प×चम वर्ण के स्थान पर उनको प्राय: अनुस्वार का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे, ‘रंक’, ‘कंचन’, ‘गंग’, ‘अंबुज’, ‘नंदनंदन’, ‘कंठ’ इत्यादि।
2. णकार, शकार, क्षकार के स्थान पर क्रमश: ‘न’, ‘स’ और ‘छ’ वे लिखते हैं। ‘ड’ के स्थान पर ‘ड़’ और ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ एवं संज्ञाओं के आदि के ‘य’ के स्थान पर ‘ज’ लिखते उनको प्राय: देखा जाता है। ऐसा वे ब्रज प्रान्त की बोलचाल की भाषा पर दृष्टि रखकर ही करते हैं। ‘बरन’, ‘रेनु’, ‘गुन’, ‘औगुन’, ‘निरगुन’, ‘सोभित’, ‘सत’, ‘स्याम’, ‘दसा’, ‘दरसन’, ‘अतिसै’, ‘जसुमति’, ‘जसुदा’, ‘जदुपति’, ‘बिलछि’ और ‘पच्छी’ आदि शब्द इसके प्रमाण हैं।
3. गुरु के स्थान पर लघु और लघु के स्थान पर गुरु भी वे करते हैं। किन्तु बहुत कम। ‘माधुरि’, ‘रँग’, ‘नहिं’, ‘दामिनि’, ‘केहरि’, ‘मनो’, ‘भामिनि’, ‘बिन’ इत्यादि शब्दों में गुरु को लघु कर दिया गया है। ‘घना’, ‘मगना’ इत्यादि में Ðस्व को दीर्घ कर दिया गया है, अर्थात् ‘घन’ और ‘मगन’ के ‘न’ को ‘ना’ बनाया गया है।
यह बात भी देखी जाती है कि वे कुछ कारक चिद्दों और प्रत्ययों आदि को लिखते तो शुध्द रूप में हैं, परन्तु पढ़ने में उनका उच्चारण Ðस्व होता है। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो छन्दोभंग होगा। निम्नलिखित पंक्तियों में इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है। चिद्दित कारक चिद्दों और शब्दगत वर्णों को देखिए-
1. ‘ काहे को रोकत मारग सूधो ‘
2. ‘ मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै ‘
3. ‘ सखी री स्याम सबै एक सार ‘
4. ‘ सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप ‘
5. सूर के स्याम करी पुनि ऐसी मृतक हुते पुनि मारे।
6. ‘ मानो एक माँठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे ‘ ।
7. ‘ समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो ‘ ।
8. ‘ जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो ‘
यह प्रणाली कहाँ तक युक्ति-संगत है, इसमें मत भिन्नता है। किन्तु जिस मात्रा में विशेष स्थलों पर सूरदास जी ने ऐसा किया है, मेरा विचार है कि वह ग्राह्य है। क्योंकि इससे एक प्रकार से विशेष शब्द-विकृति की रक्षा होती है। दूसरी बात यह है कि यदि कुछ शब्दों को Ðस्व कर दिया जाय तो उसका अर्थ ही दूसरा हो जाता है। जैसे ‘भये’ को ‘भय’ लिखकर यदि छन्दोभंग की रक्षा की जाय तो अर्थापत्तिा सामने आती है। प्राकृत भाषा में भी यह प्रणाली गृहीत देखी जाती है। उर्दू कवियों की पंक्ति-पंक्ति में इस प्रकार का प्रयोग मिलता है। हिन्दी में विशेष अवस्था और अल्प मात्रा ही में कहीं ऐसा किया जाता है। यह पिंगल नियमावली के अन्तर्गत भी है। जैसे विशेष स्थानों में Ðस्व को दीर्घ और दीर्घ को Ðस्व लिखने का नियमहै उसी प्रकार संकीर्ण स्थलों पर Ðस्व को दीर्घ और दीर्घ का Ðस्व पढ़ने की प्रणालीभीहै।
4. प्राकृत और अपभ्रंश में प्राय: कारक चिद्दों का लोप देखा जाता है। सूरदास जी की रचनाओं में भी इस प्रकार की पंक्तियाँ मिलती हैं। कुछ तो कारकों का लोप साधारण बोलचाल की भाषा पर अवलम्बित है और कुछ कवितागत अथवा साहित्यिक प्रयोगों पर, नीेचे लिखे हुए वाक्य इसी प्रकार के हैं-
‘जो विधि लिखा लिलार’, ‘मधुकर अंबुज रस चाख्यो’, ‘मैं कैसे करि पायो’ इन वाक्यों में कत्तर् का ने चिद्द लुप्त है। ‘कामधोनु तजि छेरी कौन दुहावे’ ‘प्रभु मोरे औगुन चित न धारो’, ‘मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्ही’, ‘सरिता सर पोषत’ इन वाक्यों में कर्म का चिद्द ‘को’ अन्तर्हित है। ‘नान्हे कर अपने मैं कैसे करि पायो’ इस वाक्य में करण का ‘से’ चिद्द लुप्त है।
‘जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ’ में सम्प्रदान का चिद्द ‘को’ या ‘के लिए’ का लोप किया गया है। ‘बरबस कूप परो’ ‘मेरे मुख लपटायो’ ‘ऊँचे घर लटकायो’, ‘पालने झुलावे’, ‘कर नवनीत लिये’ इन वाक्यों में अधिकरण के ‘में’ चिद्द का अभावहै।
5. ब्रजभाषा में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग में आते हैं जिनमें विभक्ति वा प्रत्यय शब्द के साथ सम्मिलित होते हैं, अलग नहीं लिखे जाते। कविता में इससे बड़ी सुविधा होती है। इस प्रकार के प्रयोग अधिकतर बोलचाल पर अवलम्बित हैं। पूर्वकालिक क्रिया का चिद्द ‘कर’ अथवा ‘के’ हैं। ब्रजभाषा में प्राय: विधि के साथ इकार का प्रयोग कर देने से भी वह क्रिया बन जाती है। जैसे, ‘टरि’ ‘मिलि’, ‘करि’ इत्यादि। संज्ञा के साथ जब ओकार सम्मिलित कर दिया जाता है तो वह प्राय: ‘भी’ का काम देता है जैसे ‘एको’, ‘दूधो’ इत्यादि ‘जसुमति मधुरे गावै’ में ‘मधुर’ के साथ मिला हुआ एकार भाव वाचकता का सूचक है। ‘दोना पीठि दुरायो’ में ‘पीठि’ के साथ मिलित इकार अधिकरण के ‘में’ चिद्द का द्योतक है इत्यादि।
6. वैदर्भी वृत्तिा का यह लक्षण है कि उसमें समस्त पद आते ही नहीं। यदि आते हैं तो साधारण समस्त पद आते हैं,लम्बे नहीं। कविवर सूरदास जी की रचना में यह विशेषता पाई जाती है। ‘जैसे कमल नयन’, ‘अम्बुज रस’, करीलफल इत्यादि।
7. कोमलता उत्पादन के लिए वे प्राय: ‘ड़’ और ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ का प्रयोग करते हैं। जैसे ‘घोड़ों’ के स्थान पर’घोरो’, ‘तोड़ो’ के स्थान पर ‘तोरो’, ‘छोड़ो’ के स्थान पर ‘छोरो’। इसी प्रकार ‘मूल’ के स्थान पर ‘मूर’ और ‘चटसाल’ के स्थान पर ‘चटसार’। उनकी रचनाओं में विकल्प से ‘ड़’ का भी प्रयोग देखा जाता है और ‘ल’ के स्थान पर ‘र’ का प्रयोग सब स्थानों पर ही नहीं होता। शब्द के मधय का यकार और वकार बहुधा ‘ऐ’ और ‘औ’ होता रहता है। जैसा ‘नयन’, ‘बयन’, ‘सयन’ का’नैन’, ‘बैन’, ‘सैन’ इत्यादि और ‘पवन’ ‘गवन’, ‘रवन’ का ‘पौन’, ‘गौन’, ‘रौन’ इत्यादि। परन्तु उनका तत्सम रूप भी वे लिखते हैं। प्राय: ब्रजभाषा में वह शब्द जिसके आदि में Ðस्व इकार युक्त कोई व्यंजन होता है और उसके बाद ‘या’ होता है तो आदि व्यंजन का इकार गिर जाता है और वह अपने पर वर्ण ‘य’ में हलन्त होकर मिल जाता है। जैसे ‘सियार’ का ‘स्यार’ ‘पियास’का ‘प्यास’ इत्यादि। किन्तु उनकी रचनाओं में दोनों प्रकार का रूप मिलता है। वे ‘प्यास’ भी लिखते हैं और पियास भी, ‘प्यार’भी लिखते हैं और ‘पियार’ भी। ऊपर लिखे पद्यों में आप इस प्रकार का प्रयोग देख सकते हैं।
8. सूरदास जी को अपनी रचनाओं में मुहावरों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। परन्तु चुने हुए मुहावरे ही उनकी रचना में आते हैं, जिससे उनकी उक्तियाँ बड़ी ही सरस हो जाती हैं। ऊपर के पद्यों में निम्नलिखित मुहावरे आये हैं। जिस स्थान पर ये मुहावरे आये हैं, उन स्थानों को देखकर आप अनुमान कर सकते हैं कि मेरे कथन में कितनी सत्यता है-
1. गोद करि लीजै
2. कैसे करि पायो
3. बिलग मत मानहु
4. लोचन भरि
5. ख्याल परे
9. देखा जाता है कि सूरदास जी कभी-कभी पूर्वी हिन्दी के शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान देते हैं। ‘वैसे’, ‘पियासो’इत्यादि शब्द ऊपर के पद्यों में आप देख चुके हैं। ‘सुनो’ और ‘मेरे’ इत्यादि खड़ी बोली के शब्द भी कभी-कभी उनकी रचना में आ जाते हैं। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि वे इन शब्दों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार खपाते हैं कि वे उनकी मुख्य भाषा (ब्रजभाषा) के अंग बन जाते हैं। अनेक अवस्थाओं में तो उनका परिचय प्राप्त होना भी दुस्तर हो जाता है। जिस कवि में इस प्रकार की शक्ति हो उसका इस प्रकार का प्रयोग तर्क-योग्य नहीं कहा जा सकता। जो अन्य प्रान्त की भाषाओं के शब्दों अथवा प्रान्तिक बोलियों के वाक्यों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार स्थान देते हैं कि जिनसे वे भद्दी बन जाती हैं अथवा जो उनकी मुख्य भाषा की मुख्यता में बाधा पहुँचाती हैं, उनकी ही कृति तर्क-योग्य कही जा सकती है। दूसरी बात यह है कि जब किसी प्रान्तिक भाषा को व्यापकता प्राप्त होती है तो उसे अपने साहित्य को उन्नत बनाने के लिए संकीर्णता छोड़कर उदारता ग्रहण करनी पड़ती है। जिस भाषा ने इस प्रकार की उदारता ग्रहण की, वही अपनी परिधि से निकलकर व्यापकता प्राप्त कर सकी। आज गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास की रचनाएँ यदि उत्तारीय भारत को छोड़कर दक्षिणीय भारत के कुछ अंशों में भी आद्रित हो रही हैं तो उसका कारण यही है कि उन्होंने अपनी भाषा को उदार बनाया और उसके निजत्व को सुरक्षित रखकर अन्य भाषाओं के शब्दों को भी उसमें स्थान दिया। इस दृष्टि से देखने पर सूरदास जी ने इस विषय में जो कुछ स्वतंत्राता ग्रहण की है वह इस योग्य नहीं कि उस पर उँगली उठाई जासके।
10. प्राकृत भाषा के जो शब्द सुन्दर और सरस होने के कारण ब्रजभाषा की बोलचाल में गृहीत रहे, सूरदास जी की रचनाओं में भी उनका प्रयोग उसी रूप में पाया जाता है। ऐसे शब्द ‘सायर’, ‘लोयन’, ‘नाह’, ‘केहरि’ इत्यादि हैं। वे अपभ्रंश भाषा के अनुसार कुछ प्रातिपदिक और प्रत्ययों को भी उकार युक्त लिखते हैं जैसे तपु, मुहुँ, आजु, बिनु इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी में अपभ्रंश अथवा प्राकृत भाषा की अनेक विशेषताएँ पायी जाती हैं। ऐसी अवस्था में यदि उसके कुछ शब्द अपने मुख्य रूप में इन भाषाओं में आते हैं तो उनका आना युक्तिसंगत है, क्योंकि इस प्रकार की विशेषताएँ और शब्दावली ही उस घनिष्ठता का परिचय देती रहती हैं। भाषा-शास्त्रा की दृष्टि से इस प्रकार की घनिष्ठता अधिक वांछनीय है।
11. ब्रजभाषा की बोलचाल में कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका उच्चारण कुछ ऐसी विशेषता से किया जाता है कि वे बहुत मधुर बन जाते हैं। इन शब्दों के अन्त में एक वर्ण अथवा ‘आ’ इस प्रकार बढ़ा दिया जाता है कि जिससे उसका अर्थ तो वही रह जाता है कि जिसमें वह मिलाया जाता है परन्तु ऐसा करने से उसमें एक विचित्रा मिठास आ जाती है। ‘सुअना’, ‘नैना’, ‘नदिया’, ‘निंदरिया’, ‘जियरा’, ‘हियरा’ आदि ऐसे ही शब्द हैं। सूरदासजी इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में इस सरसता के साथ करते हैं कि उसका छिपा हुआ रस छलकने लगता है। देखिए-
1. ‘सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो’।
2. नैना भये अनाथ हमारे।
3. एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।
4. ‘मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै’।
अवधी भाषा के इसी प्रकार के शब्द ‘करेजवा’ ‘बदरवा’ इत्यादि हैं। जैसे संस्कृत में स्वार्थे ‘क’ आता है जैसे ‘पुत्रक’, ‘बालक’ इत्यादि। इन दोनों शब्दों में जो अर्थ ‘पुत्र’ और ‘बाल’ का है वही अर्थ सम्मिलित ‘क’ का है, उसका कोई अन्य अर्थ नहीं। इसी प्रकार ‘मुखड़ा’, ‘बछड़ा’, ‘हियरा’, ‘जियरा’, ‘करेजवा’, ‘बदरवा’, ‘ऍंसुवा’, ‘नदिया’, ‘निदरिया’ के ‘ड़ा’, ‘रा’, ‘वा’ और’या’ आदि हैं। जो अन्त में आये हैं और अपना पृथक अर्थ नहीं रखते। केवल ‘आ’ भी आता है, जैसे ‘नैना’, ‘बैना’, ‘बदरा’, ‘ऍंचरा’ का ‘आ’।
12. ब्रजभाषा में बहुवचन के लिए शब्द के अन्त में ‘न’ और ‘नि’ आता है। ईकारान्त शब्दों में पूर्ववर्ती वर्ण को Ðस्व करके याँ और अकारान्त शब्दों के अन्त में ‘ऐ’ आता है। सूरदास जी की रचनाओं में इन सब परिवर्तनों के उदाहरण मिलते हैं,जिनसे उनकी व्यापक दृष्टि का पता चलता है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखिए-
कछुक खात कछु धारनि गिरावत छबि निरखत नँदरनियाँ ‘
‘ भरि भरि जमुना उमड़ि चलत है इन नैनन के तीर ‘
‘ लोगन के मन हाँसी ‘ ‘ सूर परागनि तजति हिये ते
श्री गुपाल अनुरागी। ‘ ऍंखिया हरिदरसन की प्यासी ‘
‘ जलसमूह बरसत दोउ ऑंखैं हूँकत लीने नाउँ ‘
13. सूरदास की रचना में यह मुख्य बात पाई जाती है कि वे संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं। परन्तु विशेषता यह है कि उनके शब्द चुने हुए और ऐसे होते हैं जिनको काव्योपयुक्त कहा जा सकता है। संयुक्त वर्णों को तो मुख्य रूप में वे कभी-कभी संकीर्ण स्थलों पर ही लेते हैं। परन्तु, कोमल, ललित और सरस तत्सम शब्दों को वे निस्संकोच ग्रहण करते हैं और इस प्रकार अपनी भाषा को मधुरतम बना देते हैं। उद्धृत पद्यों में से सातवें पद्य को देखिए। उनकी रचना में जो शब्द जिस भाव की व्यंजना के लिए आते हैं वे ऐसे मनोनीत होते हैं जो अपने स्थान पर बहुत ही उपयुक्त जान पड़ते हैं। अनुप्रास अथवा वर्णमैत्राी जैसी उनकी कृति में मिलती है, अन्यत्रा दुर्लभ है। जो शब्द उनकी रचना में आते हैं, प्रवाह रूप से आते हैं। उनके अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि वे प्रयत्नपूर्वक नहीं स्वाभाविक रीति से आकर अपने स्थान पर विराजमान हैं। रसानुकूल शब्द-चयन उनकी रचना की विशेष सम्पत्तिा है। अधिकतर उनकी रचनाएँ पद के स्वरूप ही में हैं, अतएव झंकार और संगीत उनके व्यवहृत शब्दों के विशेष गुण हैं। इतना होने पर भी जटिलता का लेश नहीं। सब ओर प्रांजल और सरलता ही दृष्टिगत होती है।
14. किसी भाव को यथातथ्य अंकित करना और उसका जीता-जागता चित्रा सामने लाना सूरदास जी की प्रतिभा का प्रधान गुण है। जिस भाव का चित्रा वे सामने रखते हैं उनकी रचनाओं में वह मूर्ति-मन्त होकर दृष्टिगत होता है। प्रार्थना और विनय के पदों में उनके मानसिक भाव किस प्रकार ज्ञान-पथ में विचरण करते हैं और फिर कैसे विश्व-सत्ता के सामने वे विनत हो जाते हैं, इस बात को उनके विनय के पद्यों की पंक्ति-पंक्ति बड़ी ही सरसता से अभिव्यंजित करती पाई जाती है। उद्धृत पद्यों में से संख्या एक से चार तक के पद्य देखिए। उनमें एक ओर यदि मानवों के स्वाभाविक अज्ञान, दुर्बलताओं और भ्रम-प्रमाद पर हृदय मर्माहत होता देखा जाता है तो दूसरी ओर मानसिक करुणा अपने हाथों में विनय की पुष्पांजलि लिये किसी करुणासागर की ओर अग्रसर होती दिखलाई पड़ती है। बालभाव का वर्णन जिन पद्यों में है, (देखिए संख्या 5 से 7 तक) उनमें बालकों के भोले-भाले भाव जिस प्रकार अंकित हैं वे बड़े ही मर्म-स्पर्शी हैं। उनके देखने से ज्ञात होता है कि कवि किस प्रकार हृदय की सरल से सरल वृत्तिायों और मन के सुकुमार भावों के यथातथ्य चित्राण की क्षमता रखता है। बाल-लीला के पदों को पढ़ते समय ऐसा ज्ञात होने लगता है कि जिस समय की लीला का वर्णन है, उस समय कवि खड़ा होकर वहाँ के क्रिया-कलाप को देख रहा था। इन वर्णनों के पढ़ते ही ऑंखों के सामने वहा समाँ आ जाती है, जो उस समय वहाँ मौजूद रहकर कोई देखने वाली ऑंखें ही देख सकती हैं। इस प्रकार का चित्राण सूरदास के ऐसे सहृदय कवि ही कर सकते हैं, अन्यों के लिए यह बात सुगम नहीं। उनका शृंगार-वर्णन पराकाष्ठा को पहुँच गया है। उतना सरस और स्वाभाविक वर्णन हिन्दी-साहित्य में नहीं मिलता, यह मैं कहूँगा कि शृंगार-रस के कुछ वर्णन ऐसे हैं कि यदि वे उस रूप में न लिखे जाते तो अच्छा होता, किन्तु कला की दृष्टि से वे बहुमूल्य हैं। उनका विप्रलम्भ शृंगार ऐसा है जिसके पद-पद से रस निचुड़ता है। संसार के साहित्य-क्षेत्र में प्रेम-धाराएँ विविधा रूप से बहीं, कहीं वे बड़ी ही वेदनामयी हैं, कहीं उन्मादमयी और रोमांचकारी, और कहीं उनमें आत्मविस्मृति और तन्मयता की ऐसीर् मूत्तिा दिखलायी पड़ती है जो अनुभव करने वाले को किसी अलौकिक संसार में पहुँचा देती है। फिर भी सूरदास की इस प्रकार की रचनाएँ पढ़ कर यह भावनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं कि क्या ऐसी ही सरसता और मोहकता उन सब धाराओं में भी होगी? प्रेम-लीलाओं के चित्राण में जैसी निपुणता देखी जाती है, वैसी प्रवीणता उनकी अन्य रचनाओं में नहीं पाई जाती। उनका विप्रलम्भ शृंगार-सम्बन्धी वर्णन बड़ा ही उदात्ता है। उनमें मन के सुकुमार भावों का जैसा अंकन है, जैसी उनमें हृदय को द्रवित करने वाली विभूतियाँ हैं, यदि वे अन्य कहीं होंगी तो इतनी ही होंगी। वे किसी सच्चे प्रेम-पथिक की ही अनुभवनीय हैं, अन्य की नहीं। कोई रहस्यवादी बनता है, और अपरोक्ष सत्ता को लेकर निर्गुण में गुण की कल्पना करता है। परन्तु कल्पना कल्पना ही है, उसमें मानसिक वृत्तिायों का वह सच्चा विकास कहाँ जो वास्तव में किसी सगुण से सम्बन्धा रखती हैं? जो आन्तरिक आनन्द हम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के अनुभूत विभवों से प्राप्त कर सकते हैं,पंचतन्मात्राओं से नहीं, क्योंकि उनमें सांसारिकता है, इनमें नहीं। हम विचारों को दौड़ा लें, पर विचार किसी आधार पर ही अवलम्बित हो सकते हैं। सांसारिकों को सांसारिकता ही सुलभ हो सकती है। संसार से परे क्या है? उसकी कल्पना वह भले ही कर लें, किन्तु उसका मन उन्हीं में रम सकता है जो सांसारिक विषय हैं। यही कारण है कि जो निर्गुणवादी बनने का दावा करता हैं, वे जब आनन्दमय जीवन की कामना करते हैं तो सगुण भावों का ही आश्रय लेते हैं। सूरदास जी इसके मर्मज्ञ थे। इसलिए उन्होंने सगुण भावों को लेकर ऐसे मोती पिरोये हैं, कि जिनकी बहुमूल्यता चिन्तनीय है, कथनीय नहीं। उन्होंने अपने लक्ष्य को प्रकाश में रखा है, अन्धाकार में नहीं। इसीलिए उनकी रचनाएँ प्रेम-मार्गी अन्य कवियों से सरसता और मोहकता में अधिकतर स्वाभाविक हैं। उनका यह रंग इतना गहरा था कि वे कभी-कभी अपनी धुन में मस्त होकर निर्गुण पर भी कटाक्ष कर जाते हैं। यह उनका प्रमाद नहीं है, वरन् उनकी सगुण परायणता का अनन्य भाव है। मेरा विचार है प्रेममार्ग में उनकी विप्रलम्भ शृंगार की रचनाएँ बड़ा महत्तव रखती हैं। यह कहना कि संसार के साहित्य में उनका स्थान सर्वोच्च है, कदाचित् अच्छा न समझा जावे, परन्तु यह मानना पड़ेगा कि संसार के साहित्य की उच्चतम कृतियों में वे भी समान स्थान लाभ करने की अधिकारिणी हैं।
15. ब्रजभाषा की अधिकांश क्रियाएँ अकारान्त या ओकारान्त हैं। उसके सर्वनामों और कारक-चिद्दों, प्रत्ययों एवं प्रातिपदिक शब्दों के प्रयोग में भी विशेषता है। जो उसको अन्य भाषाओं अथवा प्रान्तिक बोलियों से अलग करती है। सूरदास जी ने अपनी रचना में इनके शुध्द प्रयोगों का बहुत अधिक धयान रखा है। उद्धृत पद्यों के ऐसे अधिकांश शब्दों और क्रियाओं पर चिद्द बना दिये गये हैं। उनके देखने से ज्ञात हो जावेगा कि वे ब्रजभाषा पर कितना प्रभाव रखते थे। उनकी रचना में फ़ारसी अरबी के शब्द भी, सामयिक प्रभाव के कारण आये हैं। परन्तु उनको भी उन्होंने ब्रजभाषा के रंग में ढाल दिया है। इन सब विषयों पर अधिक लिखने से व्यर्थ विस्तार होगा। इसलिए मैं इस बाहुल्य से बचता हूँ। थोड़ा-सा उन पर विचार दृष्टि डालने से ही अधिकांश बातें स्पष्ट हो जाएँगी।
पहले लिख आया हूँ कि सूरदास जी ही ब्रजभाषा के प्रधान आचार्य हैं। वास्तव में बात यह है कि उन्होंने ब्रजभाषा के लिए जो सिध्दान्त साहित्यिक दृष्टि से बनाये और जो मार्ग-प्रदर्शन किया, आज तक उसी को अवलम्बन करके प्रत्येक ब्रजभाषा का कवि साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर होता है। उनके समय से जितने कवि और महाकवि ब्रजभाषा के हुए, वे सब उन्हीं की प्र्रवत्तिात-प्रणाली के अनुग हैं। उन्हीं का पदानुसरण उस काल से अब तक कवि-समूह करता आया है, उनके समय से अब तक का साहित्य उठा लीजिए, उसमें स्वयं-प्रकाश सूर की ही प्रभा विकीर्ण होती दिखलायी पड़ेगी। जो मार्ग उन्होंने दिखलाया वह आजतक यथातथ्य सुरक्षित है। उसमें कोई साहित्यकार थोड़ा परिवर्तन भी नहीं कर सका। कुछ कवियों ने प्रान्त-विशेष के निवासी होने के कारण अपनी रचना में प्रान्तिक शब्दों का प्रयोग किया है। परन्तु वह भी परिमित है। उन्होंने उस प्रधान आदर्श से मुँह नहीं मोड़ा जिसके लिए कविवर सूरदास कवि-समाज में आज तक पूज्य दृष्टि से देखे जाते हैं।
डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने उनके विषय में जो कुछ लिखा है, आप लोगों के अवलोकन के लिए उसे भी यहाँ उद्धृत करता हूँ। वे लिखते हैं-
“साहित्य में सूरदास के स्थान के सम्बन्धा में मैं यही कह सकता हूँ कि वह बहुत ऊँचा है। सब तरह की शैलियों में वे अद्वितीय हैं। आवश्यकता पड़ने पर वे जटिल से जटिल शैली में लिख सकते थे और फिर दूसरे ही पद में ऐसी शैली का अवलम्बन कर सकते थे जिसमें प्रकाश की किरणों की-सी स्पष्टता हो। किसी गुण विशेष में अन्य कवि भले ही उनकी बराबरी कर सके हों, किन्तु सूरदास में अन्य समस्त कवियों के सर्वोत्कृष्ट गुणों का एकत्राी भाव है।”1
गोस्वामी तुलसीदास जी की काव्य-कला अमृतमयी है। उससे वह संजीवनी धारा निकली जिसने साहित्य के प्रत्येक अंग को ही नवजीवन नहीं प्रदान किया वरन् मृतकप्राय हिन्दू-समाज के प्रत्येक अंग को वह जीवनी-शक्ति दी, जिससे वह बड़े संकटकाल में भी जीवित रह सकी। इसीलिए वे हिन्दी-संसार के सुधाधार हैं। गोस्वामी जी की दृष्टि इतनी प्रखर थी और सामयिकता की नाड़ी उन्होंने इस मार्मिकता से टटोली कि उनकी रचनाएँ आज भी रुग्ण मानसों के लिए रसायन का काम दे रही हैं। यदि केवल अपने-अलौकिक ग्रन्थ रामचरित मानस का ही उन्होंने निर्माण किया होता तो भी उनकी वह कीर्ति अक्षुण्ण रहती जो आज निर्मल कौमुदी समान भारत-वसुन्धारा में विस्तृत है। किन्तु उनके और भी कई ग्रन्थ ऐसे हैं जिनसे उनकी
1. “Regarding Surdas’s place in literature, I commonly add that he justly holds a high one. He excelled in all styles. He could, if occasion required, be more obsoure than the spbynu and in the next verse he as clear as a ray of light. Other poets may have equalled him in some particular quality, but he combined the best qualities of all.”
कीर्ति-कौमुदी और अधिक उज्ज्वल हो गई है और इसीलिए वे कौमुदीश हैं। ब्रजभाषा और अवधी दोनों पर उनका समान अधिकार देखा जाता है। जैसी ही अपूर्व रचना वे ब्रजभाषा में करते हैं, वैसी ही अवधी में। रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में ही हुई। किन्तु गोस्वामी जी की अवधी परिमार्जित अवधी है और यही कारण है कि जब मलिक मुहम्मद जायसी की ‘पदमावत’ की भाषा आजकल कठिनता से समझी जाती है, तब गोस्वामी जी की रामायण को सर्वसाधारण समझ लेते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी की भाषा के विषय में मैं ऊपर लिख आया हूँ। वे भी संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं किन्तु उनका संस्कृत शब्दों का भण्डार व्यापक नहीं था। इसलिए वे सरस, भावमय एवं कोमल संस्कृत शब्दों के चयन में उतने समर्थ नहीं बन सके, जितने गोस्वामी जी। कहीं-कहीं उन्होंने संस्कृत शब्दों को इतना विकृत कर दिया है कि उसकी पहचान कठिनता से होती है। जैसे ‘शार्दूल’ का ‘सदूर’। परन्तु गोस्वामी जी इस महान दोष से सर्वथा मुक्त हैं। अवधी शब्दों और वाक्यों के विषय में भी उनकी सहृदयता नीर-क्षीर का विवेक करने में हंस की-सी शक्ति रखती है। रामचरितमानस विशाल ग्रन्थ है। परन्तु उसमें ग्रामीण भद्दे शब्द बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते। कहीं-कहीं तो अवधी शब्द का व्यवहार उनके द्वारा इस मधुरता से हुआ है कि वे बड़े ही हृदयग्राही बन गये हैं। उनकी दृष्टि विशाल थी और वे इस बात के इच्छुक थे कि उनकी रचना हिन्दू-संसार में नवजीवन का संचार करे। अतएव उन्होंने हिन्दी-भाषा के ऐसे अनेक शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान दिया है जो अवधी भाषा के नहीं कहे जा सकते। उनकी इस दूरदर्शिनी दृष्टि का ही यह फल है कि आज उनके महान् ग्रन्थ की उतनी व्यापकता है, कि उसके लिए ‘गेहे गेहे जने जने’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।
गोस्वामी जी जिस समय साहित्य-क्षेत्र में उतरे, उस समय निर्गुणधारा बड़े वेग से बह रही थी। जो जनता को परोक्ष सत्ता की ओर ले जाकर उसके मनों में सांसारिकता से विराग उत्पन्न कर रही थी। विराग वैदिक धर्म का एक अंग है। उसको शास्त्राीय भाषा में निवृत्तिा मार्ग कहते हैं। अवस्था विशेष के लिए ही यह मार्ग निर्दिष्ट है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रवृत्तिा-मार्ग की उपेक्षा कर अनधिकारी भी निवृत्तिा-मार्गी बन जाये। निवृत्तिा-मार्ग का प्रधान गुण है त्याग, जो सर्वसाधारण के लिए सुलभ नहीं। इसीलिए अधिकारी पुरुष ही निवृत्तिामार्गी बन सकता है क्योंकि जो तत्तवज्ञ नहीं, वह निवृत्तिा-मार्ग के नियमों का पालन नहीं कर सकता। निवृत्तिा मार्ग का यह अर्थ नहीं कि मनुष्य घर-बार और बाल-बच्चों का त्याग कर अकर्मण्य बन जाये और तमूरा खड़का कर अपना पेट पालता फिरे। त्याग मानसिक होता है और उसमें वह शक्ति होती है जो देश, जाति, समाज और मानवीय आत्मा को बहुत उन्नत बना देती है। जो अपने गृह को, परिवार को, पड़ोस को,ग्राम को अपनी सहानुभूति, सत्य व्यवहार और त्याग-बल से उन्नत नहीं बना सकता, उसका देश और जाति को ऊँचा उठाने का राग अलापना अपनी आत्मा को ही प्रसारित नहीं करना है, प्रत्युत दूसरों के सामने ऐेसे आदर्श उपस्थित करना है जो लोक-संग्रह का बाधाक है। निर्गुणवादियों ने लोक-संग्रह की ओर दृष्टि डाली ही नहीं। वे संसार की असारता का राग ही गाते और उस लोक की ओर जनता को आकर्षित करने का उद्योग करते देखे जाते हैं, जो सर्वथा अकल्पनीय है। वहाँ सुधा का श्रोत प्रवाहित होता हो, स्वर्गीय गान श्रवणगत होता हो, सुर-दुर्लभ अलौकिक पदार्थ प्राप्त होते हों, वहाँ उन विभूतियों का निवास हो जो अचिन्तनीय कही जा सकती हैं। परन्तु वे जीवों के किस काम की जब उनको वे जीवन समाप्त करके ही प्राप्त कर सकते हैं?मरने के उपरान्त क्या होता है, अब तक इस रहस्य का उद्धाटन नहीं हुआ। फिर केवल उस कल्पना के आधार पर उसको असार कहना, जिसका हमारे जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्धा है, क्या बुध्दिमत्ता है? यदि संसार असार है और उसका त्याग आवश्यक है तो उस सार वस्तु को सामने आना चाहिए कि जो वास्तव में कार्य-क्षेत्र में आकर यह सिध्द कर दे कि संसार की असारता में कोई सन्देह नहीं। हमारे इन तर्कों का यह अर्थ नहीं कि हम परोक्षवाद का खंडन करते हैं, या उन सिध्दान्तों का विरोधा करने के लिए कटिबध्द हैं, जिनके द्वारा मुक्ति, नरक, स्वर्ग आदि की सत्ता स्वीकार की जाती है। यह बड़ा जटिल विषय है। आज तक न इसकी सर्वसम्मत निष्पत्तिा हुई न भविष्यकाल में होने की आशा है। यह विषय सदा ही रहस्य बना रहेगा। मेरा कथन इतना ही है कि सांसारिकता की समुचित रक्षा करके ही परमार्थ-चिन्ता उपयोगी बन सकती है, वरन् सत्य तो यह है कि सांसारिकता समुन्नत त्यागमय जीवन ही परमार्थ है। हम आत्म-हित करते हुए जब लोकहित साधान में समर्थ हों तभी मानव-जीवन सार्थक हो सकता है। यदि विचार-दृष्टि से देखा जावे तो यह स्पष्ट हो जावेगा कि जो आत्म-हित करने में असमर्थ है वह लोक-हित करने में समर्थ नहीं हो सकता। आत्मोन्नति के द्वारा ही मनुष्य लोकहित करने का अधिकारी होता है। देखा जाता है कि जिसके मुख से यह निकलता रहता है कि ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम, दास मलूका यों कहै,सब के दाता राम’, वह भी हाथ-पाँव डालकर बैठा नहीं रहता। क्योंकि पेट उसको बैठने नहीं देता। हाँ, इस प्रकार के विचारों से समाज में अकर्मण्यता अवश्य उत्पन्न हो जाती है, जिससे अकर्मण्य प्राणी जाति और समाज पर बोझ बन जाते हैं। उचित क्या है? यही कि हम अपने हाथ-पाँव आदि को उन कर्मों में लगावें कि जिनके लिए उनका सृजन है। ऐसा करने से लाभ यह होगा कि हम स्वयं संसार से लाभ उठावेंगे और इस प्रवृत्तिा के अनुसार सांसारिक अन्य प्राणियों को भी लाभ पहुँचा सकेंगे। प्रयोजन यह है कि सांसारिकता की रक्षा करते हुए, लोक में रहकर लोक केर् कर्तव्य का पालन करते हुए, यदि मानव वह विभूति प्राप्त कर सके जो अलौकिक बतलायी जाती है। तब तो उसकी जीवन-यात्रा सुफल होगी, अन्यथा सब प्रकार की असफलता ही सामने आवेगी। रहा यह कि परलोक में क्या होगा उसको यथातथ्य कौन बतला सका?
निर्गुणवाद की शिक्षा लगभग ऐसी ही है, जो संसार से विराग उत्पन्न करती रहती है। घर छोड़ो, धान छोड़ो, विभव छोड़ो,कुटुंब परिवार छोड़ो, करो क्या? जप, तप और हरि-भजन। जीवन चार दिन का है, संसार में कोई अपना नहीं। इसलिए सबको छोड़ो और भगवान का नाम जप कर अपना जन्म बनाओ। इस शिक्षा में लोक-संग्रह का भाव कहाँ? इन्हीं शिक्षाओं का यह फल है कि आजकल हिन्दू-समाज में कई लाख ऐसे प्राणी हैं जो अपने को संसार त्यागी समझते हैं और आप कुछ न कर दूसरों के सिर का बोझ बन रहे हैं। उनके बाल-बच्चे अनाथ हों, उनकी स्त्राी भूखों मरे, उनकी बला से। वे देश के काम आवें या न आवें, जाति का उनसे कुछ भला हो या न हो, समाज उनसे छिन्न-भिन्न होता है तो हो, उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं,क्योंकि वे भगवान के भक्त बन गये हैं और उनको इन पचड़ों से कोई काम नहीं। संसार में रहकर कैसे जीवन व्यतीत करना चाहिए? कैसे दूसरों के काम आना चाहिए? कैसे कष्टितों का कष्ट-निवारण करना चाहिए? कैसे प्राणिमात्रा का हित करना चाहिए?मानवता किसे कहते हैं? साधुचरित्रा का क्या महत्तव है? महात्मा किसका नाम है? वे न इन सब बातों को जानते और न इन्हें जानने का उद्योग करते हैं। फिर भी वे हरि-भक्त हैं और इस बात का विश्वास रखते हैं कि उनको लेने के लिए सीधो सत्य लोक से विमान आएगा। जिसके ऐसे संस्कार हैं उससे लोक-संग्रह की क्या आशा है? किन्तु कष्ट की बात है कि अधिकांश हमारा संसार-त्यागी समाज ऐसा ही है। क्योंकि उसने त्याग और हरिभजन का मर्म समझा ही नहीं, और क्यों समझता जब परोक्ष सत्ता ही से उसको प्रयोजन है और संसार से उसका कोई सम्बन्धा नहीं।
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने हिन्दू-समाज के इस रोग को उस समय पहचाना था और उन्होंने अपने सम्प्रदाय का यह प्रधान सिध्दान्त रखा कि गार्हस्थ्य धर्म में रह कर ही और सांसारिक समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए ही परमार्थ चिन्ता करनी चाहिए, जिससे समाज लोक-संग्रह के मर्म को न समझ कर अस्त-व्यस्त न हो। त्याग का विरोधा उन्होंने नहीं किया, किन्तु त्याग के उस उच्च आदर्श की ओर हिन्दू समाज की दृष्टि आकर्षित की जो मानस-सम्बन्धी सच्चा त्याग है। उनका आदर्श इस श्लोक के अनुसार था-
वनेषु दोषा: प्रभवन्ति रागिणाम् ,
गृहेषु प × चेन्द्रिय निग्रहस्तप:
अकुत्सिते कर्मणि य: प्र्रवत्ताते ,
निवृत्ता रागस्य गृहं तपोवनम्।
रागात्मक जनों के लिए वन भी सदोष बन जाता है। घर में रहकर पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना ही तप है। जो अकुत्सित कर्मों में प्रवृत्ता होता है उसके लिए घर ही तपोवन है। महाप्रभु वल्लभाचार्य की तरह गोस्वामी जी में भी लोक-संग्रह का भाव बड़ा प्रबल था सामयिक मिथ्याचारों और अयथा विचारों से वे संतप्त थे। आर्य-मर्यादा का रक्षण ही उनका धयेय था। वे हिन्दू जाति की रगों में वह लोहू भरना चाहते थे कि जिससे वह सत्य-संकल्प और सदाचारी बनकर वैदिक धर्म की रक्षा के उपयुक्त बन सके। वे यह भलीभाँति जानते थे कि लोक-संग्रह सभ्यता की उच्च सीढ़ियों पर आरोहण किये बिना ठीक-ठाक नहीं हो सकता, वे हिन्दू जनता के हृदय में यह भाव भी भरना चाहते थे कि चरित्रा-बल ही संसार में सिध्दि-लाभ का सर्वोत्ताम साधान है। इसलिए उन्होंने उस ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम रामचरितमानस है और जिसमें इन सब बातों की उच्च से उच्च शिक्षा विद्यमान है। उनकी वर्णन-शैली और शब्द-विन्यास इतना प्रबल है कि उनसे कोई हृदय प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। अपने महान् ग्रन्थ में उन्होंने जो आदर्श हिन्दू-समाज के सामने रखे हैं, वे इतने पूर्ण, व्यापक और उच्च हैं जो मानव-समाज की समस्त आवश्यकताओं और न्यूनताओं की पूर्ति करते हैं। भगवान् रामचन्द्र का नाम मर्यादा पुरुषोत्ताम है। उनकी लीलाएँ आचार-व्यवहार और नीति भी मर्यादित हैं। इसलिए रामचरितमानस भी मर्यादामय है। जिस समय साहित्य में मर्यादा का उल्लंघन करना साधारण बात थी, उस समय गोस्वामी जी को ग्रन्थ भर में कहीं मर्यादा का उल्लंघन करते नहीं देखा जाता। कवि कर्म्म में जितने संयत वे देखे जाते हैं, हिन्दी-संसार में कोई कवि या महाकवि उतना संयत नहीं देखा जाता और यह उनके महान् तप और शुध्द विचार तथा उस लगन का ही फल है जो उनको लोक-संग्रह की ओर खींच रहा था।
गोस्वामी जी का प्रधान ग्रंथ रामायण है। उसमें धर्मनीति, समाजनीति, राजनीति का सुन्दर से सुन्दर चित्राण है। गृहमेधियों से लेकर संसार-त्यागी संन्यासियों तक के लिए उसमें उच्च से उच्च शिक्षाएँ मौजूद हैं।र् कर्तव्य-क्षेत्र में उतरकर मानव किस प्रकार उच्च जीवन व्यतीत कर सकता है, जिस प्रकार इस विषय में उसमें उत्ताम से उत्ताम शिक्षाएँ मौजूद हैं, उसी प्रकार परलोक-पथ के पथिकों के लिए भी पुनीत ज्ञान-चर्चा और लोकोत्तार विचार विद्यमान है। हिन्दू-धर्म के विविधा मतों का समन्वय जैसा इस महान् ग्रन्थ में मिलता है वैसा किसी अन्य ग्रन्थ में दृष्टिगत नहीं होता। शैवों और वैष्णवों का कलह सर्व-जन विदित है परन्तु गोस्वामी जी ने उसका जिस प्रकार निराकरण किया उसकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। समस्त वेद,शास्त्रा और पुराणों के उच्च से उच्च भावों का निरूपण इस ग्रन्थ में पाया जाता है और अतीव प्रांजलता के साथ। काव्य और साहित्य का कोई उत्ताम विषय ऐसा नहीं कि जिसका दर्शन इस ग्रन्थ में न होता हो। यह ग्रन्थ सरसता, मधुरता और मनोभावों के चित्राण में जैसा अभूतपूर्व है वैसा ही उपयोगिता में भी अपना उच्च स्थान रखता है। यही कारण है कि तीन सौ वर्ष से वह हिन्दू समाज, विशेषकर उत्तारीय भारत, का आदर्श ग्रन्थ है। जिस समय मुसलमानों का अव्याहत प्रताप था,शास्त्राों के मनन, चिन्तन का मार्ग धीरे-धीरे बन्द हो रहा था, संस्कृत की शिक्षा दुर्लभतर हो रही थी और हिन्दू समाज के लिए सच्चा उपदेशक दुष्प्राप्य था, उस समय इस महान ग्रन्थ का प्रकाश ही उस अन्धाकार का नाश कर रहा था जो अज्ञात रूप में हिन्दुओं के चारों ओर व्याप्त था। आज भी उत्तार भारत के गाँव-गाँव में हिन्दू शास्त्रा के प्रमाण-कोटि में रामायण की चौपाइयाँ गृहीत हैं। प्राय: अंग्रेज विद्वानों ने लिखा है कि योरोप में जो प्रतिष्ठा बाइबिल (Bible) को प्राप्त है, भारतवर्ष में वह गौरव यदि किसी ग्रन्थ को मिला तो वह रामचरितमानस है। एक साधारण कुटी से लेकर राजमहलों तक में यदि किसी ग्रन्थ की पूजा होती है तो वह रामायण ही है। उसका श्रवण, मनन और गान सबसे अधिक अब भी होता है। व्याख्याता अपने व्याख्यानों में रामायण की चौपाइयों का आधार लेकर जनता पर प्रभाव डालने में आज भी अधिक समर्थ होता है। वास्तव बात तो यह है कि आज दिन जो महत्तव इस ग्रन्थ को प्राप्त है वह किसी महान् से महान् संस्कृत ग्रन्थ को भी नहीं। इन बातों पर दृष्टि रखकर जब विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि गोस्वामी जी हिन्दी-साहित्य के सर्वमान्य कवि ही नहीं हैं, हिन्दू-संसार के सर्वपूज्य महात्मा भी हैं।
मैं पहले कविवर सूरदास जी के विषय में अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूँ और अब भी यह मुक्त कंठ से कहता हूँ कि सूरदास जी ने जिस विषय पर लेखनी चलाई है, उसमें उनकी समकक्षता करने वाला हिन्दी-साहित्य में कोई अब तक उत्पन्न नहीं हुआ। किन्तु जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा गोस्वामी जी में देखी जाती है, सूरदास जी में नहीं।
गोस्वामी जी नवरस-सिध्द महाकवि हैं। सूरदास जी को यह गौरव प्राप्त नहीं। काल की दृष्टि से सूरदास जी तुलसीदास जी से कम नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे के समकक्ष हैं। किन्तु उपयोगिता की दृष्टि से तुलसीदास जी का स्थान अधिक उच्च है। दूसरी विशेषता गोस्वामी जी में यह है कि उनकी रचनाएँ बड़ी ही मर्यादित हैं। वे श्रीमती जानकी जी का वर्णन जहाँ करते हैं, वहाँ उनको जगज्जननी के रूप में ही चित्राण करते हैं। उनकी लेखनी जानकी जी की महत्ता जिस रूप में चित्रिात करती है वह बड़ी ही पवित्रा है। जानकी जी के सौन्दर्य-वर्णन की भी उन्होंने पराकाष्ठा की है। किन्तु उस वर्णन में भी उनका मातृ पद सुरक्षित है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखिए-
1. जो पटतरिय तीय सम सीया।
जग अस जुवति कहाँ कमनीया।
गिरा मुखर तनु अरधा भवानी।
रति अति दुखित अतनु पति जानी।
बिष बारुनी बन्धाु प्रिय जेही।
कहिय रमा सम किमि वैदेही।
जो छबि सुधा पयोनिधि होई।
परम रूपमय कच्छप सोई।
सोभा रजु मंदर सिंगारू।
मथै पानि-पंकज निज मारू।
येहि विधि उपजै लच्छि जब , सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि , कहहिं सीय सम तूल।
सूरदास जी में यह उच्च कोटि की मर्यादा दृष्टिगत नहीं होती। वे जब श्रीमती राधिका के रूप का वर्णन करने लगते हैं तो ऐसे अंगों का भी वर्णन कर जाते हैं जो अवर्णनीय हैं। उनका वर्णन भी इस प्रकार करते हैं। जो संयत नहीं कहा जा सकता। कभी-कभी इस प्रकार का वर्णन अश्लील भी हो जाता है। मैं यह मानूँगा कि प्राचीन काल से कवि-परम्परा कुछ ऐसी ही रही है। संस्कृत के कवियों में भी यह दोष पाया जाता है। कवि-कुल-गुरु कालिदास भी इस दोष से मुक्त न रह सके। रघुवंश में वे इन शब्दों में पार्वती और परमेश्वर की वंदना करते हैं-”वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्ताये! जगत: पितरौ वंदे, पार्वती परमेश्वरौ”। परन्तु उन्होंने ही कुमार-सम्भव के अष्टम सर्ग में भगवान शिव और जगज्जननी पार्वती का विलास ऐसा वर्णन किया है जो अत्यन्त अमर्यादित है। संस्कृत के कई विद्वानों ने उनकी इस विषय मे कुत्सा की है। यह कवि-परम्परा ही का अन्धानुकरण है कि जिससे कवि-कुल-गुरु भी नहीं बच सके, फिर ऐसी अवस्था में सूरदास जी का इस दोष से मुक्त न होना आश्चर्यजनक नहीं। यह गोस्वामी जी की ही प्रतिभा की विशेषता है कि उन्होंने चिरकाल-प्रचलित इस कुप्रथा का त्याग किया और यह उनकी भक्तिमय प्रवृत्तिा का फल है। इस भक्ति के बल से ही उनकी कविता के अनेक अंश अभूतपूर्व और अलौकिक हैं। इस प्रवृत्तिा ने ही उनको बहुत ऊँचा उठाया और इस प्रवृत्तिा के बल से ही इस विषय में वे सूरदास जी पर विजयी हुए। आत्मोन्नति, सदाचार-शिक्षा, समाज-संगठन, आर्य जातीय उच्च भावों के प्रदर्शन, सद्भाव, सत् शिक्षा के प्रचार एवं मानव प्रकृति के अधययन में जो पद तुलसीदास जी को प्राप्त है उस उच्च पद को सूरदास जी नहीं प्राप्त कर सके। दृष्टिकोण की व्यापकता में भी सूरदास का वह स्थान नहीं है जो स्थान गोस्वामी जी का है। मैं यह मानूँगा कि अपने वर्णनीय विषयों में सूरदास जी की दृष्टि बहुत व्यापक है। उन्होंने एक-एक विषय का कई प्रकार से वर्णन किया है। मुरली पर पचासों पद्य लिखे हैं तो नेत्रों के वर्णन में सैकड़ों पद लिख डाले हैं। परन्तु सर्व विषयों में अथवा शास्त्राीय सिध्दान्तों के निरूपण में जैसी विस्तृत दृष्टि गोस्वामी जी की है उनकी नहीं। सूरदास जी का मुरली-निनाद विश्व विमुग्धाकर है। उनकी प्रेम-सम्बन्धी कल्पनाएँ भी बड़ी सरल एवं उदात्ता हैं। परन्तु गोस्वामी जी की मेघ-गम्भीर गिरा का गौरव विश्वजनीन है और स्वर्गीय भी। उनकी भक्ति भावनाएँ भी लोकोत्तार हैं। इसलिए मेरा विचार है कि गोस्वामी जी का पद सूरदास जी से उच्च है।
मैंने पहले यह लिखा है कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर उनका समान अधिकार था। मैं अपने इस कथन की सत्यता-प्रतिपादन के लिए उनकी रचनाओं में से दोनों प्रकार के पद्यों को नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर आप लोग स्वयं अनुभव करेंगे कि मेरे कथन में अत्युक्ति नहीं है।
1. फोरइ जोग कपारु अभागा।
भलेउ कहत दुख रउरेहिं लागा।
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई।
ते प्रिय तुम्हहिं करुइ मैं माई।
हमहुँ कहब अब ठकुरसोहाती।
नाहिं त मौन रहब दिन राती।
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा।
बवा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा।
कोउ नृप होइ हमैं का हानी।
चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी।
जारइ जोग सुभाउ हमारा।
अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।
तातें कछुक बात अनुसारी।
छमिय देवि बड़ि चूक हमारी।
तुम्ह पूँछउ मैं कहत डराऊँ।
धारेउ मोर घरफोरी नाऊँ।
रहा प्रथम अब ते दिन बीते।
समउ फिरे रिपु होइँ पिरीते।
जर तुम्हारि चह सवति उखारी।
रूँधाहु करि उपाइ बर बारी।
तुम्हहिं न सोच सोहाग बल , निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुँहु मीठु नृप , राउर सरल सुभाउ।
जौ असत्य कछु कहब बनाई।
तौ विधि देइहि हमहिं सजाई।
रेख ख्रचाइ कहहुँ बल भाखी।
भामिनि भइहु दूधा कै माखी।
काह करउँ सखि सूधा सुभाऊ।
दाहिन बाम न जानउँ काऊ।
नैहर जनम भरब बरु जाई।
जिअत न करब सवति सेवकाई।
– रामायण
2. मोकहँ झूठहिं दोष लगावहिं।
मइया इनहिं बान परगृह की नाना जुगुति बनावहिं।
इन्ह के लिए खेलिबो छोरयो तऊ न उबरन पावहिं।
भाजन फोरि बोरि कर गोरस देन उरहनो आवहिं।
कबहुंक बाल रोवाइ पानि गहि
एहि मिस करि उठि धावहिं।
करहिं आप सिर धारहिं आन के
बचन बिरंचि हरावहिं।
मेरी टेव बूझ हलधार सों संतत संग खेलावहिं।
जे अन्याउ करहिं काहू को ते सिसु मोहिं न भावहिं।
सुनि सुनि बचन-चातुरी
ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।
बालगोपाल केलि कल कीरति।
तुलसिदास मुनि गावहिं।
3. अबहिं उरहनो दै गई बहुरो फिरि आई।
सुनि मइया तेरी सौं करौं याकी टेव
लरन की सकुच बेंचि सी खाई।
या व्रज में लरिका घने हौं ही अन्याई।
मुँह लाये मूँड़हिं चढ़ी अन्तहु
अहिरिनि तोहिं सूधी करि पाई।
– कृष्ण गीतावली
रामायण का पद्य अवधी बोलचाल का बड़ा ही सुन्दर नमूना है। उसमें भावुकता कितनी है और मानसिक भाव का कितना सुन्दर चित्राण है, इसको प्रत्येक सहृदय समझ सकता है। स्त्राी-सुलभ प्रकृति का इन पद्यों में ऐसा सच्चा चित्रा है कि जिसको बार-बार पढ़कर भी जी नहीं भरता। कृष्ण गीतावली के दोनों पद भी अपने ढंग के बड़े ही अनूठे हैं। उनमें ब्रजभाषा-शब्दों का कितना सुन्दर व्यवहार है और किस प्रकार मुहावरों की छटा है, वह अनुभव की वस्तु है। बालभाव का जैसा चित्रा दोनों पदों में है उसकी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। गोस्वामीजी की लेखनी का यह महत्तव है कि वे जिस भाव को लिखते हैं। उसका यथातथ्य चित्राण कर देते हैं और यही महाकवि का लक्षण है। गोस्वामीजी ने अपने ग्रन्थों में से रामायण की मुख्य भाषा अवधी रखी है। जानकी मंगल, राम लला नहछू, बरवै रामायण और पार्वती मंगल की भाषा भी अवधी है। कृष्ण गीतावली को उन्होंने शुध्द ब्रजभाषा में लिखाहै। अन्य ग्रन्थों में उन्होंने बड़ी स्वतन्त्राता से काम लिया है। इनमें उन्होंने अपनी इच्छा के अनुसार यथावसर ब्रजभाषा और अवधी दोनों के शब्दों का प्रयोग किया है।
गोस्वामीजी की यह विशेषता भी है कि उनका हिन्दी के उस समय के प्रचलित छन्दों पर समान अधिकार देखा जाता है। यदि उन्होंने दोहा-चौपाई में प्रधान-ग्रन्थ लिखकर पूर्ण सफलता पायी तो कवितावली को कवित्ता और सवैया में एवं गीतावली और विनय-पत्रिाका को पदों में लिखकर मुक्तक विषयों के लिखने में भी अपना पूर्ण अधिकार प्रकट किया। उनके बरबे भी बड़े सुन्दर हैं और उनकी दोहावली के दोहे भी अपूर्व हैं। इस प्रकार की क्षमता असाधारण महाकवियों में ही दृष्टिगत होती है। मैं इन ग्रन्थों के भी थोड़े से पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ। उनको पढ़िए और देखिए कि उनमें प्रस्तुत विषय और भावों के चित्राण में कितनी तन्मयता मिलती है और प्रत्येक छन्द में उनकी भाषा का झंकार किस प्रकार भावों के साथ झंकृत होता रहता है। विषयानुकूल शब्द-चयन में भी वे निपुण थे। नीचे के पद्यों को पढ़कर आप यह समझ सकेंगे कि भाषा पर उनका कितना अधिकार था। वास्तव में भाषा उनकी अनुचरी ज्ञात होती है। वे उसे जब जिस ढंग में ढालना चाहते हैं, ढाल देते हैं-
4. बर दंत की पंगति कुंद कली
अधाराधार पल्लव खोलन की।
चपला चमकै घन बीच जगै
छबि मोतिन माल अमोलन की।
घुँघरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर
कुण्डल लोल कपोलन की।
निवछावर प्रान करै तुलसी
बलि जाउँ लला इन बोलन की।
5. हाट बाट कोट ओट अटनि अगार पौरि
खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्हों अति आगि है।
आरत पुकारत सँभारत न कोऊ काहू
व्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चल्यो भागि है।
बालधी फिरावै बार बार झहरावै झरैं
बुँदियाँ-सी लंक पघिराइ पाग पागि है।
तुलसी बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं
चित्राहूं के कपि सों निसाचर न लागि है।
– कवितावली
6. पौढ़िये लाल पालने हौं झुलावौं।
बाल बिनोद मोद मंजुल मनि किलकनि खानि खुलावौं।
तेइ अनुराग ताग गुहिबे कहँ मति मृगनैनि बुलावौं।
तुलसी भनित भली भामिनि उर सो पहिराइ फुलावौं।
चारु चरित रघुवर तेरे तेहि मिलि गाइ चरन चित लावौं।
7. बैठी सगुन मनावति माता।
कब अइहैं मेरे लाल कुसल घर कहहु काग फुरि बाता।
दूधा भात की दोनी दैहों सोने चोंच मढ़ैहौं।
जब सिय सहित बिलोकि नयन भरि राम लखन उर लैहौं।
अवधि समीप जानि जननी जिय अति आतुर अकुलानी।
गनक बुलाइ पाय परि पूछत प्रेम मगन मृदु बानी।
तेहि अवसर कोउ भरत निकट ते समाचार लै आयो।
प्रभु आगमन सुनत तुलसीमनो मरत मीन जल पायो।
– गीतावली
8. बावरो रावरो नाह भवानी।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु बेद बडरई भानी।
निज घर की बर बात बिलोकहु हो तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत श्री सारदा सिहानी।
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नहीं निसानी।
तिन रंकन को नाक सँवारत हौं आयों नकवानी।
दुख दीनता दुखी इनके दुख जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं भीख भली मैं जानी।
प्रेम प्रसंसा विनय व्यंग जुत सुनि विधि की बर बानी।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन जगत मातु मुसकानी।
9. अबलौं नसानी अब ना नसैहौं।
राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं।
पायो नाम चारु चिंतामनि उर कर ते न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं।
परबस जानि हस्यो इन इन्द्रिन निज बस ह्नै न हँसैहौं।
मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौं।
– विनयपत्रिाका
10. गरब करहु रघुनन्दन जनि मन माँह।
देखहु आपनि मूरति सिय कै छाँह।
डहकनि है उँजियरिया निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लागइ मोंहि बिनु राम।
अब जीवन कै है कपि आस न कोइ।
कनगुरिया कै मुँदरी कंकन होइ।
स्याम गौर दोउ मूरति लछिमन राम।
इनते भई सित कीरति अति अभिराम।
विरह आग उर ऊपर जब अधिकाइ।
ए ऍंखिया दोउ बैरिन देहिं बुताइ।
सम सुबरन सुखमाकर सुखद न थोर।
सीय अंग सखि कोमल कनक कठोर।
– बरवै रामायण
11. तुलसी पावस के समै धारी कोकिला मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं हमैं पूछिहैं कौन।
हृदय कपट बर बेष धारि बचन कहैं गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिये मन खोलि।
आवत ही हरखै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसै मेह।
तुलसी मिटै न मोह तम किये कोटि गुन ग्राम।
हृदय कमल फूलै नहीं बिनु रवि कुल रवि राम।
अमिय गारि गारेउ गरल नारि करी करतार।
प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुधा न गँवार।
– दोहावली
ब्रजभाषा और अवधी के विशेष नियम क्या हैं? मैं इसे पहले विस्तार से लिख चुका हूँ। मलिक मुहम्मद जायसी और सूरदास की भाषा में उक्त भाषाओं के नियमों का प्रयोग भी दिखला चुका हूँ। गोस्वामीजी की रचना में भी अवधी और ब्रजभाषा के नियमों का पालन पूरा-पूरा हुआ है। मैं उनकी रचना की पंक्तियों को लेकर इस बात को प्रमाणित कर सकता हूँ। किन्तु यह बाहुल्य मात्रा होगा। गोस्वामीजी की उद्धृत रचनाओं को पढ़कर आप लोग स्वयं इस बात को समझ सकते हैं कि उन्होंने किस प्रकार दोनों भाषाओं के नियमों का पालन किया। मैं उसका दिग्दर्शन मात्रा ही करूँगा। युक्ति-विकर्ष के प्रमाण भूत ये शब्द हैं, गरब, अरधा, मूरति। कारकों का लोप इन वाक्यांशों में पाया जाता है ‘बोरि कर गोरस’, ‘बाल रोवाइ’, ‘सिर धारहिं आन के’, ‘वचन बिरंचि हरावहि’, ‘पालने पौढ़िये’, ‘किलकनि खानि’, ‘तुलसी भनिति’, ‘सोने चोंच मढ़ैहो’, ‘रामलखन उर लेहौं’, ‘वेद बड़ाई’, ‘जगत मातु’। ‘श’, ‘ण’, ‘क्ष’ इत्यादि के स्थान पर ‘स’, ‘न’, ‘छ’, का व्यवहार ‘सिंगारू’, ‘प्रसंसा’, ‘परबस’, ‘सिसु’, ‘पानि’, ‘भरन’, ‘गनक’, ‘लच्छि’ आदि में है। प×चम वर्ण की जगह पर अनुस्वार का प्रयोग ‘मंजुल’, ‘बिरंचि’, ‘कंचनहि’ आदि में मिलेगा। शब्द के आदि के ‘य’ के स्थान पर ‘ज’ का व्यवहार जुवति, जागु, जुगुति आदि में आप देखेंगे। संज्ञाओं और विशेषणों के अपभ्रंश के अनुसार, उकारान्त प्रयोग के उदाहरण ये शब्द हैं, कपारु, मुहुँ, मीठु, आदि Ðस्व का दीर्घ और दीर्घ काÐस्व-प्रयोग कमनीया ‘बाता’, ‘जुवति’, ‘रेख’ इत्यादि शब्दों में हुआ है। प्राकृत शब्दों का उसी के रूप में ग्रहण तीय, नाह इत्यादि में है। ब्रजभाषा की रचना में आपको संज्ञाएँ, क्रियाएँ दोनों अधिकतर ओकारान्त मिलेंगी और इसी प्रकार अवधी की संज्ञाएँ और क्रियाएँ नियमानुकूल अकारान्त पायी जाएँगी। उराहनी, बहुरो, पायो, आयो, बड़ो, कहब, रहब, होब, देन, राउर इत्यादि इसके प्रमाण हैं। अधिकतर तद्भव शब्द ही दोनों भाषाओं में आये हैं। परन्तु जहाँ भाषा तत्सम शब्द लाने से ही सुन्दर बनती है, वहाँ गोस्वामीजी ने तत्सम शब्दों का प्रयोग भी किया है। जैसे ‘प्रिय’, ‘कुरूप’, ‘रिपु’, ‘असत्य’, ‘पल्लव’ इत्यादि। मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने अधिकता से किया है। परंतु विशेषता यह है कि जिस भाषा में मुहावरे आये हैं उनको उसी भाषा के रूप में लिखा है जैसे ‘नयनभरि’, ‘मुँह लाये’, ‘मूड़हिं चढ़ी’, ‘जनम भरव’, ‘नकबानी आयो’, ‘ठकुरसुहाती’, ‘बवा सो लुनिय’इत्यादि। अवधी में स्त्राीलिंग के साथ सम्बन्धा का चिद्द सदा “कै” आता है। गोस्वामीजी की रचनाओं में भी ऐसा ही किया गया है, ‘दूधा कै माखी’, ‘कै छाँह’, इत्यादि इसके सबूत हैं। क्रिया बनाने में विधि के साथ इकार का संयोग किया जाता है। उनकी कविता में भी यह बात मिलती है जैसे ‘भरि’, ‘फोरी’, ‘बोरि’ इत्यादि। अनुप्रास के लिए तुकान्त में इस ‘इ’ को दीर्घ भी कर दिया जाता है। उन्होंने भी ऐसा किया है। ‘देखिए ‘जानी’, ‘होई’ इत्यादि। ऐसे ही नियम सम्बन्धी अन्य बातें भी आप लोगों को उनमें दृष्टिगत होंगी।
सूरदासजी के हाथों में पड़कर ब्रजभाषा और गोस्वामीजी की लेखनी से लिखी जाकर अवधी प्रौढ़ता को प्राप्त हो गयी। इन दोनों भाषाओं का उच्च से उच्च विकास इन दोनों महाकवियों के द्वारा हुआ। साहित्यिक भाषा में जितना सौन्दर्य-सम्पादन किया जा सकता है, इन दोनों महापुरुषों से इनकी रचनाओं में उसकी भी पराकाष्ठा हो गई। अनुप्रासों और रस एवं भावानुकूल शब्दों का विन्यास जैसा इन कविकर्म्मनिपुण महाकवियों की कृति में पाया जाता है वैसा आज तक की हिन्दी भाषा की समस्त रचनाओं में नहीं पाया जाता। भविष्य में क्या होगा, इस विषय में कुछ कहना असम्भव है। “जिनको सजीव पंक्तियाँ कहते हैं”वे जितनी उन लोगों की कविताओं में मिलती हैं उतनी अब तक की किसी कविता में नहीं मिल सकीं। यदि इन लोगों की शब्द-माला में लालित्य नर्तन करता मिलता है तो भाव क्षुधा-वर्षण करते हैं। जब किसी भाषा की कविता प्रौढ़ता को प्राप्त होती है, उस समय उसमें व्यंजना की प्रधानता हो जाती है। इन लोगों की अधिकांश रचनाओं में भी यही बात देखी जाती है।
गोस्वामीजी के विषय में योरोपीय या अन्य विद्वानों की जो सम्मतियाँ हैं, उनमें से कुछ सम्मतियों को मैं नीचे लिखता हूँ। उनके पढ़ने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि गोस्वामीजी के विषय में विदेशी विद्वान् भी कितनी उत्ताम सम्मति और कितना उच्च भाव रखते हैं। प्रोफेसर मोल्टन यह कहते हैं।
“मानव प्रकृति की अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर ग्रहणशीलता, करुणा से लेकर आनन्द तक के सम्पूर्ण मनोविकारों के प्रति संवेदनशीलता, स्थान-स्थान पर मधयमश्रेणी का भाव जिस पर हँसते हुए महासागर के अनन्त बुद्बुदों की तरह परिहास क्रीड़ा करता है; कल्पना-शक्ति का स्फुरण जिसमें अनुभव और सृष्टि दोनों एक ही मानसिक क्रिया जान पड़ती हैं, साम×जस्य और अनुपात की वह धारणा जो जिसे ही स्पर्श करेगी उसे ही कलात्मक बना देगी; भाषा पर वह अधिकार जो विचार का अनुगामी है और वह भाषा जो स्वयं ही सौन्दर्य है; ये सब काव्य-स्फूर्ति के पृथक्-पृथक तत्तव जिनमें से एक भी विशेष मात्रा में विद्यमान होकर कवि की सृष्टि कर सकता है। तुलसीदास में सम्मिलित रूप में पाये जाते हैं।”1
एक दूसरे सज्जन की यह सम्मति है-
हम पैगम्बर (ईश्वरीय दूत) को उसके कार्यों के परिणामों की कसौटी पर ही कसते हैं। जब मैं यह कहता हूँ कि पूरे नौ करोड़ मनुष्य अपने नैतिक और धार्मिक आचार-सम्बन्धी सिध्दान्तों को तुलसीदास की कृति ही से ग्रहण् करते हैं तो अत्युक्ति नहीं करता, मेरा यह अनुमान साधारण जनसंख्या से कुछ कम ही है। वर्तमान समय में उनका जितना प्रभाव है कि यदि उसके आधार पर हम अपना निर्णय स्थिर करें तो वे एशिया के तीन या चार महान लेखकों में परिगणित होंगे।”2
1. Grasp of human nature the most profound, the most subtle; responsivenesi to emotion throughout the whole scale from tragic pathes to rollicking jollity, with a middle range, over which plays a humour like the innumerable twinklings of a laughing ocean; powers of imagination so instinctive that to percieve and create seem the same mental act; a sense of symmetry and proportion that will make everything it touches into art; mastery of language that is the servant of thought and language that is the beauty in it self; all these separate elements of poetic force, any one of which inconsicuous degree might make a poet, are in Tulsidasa found in complete combination “Prof. Moultons ‘World Literature’ P. 166.”
2. “We judge of a prophet by his fruits and I give much less than usual estimate when I say that fully ninety millions of people have heard the theories of moral and religious conduct upon his writings. Is we take the influence exercised by him at present time as our test, he in one of the three of four great writers of Asia.”
R. R. A. S., July 1930, P. 455.
डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन का यह कथन है-
“भारतवर्ष के इतिहास में तुलसीदास का बहुत अधिक महत्तव है। उनके काव्य की साहित्यिक उत्कृष्टता की ओर न भी धयान दें तो भागलपुर से लेकर पंजाब तक और हिमालय से लेकर नर्मदा तक समस्त श्रेणियों के लोगों का उन्हें आदरपूर्वक ग्रहण करना धयान देने योग्य बात है। तीन सौ से भी अधिक वर्षों से उनके काव्य का हिन्दू जनता की बोलचाल, तथा उनके चरित्रा और जीवन से सम्बन्धा है। वह उनकी कृति को केवल उसके काव्य-गत सौन्दर्य के लिए ही नहीं चाहती है, उसे श्रध्दा की दृष्टि से ही नहीं देखती है, उसे धार्मिक ग्रन्थ के रूप में पूज्य समझतीहै। दसकरोड़ जनता के लिए वह बाइबिल (Bible) के समान है और वह उसे उतना ही ईश्वरप्रेरित समझती है जितना अंग्रेज पादरी बाइबिल को समझता है। पंडित लोग भले ही वेदों की चर्चा और उनमें से थोड़े से लोग उनका अधययन भी करें, भले ही कुछ लोग पुराणों के प्रति श्रध्दा-भक्ति भी प्रदर्शित करें किन्तु पठित वा अपठित विशाल जनसमूह वो तुलसी-कृत रामायण ही से अपने आचार-धर्म की शिक्षा ग्रहण करता है। हिन्दुस्तान के लिए यह वास्तव में सौभाग्य की बात है, क्योंकि उसने देश को शैव धर्म के अनाचरणीय क्रिया-कलाप से सुरक्षित रखा है। बंगाल जिस दुर्भाग्य के चक्कर में पड़ गया उससे उत्तारी भारत के मूल त्राण करने वाले तो रामानन्द थे,किन्तु महात्मा तुलसीदास ही का यह काम था कि उन्होंने पूर्व और पश्चिम में उनके मत का प्रचार किया और उसमें स्थायित्व का संचार कर दिया।”1
हिन्दी-संसार ने सूरदासजी और गोस्वामीजी के बाद का स्थान कविवर केशवदासजी को ही दिया है। मैं भी इसी विचार का हूँ।
उनको ‘उडुगन’ कहा गया है। यदि वे उडुगन हैं तो प्रभात कालिक शुक्र (कवि) के समान प्रभा-विकीर्णकारी हैं। कविकर्म शिक्षा की पूर्ण ज्योति रीति काल के प्रभात
1. “The importance of Tulsidas in the history of India can not be overrated, Pulling the literary merits of his work out of the question, the fact of its universal acceptance by all classes, from Bhagalpur to the Punjab and from the Himalaya to the Narmada is surely worthy of note. It has been interwoven into the, life, character, and speech of the Hindu population for more than three hundred years, and is not only loved and admired by them for its poetic beauty, but is reverened by them as their scriptures. It is the bible of a hundred millions of people, and is looked upon by them as much inspired as the bible is considered by the English clergymen. Pandits may talk of the vedas and of the Upnishadas and a few may even study them, others may say they pin their faith on the puranas : but to the vast majority of the people of Hindustan, learned and unlearned alike, their soul room of conduct is the so called Tulsikrit Ramayan. It is indeed fortunate that is so, for it has saved the country from the tantric obscenities of Shaivism Ram Chandra was the original saviour of Upper India from the fate which has befallen Bengal, but Tulsidas was the great apostle who caried his doctrine east and west and made it an a biding faith.”-
Modern Vernacular Literature of Hindustan, P. 42. 43
काल में केशवदास जी से ही हिन्दी संसार को मिली। सब बातों पर विचार करने से यह स्वीकार करना पड़ता है कि साहित्य सम्बन्धी समस्त अंगों की पूर्ति पहले-पहल केशवदास जी ने ही की। इनके पहले कुछ विद्वानों ने रीति-ग्रन्थों की रचना का सूत्रापात किया था किन्तु यह कार्य केशवदास जी की प्रतिभा से ही पूर्णता को प्राप्त हुआ। इतिहास बतलाता है कि आदि में कृपाराम ने ही ‘हित तरंगिणी’ नामक रस-ग्रन्थ की रचना की। इनका काल सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध्द है। इन्होंने अपने ग्रंथ मेंअपने
समय के पहले के कुछ सुकवियों की कुछ रचनाओं की भी चर्चा की है। किन्तु वे ग्रन्थ अप्राप्य हैं। ग्रन्थकारों के नाम तक पता नहीं मिलता। इन्हीं के समसामयिक गोप नामक कवि और मोहन लाल मिश्र थे। इनमें से गोप नामक कवि ने, रामभूषण और अलंकार-चन्द्रिका नामक ग्रन्थों की रचना की है। नाम से ज्ञात होता है कि ये दोनों ग्रन्थ अलंकार के होंगे। किन्तु ये ग्रन्थ भी नहीं मिलते। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ये ग्रन्थ कैसे थे, साधारण या विशद। मेरा विचार है कि वे साधारण ग्रन्थ ही थे। अन्यथा इतने शीघ्र लुप्त न हो जाते। मोहन लाल मिश्र ने ‘शृंगार-सागर’ नामक ग्रंथ की रचना की थी। ग्रन्थ का नाम बतलाता है कि वह रस-सम्बन्धी ग्रन्थ होगा। इन लोगों के उपरान्त केशवदास जी ही कार्य-क्षेत्र में आते हैं। वे संस्कृत के प्रसिध्द विद्वान थे। वंश-परम्परा से उनके कुल में संस्कृत के उद्भट विद्वान् होते आते थे। उनके पितामह पं. कृष्णदत्ता मिश्र संस्कृत के प्रसिध्द नाटक ‘प्रबोधा-चन्द्रोदय’ के रचयिता थे। उनके पिता पं. काशीनाथ भी संस्कृत भाषा के प्रसिध्द विद्वान थे। उनके बड़े भाई पं. बलभद्र मिश्र संस्कृत के विद्वान तो थे ही, हिन्दी भाषा पर भी बड़ा अधिकार रखते थे। इनका बनाया हुआ नखशिख-सम्बन्धी ग्रंथ अपने विषय का अद्वितीय ग्रन्थ है। ऐसे साहित्य-पारंगत विद्वानों के वंश में जन्म ग्रहण करके केशवदास जी का हिन्दीभाषा के रीति-ग्रन्थों के निर्माण में विशेष सफलता लाभ करना आश्चर्यजनक नहीं। वे संकोच के साथ हिन्दी-क्षेत्र में उतरे, जैसा निम्नलिखित दोहे से प्रकट होता है-
भाषा बोलि न जानहीं , जिनके कुल के दास।
तिन भाषा कविता करी , जड़मति केशवदासड्ड