भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

परन्तु जिस विषय को उन्होंने हाथ में लिया उसको पूर्णता प्रदान की। उनके बनाये हुए ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’नामक ग्रन्थ रीति-ग्रन्थों के सिरमौर हैं। पहले भी साहित्य विषय के कुछ ग्रन्थ बने थे और उनके उपरान्त भी अनेक रीति ग्रन्थ लिखे गये परन्तु अब तक प्रधानता उन्हीं के ग्रन्थों को प्राप्त है। जब साहित्य-शिक्षा का कोई जिज्ञासु हिन्दी-क्षेत्र में पदार्पण करता है, तब उसको ‘रसिक-प्रिया’ का रसिक और ‘कविप्रिया’ का प्रेमिक अवश्य बनना पड़ता है। इससे इन दोनों ग्रन्थों की महत्ता प्रकट है। जिन्होंने इन दोनों ग्रन्थों को पढ़ा है वे जानते हैं कि इनमें कितनी प्रौढ़ता है। रीति-सम्बन्धी सब विषयों का विशद वर्णन थोड़े में जैसा इन ग्रन्थों में मिलता है, अन्यत्रा नहीं। ‘रसिक-प्रिया’ में शृंगार रस सम्बन्धी समस्त विशेषताओं का उल्लेख बड़े पाण्डित्य के साथ किया गया है। कवि-प्रिया वास्तव में कविप्रिया है, कवि के लिए जितनी बातें ज्ञातव्य हैं उनका विशद निरूपण इस ग्रन्थ में है। मेरा विचार है कि केशवदास की कवि-प्रतिभा का विकास जैसा इन ग्रन्थों में हुआ, दूसरे ग्रन्थों में नहीं। क्या भाषा, क्या भाव, क्या शब्द-विन्यास, क्या भाव-व्यंजना, जिस दृष्टि से देखिए ये दोनों ग्रन्थ अपूर्व हैं। उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त और ग्रन्थों की रचना की है। उनमें सर्वप्रधान रामचन्द्रिका है। यह प्रबन्धा-काव्य है। इस ग्रन्थ के संवाद ऐसे विलक्षण हैं जो अपने उदाहरण आप हैं। इस ग्रन्थ का प्रकृति-वर्णन भी बड़ा ही स्वाभाविक है।

कहा जाता है कि हिन्दी-संसार के कवियों ने प्रकृति-वर्णन के विषय में बड़ी उपेक्षा की है। उन्होंने जब प्रकृति-वर्णन किया है तब उससे उद्दीपन का कार्य ही लिया है। प्रकृति में जो स्वाभाविकता होती है, प्रकृतिगत जो सौन्दर्य होता है, उसमें जो विलक्षणताएँ और मुग्धाकारिताएँ पाई जाती हैं, उनका सच्चा चित्राण हिन्दी-साहित्य में नहीं पाया जाता। किसी नायिका के विरह का अवलम्बन करके ही हिन्दी कवियों और महाकवियों ने प्रकृति-गत विभूतियों का वर्णन किया है। सौन्दर्य-सृष्टि के लिए उन्होंने प्रकृति का निरीक्षण कभी नहीं किया। इस कथन में बहुत कुछ सत्यता का अंश है। कवि-कुलगुरु-वाल्मीकि एवं कविपुंगव कालिदास की रचनाओं में जैसा उच्च कोटि का स्वाभाविक प्रकृति वर्णन मिलता है, निस्सन्देह हिन्दी-साहित्य में उसका अभाव है। यदि हिन्दी-संसार के इस कलंक को कोई कुछ धोता है तो वे कविवर केशवदास के ही कुछ प्राकृतिक वर्णन हैं और वे रामचन्द्रिका ही में मिलते हैं। मैं आगे चलकर इस प्रकार के पद्य उद्धृत करूँगा। यह कहा जाता है कि प्रबंधा-काव्यों को जितना सुशृंखलित होना चाहिए रामचंद्रिका वैसी नहीं है। इसमें स्थान-स्थान पर कथा भागों की शृंखला टूटती रहती है। दूसरी यह बात कही जाती है कि जैसी भावुकता और सहृदयता चाहिए वैसी इस ग्रन्थ में नहीं मिलती। ग्रन्थ क्लिष्ट भी बड़ा है। एक-एक पद्यों का तीन-तीन, चार-चार अर्थ प्रकट करने की चेष्टा करने के कारण इस ग्रन्थ की बहुत-सी रचनाएँ बड़ी ही गूढ़ और जटिल हो गयी हैं, जिससे उनमें प्रसाद गुण का अभाव है। इन विचारों के विषय में मुझे यह कहना है कि किसी भी ग्रन्थ में सर्वांगपूर्णता असम्भव है। उसमें कुछ न कुछ न्यूनता रह ही जाती है। संस्कृत के बड़े-बड़े महाकाव्य भी निर्दोष नहीं रहे। इसके अतिरिक्त आलोचकों की प्रकृति भी एक-सी नहीं होती। रुचि-भिन्नता के कारण किसी को कोई विषय प्यारा लगता है और कोई उसमें अरुचि प्रकट करता है। प्रवृत्तिा के अनुसार ही आलोचना भी होती है। इसलिए सभी आलोचनाओं में यथार्थता नहीं होती। उनमें प्रकृतिगत भावनाओं का विकास भी होता है। इसीलिए एक ही ग्रन्थ के विषय में भिन्न-भिन्न सम्मतियाँ दृष्टिगत होती हैं। केशवदास जी की रामचन्द्रिका के विषय में भी इस प्रकार की विभिन्न आलोचनाएँ हैं। किसी के विशेष विचारों के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। किन्तु देखना यह है कि रामचन्द्रिका के विषय में उक्त तर्कनाएँ कहाँ तक मान्य हैं। प्रत्येक ग्रन्थकार का कुछ उद्देश्य होता है और उस उद्देश्य के आधार पर ही उसकी रचना आधारित होती है। केशवदास की रचनाओं में, जिन्हें प्रसाद गुण देखना हो वे ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ को देखें। उनमें जितनी सहृदयता है उतनी ही सरसता है। जितनी सुन्दर उनकी शब्द विन्यास प्रणाली है उतनी ही मधुर है उनकी भाव-व्यंजना। रामचन्द्रिका की रचना पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए हुई है और मैं यह दृढ़ता से कहता हूँ कि हिन्दी-संसार में कोई प्रबन्धा-काव्य इतना पाण्डित्यपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूँ कि वे संस्कृत के पूर्ण विद्वान थे। उनके सामने शिशुपाल-वधा और ‘नैषधा’ का आदर्श था। वे उसी प्रकार का काव्य हिन्दी के निर्माण करने के उत्सुक थे। इसीलिए रामचन्द्रिका अधिक गूढ़ है। साहित्य के लिए सब प्रकार के ग्रन्थों की आवश्यकता होती है। यथास्थान सरलता और गूढ़ता दोनों वांछनीय हैं। यदि लघुत्रायी आदरणीय है तो बृहत्त्रायी भी। रघुवंश को यदि आदर की दृष्टि से देखा जाता है तो नैषधा को भी। यद्यपि दोनों की रचना प्रणाली में बहुत अधिक अन्तर है। प्रथम यदि मधुर भाव-व्यंजना के लिए आदरणीय है तो द्वितीय अपनी गम्भीरता के लिए। शेक्सपियर और मिल्टन की रचनाओं के सम्बन्धा में भी यही बात कही जा सकती है। केशवदास जी यदि चाहते तो ‘कवि प्रिया’ और ‘रसिक प्रिया’ की प्रणाली ही रामचन्द्रिका में भी ग्रहण कर सकते थे। परन्तु उनको यह इष्ट था कि उनकी एक ऐसी रचना भी हो जिसमें गम्भीरता हो और जो पाण्डित्याभिमानी को भी पाण्डित्य-प्रकाश का अवसर दे अथच उसकी विद्वत्ता को अपनी गम्भीरता की कसौटी पर कस सके। इस बात को हिन्दी के विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। प्रसिध्द कहावत है-‘कवि को दीन न चहै बिदाई। पूछै केशव की कविताई।’ एक दूसरे कविता-मर्मज्ञ कहते हैं-

उत्ताम पद कबि गंग को , कविता को बलबीर।

केशव अर्थ गँभीरता , सूर तीन गुन धीरड्ड

इन बातों पर दृष्टि रखकर रामचन्द्रिका की गम्भीरता इस योग्य नहीं कि उस पर कटाक्ष किया जावे। जिस उद्देश्य से यह ग्रन्थ लिखा गया है, मैं समझता हूँ, उसकी पूर्ति इस ग्रन्थ द्वारा होती है। इस ग्रन्थ के अनेक अंश सुन्दर, सरस और हृदयग्राही भी हैं और उनमें प्रसाद गुण भी पाया जाता है। हाँ,यह अवश्य है कि वह गम्भीरता के लिए ही प्रसिध्द हैं। मैं समझता हूँ कि हिन्दी संसार में एक ऐसे ग्रन्थ की भी आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति करना केशवदास जी का ही काम था। अब केशवदास जी के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूँ। इसके बाद भाषा और विशेषताओं के विषय में आप लोगों की दृष्टि उनकी ओर आकर्षित करूँगा-

1. भूषण सकल घनसार ही के घनश्याम ,

कुसुम कलित केश रही छवि छाई सी।

मोतिन की लरी सिरकंठ कंठमाल हार ,

और रूप ज्योति जात हेरत हेराई सी।

चंदन चढ़ाये चारु सुन्दर शरीर सब ,

राखी जनु सुभ्र सोभा बसन बनाई सी।

शारदा सी देखियत देखो जाइ केशो राइ ,

ठाढ़ी वह कुँवरि जुन्हाई मैं अन्हाई सी।

2. मन ऐसो मन मृदु मृदुल मृणालिका के ,

सूत कैसो सुर धवनि मननि हरति है।

दारयो कैसो बीज दाँत पाँत के अरुण ओंठ ,

केशोदास देखि दृग आनँद भरति है।

ऐरी मेरी तेरी मोहिं भावत भलाई तातें ,

बूझत हौं तोहि और बूझति डरति है।

माखन सी जीभ मुखकंज सी कोमलता में ,

काठ सी कठेठी बात कैसे निकरति है।

3. किधौं मुख कमल ये कमला की ज्योति होति

किधौं चारु मुखचन्द्र चन्द्रिका चुराई है।

किधौं मृगलोचन मरीचिका मरीचि कैधौं ,

रूप की रुचिर रुचि सुचि सों दुराई है।

सौरभ की सोभा की दलन घनदामिनी की

केशव चतुर चित ही की चतुराई है।

ऐरी गोरी भोरी तेरी थोरी थोरी हाँसी मेरे ,

मोहन की मोहिनी की गिरा की गुराई है।

4. बिधि के समान हैं बिमानी कृत राज हंस ,

विबुधा बिवुधा जुत मेरु सो अचल है।

दीपत दिपत अति सातो दीप दीपियत ,

दूसरो दिलीप सो सुदक्षिणा को बल है।

सागर उजागर को बहु बाहिनी को पति ,

छनदान प्रिय किधौं सूरज अमल है।

सब विधि समरथ राजै राजा दशरथ ,

भगीरथ पथ गामी गंगा कैसो जल है।

5. तरु तालीस तमाल ताल हिंताल मनोहर।

मंजुल बंजुल लकुच बकुल कुल केर नारियर।

एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहै।

सारी शुक कुल कलित चित्ता कोकिल अलि मोहै।

शुभ राजहंस कलहंस कुल नाचत मत्ता मयूर गन।

अति प्रफुलित फलित सदा रहै केशवदास विचित्राबन।

6. चढ़ो गगन तरु धाय , दिनकर बानर अरुण मुख।

कीन्हों झुकि झहराय , सकल तारका कुसुम बिन।

7. अरुण गात अति प्रात , पिर्निं प्राणनाथ भय।

मानहुँ केशवदास , कोकनद कोक प्रेममय।

परिपूरण सिंदूर पूर , कैधौं मंगल घट।

किधौं शक्र को क्षत्रा , मढ़यो माणिक मयूख पट।

कैशौणित कलित कपाल यह किल कापालिक कालको ,

यह ललित लाल कैधौं लसत दिग्भामिनि के भालको ,

8. श्रीपुर में बनमधय हौं , तू मग करी अनीति।

कहि मुँदरी अब तियन की , को करि है परतीति।

9. फलफूलन पूरे तरुवर रूरे कोकिल कुल कलरव बोलैं।

अति मत्तामयूरी पियरस पूरी बनबन प्रति नाचत डोलैं ,

सारी शुक पंडित गुनगन मंडित भावनमय अर्थ बखानैं

देखे रघुनायक सीय सहायक मनहुँ मदन रति मधुजानैं

10. मन्द मन्द धुनि सों घन गाजै।

तूर तार जनु आवझ बाजैं।

ठौर ठौर चपला चमकैं यों।

इन्द्रलोक तिय नाचति है ज्यों।

सोहैं घन स्यामल घोर घने।

मोहैं तिनमें बक पाँति मने।

शंखावलि पी बहुधा जलस्यों।

मानो तिनको उगिलै बलस्यों।

शोभा अति शक्र शरासन में।

नाना दुति दीसति है घन में।

रत्नावलि सी दिवि द्वार भनो।

बरखागम बाँधिय देव मनो।

घन घोर घने दसहूं दिसि छाये।

मघवा जनु सूरज पै चढ़ि आये।

अपराधा बिना छिति के तन ताये।

तिन पीड़न पीड़ित ह्नै उठि धाये।

अति गाजत बाजत दुंदुभि मानो।

निरघात सबै पविपात बखानो।

धानु है यह गौरमदाइन नाहीं।

सर जाल बहै जलधार वृथाहीं।

भट चातक दादुर मोर न बोले।

चपला चमकै न फिरै खग खोले।

दुति वन्तन को विपदा बहु कीन्हीं।

धारनी कहं चन्द्रवधू धर दीन्हीं।

11. सुभसर सोभै , मुनिमन लोभै।

सरसिज फूले , अलि रस भूले।

जलचर डोलैं बहुत खग बोलैं।

वरणि न जाहीं , उर उरझाहीं।

12. आरक्त पत्रा सुभ चित्रा पुत्री

मनो विराजै अति चारु भेषा।

सम्पूर्ण सिंदूर प्रभा बसै घौं

गणेश-भाल-स्थल चन्द्र रेखा।

केशवदास जी की भाषा के विषय में विचार करने के पहले मैं यह प्र्रकट कर देना चाहता हूँ कि इनके ग्रन्थ में जो मुद्रित होकर प्राप्त होते हैं, यह देखा जाता है कि एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इससे किसी सिध्दान्त पर पहुँचना बड़ा दुस्तर है। फिर भी सब बातों पर विचार करके और व्यापक प्रयोग पर दृष्टि रखकर मैं जिस सिध्दान्त पर पहुँचा हूँ, उसको आप लोगों के सामने प्रकट करता हूँ। केशवदास जी के ग्रन्थों की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है। परन्तु बुन्देलखंडी शब्दों का प्रयोग भी उनमें पाया जाता है। यह स्वाभाविकता है। जिस प्रान्त में वे रहते थे उस प्रान्त के कुछ शब्दों का उनकी रचना में स्थान पाना आश्चर्यजनक नहीं। इस दोष से कोई कवि या महाकवि मुक्त नहीं। बुन्देलखंडी भाषा लगभग ब्रजभाषा ही है और उसकी गणना भी पश्चिमी हिन्दी में ही है। हाँ, थोड़े से शब्दों या प्रयोगों में भेद अवश्य है। परन्तु इससे ब्रजभाषा की प्रधानता में कोई अन्तर नहीं आता। केशवदास जी ने यथास्थान बुन्देलखंडी शब्दों का जो अपने ग्रन्थ में प्रयोग किया है, मेरा विचार है कि इसी दृष्टि से। ब्रजभाषा के जो नियम हैं वे सब उनकी रचना में पाये जाते हैं। इसलिए उन नियमों पर उनकी रचना को कसना व्यर्थ विस्तार होगा। मैं उन्हीं बातों का उल्लेख करूँगा जो ब्रजभाषा से कुछ भिन्नता रखती हैं।

मैं पहले कह चुका हूँ कि केशवदास जी संस्कृत के पंडित थे। ऐसी अवस्था में उनका संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में लिखने के लिए सचेष्ट रहना स्वाभाविक है। वे अपनी रचनाओं में यथाशक्ति संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में लिखना ही पसन्द करते हैं। यदि कोई कारण-विशेष उनके सामने उपस्थित न हो जावे। एक बात और है। वह यह कि बुन्देलखंड में णकार और शकार का प्रयोग प्राय: बोल-चाल में अपने शुध्द रूप में किया जाता है। इसलिए भी उन्होंने संस्कृत के उन तत्सम शब्दों को जिनमें णकार और शकार आते हैं प्राय: शुध्द रूप में ही लिखने की चेष्टा की है। उसी अवस्था में उनको बदला है जब उनके परिवर्तन से या तो पद्य में कोई सौन्दर्य आता है या अनुप्रास की आवश्यकता उन्हें विवश करती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ब्रजभाषा और अवधी के नियमों का पूरा पालन किया है किन्तु जब उन्होंने किसी अन्य प्रान्त का शब्द लिया तो उसको उसी रूप में लिखा। वे रामायण के अरण्य कांड में एक स्थान पर रावण के विषय में लिखतेहैं-

‘इत उत चितै चला भणिआई’। ‘भणिआ’ शब्द बुन्देलखंडी है। उसका अर्थ है ‘चोर’ ‘भणिआई’ का अर्थ है ‘चोरी’। गोस्वामीजी चाहते तो उसको ‘भनिआई’ अवधी के नियमानुसार बना लेते, परन्तु ऐसा करने में अर्थ-बोधा में बाधा पड़ती। एक तो शब्द दूसरे प्रान्त का, दूसरे यदि वह अपने वास्तव रूप में न हो तो उसका अर्थ-बोधा सुलभ कैसे होगा? इसलिए उसका अपने मुख्य रूप में लिखा जाना ही युक्तिसंगत था। गोस्वामी जी ने ऐसा ही किया। केशवदास जी की दृष्टि भी इसी बात पर थी इसीलिए उन्होंने वह मार्ग ग्रहण किया जिसकी चर्चा मैंने अभी की है। कुछ पद्य मैं लिखकर अपने कथन को पुष्ट करना चाहता हूँ। देखिए-

1. सब शृंगार मनो रति मन्मथ मोहै।

2. सबै सिंगार सदेह सकल सुख सुखमा मंडित।

3. मनो शची विधि रची विविधा विधि वर्णत पंडित।

4. जानै को केसव केतिक बार मैं सेस के सीसन दीन्ह उसासी।

ऊपर की दो पंक्तियों में एक में ‘शृंगार’ और दूसरी में ‘सिंगार’ आया है। ‘शृंगार’ संस्कृत का तत्सम शब्द है। अतएव अपने सिध्दान्तानुसार उसको उन्होंने शुध्द रूप में लिखा है, क्योंकि शुध्द रूप में लिखने से छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ी। परन्तु दूसरी पंक्ति में उन्होंने उसका वह रूप लिखा है जो ब्रजभाषा का रूप है। दोनों पंक्तियाँ एक ही पद्य की हैं। फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? कारण स्पष्ट है। ‘शृंगार’ में पाँच मात्राएँ हैं और ‘सिंगार’ में चार मात्राएँ हैं। दूसरे चरण में ‘शृंगार’ खप नहीं सकता था। क्योंकि एक मात्रा अधिक हो जाती। इसलिए उन्हें उसको ब्रजभाषा ही के रूप में रखना पड़ा। अपने-अपने नियमानुसार दोनों रूप शुध्द हैं। चौथे पद्य में उन्होंने अपने नाम को दन्त्य ‘स’ से ही लिखा, यद्यपि वे अपने नाम में तालव्य’श’ लिखना ही पसन्द करते हैं, यहाँ भी यह प्रश्न होगा कि फिर कारण क्या? इसी पंक्ति में ‘सेस’ और ‘सीसन’ शब्द भी आये हैं जिनका शुध्द रूप ‘शेष’ और ‘शीशन’ है। इस शुध्द रूप में लिखने में भी छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ती। क्योंकि मात्रा में न्यूनाधिक्य नहीं। फिर भी उन्होंने उसको ब्रजभाषा के रूप में ही लिखा। इसका कारण भी विचारणीय है, वास्तव बात यह है कि उनके कवि हृदय ने अनुप्रास का लोभ संवरण नहीं किया। अतएव उन्होंने उनको ब्रजभाषा के रूप ही में लिखना पसंद किया। ‘केसव’ ‘सेस’ और ‘सीसन’ ने दन्त्य ‘स’ के सहित ‘उसासी’ के साथ आकर जो स्वारस्य उत्पन्न किया है वह उन शब्दों के तत्सम रूप में लिखे जाने से नष्ट हो जाता। इसलिए उनको इस पद्य में तत्सम रूप में नहीं देख पाते। ऐसी ही और बातें बतलाई जा सकती हैं कि जिनके कारण केशवदास जी एक ही शब्द को भिन्न रूपों में लिखते हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि उनका कोई सिध्दान्त नहीं, वे जब जिस रूप में चाहते हैं किसी शब्द को लिख देते हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने जो कुछ किया है, नियम के अन्तर्गत ही रहकर किया है। दो ही रूप उनकी रचना में आते हैं या तो संस्कृत शब्द अपने तत्सम रूप में आता है अथवा ब्रजभाषा के तद्भव रूप में, और यह दोनों रूप नियम के अन्तर्गत हैं। ऐसी अवस्था में यह सोचना कि शब्द-व्यवहार में उनका कोई सिध्दान्त नहीं, युक्ति-संगत नहीं।

मैंने यह कहा कि उनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है। इसका प्रमाण समस्त उद्धृत पद्यों में मौजूद है। उनमें अधिकांश ब्रजभाषा के नियमों का पालन है। युक्त-विकर्ष, कारकलोप, ‘णकार’, ‘शकार’, ‘क्षकार’ के स्थान पर ‘न’, ‘स’ और ‘छ’का प्रयोग, प्राकृत भाषा के प्राचीन शब्दों का व्यवहार, प×चम वर्ण के स्थान पर अधिकांश अनुस्वार का ग्रहण इत्यादि जितनी विशेष बातें ब्रजभाषा की हैं, वे सब उनकी रचना में पाई जाती हैं। उद्धृत पद्यों में से पहले, दूसरे और तीसरे नम्बर पर लिखे गये कवित्ताों में तो ब्रजभाषा की सभी विशेषताएँ मूर्तिमन्त होकर विराजमान हैं। हाँ, कुछ तत्सम शब्द अपने शुध्द रूप में अवश्य आये हैं। इसका हेतु मैं ऊपर लिख चुका हूँ। उनकी रचना में ‘गौरमदाइन’, ‘स्यों’, ‘बोक’, ‘बारोठा’, ‘समदौ’, ‘भाँडयो’आदि शब्द भी आते हैं।

नीचे लिखी हुई पंक्तियाँ इसके प्रमाण हैं-

1. देवन स्यों जनु देवसभा शुभ सीय स्वयम्बर देखन आई।

2. “ दुहिता समदौ सुख पाय अबै। “

3. कहूँ भाँड़ भांडयो करैं मान पावैं।

4. कहूँ बोक बाँके कहूँ मेष सूरे।

5. धानु है यह गौरमदाइन नाहीं।

6. ‘ बारोठे को चार कहि करि केशव अनुरूप ‘ ।

ये बुन्देलखंडी शब्द हैं। उनके प्रान्त की बोलचाल में ये शब्द प्रचलित हैं। इसलिए विशेष स्थलों पर उनको इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते देखा जाता है। किन्तु फिर भी इस प्रकार के प्रयोग मर्य्यादित हैं और संकीर्ण स्थलों पर ही किये गये हैं। इसलिए मैं उनको कटाक्ष योग्य नहीं मानता। उनकी रचना में एक विशेषता यह है कि वे तत्सम शब्दों को यदि किसी स्थान पर युक्त-विकर्ष के साथ लिखते हैं तो भी उसमें थोड़ा ही परिवर्तन करते हैं। जब उनको क्रिया का स्वरूप देते हैं तो भी यही प्रणाली ग्रहण करते हैं। देखिए-

1. इनहीं के तपतेज तेज बढ़ि है तन तूरण A

इन्हीं के तपतेज होहिंगे मंगल पूरण A

2. रामचन्द्र सीता सहित शोभत हैं तेहि ठौर।

3. मनो शची विधि रची विविधा विधि वर्णत पंडित।

‘तूरण’, ‘पूरण’, ‘शोभत’, ‘वर्णत’ इत्यादि शब्द इसके प्रमाण हैं। ब्रजभाषा के नियमानुसार इनको ‘तूरन’, ‘पूरन’, ‘सोभत’, ‘बरनत’ लिखना चाहिए था। किन्तु उन्होंने इनको इस रूप में नहीं लिखा। इसका कारण् भी उनका संस्कृत तत्सम शब्दानुराग है। बुन्देलखंडी भाषा में ‘हुतो’ एकवचन पुंल्लिंग में और ‘हते’ बहुवचन पुंल्लिंग में बोला जाता है। इनका स्त्राीलिंग रूप ‘हतों’और ‘हती’ होगा। ब्रजभाषा में ए दोनों तो लिखे जाते ही हैं, ‘हुतो’ और ‘हुती’ भी लिखा जाता है। वे भी दोनों रूपों का व्यवहार करते हैं। जैसे ‘सुता विरोचन की हुती दीरघजिह्ना नाम।’

उनको अवधी के ‘इहाँ’, ‘उहाँ’, ‘दिखाउ’, ‘रिझाउ’, ‘दीन’, ‘कीन’ इत्यादि का प्रयोग करते भी देखा जाता है। वे ‘होइ’ भी लिखते हैं, ‘होय’ भी, देखिए-

1. एक इहाँऊँ उहाँ अतिदीन सुदेत दुहूँ दिसि के जनगारी।

2. प्रभाउ आपनो दिखाउ छोंड़ि वाजि भाइ कै।

3. रिझाउ रामपुत्र मोहिं राम लै छुड़ाइ कै।

4. अन्न देइ सीख देइ राखि ले प्राण जात।

5. हँसि बंधु त्यों दृगदीन। श्रुतिनासिका बिनु कीन।

6. कीधौं वह लक्षमण होइ नहीं।

इसका कारण यही मालूम होता है कि उस काल हिन्दी भाषा के बड़े-बड़े कवियों का विचार साहित्यिक भाषा को व्यापक बनाने की ओर था। इसलिए वे लोग कम से कम अवधी और ब्रजभाषा में कतिपय आवश्यक और उपयुक्त शब्दों के व्यवहार में कोई भेद नहीं रखना चाहते थे। इस काल के महाकवि सूर, तुलसी और केशव को इसी ढंग से ढला देखा जाता है। उन्होंने अपनी रचना एक विशेष भाषा में ही अर्थात् अवधी या ब्रजभाषा में की है। परन्तु एक-दूसरे में इतना विभेद नहीं स्वीकार किया कि उनके प्रचलित शब्दों का व्यवहार विशेष अवस्थाओं और संकीर्ण स्थलों पर न किया जावे। इन महाकवियों के अतिरिक्त उस काल के अन्य कवियों का झुकाव भी इस ओर देखा जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से यह बात ज्ञात होगी।

केशवदासजी की रचनाओं में पांडित्य कितना है, इसके परिचय के लिए आप लोग उद्धृत पद्यों में से चौथे पद्य को देखिए। उसमें इस प्रकार के वाक्यों का प्रयोग है जो दो अर्थ रखते हैं। मैं उनको स्पष्ट किये देता हूँ। चौथे पद्य में उन्होंने महाराज दशरथ को विधि के समान कहा है, क्योंकि दोनों ही ‘विमानी कृत राजहंस’ हैं। इसका पहला अर्थ जो विधिपरक है यह है कि राजहंस उनका वाहन (विमान) है। दूसरा अर्थ जो महाराज दशरथपरक है, यह है कि उन्होंने राजाओं की आत्मा (हंस) को मानरहित बना दिया, अर्थात् सदा वे उनके चित्ता पर चढ़े रहते हैं। सुमेरु पर्वत अचल है। दूसरे पद्य में उसी के समान उन्होंने महाराज दशरथ को भी अचल बनाया। भाव इसका यह है कि वे स्र्वकर्तव्य-पालन में दृढ़ हैं। दूसरी बात यह है कि यदि वह विविधा ‘विबुधा-जुत’ है, अर्थात् विविधा देवता उस पर रहते हैं तो महाराज दशरथ जी के साथ विविधा विद्वान् रहते हैं। ‘विबुधा’का दोनों अर्थ है, देवता और विद्वान। दूसरे चरण में ‘सुदक्षिणा’ शब्द का दो अर्थ है। राजा दशरथ को अपने पूर्व पुरुष ‘दिलीप’के समान बनाया गया है। इस उपपत्तिा के साथ कि यदि उनके साथ उनकी पत्नी सुदक्षिणा थीं, जिनका उनको बल था, तो उनको भी सुन्दर दक्षिणा का अर्थात् सत्पात्रा में दान देने का बल है। तीसरे चरण में उनको सागर समान कहा है, इसलिए कि दोनों ही ‘वाहिनी’ के पति और गम्भीर हैं। ‘वाहिनी’ का अर्थ सरिता और सेना दोनों हैं। इसी चरण में उनको सूर्य के समान अचल कहा है। इस कारण कि ‘छनदान प्रिय’ दोनों हैं। इसलिए कि महाराज दशरथ को तो क्षण-क्षण अथवा पर्व-पर्व पर दान देना प्रिय है और सूर्य ‘छनदा’ (क्षणदा) न-प्रिय है अर्थात् रात्रिा उसको प्यारी नहीं है। चौथे चरण में महाराज दशरथ को उन्होंने गंगा-जल बनाया है, क्योंकि दोनों भगीरथ-पथ गामी हैं। महाराज दशरथ के पूर्व पुरुष महाराज भगीरथ थे अतएव उनका भगीरथ पथावलम्बी होना स्वाभाविक है। इस अंतिम उपमा में बड़ी ही सुन्दर व्यंजना है। गंगा-जल का पवित्रा और उज्ज्वल अथच सद्भाव के साथ चुपचाप भगीरथ पथावलम्बी होना पुराण-प्रसिध्द बात है। इस व्यंजना द्वारा महाराज दशरथ के भावों को व्यंजित करके कवि ने कितनी भावुकता दिखलाई है, इसको प्रत्येक हृदयवान भली-भाँति समझ सकता है। अन्य उपमाओं में भी इसी प्रकार की व्यंजना है, परन्तु उनका स्पष्टीकरण व्यर्थ विस्तार का हेतु होगा। इस प्रकार के पद्यों से ‘रामचन्द्रिका’ भरी पड़ा है। कोई पृष्ठ इस ग्रन्थ का शायद ही ऐसा होगा कि जिसमें इस प्रकार के पद्य न हों। दो अर्थ वाला, पद्य आपने देखा, उसमें कितना विस्तार है। तीन-तीन चार-चार अर्थ वाले पद्य कितने विचित्रा होंगे, उनका अनुभव आप इस पद्य से ही कर सकते हैं। मैं उन पद्यों में से भी कुछ पद्य आप लोगों के सामने रख सकता था। परन्तु उसकी लम्बी-चौड़ी व्याख्या से आप लोग तो घबराएँगे ही, मैं भी घबराता हूँ। इसलिए उनको छोड़ता हूँ। केशवदास जी के पांडित्य के समर्थक सब हिन्दी-साहित्य के मर्मज्ञ हैं। इस दृष्टि से भी मुझे इस विषय का त्याग करना पड़ता है।

केशवदास जी का प्रकृति-वर्णन कैसा है, इसके लिए मैं आप लोगों से उद्धृत पद्यों में से नम्बर 5, 6, 7, 9, 10, 11 की रचनाओं को विशेष धयानपूर्वक अवलोकन करने का अनुरोधा करता हूँ। इन पद्यों में जहाँ स्वाभाविकता है वहाँ गम्भीरता भी है। कोई-कोई पद्य बड़े स्वाभाविक हैं और किसी-किसी पद्य का चित्राण इतना अपूर्व है कि वह अपने चित्रों को ऑंख के सामने ला देता है।

‘रामचन्द्रिका’ अनेक प्रकार के छन्दों के लिए भी प्रसिध्द है। इतने छन्दों में आज तक हिन्दी भाषा का कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया। नाना प्रकार के हिन्दी के छन्द तो इस ग्रन्थ में हैं ही। केशवदास जी ने इसमें कई संस्कृत वृत्ताों को भी लिखा है। संस्कृत वृत्ताों की भाषा भी अधिकांश संस्कृत गर्भित है, वरन उसको एक प्रकार से संस्कृत की ही रचना कही जा सकती है। उद्धृत पद्यों में से बारहवाँ पद्य इसका प्रमाण है। भिन्न तुकान्त छन्दों की रचना का हिन्दी-साहित्य में अभाव है। परन्तु केशवदासजी ने रामचन्द्रिका में इस प्रकार का एक छन्द भी लिखा है, जो यह है-

मालिनी

गुणगण मणि माला चित्ता चातर्ुय्य शाला।

जनक सुखद गीता पुत्रिाका पाय सीता।

अखिल भुवन भत्तर् ब्रह्म रुद्रादि कत्तर्।

थिरचर अभिरामी कीय जामातु नामी।

संस्कृत वृत्ताों का व्यवहार सबसे पहले चन्दबरदाई ने किया है। उनका वह छन्द यह है-

“ हरित कनक कांति कापि चंपेव गौरा।

रसित पदुम गंधा फुल्ल राजीव नेत्रा।

उरज जलज शोभा नाभि कोषं सरोजं।

चरण-कमल हस्ती लीलया राजहंसी। “

इसके बाद गोस्वामीजी को संस्कृत छन्दों में संस्कृतगर्भित रचना करते देखा जाता है। विनयपत्रिाका का पूर्वार्ध्द तो संस्कृत-गर्भित रचनाओं से भरा हुआ है। गोस्वामीजी के अनुकरण से अथवा अपने संस्कृत-साहित्य के प्रेम के कारण केशवदासजी को भी संस्कृत गर्भित रचना संस्कृत वृत्ताों में करते देखते हैं। इनके भी कोई-कोई पद्य ऐसे हैं जिनको लगभग संस्कृत का ही कह सकते हैं। इन्होंने 300 वर्ष पहले भिन्न तुकान्त छन्द की नींव भी डाली, और वे ऐसा संस्कृत वृत्ताों के अनुकरण से ही कर सके।

( क)

इस सोलहवीं शताब्दी में और भी कितने ही प्रसिध्द कवि हिन्दी भाषा के हो गये हैं। उनकी रचनाओं को उपस्थित किया जाना इसलिए आवश्यक है कि जिससे इस शताब्दी की व्यापक भाषा पर पूर्णतया विचार किया जा सके। इसी शताब्दी में एक भक्त स्त्राी भी कवयित्राी के रूप में सामने आती हैं और वे हैं मीराबाई। पहले मैं उनकी रचनाओं को आपके सामने उपस्थित करता हूँ। मीराबाई बहुत प्रसिध्द महिला हैं। वे चित्ताौड़ के राणा की पुत्रवधू थीं। परन्तु उनमें त्याग इतना था कि उन्होंने अपना समस्त जीवन भक्ति भाव में ही बिताया। उनके भजनों में इतनी प्रबलता से प्रेम-धारा बहती है कि उससे आर्द्र हुए बिना कोई सहृदय नहीं रह सकता। वे सच्ची वैष्णव महिला थीं और उनके भजनों के पद-पद से उनका धार्म्मानुराग टपकता है इसीलिए उनकी गणना भगवद्भक्त स्त्रिायों में होती है। उस काल के प्रसिध्द सन्तों और महात्माओं में से उनका सम्मान किसी से कम नहीं है। उनकी रचनाएँ देखिए-

1. “ मेरे तो गिरधार गुपाल दूसरा न कोई।

दूसरा न कोई साधो सकल लोक जोई।

भाई तजा बन्धाु तजा तजा सगा सोई।

साधु संग बैठि बैठि लोक लाज खोई।

भगत देखि राजी हुई जगत देखि रोई।

ऍंसुअन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।

दधि मथ घृत काढ़ि लियो डार दई छोई।

राणा विष प्यालो भेज्यो पीय मगन होई।

अब तो बात फैलि गई जाणै सब कोई।

मीरा राम लगण लागी होणी होय सो होई। “

2. एरी मैं तो प्रेम दिवाणी मेरा दरद न जाणे कोय।

सूली ऊपर सेज हमारी किस विधा सोणा होय।

गगन मंडल पै सेज पिया की किस विधि मिलना होय।

घायल की गति घायल जानै की जिन लाई होय।

जौहरी की गति जौहरी जाने की जिन जौहर होय।

दरद की मारी बन बन डोलूँ वैद मिला नहिं कोय।

मीरा की प्रभु पीर मिटैगी (जब) बैद सँवालिया होय।

3. बसो मेरे नैनन में नँदलाल।

मोहनि मूरति साँवरि सूरति नैना बने विसाल।

अधार सुधारस मुरली राजति उर बैजन्ती माल।

छुद्र घंटिका कटि तट शोभित नूपुर शब्द रसाल।

मीरा प्रभु संतन सुखदाई भक्त बछल गोपाल।

4. बंसी वारो आये म्हारे देस।

थारी साँवरी सूरत बारी बैस।

आऊँ आऊँ कर गया साँवरा कर गया कौल अनेक।

गिनते गिनते घिस गई उँगली घिस गई उँगली की रेख।

मैं बैरागिन आदि की थारे म्हारे कद को सँदेस।

जोगिण हुई जंगल सब हेरूं तेरा नाम न पाया भेस।

तेरी सूरत के कारणे धार लिया भगवा भेस।

मोर मुकुट पीताम्बर सोहै घूँघरवाला केस।

मीरा को प्रभु गिरधार मिलि गये दूना बढ़ा सनेस।

सरस कविता के लिए इस शताब्दी में अष्टछाप के वैष्णवों का विशेष स्थान है। इनमें से चार महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे-सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, तथा कुंभनदास और शेष चार नन्ददास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी तथा गोविन्दस्वामी, गोस्वामी विट्ठलनाथ के प्रमुख सेवकों में से थे। इनमें से सूरदास जी की रचनाओं को आप लोग देख चुके हैं,अन्यों की रचनाओं को भी देखिए-

कृष्णदासजी जाति के शूद्र थे किन्तु अपने भक्ति-बल से अष्टछाप के वैष्णवों में स्थान प्राप्त किया था। उनके रचित 1. ‘जुगलमान चरित्रा’, 2. ‘भक्तमाल पर टीका’, 3. ‘भ्रमरगीत’ और, 4. ‘प्रेम सत्तव निरूप’ नामक ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। उनका रचा एक पद देखिए-

“ मो मन गिरधार छबि पै अटक्यो।

ललित त्रिाभंग चाल पै चलिकै

चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो।

सजल श्याम घन बरन लीन ह्नै

फिरि चित अनत न भटक्यो।

कृष्णदास किये प्रान निछावर

यह तन जग सिर पटक्यो। “

परमानन्दजी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनमें भक्ति-विषयक तन्मयता बहुत थी। ‘परमानंद सागर’ नामक इनका एक प्रसिध्द ग्रन्थ है। इनका एक शब्द सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में भी है। वह यह है-

तैं नर का पुराण सुनि कीना।

अनपायनी भगति नहिं उपजी भूखे दान न दीना।

काम न बिसरयो , क्रोधा न बिसरयो , लोभ न छूटयो देवा।

हिंसा तो मन ते नहिं छूटी बिफल भई सब सेवा।

बाट पारि घर मूँसि बिरानो पेट भरै अपराधी।

जेहि परलोक जाय अपकीरति सोई अविद्या साधो।

हिंसा तो मन ते नहिं छूटी जीव दया नहिं पाली।

परमानंद साधु संगति मिलि कथा पुनीत न चाली।

उनका एक पद और देखिए-

“ ब्रज के विरही लोग बिचारे।

बिन गोपाल ठगे से ठाढ़े अति दुर्बल तन हारे।

मातु जसोदा पंथ निहारत निरखत साँझ सकारे।

जो कोई कान्ह कान्ह कहि बोलत ऍंखियन बहत पनारे।

यह मथुरा काजर की रेखा जे निकसे ते कारे।

परमानंद स्वामि बिनु ऐसे जस चन्दा बिनु तारे। “

कुंभनदास जी गौरवा ब्राह्मण थे। इनमें त्याग-वृत्तिा अधिक थी। एक बार अकबर के बुलाने पर फतेहपुर सीकरी गये, परन्तु उनको व्यथित होकर यह कहना पड़ा-

“ भक्तन को कहा सीकरी सों काम।

आवत जात पनहियाँ टूटी बिसरि गयो हरिनाम।

जाको मुख देखे दुख लागै तिनको करिबे परी सलाम।

कुंभन दास लाल गिरधार बिन और सबै बेकाम। “

इनके किसी ग्रन्थ का पता नहीं चलता। एक पद्य और देखिए-

जो पै चोप मिलन को होय।

तो क्यों रहै ताहि बिन देखे लाख करौ किन कोय।

जो ए बिरह परस्पर व्यापै जो कछु जीवन बनै।

लोक लाज कुल की मरजादा एकौ चित्ता न गनै।

कुंभनदास जाहि तन लागी और न कछू सुहाय।

गिरधार लाल ताहि बिन देखे छिन छिन कलप बिहाय।

अष्टछाप के वैष्णवों में कवित्व शक्ति में सूरदास जी के उपरान्त नंददास जी का ही स्थान है। आपकी सरस रचनाओं पर ब्रजभाषा गर्व कर सकती है। कहा जाता है कि आप गोस्वामी तुलसीदास जी के छोटे भाई थे। इसकी सत्यता में संदेह भी किया जाता है। जो हो, परन्तु पद-लालित्य के नाते वे गोस्वामी जी के सहोदर अवश्य हैं। हिन्दी-संसार में उनके विषय में एक कहावत प्रचलित है-”और कवि गढ़िया नंददास जड़िया।” मेरा विचार है कि यह कथन सत्य है। उन्होंने अठारह ग्रन्थों की रचना की है। ‘रास पंचाधयायी’ से इनकी कुछ रचनाएँ यहाँ उद्धृत की जाती हैं-

“ परम दुसह श्री कृष्ण बिरह दुख व्याप्यो तिन में।

कोटि बरस लगि नरक भोग दुख भुगते छिन में।

सुभग सरित के तीर धीर बलबीर गये तहँ।

कोमल मलय समीर छविन की महा भीर जहँ।

कुसुम धूरि धूँधारि कुंज छबि पुंजनि छाई।

गुंजत मंजु मलिंद बेनु जनु बजत सुहाई।

इत महकति मालती चारु चम्पक चित चोरत।

उत घनसारु तुसारु मलय मंदारु झकोरत।

नव मर्कत मनि स्याम कनक मनिमय ब्रजबाला।

वृन्दावन गुन रीझि मनहुँ पहिराई माला।

चतुर्भुजदास जी कुम्भन दास जी के पुत्र थे। वे बाल्यकाल ही से कृष्ण-लीला-गान में मत्ता रहते थे। लीला सम्बन्धी उनकी अनेक रचनाएँ हैं। उन्होंने ‘द्वादशयश’, ‘भक्ति प्रताप’, और ‘हित जू को मंगल’ नामक तीन ग्रन्थ बनाये। उनकी रचना देखिए-

“ जसोदा कहा कहौं बात ?

तुम्हरे सुत के करतब मोपै कहत कहे नहिं जात।

भाजन फोरि , ढारि सब गोरस , लै माखन दधि खात।

जौ बरजौं तौ ऑंखि दिखावै , रंचहुँ नाहिं सकात।

दास चतुर्भुज गिरिधार गुन हौं कहति कहति सकुचात। “

छीतस्वामी मथुरा के चौबे थे। जादू टोना से इनको बड़ा प्रेम था। मथुरा में पाँच चौबे गुण्डे माने जाते थे। ये उनके प्रधान थे। परन्तु श्री विट्ठलनाथजी के सत्संग से उनके हृदय में भगवद्भक्ति का ऐसा प्रवाह बहा कि उनकी गणना अष्टछाप के वैष्णवों में हुई। इनका ग्रंथ कोई नहीं मिलता, फुटकर रचनाएँ मिलती हैं। इनमें से एक पद्य नीचे दिया जाता है-

“ भई अब गिरधार सो पहिचान।

कपट रूप छलबे आये हो पुरुषोत्ताम नहिं जान।

छोटो बड़ो कछू नहिं जान्यो छाय रह्यो अज्ञान।

छीत स्वामि देखत अपनायो बिट्ठल कृपा-निधान। “

गोविन्दस्वामी सनाढय ब्राह्मण थे। उनकी भक्ति प्रसिध्द है। वे बड़े आनन्दी जीव थे। बिट्ठलनाथ जी के मुख से भागवत के भगवल्लीला सम्बन्धी पदों को सुन कर कभी-कभी उन्मत्ता हो जाते थे। इनके भी फुटकर पद ही प्राप्त होते हैं। उनमें से एक यह है-

प्रात समै उठि जसुमति जननी ,

गिरधार सुत को उबटि न्हवावति।

करि शृंगार बसन भूषन सजि ,

फूलन रचि रचि पाग बनावति।

छुटे बंद बागे अति सोभित

बिच बिच चोव अरगजा लावति।

सूथन लाल फूँदना सोभित आजु

कि छवि कछु कहत न आवति।

विविधा कुसुम की माला उर धारि

श्री कर मुरली बेत गहावति।

लै दरपन देखे श्री मुख को

गोविंदप्रभु चरनन सिर नावति।

अष्टछाप के वैष्णवों के अतिरिक्त ब्रजमंडल में दो ऐसे महापुरुष हो गये हैं जिनकी महात्माओं में गणना है। एक हैं स्वामी हित हरिवंश और दूसरे स्वामी हरिदास। हित हरिवंश जी ने राधा-वल्लभी सम्प्रदाय स्थापित किया था। इन्होंने ‘राधा सुधानिधि’ नामक एक काव्य की रचना भी की है। उनके ब्रजभाषा के 84 पद्य बहुत प्रसिध्द हैं। वास्तव में उनमें बड़ी सरसता है। उनके पद्यों में संस्कृत शब्द अधिक आते हैं। किन्तु उनका प्रयोग वे बड़ी रुचिरता से करते हैं। कुछ रचनाएँ उनकी देखिए-

1. आजु बन नीको रास बनायो।

पुलिन पवित्रा सुभग जमुना तट मोहन बेनु बजायो।

कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि खग मृग सचुपायो।

जुवतिन मंडल मधय श्याम घन सारँग राग जमायो।

ताल मृदंग उपंग मुरज डफ मिलि रस सिंधु बहायो।

सकल उदार नृपति चूड़ामणि सुख बारिद बरखायो।

बरखत कुसुम मुदित नभ नायक इन्द्र निसान बजायो।

हित हरिबंस रसिक राधापति जस बितान जग छायो।

2. तनहिं राखु सतसंग में , मनहिं प्रेम रस भेव।

सुख चाहत हरिबंस हित , कृष्ण कल्पतरु सेव।

रसना कटौ जु अनरटौ , निरखि अनफुटौ नैन।

श्रवण फुटौ जो अन सुनौ , बिन राधा जसु बैन।

स्वामी हरिदास ब्राह्मण थे। कोई इन्हें सारस्वत कहता है, कोई सनाढय। ये बहुत बड़े त्यागी और विरक्त थे। ये निम्बार्क सम्प्रदाय के महात्मा थे। इनके शिष्यों में अनेक सुकवि और महात्मा हो गये हैं। ये गान-विद्या के आचार्य थे। तानसेन और बैजू बावरा दोनों इनके शिष्य थे। ये वृन्दावन में ही रहते थे और बड़ी ही तदीयता के साथ अपना जीवन व्यतीत करते थे। इनके पद्यों के तीन-चार संग्रह बतलाये जाते हैं। उनके कुछ पद देखिए-

1. “ गहो मन सब रस को रस सार।

लोक वेद कुल कर्मै तजिये भजिये नित्य बिहार।

गृह कामिनि कंचन धान त्यागो सुमिरो श्याम उदार।

गति हरिदास रीति संतन की गादी को अधिकार। “

2. “ हरि के नाम को आलस क्यों करत है रे।

काल फिरत सर साधो।

हीरा बहुत जवाहिर संचे कहा भयो हस्ती दर बाँधो।

बेर कुबेर कछू नहिं जानत चढ़े फिरत हैं काँधो।

कहि हरिदास कछू न चलत जब आवत अंतक ऑंधो। “

( ख)

अब मैं अकबर के दरबारी कवियों की चर्चा करूँगा। इनके दरबार में भी उस समय अच्छे-अच्छे सुकवि थे। मंत्रिायों में रहीम ख़ानख़ाना, बीरबल और टोडरमल भी कविता करते थे। दरबारी कवियों में गंग और नरहरि का नाम बहुत प्रसिध्द है। रहीम ख़ानख़ाना मुसलमान थे। परन्तु हिन्दी भाषा के बड़े सरस हृदय कवि थे। उनकी रचनाएँ बड़े आदर की दृष्टि से देखी जाती हैं। वे बड़े उदार भी थे और सहृदय कवियों को लाखों दे देते थे। उन्होंने फ़ारसी में भी रचनाएँ की थीं। उनका ‘दीवान फ़ारसी’और ‘वायाते बाबरी’ का फ़ारसी अनुवाद बहुत प्रसिध्द है। हिन्दी में भी उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है। उनकी कुछ हिन्दी रचनाएँ देखिए-

1. कहि रहीम इक दीप तें , प्रगट सबै दुति होय।

तन सनेह कैसे दुरै , जरु दृग दीपक दोयड्ड

2. छार मुंड मेलतु रहतु , कहि रहीम केहि काज।

जेहि रज रिषि-पत्नी तरी , सो ढूँढ़त गजराजड्ड

3. रहिमन राज सराहिये , जो ससि के अस होय।

रवि को कहा सराहिये , जो उगै तरैयन खोयड्ड

4. यों रहीम सुख होत है , बढ़त देखि निज गोत।

ज्यों बड़री अखियाँन लखि , ऑंखिन को सुख होतड्ड

5. ज्यों रहीम गति दीप की , कुल कपूत गति सोय।

बारे उँजियारो लगै , बढ़े ऍंधोरो होयड्ड

6. बालम अस मन मिलयउँ जस पय पानि।

हंसिनि भई सवतिया लइ बिलगानि।

भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप।

एक घरी भरि सजनी रहु चुपचाप।

सघन कुंज अमरैया सीतल छाँहि।

झगरति आइ कोइलिया पुनि उड़ि जाहिं।

लहरत लहर लहरिया लहर बहार।

मोतिन जरी किनरिया बिथुरे बार।

7. कलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था।

चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था।

कटि तट बिच मेला पीत सेला नवेला।

अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला।

टोडरमल अकबर के कर-विभाग के प्रधानमंत्राी थे। बही-खाता का प्रचार सबसे पहले इन्हीं के द्वारा हुआ। हिन्दी दफ्तर को पहले पहल इन्होंने ही फारसी में किया। ये प्रधान कवि नहीं हैं और न इनका कोई ग्रन्थ है। स्फुट कविताएँ इनकी मिल जाती हैं। इनकी एक रचना देखिए-

गुन बिनु धान जैसे गुरु बिन ज्ञान जैसे।

मान बिनु दान जैसे जल बिनु सर है।

कंठ बिनु गीत जैसे हित बिनु प्रीति जैसे।

वेश्या रस रीति जैसे फल बिनु तर है।

तार बिनु जंत्रा जैसे स्याने बिनु मंत्रा जैसे।

नर बिनु नारि जैसे पुत्र बिनु घर है।

टोडर सुकबि तैसे मन में विचार देखो।

धर्म बिनु धान जैसे पच्छी बिना पर हैड्ड

बीरबल अकबर के प्रधानमंत्रिायों में से थे। ये जाति के ब्राह्मण थे, बड़े वीर भी थे। कविता के रसिक थे और स्वयं कविता करते थे। अपने समय में कविजन के कल्पतरु थे। प्रत्युत्पन्नमति ऐसे थे कि अकबर की दृष्टि में इसी कारण उनका विशेष आदर था। बड़े सरस हृदय थे और ललित कविता भी करते थे। दो-एक पद्य देखिए-

1. उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर

उरग पै केकिन के लपटैं लहकि है।

केकिन के सुरति हिये की ना कछू है भय

एकी करि केहरि न बोलत बहकि है।

कहै कवि ब्रह्म बारि हेरत हरिन फिरैं

बैहर बहति बड़े जोर सों जहकि है।

तरनि के तावन तवा-सी भई भूमि रही

दसहूँ दिसान में दवारि सी दहकि है।

2. पेट में पौढ़ि के पौढ़े मही पर

पालना पौढ़ि के बाल कहाये।

आई जबै तरुनाई तिया सँग

सेज पै पौढ़ि के रंग मचाये।

छीर-समुद्र के पौढ़नहार को

ब्रह्म कबौं चित तें नहिं धयाये।

पौढ़त पौढ़त पौढ़त ही सों

चिता पर पौढ़न के दिन आये।

नरहरि अकबरी दरबार के प्रसिध्द कवि थे। वे ज़िला फ़तहपुर-असनी गाँव के निवासी थे। शायद जाति के बंदीजन थे, कहा जाता है कि इनके एक छप्पय पर रीझकर अकबर ने अपने समय में गायकुशी बंद कर दी थी। वह छप्पय यहहै-

अरिहुं दन्ततृन धारैं ताहि मारत न सबल कोइ।

हम संतत तृन चरहिं बचन उच्चरहिं दीन होइ।

अमृत पय नित ò वहिं बच्छ महि थम्भन जावहिं।

हिन्दुहिं मधुर न देहिं कटुक तुरकहिं न पियावहिं।

कह नरहरि कवि अकबर सुनो।

बिनवत गऊ जोरे करन।

अपराधा कौन मोहि मारियतु

मुयेहुं चाम सेवत चरन।

एक पद्य उनका और देखिए-

सरवर नीर न पीवहीं स्वाति बुन्द की आस।

केहरि कबहुँ न तृन चरै जो ब्रत करै पचास।

जो व्रत करै पचास विपुल गज-जूह बिदारै।

धान ह्नै गर्व न करै निधान नहिं दीन उचारै।

नरहरि कुल क सुभाउ मिटै नहिं जब लगि जीवै।

बरु चातक मरि जाय नीर सरवर नहिं पीवै।

कवि गंग अकबर-दरबार के एक नामी कवि थे। रचना जो इनकी मिलती है वह प्रौढ़ है। इनका कोई ग्रन्थ अब तक नहीं मिला है परन्तु जो स्फुट पद्य पाये गये हैं, उनसे उनकी योग्यता का पूरा परिचय मिलता है। किसी-किसी की यह सम्मति है कि इनका अन्तिम समय बड़ा दुखद था। कहा जाता है कि वे हाथी के पैरों से शैंदवा दिये गये। भिखारीदास का एक दोहा है जिसमें उन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी के साथ इनकी भी प्रशंसा की है और इनको अच्छा कवि माना है। वह दोहा यहहै-

तुलसी गंग दुवौ भये , सुकबिन के सरदार।

इनकी कविता में मिली , भाषा विविधा प्रकारड्ड

रहीम ख़ाँ ख़ानखाना इनका बड़ा आदर करते थे, कवि गंग ने उनकी प्रशंसा में कुछ रचनाएँ भी की हैं। उनकी कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-

बैठी थी सखिन संग पिय को गवन सुन्यो ,

सुख के समूह में वियोग आग भर की।

गंग कहै त्रिाविधि सुगंधा लै पवन बह्यो ,

लागत ही ताके तन भई बिथा जर की।

प्यारी को परसि पौन गयो मानसर पहँ

लागत ही औरे गति भई मानसर की।

जलचर जरे औ सेवार जरि छार भयो ,

जल जरि गयो पंक सूख्यो भूमि दरकीड्ड

मृगहूँ ते सरस विराजत बिसाल दृग ,

देखिए न अस दुति कोलहू के दल मैं।

गंग घन दुज से लसत तन आभूषन ,

ठाढ़े द्रुम छाँह देख ह्नै गई विकल मैं।

चख चित चाय भरे शोभा के समुद्र माहिं

रही ना सँभार दसा औरै भई पल मैं।

मन मेरो गरुओ गयो री बूड़ि मैं न पायो ,

नैन मेरे हरुये तिरत रूप जल में।

इन प्रसिध्द कवियों के अतिरिक्त इस सोलहवीं सदी में नरोत्तामदास नामक एक बड़े सहृदय कवि हो गये हैं। वे जिला सीतापुर के रहने वाले ब्राह्मण थे। इनके दो ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। एक ‘सुदामा-चरित्रा’ और दूसरा ‘धा्रुव-चरित्रा’। ये दोनों खंड काव्य हैं। इनमें से सुदामा-चरित्रा की कविता बड़ी ही सरस है। उसमें से दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. कोदो समाँ जुरतो भरि पेट न

चाहति तौ दधि दूधा मिठौती।

सीत न बीतत जो सिसियात

तौ हौं हठती पै तुम्हैं न हठौती।

जो जनती न हितू हरि से तो मैं

काहे को द्वारिका ठेलि पठौती।

या घरसे कबहूँ न गयो पिय

टूटो तवा अरु फूटी कठौती।

2. काहे बेहाल बिवाइन सों पुनि

कंटक जाल लगे पग जोये।

हाय महादुख पायौ सखा तुम

आये इतै न कितै दिन खोये।

देखि सुदामा की दीन दसा

करुना करिकै करुनानिधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयौ

नहिं नैनन के जल सों पग धोये।

केशवदास जी के बड़े भ्राता बलभद्र जी की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ-आप संस्कृत भाषा के प्रसिध्द विद्वान थे। आपकी संस्कृत रचनाएँ अधिक हैं। भागवत भाष्य और बलभद्री व्याकरण आपके उत्ताम ग्रन्थ हैं। इनकी बनाई हुई हनुमन्नाटक एवं गोवर्धान-सप्तशती की टीकाएँ भी बड़ी विशद हैं। संस्कृत के इतने बड़े विद्वान् होने पर भी आपने हिन्दी भाषा में दो ग्रन्थ लिखे,एक का नाम है दूषण-विचार और दूसरा है नख-शिख। दूषण्-विचार सुना है कि बड़ा उपयोगी ग्रंथ है, परन्तु मैंने इस ग्रन्थ को नहीं देखा। नख-शिख सुंदर ग्रंथ है, और इसकी रचना बड़ी प्रौढ़ है। इसके जोड़ का नृपशंभु का नख-शिख नामक ग्रन्थ है,परंतु यह ग्रन्थ उक्त ग्रन्थ के अनुकरण से ही लिखा गया है-और भी नख-शिख के ग्रन्थ हैं, परन्तु बलभद्र जी के नख-शिख की समता कोई नहीं कर सका। उसके दो पद्य नीचे लिखे जातेहैं-

पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ

बलभद्र बासर उनीदी लखी बाल मैं।

शोभा के सरोवर मैं बाड़व की आभा कैधों

देवधुनि भारती मिली है पुन्य काल मैं।

काम कैवरत कैधों नासिका उव्प बैठयो

खेलत सिकार तरुनी के मुखताल मैं।

लोचन सितासित मैं लोहित लकीर मानो

बाँधो जुग मीन लाल रेसम के जाल मेंड्ड 1 ड्ड

मरकत के सूत कैधों पन्नग के पूत अति

राजत अभूत तमराज के से तार हैं।

मखतूल गुन-ग्राम सोभित सरस श्याम

काम मृग कानन कै कुहू के कुमार हैं।

कोप की किरिन कै जलज-नाल नील तंतु

उपमा अनंत चारु चँवर सिंगार हैं।

कारे सटकारे भींजे सोंधो सों सुंगधा बास

ऐसे बलभद्र नव बाला तेरे बार हैंड्ड 2 ड्ड

इसी समय में हरिनाथ, तानसेन, प्रवीणराय, होलराय, करनेस, लालनदास, मनोहर, रसिक आदि ऐसे कवि भी साहित्य क्षेत्र में आये, जो बहुत प्रसिध्द नहीं हैं, परन्तु उनकी रचनाएँ सुन्दर और भावमयी हैं। सबकी रचनाओं के नमूने के लिए इस ग्रंथ में स्थान का संकोच है। जो रचनाएँ अधिक मधुर हैं और जिनमें कुछ विशेषता है, उनमें से कुछ नीचे लिखी जाती हैं-

बलि बोई कीरति-लता , कर्ण करी द्वैपात।

सींची मान महीप ने जब देखी कुम्हलातड्ड

जाति जाति ते गुन अधिक सुन्यो न कबहूँ कान।

सेतु बाँधि रघुबर तरे हेलादे नृप मानड्ड

– हरिनाथ

खात हैं हराम दाम करत हराम काम

धाम धाम तिनहीं के अपजस छावैंगे।

दोजख में जैहैं तब काटि काटि कीड़े खैहैं

खोपड़ी को गूद काक टोंटन उड़ावैंगे।

कहै करनेस अबै घूस खात लाजै नाहिं

रोजा औ नेवाज अंत काम नहिं आवैंगे।

कबिन के मामिले में करै जौन खामी।

तौन निमकहरामी मरे कफन न पावैंगे।

– करनेस

दीप कैसी जाकी जोति जगर मगर होति

गुलाबबास बादर मैं दामिनी अलूदा है।

जाफरानी फूलन मैं जैसे हेमलता लसै

तामैं उग्यो चन्द्र लेन रूप अजमूदा है।

लालन जू लालन के रंग से निचोरि रँगी

सुरंग मजीठ ही कै रंगन जमूदा है।

बकि न बहूदा लखि छबिन को तूदा ओप

अतर अलूदा अंगना का अंग ऊदा है।

– लालनदास

स्वामी हितहरिवंश की शिष्य-परम्परा और शिष्यों में तथा हरिदास स्वामी आदि महात्माओं के संसर्ग से अनेक सहृदय कवि इस शतक में उत्पन्न हुए, उनकी रचनाएँ बड़ी सरस हैं। उनमें से हितरूप लाल, गदाधार भट्ट, भगवान हित, नागरीदास,बिहारिन दास, भट्ट महाराज, व्यासजी, सेवक जी, हरिवंश अली और बिट्ठल बिपुल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनमें से कुछ लोगों की रचनाएँ भी देखिए-

बिथुरी सुथरी अलकैं झलकैं

बिच आनि कपोल परीं जुछली।

मुसुकात जबै दसनावलि देखि

लजात तबै तब कुन्द कली।

अति चंचल नैन फिरैं चहुघाँ नित

पोखत लाल है भांति भली।

तिनके पद-पंकज को मकरंद

सुनित्य लहै हरिबंस अली।

– हरिबंस अली

जैसे गुरु तैसे गोपाल।

हरि तौ तबहीं मिलिहैं जबहीं श्रीगुरु होयँ कृपाल।

गुरु रूठे गोपाल रूठिहैं वृथा जात है काल।

एक पिता बिन गनिका सुत को कौन करे प्रतिपाल।

– व्यासजी

सजनी नवल कुंज बन फूले।

अलिकुल संकुल करत कुलाहल सौरभ मनमथ भूले।

हरखि हिडोरे रसिक रास बर जुगुल परस्पर झूले।

बिट्ठल बिपुल बिनोद देखि नभ देव बिमानन भूले।

यह बिट्ठल विपुलजी का पद्य है। स्वामी हरिदासजी के आप शिष्य थे, उनका स्वर्गारोहण होने पर आप ही उनकी गद्दी पर बैठे। गुरु के चरणों में आपका इतना अनुराग था कि उनके शरीर का पात होने पर उन्होंने अपनी ऑंखों पर पट्टी बाँधा ली। एक रास के समय कहा जाता है कि स्वयं श्रीकृष्ण जी ने उनकी ऑंखों की पट्टी खोली। एक बार रास में आप इतने प्रेमोन्मत्ता हुए कि तत्काल देहान्त हो गया।

बने बन ललित त्रिाभंग बिहारी।

बंसीधुनि मनु बंसी लाई आई गोपकुमारी।

अरप्यो चारु चरन पद ऊपर लकुट कच्छ तरधारी।

श्री भट मुकुट चटक लटकनि मैं अटकि रहे दृग प्यारी।

– श्री भट्ट

रक्त पीतसित असित लसत अंबुज बन सोभा।

टोल टोल मद लोल भ्रमत मधुकर मधु लोभा।

सारस अरु कलहंस कोक कोलाहल कारी।

पुलिन पवित्रा विचित्रा रचित सुन्दर मनहारी।

– गदाधार भट्ट

सबै प्रेम के साधान तरु हरि।

निकसत उमग प्रगट अंकुर बर पात पुराने परिहरि।

गुन सुनि भई दास की आसा दरस्यो परस्यो भावै।

जब दरस्यो तब बोलै चाहै बोले हूँ हँसि आवै।

– बिहारी दास

जसुमति आनँद कन्द नचावति।

पुलकि पुलकि हुलसाति देखि मुख अति सुख पुंजहिं पावति।

बाल जुवा वृध्दा किसोर मिलि चुटकी दै दै गावति।

नुपुर सुर मिश्रित धुनि उपजति सुर विरंचि विसमावति।

कुंचित ग्रंथिक अलक मनोहर झपकि वदन पर आवति।

जन भगवान मनहुँ घन विधु मिलि चाँदनि मकर लजावति।

– हित भगवान

दिन कैसे भरूँरी माई बिन देखे प्रान अधार।

ललित तृभंगी छैल छबीलो पीतम नंद कुमार।

सुन री सखी कदमतर ठाढ़ो मुरली मंद बजावै।

गनिगनि प्यारी गुनगन गावै चितवत चितहि रिझावै।

जियरा धारत न धीरज सजनी कठिन लगन की पीर।

रूप लाल हित आगर नागर सागर सुख की सीर।

– हितरूप लाल

इन महात्माओं में अधिकतर ग्रन्थकार हैं, और एक-एक ने कई-कई ग्रंथ लिखे हैं, इन सब बातों की चर्चा करने से अधिक विस्तार और विषयान्तर होगा अतएव मैं इस विषय को यहीं छोड़ता हूँ। नाभादासजी के गुरु अग्रदास जी भी इसी शताब्दी में हुए। आपने भी कई ग्रन्थों की रचना की है, ‘राम भजन मंजरी’ और ‘भाषा हितोपदेश’ उनके सुन्दर ग्रंथ हैं। एक कविता उनकी भी देखिए-

कुण्डल ललित कपोल जुगुल अरु परम सुदेसा।

तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा।

मेचक कुटिल बिसाल सरोरुह नैन सुहाये।

मुख पंकज के निकट मनो अलि छौना आये।


इन उध्दरणों को देखकर आप सोचते होंगे, कि यह व्यर्थ विस्तार किया गया है, परन्तु आवश्यकताओं ने मुझको ऐसा करने के लिए विवश किया। मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी-भाषा कैसे समुन्नत हुई, किस प्रकार ब्रजभाषा को प्रधानता मिली और उसका क्या स्वरूप स्थिर हुआ। अतएव मुझको सब प्रकार की रचनाओं का संकलन करना पड़ा। इस शताब्दी में अवधी और ब्रजभाषा दोनों का सर्वांगीण शृंगार हुआ, दोनों में ऐसे लोकोत्तार ग्रन्थ लिखे गये, जैसे आज तक दृष्टिगोचर न हो सके। परन्तु एक बात देखी जाती है, वह यह कि ब्रजभाषा का विकास बाद की शताब्दियों में भी बहुत कुछ हुआ, वह आगे चलकर भी अच्छी तरह फली-फूली और फैली, किन्तु अवधी को यह गौरव नहीं प्राप्त हुआ। प्रेम-मार्गी सूफियों के कुछ ग्रंथ गोस्वामी जी के पश्चात् भी अवधी भाषा में लिखे गये हैं, परन्तु प्रथम तो उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है, दूसरे ब्रजभाषा की ग्रन्थावली के सामने वे शून्य के बराबर हैं। बाबा रघुनाथ दास का विश्राम-सागर भी अवधी भाषा में लिखा गया है, और इसमें सन्देह नहीं कि यह भी अवधी भाषा का उत्ताम ग्रन्थ है। उसका प्रचार भी हुआ। परन्तु इन कतिपय ग्रंथों के द्वारा उस न्यूनता की पूर्ति नहीं होती जो ब्रजभाषा की विशाल ग्रंथमालाओं के सामने अवधी को प्राप्त हुई। जब यह विचार किया जाता है कि ब्रजभाषा के इस व्यापकता और विस्तार का क्या कारण है तो कई बातें सामने आती हैं। मैं उनको प्रकट करना चाहता हूँ।

यह देखा जाता है कि चिरकाल से मधयदेश की भाषा को ही प्रधानता मिलती आई है। जिस समय संस्कृत भाषा का गौरवकाल था। उस समय भी इस प्रान्त से ही उसका प्रचार अन्य प्रदेशों में हुआ। जब प्राकृत भाषा का प्रचार हुआ, तब भी शौरसेनी को ही अन्य प्राकृतों पर विशिष्टता मिली और उसी का अधिक विस्तार अन्य प्रदेशों में हुआ। संस्कृत के नाटकों में शिष्ट भाषा के रूप में शौरसेनी ही गृहीत हुई है। कारण इसका यह है कि आर्य सभ्यता इसी स्थान से अन्य प्रदेशों में फैली और इसी स्थान से आर्यों के विशिष्ट दलों ने जाकर अन्य प्रदेशों पर अधिकार किया। ऐसी अवस्था में उनकी भाषाओं का महत्तव जो अन्य प्रान्त वालों ने स्वीकार किया तो यह आश्चर्यजनक नहीं, क्योंकि यह देखा जाता है कि राज्यभाषा ही प्रधानता लाभ करती है। जिस समय ब्रजभाषा का उदय हुआ उस समय भी मधयदेश की ही राज्य-सत्ता का प्रभाव भारतवर्ष पर था। उन दिनों अकबर सम्राट् था और उसकी राजधानी अकबराबाद या आगरे में थी। जो ब्रजप्रान्त के अन्तर्गत है। अतएव वहाँ की भाषा का प्रभाव अन्य प्रदेशों पर पड़ना स्वाभाविक था, विशेषकर उस अवस्था में जब कि अकबर के समस्त बड़े अधिकारी ब्रजभाषा से स्नेह करते थे। इतना ही नहीं, वे ब्रजभाषा में स्वयं रचना करके भी उन दिनों उसे समादृत बना रहे थे। मैं राजा बीरबल, राजा टोडरमल और रहीम खाँ ख़ानख़ाना की रचनाओं को ऊपर उद्धृत कर आया हूँ। वे ही मेरे कथन के प्रमाण हैं, अकबर स्वयं ब्रजभाषा में कविता करता था। कुछ पद्य उसके भी देखिए-

“ जाको जस है जगत में , सबै सराहै जाहि।

ताको जीवन सफल है , कहत अकब्बर साहिड्ड

साहि अकब्बर एक समै चले ,

कान्ह बिनोद बिलोचन बालहि।

आहट ते अबला निरख्यो चकि

चौंकि चली करि आतुर चालहिं।

त्यों बलि बेनी सुधारी धारी सुभई ,

छबि यों ललना अरु लालहिं।

चम्पक चारु कमान चढ़ावत ,

काम ज्यों हाथ लिये अहि-बालहिं। “

यही नहीं, उनके दरबार के राजे-महराजे भी इस रंग में रँगे हुए थे। उनकी ब्रजभाषा की रचनाएँ बतलाती हैं कि जो राजे ब्रजप्रान्त से दूर के थे, वे भी उसके प्रभाव से प्रभावित थे। बीकानेर के राजा के भाई पृथ्वीराज की एक रचना देखिए। आप अकबर के प्रसिध्द दरबारी थे। उन्होंने तीन ग्रन्थ लिखे थे। उनमें से एक ग्रन्थ ‘प्रेम-प्रदीपिका’ का एक पद्य यह है-

“ प्रेम इकंगी नेम प्रेम गोपिन को गायो।

बचनन बिरह विलाप सखी ताकी छवि छायो।

ज्ञान जोग वैराग मधुर उपदेसन भाख्यो।

भक्ति भाव अभिलाष मुख्य बनि तनु मन राख्यो।

बहुबिधि बियोग संयोग सुख सकल भाव समुझै भगत।

यह अद्भुत ‘ प्रेम-प्रदीपिका ‘ कहि अनंत उद्दित जगत। “

कुछ लोगों ने यह लिखा है कि महाराज मानसिंह भी ब्रजभाषा में कविता करते थे, परन्तु उनकी कोई कविता मेरे देखने में नहीं आयी। मैंने अब तो जो लिखा, उससे यह पाया जाता है कि उस समय अकबर के दरबार में ब्रजभाषा की बड़ी चर्चा थी। यह मैं स्वीकार करूँगा कि रहीम खाँ ख़ानख़ाना ने अवधी भाषा में भी रचना की है, पर उनकी अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा की ही हैं। ‘नरहरि’ और ‘गंग की जो रचनाएँ ऊपर उद्धृत की गई हैं। उनकी भाषा भी प्रौढ़ ब्रजभाषा है। इससे ब्रजभाषा के अधिक प्रचार होने का रहस्य समझ में आ जाता है। इसके अतिरिक्त उन दिनों मथुरा वृन्दावन में कृष्णावत संप्रदाय के ऐसे प्रसिध्द महात्मा हुए जिनका बहुत बड़ा प्रभाव अन्य प्रदेशों पर भी पड़ा। इन महात्माओं में से अधिकांश की रचनाएँ मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूँ। उनके पढ़ने से आपको ज्ञात होगा कि उस समय ब्रजभाषा कविता का प्रवाह कितना प्रबल था। जिस भाषा के सहायक सम्राट् से लेकर उनके मंत्रिा-मण्डल, के दरबारी, राजे-महराजे और सामयिक अधिकांश महात्मागण हों, उसका विशेष आदृत और विस्तृत हो जाना आश्चर्यजनक नहीं। मीराबाई के भजनों को भी आप पढ़ चुके हैं। वह भी भगवान कृष्णचन्द्र के प्रेम में ही रँगी थीं। उनकी रचनाओं से यह बात स्पष्टतया विदित होती है। उस समय ब्रजभाषा की समुन्नति में उनका भी कम प्रभाव नहीं पड़ा। यह सच है कि उनकी भाषा में राजस्थानी शब्द मिलते हैं। परन्तु उनकी अधिकतर रचनाएँ ब्रजभाषा के ही रंग में रँगी हैं। ब्रजभाषा के विस्तार का एक बहुत बड़ा हेतु और भी है। वह यह कि कृष्णावत सम्प्रदाय जहाँ जहाँ गया वहाँ-वहाँ उस सम्प्रदाय की प्रिय भाषा ब्रजभाषा भी उसके साथ गई। भगवान् कृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका जिनके आराधयदेव हों, वे उनकी प्रिय भाषा का आदर क्यों न करते? भगवान् कृष्णचन्द्र के गुणगान का अधिक सम्बन्धा ब्रजलीला ही से है। फिर ब्रज प्रान्त की भाषा आदृत क्यों न होती? कृष्ण-भक्ति के साथ ब्रजभाषा का घनिष्ठ सम्बन्धा है। इसलिए वह भी उनकी भक्ति के साथ-साथ ही उत्तारीय भारत में, राजस्थान और गुजरात में, अपना प्रभाव विस्तार करने में समर्थ हुई।’

एक बात और है वह यह है कि भगवान कृष्णचन्द्र शृंगार रस के देवता हैं। पहले कुछ रीति-ग्रन्थ के आचार्यों ने विष्णु भगवान को देवता माना। परन्तु उत्तार-काल में भगवान कृष्णचन्द्र ही की प्रधानता हुई। इसलिए शृंगार रस के वर्णन में उनकी ब्रजलीला को अधिकतर स्थान दिया गया और ब्रजलीला के साथ ही ब्रजभाषा भी सादर गृहीत हुई। सत्राहवीं से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक जहाँ थोड़े से अन्य साहित्य के ग्रन्थ लिखे गये, वहाँ शृंगार रस के ग्रन्थों की भरमार रही। पहले शृंगार रस के वर्णन में कुछ संकोच भी होता था। परन्तु उसके कृष्ण लीलामय होने के कारण जब यह भाव भी आकर उसमें सम्मिलित हो गया कि यह रूपान्तर से कृष्ण गुणगानहै। 1 जो पवित्रा और निर्दोष है तो बड़े असंयत भाव और अधिकता से शृंगार रस की रचनाएँ होने लगीं। काल पाकर साहित्य पर उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। कृष्ण गुणगान करने के बहाने उच्छृंखलताओं और अयथा वर्णनों ने स्थान ग्रहण किया, जिससे शृंगार-सम्बन्धी ग्रन्थ अनेक अंशों में कलुषित होने से न बचे और यह उक्त त्यागशील महात्माओं के उत्ताम आदर्शों का बहुत बड़ा दुरुपयोग हुआ जो बाद को अनेक लांछनों का कारण बना। अष्टछाप के वैष्णवों में जो भक्ति और पवित्राता पायी जाती है, स्वामी हित हरिवंश, स्वामी हरिदास आदि महात्माओं में जो सच्ची भक्ति और तन्मयता अथच तदीयता देखी जाती है, बिट्ठल विपुल में जो प्रेमोन्माद और तल्लीनता मिलती है, उसका शतांश भी उत्तार काल के शृंगार रस के ग्रन्थकारों में दृष्टिगत नहीं होता। इसलिए उनकी रचनाओं का कुछ अंश ऐसा बन गया जो निंदनीय कहा जा सकता है। यह मैं कहूँगा कि उस काल के कुछ रसिक राजा-महाराजाओं ने इस रोग को बढ़ाया और कुछ उस काल के उर्दू और फ़ारसी साहित्य के संसर्ग ने। परन्तु यह सत्य है कि जहाँ ब्रजभाषा की रचनाओं के विस्तार के और कारण हुए वहाँ एक कारण यह शृंगार-रस का व्यापक प्रवाह भी हुआ। ऊपर जो पद्य उद्धृत किये गये हैं उनमें से ‘करनेस’ ‘लालनदास’ की रचनाओं की ओर मैं आप लोगों की दृष्टि विशेष रूप से आकर्षित करता हूँ। उनके देखने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि इसी शताब्दी में ही कुछ कवियों ने ब्रजभाषा की रचना में फ़ारसी और अरबी के अधिकतर शब्दों का भरना आरम्भ किया था। परन्तु ऐसे कवियों को सफलता प्राप्त नहीं हुई और न उनका अनुकरण हुआ। फारसी-अरबी के शब्दों के ग्रहण करने के वे ही नियम गृहीत रहे, अपनी आदर्श रचना द्वारा जिनका प्रचार सूरदास जी और गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया था। अर्थात् ब्रजभाषा की कविता में वे ही शब्द आवश्यकतानुसार लिये गये जो अधिकतर बोलचाल में आते अथवा प्रचलित थे।

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