( ग)
इसी शतक में दादूदयाल जी का आविर्भाव हुआ। उनकी गणना निर्गुणवादी संतों में की जाती है। कोई उनको ब्राह्मण संतान कहता है, कोई यह कहता है कि वे एक धुनियाँ थे जिनको एक नागर ब्राह्मण ने पाला-पोसा था। वे जो हों, किन्तु उनका हृदय प्रेम-मय और उदार था। उनमें दयालुता की मात्रा अधिक थी, इसीलिए उनको दादूदयाल कहते हैं। उनको कलह-विवाद प्रिय नहीं था। शान्तिमय जीवन ही
1. भिखारीदास जी लिखते हैं-
‘ आगे के सुकवि रीझि हैं तो कविताई ,
ना तो राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानोहै। ‘
उनका धयेय था, इसलिए उनकी रचनाओं में वह कटुता नहीं मिलती जो कबीर साहब की उक्तियों में मिलती है। उनके ग्रन्थों के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे हिन्दू जाति से सहानुभूति रखते थे और उनके देवी-देवताओं और महात्माओं पर व्यंग्य-बाण प्रहार करना उचित नहीं समझते थे। उनका विचार यह था कि संत होने के लिए संत भाव की आवश्यकता है। इस दृष्टि से वे किसी महापुरुष की कुत्सा करके अपने को सर्वोपरि बनाना नहीं चाहते थे। अतएव उनकी रचनाओं में यथेष्ट गम्भीरता पाई जाती है। उनको यह ज्ञात था कि उस समय हिन्दू धर्म पर किस प्रकार आक्रमण हो रहा था, इसलिए उसके प्रति वे सहानुभूति पूर्ण थे और इसी कारण उन्होंने वह मार्ग नहीं ग्रहण किया जिससे उसका धर्म-क्षेत्र कंटकित हो और औरों को उस पर अयथा आक्रमण करने का अधिक अवसर प्राप्त हो। वे हिन्दू संतान थे। इसलिए उनका हिन्दू संस्कार जाग्रत था और यही कारण है कि वे उसके धर्म याजकों पर अनुचित कटाक्ष करते नहीं देखे जाते। वे जितने ही मिथ्याचार के विरोधी थे उतने ही मिथ्यावाद से दूर। वे यह जानते थे कि सत्य में बल है। इसलिए ये सत्य का प्रचार सत्य भाव ही से करते थे, असंयत भावों के साथ नहीं। लगभग यह बात सभी हिन्दू निर्गुण्वादियों मेंं पाई जाती है, यहाँ तक कि कबीर साहब के प्रधान शिष्य धर्मदास, श्रुतगोपालदास आदि में भी यही भाव कार्यरत देखा जाता है। इन लोगों में भी हिन्दू धर्म के प्रति वह दुर्भाव नहीं देखा जाता है, जिससे हिन्दू धर्म के प्रति उनका असद्भाव प्रकट हो। दादूदयाल के हृदय का विनीत भाव इससे भी प्रकट होता है कि वे सबको दादा कहते थे और इसीलिए उनका नाम दादू पड़ा। उनकी कुछ रचनाएँ आपके सामने उपस्थित की जाती हैं। इनको पढ़कर आप लोगों को स्वयं यह ज्ञात होगा कि वे क्या थे-
1. अजहुँ न निकसे प्रान कठोर।
दरसन बिना बहुत दिन बीते सुन्दर प्रीतम मोर।
चार पहर चारहुँ जुग बीते रैनि गँवाई भोर।
अवधि गये अजहूँ नहिं आये कतहुँ रहे चित चोर।
कबहूँ नैन निरख नहिं देखे मारग चितवत तोर।
दादू अइसहि आतुरि विरहिनि जैसहिं चन्दचकोर।
2. भाई रे! ऐसा पंथ हमारा।
द्वै पखरहित पंथ गह पूरा अबरन एक आधारा।
वाद विवाद काहू सों नाहीं मैं हूँ जग थें न्यारा।
सम दृष्टी सूं भाइ सहज में आपहिं आप विचारा।
मैं तैं मेरी यहु मत नाहीं निरवैरी निरविकारा।
पूरण सबै देखि आपा पर निरालंब निरधारा।
काहु के संगी मोह न ममता संगी सिरजन हारा।
मनही मनसूँ समझु सयाना आनँद एक अपारा।
काम कलपना कदे न कीजे पूरण ब्रह्म पियारा।
यहि पथ पहुँचि पार गहि दादू सो तत सहज सँभारा।
3. यह मसीत यह देहरा सत गुरु दिया देखाय।
भीतर सेवा बन्दगी बाहर काहे जाय।
4. सुरग नरक संसय नहीं , जिवन मरण भय नाहिं।
राम विमुख जे दिन गये सो सालै मन माहिं।
5. जे सिर सौंप्या राम कों , सो सिर भया सनाथ।
दादू दे ऊरण भया जिसका तिसके हाथ।
6. कहताँ सुनताँ देखताँ लेताँ देताँ प्राण।
दादू सो कतहूँ गया माटी भरी मसाण।
7. आवरे सजणा आव सिर पर धारि पाँव।
जाणी मैंडा जिंद असाड़े
तू रावैंदा राव वे सजणा आव।
इत्थां उत्थां जित्थां कित्थां हौं जीवां तो नाल वे!
मीयां मैंडा आव असाड़े
तू लालों सिर लाल वे सजणा आव।
8. म्हारे ह्नाला ने काजे रिदै जो वानेहूँ धयान धारूँ।
आकुल थाए प्राण म्हारा को नेकही पर करूँ।
पीबे पाखे दिन दुहेलाँ जाय घड़ी बरसाँसौं केम भरूँ।
दादू रे जन हरिगुण गाताँ पूरण स्वामी ते बरूँ।
दादू दयाल में यह विशेषता थी कि वे पंजाबी और गुजराती भाषा में भी कविता कर सकते थे। उनकी इस प्रकार की रचनाएँ भी ऊपर उद्धृत की गई हैं। नम्बर 7 की रचना पंजाबी और नम्बर 8 की गुजराती भाषा की हैं। इस प्रकार की उनकी रचनाएँ थोड़ी हैं। अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा की ही हैं, जिसमें अधिकतर शब्द राजस्थानी भाषा के और थोड़े अवधी के भी आये हैं। उनकी भाषा भी संतों की भाषा के समान स्वतंत्रा है। उसमें विशेष बन्धान नहीं। जब जहाँ आवश्यक समझते हैं अन्य भाषा के उपयुक्त शब्दों को ग्रहण कर लेते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा पर ब्रजभाषा और राजस्थानी भाषा का ही विशेष प्रभाव है। पहले पद्य को देखिए। वह बहुत ही प्रांजल है और इस भाव से लिखा गया है कि ज्ञात होता है कि वे सूरदास जी का अनुकरण कर रहे हैं। ऐसी उनकी कितनी रचनाएँ हैं। दूसरा पद्य ऐसा है जिसमें राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। फिर भी उसकी भाषा साफ और चलती है। दादू दयाल के विचार निर्गुणवादियों के-से हैं, परन्तु अन्य निर्गुणवादियों के समान वे भी सगुणोपासक हैं और परमात्मा में अनेक गुणों की कल्पना करते रहते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने पूर्व के कबीर साहब इत्यादि निर्गुणवादियों को भी स्मरण किया है और स्थान-स्थान पर पौराणिक महात्माओं को भी। स्वर्ग-नरक इत्यादि का वर्णन भी उनकी रचनाओं में है और पौराणिक उन पापियों का भी जो पतित-पावन के अपार अनुग्रह से पाप-मुक्त होकर अच्छे पद को प्राप्त हो सके। इसलिए उनके विचार भी पौराणिक भावों से ही ओतप्रोत हैं जो समय पर दृष्टि रखकर उनके द्वारा प्रकट किये गये हैं। राजस्थान में उनके पंथवाले अधिक हैं, उनका कार्य-क्षेत्र भी आजीवन राजस्थान ही रहा है।
उत्तर-काल
सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में तीन धाराएँ प्रबल वेग से बहती दृष्टिगत होती हैं। पहली निर्गुणवाद सम्बन्धी,दूसरी सगुणवाद या भक्तिमार्ग-सम्बन्धी और तीसरी रीति ग्रन्थ-रचना सम्बन्धी। इस सदी में निर्गुणवाद के प्रधान प्रचारक कबीर साहब, गुरु नानकदेव और दादूदयाल थे। सगुणोपासना अथवा भक्तिमार्ग के प्रधान प्र्रवत्ताक कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास थे। रीति ग्रन्थ-रचना के प्रधान आचार्य केशवदास जी कहे जा सकते हैं। इन लोगों ने अपने-अपने विषयों में जो प्रगल्भता दिखलाई, वह उत्तारकाल में दृष्टिगत नहीं होती। परन्तु उनका अनुगमन उत्तारकाल में तो हुआ ही, वर्तमान काल में भी हो रहा है। मैं यथाशक्ति यह दिखलाने की चेष्टा करूँगा कि ई. सत्राहवीं शताब्दी में इन धाराओं का क्या रूप रहा और फिर अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में उनका क्या रूप हुआ। इन तीनों शताब्दियों में जो देश कालानुसार अनेक परिवर्तन हुए हैं और भिन्न-भिन्न विचार भारत वसुन्धारा में फैले हैं। उनका प्रभाव इन तीनों शताब्दियों की रचनाओं में देखा जाता है। साथ ही भाव और भाषा में भी कुछ न कुछ अन्तर होता गया है। इसलिए यह आवश्यक ज्ञात होता है कि इन शताब्दियों के क्रमिक परिवर्तन पर भी प्रकाश डाला जावे और यह दिखलाया जावे कि किस क्रम से भाषा और भाव में परिवर्तन होता गया। यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि इन तीनों शताब्दियों में न तो कोई प्रधान धर्म-प्र्रवत्ताक उत्पन्न हुआ, न कोई सूरदास जी एवं गोस्वामी तुलसीदास जी के समान महाकवि, और न केशवदास जी के समान महान् रीति-ग्रन्थकार। किन्तु जो साहित्य-सम्बन्धी विशेष धाराएँ सोलहवीं शताब्दी में बहीं, वे अविच्छिन्न गति से इन शताब्दियों में भी बहती ही रहीं,चाहे वे उतनी व्यापक और प्रबल न हों। इन तीनों शताब्दियों में उस प्रकार की प्रभावमयी धारा बहाने में कोई कवि अथवा महाकवि भले ही समर्थ न हुआ हो, परन्तु इन धाराओं से जल ले-लेकर अथवा इनके आधार से नई-नई जल प्रणालियाँ निकाल कर वे हिन्दी साहित्य-क्षेत्र के सेचन और उसको सरस और सजल बनाने से कभी विरत नहीं हुए। इन शताब्दियों में भी कुछ ऐसे महान् हृदय और भावुक दृष्टिगत होते हैं जिनकी साहित्यिक धाराएँ यदि उक्त धाराओं जैसी नहीं हैं तो भी उनसे बहुत कुछ समता रखने की अधिकारिणी कही जा सकती हैं, विशेष कर रीतिग्रन्थ-रचना के सम्बन्धा में। परन्तु उनमें वह व्यापकता और विशदता नहीं मिलती, जो उनको उनकी समकक्षता का गौरव प्रदान कर सके। मैंने जो कुछ कहा है, वह कहाँ तक सत्य है, इसका यथार्थ ज्ञान आप लोगों को मेरी आगे लिखी जाने वाली लेखमाला से होगा।
मैं पहले लिख आया हूँ कि हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में सोलहवीं शताब्दी में ही ब्रजभाषा को प्रधानता प्राप्त हो गयी थी और कुछ विशेष कारणों से हिन्दी के कवि और महाकवियों ने उसी को हिन्दी साहित्य की प्रधान भाषा स्वीकार कर लिया था। यह बात लगभग यथार्थ है परन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उत्तार-काल के कवियों की मुख्य भाषा भले ही ब्रजभाषा हो, किन्तु उसमें अवधी के कोमल, मनोहर अथच भावमय शब्द भी गृहीत हैं। जो कवि कर्म्म के मर्मज्ञ हैं, वे भली-भाँति यह जानते हैं कि अनेक अवस्थाओं में कवियों अथवा महाकवियों को ऐसे शब्द-चयन की आवश्यकता होती है, जो उनको भाव-प्रकाशन में उचित सहायता दे सकें और छन्दोगति में बाधाक भी न हों। यदि वे ‘ऐसो’ लिखना चाहते हैं, परन्तु इस शब्द को वे इसलिए नहीं लिख सकते कि उससे छन्दोगति में बाधा पड़ती है और ‘अस’ लिखने से वे अपने भाव का द्योतन कर सकते हैं और छन्दोगति भी सुरक्षित रहती है तो वे ऐसी विशेष अवस्था में यह नहीं विचारते कि ‘अस’ शब्द अवधी का है, इसलिए उसको कविता में स्थान न मिलना चाहिए, वरन् वे यह सोचते हैं, कि हिन्दी भाषा का ही यह शब्द है और उसका प्रयोग हिन्दी साहित्य के एक विभाग में पाया जाता है। इसलिए संकीर्ण स्थलों पर उसके ग्रहण में आपत्तिा क्या? हिन्दी साहित्य के महाकवियों को ऐसा करते देखा जाता है। क्योंकि वे जानते हैं कि बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में कुछ न कुछ भिन्नता होती ही है। मेरे कथन का सारांश यह है कि उत्तार काल के कवियों ने जिसे साहित्यिक भाषा के रूप में ग्रहण किया,उनमें से अधिकांश की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है, परन्तु अवधी के उपयुक्त शब्द उसमें गृहीत हैं। मेरा विचार है कि इससे साहित्य की व्यापकता बढ़ी है, उसका पथ अधिक प्रशस्त हुआ है, और कवि-कर्म में भी बहुत कुछ सुविधा प्राप्त हुई है। भाषा की शुध्दता की ओर दृष्टि आकर्षित कर कुछ लोग इस प्रणाली का विरोधा करते हैं। उनका कथन है कि सुविधा पर दृष्टि रखकर यदि एक ही शब्द के अनेक रूप गृहीत होने लगेंगे तो इससे भाषा सम्बन्धी नियम की रक्षा न होगी और निरंकुशता को प्रश्रय मिलेगा। लोग बेतरह शब्दों को तोड़ मरोड़ कर मनमानी करेंगे और साहित्य-क्षेत्र में उच्छृंखलता विप्लव मचा देगी। यह कथन बहुत कुछ युक्ति-संगत है, परन्तु ब्रजभाषा साहित्य के मर्म्मज्ञों अथवा महाकवियों ने यदि उक्त प्रणाली ग्रहण की तो इस उद्देश्य से नहीं कि निरंकुशता को प्रश्रय दिया जाय। शब्द गढ़ने के पक्षपाती वे नहीं थे, न शब्दों को अधिक तोड़ने-मरोड़ने के समर्थक। वरन् उनका विचार यह था कि विशेष स्थलों पर यदि उपयुक्त अवधी के शब्द आ जायँ तो आपत्तिाजनक नहीं। अवधी भाषा के कवियों को भी इस प्रणाली का अनुमोदन करते देखा जाता है। क्योंकि उनकी रचनाओं में भी ब्रजभाषा के शब्द विशेष स्थलों पर गृहीत होते आये हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यदि कोई विशेष क्षमतावान है और वह शुध्द अवधी में ही रचना करना चाहता है तो अनुचित करता है। भाषाधिकार कविता का विशेष गुण है। गुण का त्याग किसे वांछनीय होगा परन्तु यह स्मरण रहना चाहिए कि कवि-परम्परा (Poetic License) का भी कुछ आधार है, कवि कार्य के जटिल पथ में वह सुविधा का अंगुलि-निर्देश है। इसीलिए ब्रजभाषा के साहित्यकारों ने चाहे वे प्रारम्भिक काल के हों, अथवा माध्यमिक काल या उत्तार-काल के, इस सुविधा से मुख नहीं मोड़ा।
एक बात और है, वह यह कि ब्रजभाषा और अवधी में अधिकतर उच्चारण का विभेद है। अन्यथा दोनों में बहुत कुछ एकरूपता है। इसका कारण यह है कि अवधी पर शौरसेनी का अधिकतर प्रभाव रहा है। भरत मुनि कहते हैं-
‘ शौरसेन्याऽविदूरत्वात् इयमेवार्ध्द मागधी। ‘
इसका अर्थ यह है कि शौरसेनी से अविदूर (सन्निकट) होने के कारण मागधी अर्ध्द मागधी कहलाती है। यह कौन नहीं जानता कि शौरसेनी से ब्रजभाषा की और अर्धा-मागधी से अवधी की उत्पत्तिा है। ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों पश्चिमी हैं और अवधी पूर्वी। पछाँह वालों की भाषा खड़ी होती है और पूर्व वालों की पड़ी। पछाँह वालों के उच्चारण में उठान होती है और पूर्व वालों के उच्चारण में लचक, उसमें चढ़ाव होता है और इसमें उतार। पछाँह वाले कहेंगे ‘ऐसे’, ‘जैसे’, ‘कैसे’, ‘तैसे’ और पूर्व वाले कहेंगे ‘अइसे’, ‘जइसे’, ‘कइसे’, ‘तइसे’ वे कहेंगे ‘गयो’ ये कहेंगे ‘गयउ’। वे कहेंगे ‘होयहै’ या ‘ह्नैहै’ और ये कहेंगे ‘होइहै’। वे कहेंगे ‘रिझैहै’ ये कहेंगे ‘रिझइहै’। वे कहेंगे ‘कौन’ ये कहेंगे ‘कवन’। वे कहेंगे ‘मैल’ ये कहेंगे ‘मइल’। वे कहेंगे ‘पाँव’ ये कहेंगे’पाँउ’। वे कहेंगे ‘कीनो’, ‘लीनो’, ‘दीनो’ और ये कहेंगे ‘कीन’, ‘लीन’, ‘दीन’। इसी प्रकार बहुत से शब्द बतलाये जा सकते हैं। मेरा विचार है इस साधारण उच्चारण विभेद के कारण एक-दूसरे को परस्पर सर्वथा सम्पर्क-हीन समझना युक्तिसंगत नहीं। उच्चारणविभेद के अतिरिक्त कारक-चिद्दों, सर्वनामों और अनेक शब्दों में कुछ विभिन्नताएँ भी दोनों में हैं, विशेष कर ग्रामीण शब्दों में। उनसे जहाँ तक सम्भव हो बचने की चेष्टा करनी चाहिए, यद्यपि हमारे आदर्श कवियों और महाकवियों ने अनेक संकीर्ण स्थलों पर इन बातों की भी उपेक्षा की है।
( क)
अब मैं प्रकृत विषय को लेता हूँ, सत्राहवीं शताब्दी के निर्गुणवादी कवियों में मलूकदास और सुन्दरदास अधिक प्रसिध्द हैं। क्रमश: इनकी रचनाएँ आप लोगों के सामने उपस्थित करके इनकी भाषा आदि के विषय में जो मेरा विचार है, उसको मैं प्रकट करूँगा और विकास सूत्रा से उनकी जाँच-पड़ताल भी करता चलूँगा। मलूकादास जी एक खत्री बालक थे। बाल्यकाल से ही इनमें भक्ति का उद्रेक दृष्टिगत होता है। वे द्रविड़ देश के एक महात्मा बिट्ठलदास के शिष्य थे। इनका भी एक पंथ चला जिसकी मुख्य गद्दी कड़ा में है। भारतवर्ष के अन्य भागों में भी उनकी कुछ गद्दियाँ पाई जाती हैं। उनकी रचनाओं से यह सिध्द होता है कि उनमें निर्गुणवादी भाव था, फिर भी वे अधिकतर सगुणोपासना में ही लीन थे। सच्ची बात तो यह है कि पौराणिकता उनके भावों से भरी थी और वे उसके सिध्दान्तों का अनुकरण करते ही दृष्टिगत होते हैं। वे दर्शन के लिए जगन्नाथ जी भी गये थे। वहाँ पर उनके नाम का टुकड़ा अब तक मिलता है। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-
1. भील कब करी थी भलाई जिय आप जान।
फ़ील कब हुआ था मुरीद कहु किसका A
गीधा कब ज्ञान की किताब का किनारा छुआ।
व्याधा और बधिक निसाफ कहु तिसका।
नाग कब माला लै के बन्दगी करी थी बैठ।
मुझको भी लगा था अजामिल का हिसका A
एते बदराहों की बदी करी थी माफ़ जन।
मलूक अजातीपर एती करी रिस का।
2. दीनदयाल सुनी जबते तबते हिय में कुछ ऐसी बसी है।
तेरो कहाय कै जाऊँ कहाँ मैं तेरे हितकी पटखैं चिकसी है।
तेरो ही एक भरोसे मलूक को तेरे समान न दूजो जसी है।
ऐहो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहिं तेरी हँसी है A
3. ना वह रीझै जप तप कीने ना आतम के जारे।
ना वह रीझै धोती नेती ना काया के पखारे।
दाया करै धारम मन राखै घर में रहे उदासी।
अपना सा दुख सबका जाने ताहि मिलै अबिनासी।
सहै कुसबद बादहू त्यागै दाड़ै गरब गुमाना।
यही रीझ मेरे निरंकार की कहत मलूक दिवाना।
4. गरब न कीजै बावरे हरि गरब प्रहारी A
गरबहिं ते रावन गया पाया दुख भारी A
जर न खुदी रघुनाथ के मन माँहि सोहाती।
जाके जिय अभिमान है ताकी तोरत छाती।
एक दया औ दीनता ले रहिये भाई।
चरन गहो जाय साधु के रीझैं रघुराई।
यही बड़ा उपदेस है पर द्रोह न करिये।
कह मलूक हरि समिरि के भौसागर तरिये।
5. दर्द दिवाने बावरे अलमस्त फकीरा A
एक अकीदा लै रहे ऐसा मन धीरा।
प्रेम पियाला पीउ ते बिसरे सब साथी।
आठ पहर यों झूमते ज्यों माता हाथी।
साहब मिलि साहब भये कछु रही न तमाई।
कह मलूक तिस घर गये जहँ पवन न जाई।
6. अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम।
दास मलूका यों कहै सब के दाता राम।
प्रभुता ही को सब मरै प्रभु को मरै न कोय।
जो कोई प्रभु को मरै प्रभुता दासी होय।
इनकी भाषा स्वतंत्रा है। परन्तु खड़ी बोली और ब्रजभाषा का रंग ही उसमें अधिक है। ये फ़ारसी के शब्दों का भी अधिकतर प्रयोग करते हैं और कहीं-कहीं छन्द की गति की पूरी रक्षा भी नहीं कर पाते। ऊपर के पद्यों में जिन शब्दों और वाक्यों पर चिद्द बना दिया गया है उनको देखिए ये शब्द-विन्यास और वाक्य-रचना में अधिकतर ब्रज-भाषा के नियमों का पालन करते हैं। परन्तु बहुधा स्वतन्त्राता भी ग्रहण कर लेते हैं। इनकी रचना में संस्कृत के तत्सम शब्द भी आते हैं पर अधिकतर उन पर युक्त-विकर्ष का प्रभाव ही देखा जाता है।
साधुओं में सुंदरदास ही ऐसे हैं जो विद्वान् थे और जिन्होंने काशी में बीस वर्ष तक रहकर वेदान्त और अन्य दर्शनों की शिक्षा संस्कृत द्वारा पाई थी। वे जाति के खंडेलवाल बनिये और दादूदयाल के शिष्य थे। उन्होंने देशाटन अधिक किया था,अतएव उनका ज्ञान विस्तृत था। वे बालब्रह्मचारी और त्यागी थे। उनका कोई पंथ नहीं है। परन्तु सुन्दर और सरस हिन्दी रचनाओं के लिए वे प्रसिध्द हैं। उनकी अधिकांश रचनाओं पर वेदान्त-दर्शन की छाप है और उन्होंने उसके दार्शनिक विचारों को बहुत ही सरलता से प्रकट किया है। कहा जाता है, उन्होंने चालीस ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से ‘सुन्दरसांख्यतर्क चिन्तामणि’ ‘ज्ञान विलास’ आदि ग्रन्थ अधिक प्रसिध्द हैं। उन्होंने साखियों की भी रचना की है। शब्द भी बनाये हैं और बड़े ही सरस कवित्ता और सवैये भी लिखे हैं। उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं-
1. बोलिये तो तब जब बोलिये की सुधि होइ।
न तौ मुख मौन गहि चुप होइ रहिये।
जोरिये तो तब जब जोरिबे की जान परै।
तुक छंद अरथ अनूप जामैं लहिये।
गाइये तो तब जब गाइबे को कंठ होइ।
जौन के सुनत ही सुमन जाइ गहिये।
तुक भंग छंद भंग अरथ मिलै न कछु।
सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिये।
2. गेह तज्यो पुनि नेह तज्यो ,
पुनि खेह लगाइ कै देह सँवारी।
मेघ सहै सिर सीत सहै।
तन धूप समै में पँचागिन बारी।
भूख सहै रहि रूख तरे
पर सुन्दर दास यहै दुख भारी।
आसन छाड़ि के कासन ऊपर ,
आसन मारयो पै आस न मारी।
3. देखहु दुर्मति या संसार की।
हरि सो हीरा छाँड़ि हाथ तें बाँधात मोट विकार की।
नाना विधि के करम कमावत खबर नहीं सिरभार की।
झूठे सुख में भूलि रहे हैं फूटी ऑंख गँवार की।
कोई खेती कोइ बनिजी लागे कोई आस हथ्यार की।
अंधा धुंधा में चहुँ दिसि धाये सुधि बिसरी करतार की।
नरक जानि कै मारग चालै सुनि-सुनि बात लबार की।
अपने हाथ गले में बाहीं पासी माया जार की।
बारम्बार पुकार कहत हौं सौंहैं सिरजनहार की।
सुंदरदास बिनस करि जैहै देह छिनक में धार की।
4. धाइ परयो गज कूप में देखा नहीं विचारि।
काम अंधा जानै नहीं कालबूत की नारि।
लालन मेरा लाड़ला रूप बहुत तुझ माहि।
सुन्दर राखै नैन में पलक उघारै नाहिं।
सुन्दर पंछी बिरछ पर लियो बसेरा आनि।
राति रहे दिन उठि गये त्यों कुटुंब सब जानि।
लवन पूतरी उदधि में , थाह लैन को जाइ।
सुन्दर थाह न पाइये बिचही गयो बिलाइ।
5. तो सही चतुर तू जान परवीन
अति परै जनि पींजरे मोह कूआ।
पाइ उत्ताम जनम लाइ लै चपल
मन गाइ गोविन्द गुन जीति जूआ।
आपुही आपु अज्ञान नलिनी बँधयो
बिना प्रभु बिमुख कै बेर मूआ।
दास सुंदर कहै परम पद तौ लहै
राम हरि राम हरि बोल सूआ।
इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है परन्तु उसमें कहीं-कहीं खड़ी बोली का शब्द-विन्यास भी मिल जाता है। जहाँ उन्होंने दार्शनिक विषयों का वर्णन किया है वहाँ उनकी रचना में अधिकतर संस्कृत शब्द आये हैं। जैसे निम्नलिखित पद्य में-
ब्रह्म ते पुरुष अरु प्रकृत प्रगट भई ,
प्रकृति ते महत्व पुनि अहंकार है।
अहंकार हूं ते तीन गुण सत रज तम ,
तमहू ते महा भूत विषय पसार है।
रजहूं ते इन्द्री दस पृथक पृथक भई ,
सतहूं ते मन आदि देवता विचार है।
ऐसे अनुक्रम करि सिष्य सों कहत गुरु ,
सुन्दर सकल यह मिथ्या भ्रम जार है।
देशाटन के समय प्रत्येक प्रान्त में जो बातें अरुचिकर देखी, अपनी रचनाओं में उन्होंने उनकी चर्चा भी की है। उनकी ऐसी रचनाओं में प्रान्तिक और गढ़े शब्दों का प्रयोग भी प्राय: देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यांशों के उन शब्दों को देखिए जो चिद्दित हैं-
1. आभड़ छोत अतीत सों कीजिये
2. बिलाइरु कूकुरु चाटत हाँडी
3. रांधात प्याज बिगारत नाज न आवत लाज करैं सब भच्छन
4. ब्राह्मण छत्रिय बैसरु सूदर चारों ही बर्नके मच्छ बघारत
5. फूहड़ नार फतेपुर की……..।
6. फिर आवा नग्र मँझारी A
इनकी रचनाओं में विदेशी भाषा के शब्द भी आते हैं, किन्तु बहुत कम और नियमानुकूल। निम्नलिखित पद्य के उन शब्दों को देखिए जो चिद्दित हैं-
1. ‘ खबरि नहीं सिर भार की ‘
2. ‘ कागद की हथिनी कीनी ‘
3. ‘ खंदक कीना जाई ‘
4. ‘ तब बिदा होइ घर आवा ‘
5. ‘ मन में कछु फिकिरि उपावा ‘
इन पद्यों में ‘आवा’, ‘उपावा’ इत्यादि का प्रयोग भी चिन्तनीय है। ये प्रयोग अवधी के ढंग के हैं। उनकी समस्त रचनाओं पर दृष्टि डालकर यह कहा जा सकता है कि निर्गुणवादियों की जितनी रचनाएँ हैं उनमें भाषा की प्रांजलता एवं नियम-पालन की दृष्टि से सुंदरदास जी की कृति ही सर्वप्रधान है। जो भाषा-सम्बन्धी विभिन्नता कहीं-कहीं थोड़ी-बहुत मिलती है,साहित्यिक दृष्टि से वह उपेक्षणीय है। कतिपय शब्दों और वाक्य विन्यास के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी भाषा खिचड़ी है और उन्होंने भी सधुक्कड़ी भाषा ही लिखी। इन्हीं के समय में दादू सम्प्रदाय में निश्चलदास नाम के एक प्रसिध्द साधु विद्वान् हो गये हैं, जिन्होंने वेदान्त के विषयों पर सुंदर ग्रन्थ लिखे हैं। उनकी भाषा के विषय में यही कहा जा सकता है कि वह लगभग सुंदरदास की-सी ही है। इसी शताब्दी में लालदासी पंथ के प्रवर्तक लालदास और साधु सम्प्रदाय के जन्मदाता वीरभान एवं ‘सत्यप्रकाश’ नामक ग्रन्थ के रचयिता और एक नवीन मत के निर्माणकत्तर् धारणीदास भी हुए। परन्तु उनकी रचनाएँ अधिकतर साधुओं की स्वतंत्रा भाषा ही में हैं, विचार भी लगभग वैसे ही हैं। इसलिए मैं उनकी रचनाओं को लेकर उनके विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं समझता।
( ख)
इस शताब्दी के भक्ति मार्ग वाले सगुणवादी भक्तों की ओर जब दृष्टि जाती है तो सबसे पहले हमारे सामने नाभादास जी आते हैं। वैष्णवों में इनकी रचनाओं का अच्छा आदर है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने शृंगार रस से मुख मोड़कर भक्ति-रस की धारा बहायी और ‘भक्तमाल’ नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें लगभग 200 भक्तों का वर्णन है। अपनी रचना में उन्होंने वैष्णव मात्रा को समान दृष्टि से देखा, और स्वयं रामभक्त होते हुए भी कृष्णचन्द्र जी के भक्तों में भी उतनी ही आदर बुध्दि प्रकट की जितनी रामचन्द्र जी के भक्तों में। उनके विषय में जो कुछ उन्होंने लिखा है उसमें भी उनके हृदय की उदारता और पक्षपातहीनता प्र्रकट होती है। उनका ग्रन्थ ब्रजभाषा में लिखा गया है। इसका कारण उसकी सामयिक व्यापकता ही है। प्रियादासजी ने उनके ग्रन्थ पर टीका लिखी है, क्योंकि थोड़े में अधिक बातें कहने से उनका ग्रन्थ दुर्बोधा हो गया है। उन्होंने एक छप्पय में ही एक भक्त का हाल लिखा है। इसलिए थोड़े में ही उनको बहुत बातें कहनी पड़ीं। ऐसी अवस्था में उनका ग्रन्थ गूढ़ क्यों न हो जाता? प्रियादासजी की टीका ने इस गूढ़ता को अधिकतर अपनी टीका के द्वारा बोधागम्य बना दिया। पद्य ही में ‘अष्टयाम’ नामक उनका एक ग्रन्थ और है। यह ग्रन्थ भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही में लिखा गया है। दोनों का एक-एक पद्य देखिए-
1. मधुर भाव सम्मिलित ललित लीला सुवलित छवि।
निरखत हरखत हृदय प्रेम बरखत सुकलित कवि।
भव निस्तारन हेत देत दृढ़ भक्ति सबन नित।
जासु सुजस ससि उदै हरत अति तम भ्रम श्रम चित।
आनन्द कंद श्रीनंद सुत श्रीवृषभानु सुता भजन।
श्री भट्ट सुभट प्रगटयो अघट रस रसिकन मनमोद घन।
– भक्तमाल
2. परिखा प्रति चहुँ दिसि लसत कंचन कोट प्रकास।
विविधा भांति नग जगमगत प्रति गोपुर पुरवास।
दिव्य फटिकमय कोट की शोभा कहि न सिराय।
चहुँ दिसि अद्भुत जोति मैं जगमगाति सुखदाय।
इनकी भाषा के विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता मुझे नहीं ज्ञात होती। जो नियम साहित्यिक ब्रजभाषा का मैं ऊपर लिख आया हूँ उसका पालन इनकी कविता में अधिकतर पाया जाता है। इनकी रचना में अनुप्रासों एवं ललित पद-विन्यास की भी छटा है। पद्य में संस्कृत के तत्सम शब्द भी आये हैं। परन्तु वे अधिकतर ऐसे हैं जो मधुर और कोमल कहे जा सकते हैं। इनकी रचना को देखने से यह ज्ञात होता है कि उत्ताम वर्ण के न होने पर भी ये सुशिक्षित थे और ऐसा सत्संग उनको प्राप्त था जिसने उनके हृदय को भक्तिमान और भावुक बना दिया था। किसी-किसी ने उनको अछूत जाति का लिखा है, और किसी ने यह लिखकर उनकी जाति-पाँति बताने में आनाकानी की है कि हरि-भक्तों की जाति नहीं पूछी जाती। वे जो हों, परन्तु वे भक्त थे और जैसा भक्त का हृदय होना चाहिए वैसा ही उनका हृदय था, जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट प्रतिबिंबित है।
नाभादासजी के बाद हमारे सामने एक बड़े ही सरस-हृदय कवि आते हैं, वे हैं रसखान। ये मुसलमान थे और इन्होंने अपने को राजवंशी बतलाया है। नीचे के दोहे इस बात के प्रमाण हैं-
देखि गदर , हित साहिबी , दिल्ली नगर मसान।
छिनहिं बादसा बंस की , ठसक छोड़ि रसखानड्ड
प्रेम निकेतन श्री बनहिं , आय गोबरधान धाम।
लह्यो सरन चित चाहि कै , जुगल सरूप ललामड्ड
इनमें एक और विशेषता पाई जाती है वह यह है कि एक विजातीय और विधार्म्मी पुरुष का भगवान्् श्रीकृष्ण के प्रेम में तन्मय होकर सर्वस्व-त्यागी बन जाना कम आश्चर्यजनक नहीं। परन्तु प्रेम में बड़ी शक्ति है। सच्चा प्रेम क्या नहीं करा सकता?रसखान की रचनाएँ पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनमें प्रेम की कितनी लगन थी। वे इतने सच्चे प्रेमी थे और भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में उनका इतना अनुराग था कि गोस्वामी विट्ठलनाथ के प्रधान शिष्यों में उनकी भी गणना हुई और 252 वैष्णवों की वात्तर् में भी उनको स्थान मिला। इस घटना से भी इस बात का पता चलता है कि महाप्रभु वल्लभाचार्य की प्रचारित प्रेम-धारा कितनी सबल थी। रसखान का सूफी प्रेममार्गियों की ओर से मुँह मोड़कर कृष्णावत सम्प्रदाय में सम्मिलित होना यह बात प्रकट करता है कि उस समय जनता का हृदय किस प्रकार इस सम्प्रदाय की ओर आकर्षित हो रहा था। जब रसखान के निम्नलिखित पद्यों को हम पढ़ते हैं तो यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार उनका हृदय परिवर्तित हो गया था और वे कैसे भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक बन गये थे। इन पद्यों में अकृत्रिम भक्ति और प्रेम रस का श्रोत-सा बह रहा है।
1. “ मानुस हों तो वही रसखान
बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हों तो कहा बस मेरो
चरौं नित नंद की धोनु मँझारन।
पाहन हों तो वही गिरि को जो
धारयो कर क्षत्रा पुरंदर धारन।
जो खग हों तो बसेरो करौं वही
कालिंदी-कूल कदंब की डारन। “
2. या लकुटी अरु कामरिया पर
राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिध्दि नवो निधि को सुख
नन्द की गाइ चराइ बिसारौं।
ऑंखिन सों रसखान कबै
ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिन हूँ कलधाौत के धाम
करील के कुंजन ऊपर वारौं।
भगवान कृष्णचन्द्र को देवाधिदेव कहकर भी उन्होंने उन्हें किस प्रकार प्रेम के वश में बतलाया है, इसको यह पद्य भली-भाँति प्रकट कर रहा है-
“ सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहुँ
जाहि निरन्तर गावैं।
जाहि अनादि अनन्त अखंड
अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
जाहि हिये लखि आनँद ह्नै जड़
मूढ़ जनौ रसखान कहावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया
भरि छाछ पै नाच नचावैं। “
रसखान की भाषा चलती और साफ-सुथरी है। जितने पद्य उन्होंने बनाये हैं उनसे रस निचुड़ा पड़ता है। निस्संदेह ब्रजभाषा ही में उनकी कविता लिखी गई है। परन्तु खड़ी बोली के भी कोई-कोई शब्द उनमें मिल जाते हैं। इसी प्रकार अवधी के भी।
रसखान के लिखे हुए दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, ‘सुजान रसखान’ और ‘प्रेम-वाटिका’। दोनों की भाषा एक ही है और दोनों में प्रेम का प्रवाह बहता दिखलाई पड़ता है। ‘सुजान रसखान’ के पद्य आप देख चुके हैं। दो दोहे, ‘प्रेम, वाटिका’ के भी देखिए-
अति सूछम कोमल अतिहि , अति पतरो अति दूर।
प्रेम कठिन सब ते सदा , नित इक रस भर पूरड्ड
डरै सदा चाहै न कछु , सहै सबै जो होय।
रहै एक रस चाहि कै , प्रेम बखानै सोयड्ड
इसी प्रेम-परायणता के कारण रसखान की गणना भक्तों में की जाती है और यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि उनके दोनों ग्रन्थ भक्ति भावना से पूर्ण है। वे छोटे हों, परन्तु उनमें इतना प्रेम रस भरा है कि उसके कवि को सच्चा प्रेमिक मानने के लिए विवश होना पड़ता है। सच्ची तल्लीनता ही भक्ति है। इसलिए रसखान की गणना यदि वैष्णव भक्तों में हुई तो यथार्थ हुई। विधार्मी और विजातीय होकर भी यदि उन्होंने भगवान कृष्णचन्द्र को पूर्ण रूपेण आत्म-समर्पण किया तो यह उनकी सच्ची भक्ति-भावना ही थी और ऐसी दशा में उनको कौन भक्त स्वीकार न करेगा?
बनारसीदास जैन की गणना भी भक्त कवियों में होती है। यह कभी आगरा और कभी जौनपुर में रहते थे। इनका यौवन काल प्रमादमय था। परन्तु थोड़े दिनों बाद इनमें ऐसा परिवर्तन हुआ कि इन्होंने अपने शृंगार रस के ग्रन्थ को फाड़कर गोमती में फेंक दिया और ऐसी रचनाओं के करने में तल्लीन हुए जो भक्ति और ज्ञान-सम्बन्धी कही जा सकती हैं। इनके भावपूर्ण ग्रन्थों की संख्या आठ-दस बतलाई जाती है, जिनमें से अधिकतर पद्य में लिखे गये हैं। इनकी गद्य रचनाएँ भी हैं। ये जैन विद्वान् थे, परन्तु इनमें संकीर्णता नहीं थी। इनका धा्रुववंदना नामक ग्रन्थ इसका प्रमाण है। इनके कुछ पद्य देखिए-
1. काया सों विचार प्रीति , माया ही में हार जीति ,
लिये हठ रीति जैसे हारिल की लकरी।
चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि ,
त्योंही पाँय गाड़ै पै न छाड़ै टेक पकरी।
मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावै ,
धावैं चहुँ ओर जें बढ़ावै जाल मकरी।
ऐसी दुरबुध्दि भूलि झूठ के झरोखे झूलि ,
फूली फिरै ममता जँजीरन सों जकरी।
2. भौंदू समझ सबद यह मेरा।
जो तू देखै इन ऑंखिन को बिनु परकस न सूझै।
सो परकास अगिनि रवि ससि को तू अपनो करि बूझै।
तेरे दृग मुद्रित घट अंतरअ ंधा रूप तू डोलै।
कै तो सहज खुलैं वे ऑंखें कै गुरु संगति खोलै।
3. भौंदू ते हिरदै की आंखैं।
जे करखैं अपनी सुख सम्पति भ्रम की सम्पति नाखैं।
जिन ऑंखिन सों निरखि भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारैं।
जिन ऑंखिन सों लखि सरूप मुनि धयान धारना धारैं।
इनकी भाषा प्रा×जल ब्रजभाषा है। उसमें कभी-कभी कोई अपरिमार्जित शब्द आ जाता है, परन्तु उससे इनकी भाषा की विशेषता नहीं नष्ट होती। बनारसीदास ही ऐसे जैन कवि हैं, जिन्होंने ब्रजभाषा लिखने में पूरी सफलता लाभ की। इनकी गणना प्रतिष्ठित ब्रजभाषा-कवियों में की जा सकती है। इनकी रचना इस बात का भी प्रमाण है कि सत्राहवीं सदी में ब्रजभाषा इतनी प्रभावशालिनी हो गयी थी कि अन्य धर्म वाले भी उसमें अपनी रचनाएँ करने लगे थे।
( ग)
इस सत्राहवीं शताब्दी में रीति-ग्रन्थकार बहुत अधिक हुए और उन्होंने शृंगाररस, अलंकार और अन्य विषयों की इतनी अधिक रचनाएँ कीं कि ब्रजभाषा-साहित्य श्री सम्पन्न हो गया। यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि रीति-ग्रन्थकारों ने शृंगार रस को ही अधिक प्रश्रय दिया परन्तु यह समय का प्रभाव था। यह शताब्दी जहाँगीर और शाहजहाँ के राज्य-काल के अन्तर्गत है, जो विलासिता के लिए प्रसिध्द है। जैसे मुसलमान बादशाह और उनके प्रभावशाली अधिकारीगण इस समय विलासिता-प्रवाह में बह रहे थे वैसे ही इस काल के राजे और महाराजे भी। यदि मुसलिम दरबारों में आशिकाना मजामीन और शाइरी का आदर था तो राजे-महाराजाओं में रसमय भावों एवं विलासितामय वासनाओं का सम्मान भी कम न था। ऐसी अवस्था में यदि शृंगार रस के साहित्य का अधिक विकास हुआ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ज्ञान, विराग, योग इत्यादि में एक प्रकार की नीरसता सर्व-साधारण को मिलती है। उसके अधिकारी थोड़े हैं। शृंगाररस की धारा ही ऐसी है जिसमें सर्वसाधारण अधिक आनन्द लाभ करता है, क्योंकि उसका आस्वादन जैसा मोहक और हृदयाकर्षक है वैसा अन्य रसों का नहीं। स्त्री-पुरुषों के परस्पर सम्मिलन में जो आनन्द और प्रलोभन है, बाल-बच्चों के प्यार और प्रेम में जो आकर्षण है, उसमें ही सांसारिकता और स्वाभाविकता अधिक है। प्राणिमात्रा इस रस में निमग्न है। परमार्थ का आनन्द न इतना व्यापक है और न इतना मोहक, चाहे वह उच्च कोटि का भले ही हो। आहार-विहार, स्त्री-पुत्रों का स्नेह और उससे उत्पन्न आनंदानुभव पशु-पक्षी-कृमि तक में व्याप्त है। परमार्थ भावना उनमें है ही नहीं। यदि यह भावना मिलती है तो मनुष्य में ही मिलती है। परन्तु मनुष्य की इस भावना पर अधिकतर सांसारिकता का ही रंग चढ़ा है। परमार्थ चिन्ता तो वह कभी-कभी ही करता है। वह भी समष्टि-रूप से नहीं, व्यष्टि रूप से। यही कारण है कि कुछ महात्माओं और विद्या-व्यसनी विद्वानों को छोड़कर अधिकांश जनता शृंगाररस की ओर ही विशेष आकर्षित रहती है और ऐसी दशा में यदि उसी के गीत अधिक कंठों से गाये जाते सुने जावें, उसी के ग्रन्थ अधिकतर सरस हृदय द्वारा रचे जावें और उनमें अधिकतर सरसता, लालित्य और सुन्दर शब्द-विन्यास पाएँ जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। अतएव सत्राहवीं शताब्दी में यह स्वाभाविकता ही यदि बलवती होकर कवि वृन्द द्वारा कार्य-क्षेत्र में आयी तो कोई विचित्रा बात नहीं। इस शताब्दी के जितने बड़े-बडे क़वि और रीतिग्रन्थकार हैं उनमें से अधिकांश इसी रंग में रँगे हुए हैं और उनकी संख्या भी थोड़ी नहीं है। मैं सबकी रचनाओं को आप लोगों के सामने उपस्थित करने में असमर्थ हूँ। उनमें जो अग्रणी और प्रधान हैं और जिनकी कृतियों में ‘भावगत’ सुन्दर व्यंजनाएँ अथवा अन्य कोई विशेषताएँ हैं। मैं उन्हीं की रचनाएँ आप लोगों के सामने उपस्थित करके यह दिखलाऊँगा कि उस समय ब्रजभाषा का शृंगार कितना उत्ताम और मनमोहक हुआ और किस प्रकार ब्रजभाषा सुन्दर और ललित पदों का भंडार बन गयी। जिन सुकवियों अथवा महाकवियों की रचनाओं ने ब्रजभाषा संसार में उस समय कल्पना राज्य का विस्तार किया था, उनमें से कुछ विशिष्ट नाम ये हैं-
(1) सेनापति, (2) बिहारी लाल, (3) चिन्तामणि, (4) मतिराम, (5) कुलपति मिश्र, (6) जसवन्तसिंह, (7) बनवारी, (8)गोपाल चन्द्र मिश्र, (9) बेनी और (10) सुखदेव मिश्र। मैं क्रमश: इन लोगों के विषय में अपना विचार प्रकट करूँगा और यह भी बतलाऊँगा कि इनकी रचनाओं का क्या प्रभाव ब्रजभाषा पर पड़ा। बीच-बीच में अन्य रसों के विशिष्ट महाकवियों की चर्चा भी करता जाऊँगा।
(1) सेनापति कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उन्होंने ‘काव्य-कल्पद्रुम’ और ‘कवित्ता-रत्नाकर’ नामक दो ग्रन्थों की रचना की। वे अपने समय के बड़े ही विख्यात कवि थे। हिन्दू प्रतिष्ठित लोगों में इनका सम्मान तो था ही मुसलमानों के दरबारों में भी उन्होंने पूरी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। ब्रजभाषा जिन महाकवियों का गर्व कर सकती है उनमें सेनापति का नाम भी लिया जाता है। उनकी रचनाएँ अधिकतर प्रौढ़, सुन्दर, सरस और भावमयी हैं। षड्ऋतु का जैसा उदात्ता और व्यापक वर्णन सेनापति ने किया,वैसा दो एक महाकवियों की लेखनी ही कर सकी। उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है-
दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम ,
जिन कीहैं जज्ञ जाकी विपुल बड़ाई है।
गंगाधार पिता गंगाधार के समान जाके ,
गंगातीर बसति “ अनूप “ जिन पाई है।
महा जानमनि विद्या दान हूँ ते चिन्तामनि ,
हीरामनि दीक्षित ते पाई पंडिताई है।
सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी ,
सब कवि कान दै सुनत कविताई है।
कह जाता है कि अन्त में वे विरक्त हो गये थे और क्षेत्र-संन्यास ले लिया था। इस भाव के पद्य भी उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। एक पद्य देखिए-
केतो करौ कोय पैये करम लिखोय ताते ,
दूसरो न होय डर सोय ठहराइये।
आधी ते सरस बीति गई है बयस ,
अब कुजन बरस बीच रस न बढ़ाइये।
चिता अनुचित धारु धीरज उचित ,
सेनापति ह्नै सुचित रघुपति गुन गाइये।
चारि बरदानि तजि पाँय कमलेच्छन के ,
पायक मलेच्छन के काहे को कहाइयेड्ड
विरक्ति-सम्बन्धी उनके दो पद्य और देखिए-
1. पान चरनामृत को गान गुन गानन को ,
हरिकथा सुने सदा हिये को हुलसिबो।
प्रभु के उतीरनि की गूदरी औ चीरनि की ,
भाल भुज कंठ उर छापन को लखिबो।
सेनापति चाहत है सकल जनम भरि ,
वृंदाबन सीमा ते न बाहर निकसिबो।
राधा मनरंजन की सोभा नैन कंजन की ,
माल गरे गुंजन की कुंजन को बसिबोड्ड
2. महामोह कंदनि मैं जगत जकंदनि मैं ,
दीन दुख दुंंदनि में जात है बिहाय कै।
सुख को न लेस है कलेस सब भाँतिन को ,
सेनापति याही ते कहत अकुलाय कै।
आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं ,
डारौं लोक लाज के समाज बिसराय कै।
हरिजन पुंजनि में वृंदावन कुंजनि में ,
रहौं बैठिं कहूँ तरवर तर जाय कै।
एक पद्य उनका ऐसा देखिए जिसमें आर्य-ललना की मर्यादा-शीलता का बड़ा सुन्दर चित्रा है-
फूलन सों बाल की बनाइ गुही बेनी लाल ,
भाल दोनो बेंदी मृगमद की असित है।
अंग अंग भूषन बनाई ब्रजभूषन जू ,
बीरी निज कर की खवाई अति हित है।
ह्नै कै रस-बस जब दीबे को महावर के ,
सेनापति श्याम गह्यो चरन ललित है।
चूमि हाथ नाथ के लगाइ रही ऑंखिन सों ,
कही प्रानपति यह अति अनुचित है।
अब कुछ ऐसे पद्य देखिए जो ऋतु-वर्णन के हैं, इनमें कितनी स्वाभाविकता, सरसता और मौलिकता है, उसका अनुभव स्वयं कीजिए-
कातिक की राति थोरी थोरी सियराति ,
सेनापति को सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।
फूले हैं कुमुद फूली मालती सघन बन ,
फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं।
उदित विमल चंद्र चाँदनी छिटिक रही ,
राम कैसो जस अधा ऊरधा गगन है।
तिमिर हरन भयो सेत है बरन सब ,
मानहुँ जगत छीर-सागर मगन है।
सिसिर मैं ससि को सरूप पावै सविताऊ ,
घामुहुँ मैं चाँदनी की दुति दमकति है।
सेनापति होती सीतलता है सहस गुनी ,
रजनी की झाईं बासर में झमकति है।
चाहत चकोर सूर ओर दृगछोर करि ,
चकवा की छाती धारि धीर धामकति है।
चन्द के भरम होत मोद है कुमोदिनी को ,
समि संक पंकजिनी फूलि ना सकति है।
सिसिर तुषार के बुखार से उखारतु है ,
पूस बीते होत सून हाथ पाँव ठिरिकै।
द्योस की छुटाई की बड़ाई बरनी न जाइ ,
सेनापति गाई कछू , सोचिकै सुमिरि कै।
सीत ते सहसकर सहस चरन ह्नै कै
ऐसो जात भाजि तम आवत है घिरिकै।
जौ लौं कोक कोकीसों मिलत तौं लौं होत राति ,
कोक अधा बीच ही ते आवतु है फिरिकै।
एक मानसिक भाव का चित्राण देखिए और विचारिए कि उसमें कितनी स्वाभाविकता है-
जो पै प्रान प्यारे परदेस को पधारे ,
ताते बिरह ते भई ऐसी ता तिय की गति है।
करि कर ऊपर कपोलहिं कमल-नैनी
सेनापति अनिमनि बैठियै रहति है।
कागहिं उड़ावै कबौं-कबौं करै सगुनौती ,
कबौं बैठि अवधि के बासर गिनति है।
पढ़ी-पढ़ी पाती कबौं फेरि कै पढ़ति ,
कबौं प्रीतम के चित्रा में सरूप निरखति है।
आप कहेंगे कि भाषा-विकास के निरूपण के लिए कवि की इतनी अधिक कविताओं के उध्दरण की क्या आवश्यकता थी। किन्तु यह सोचना चाहिए कि भाषा के विकास का सम्बन्धा शाब्दिक-प्रयोग ही से नहीं है, वरन् भाव-व्यंजना से भी है। भाषा की उन्नति के लिए जैसे चुस्त और सरस शब्द-विन्यास की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार मनोहर भाव-व्यंजना की भी। भाषा के विकास से दोनों का सम्बन्धा है। इस बात के प्रकट करने के लिए ही उनकी कविता कुछ अधिक उठाई गई। सेनापति की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। हम उनकी भाषा को टकसाली कह सकते हैं। न तो उनकी रचना में खड़ी बोली की छूत लग पाई है, न अवधी के शब्दों का ही प्रयोग उनमें मिलता है। कहीं दो-एक इस प्रकार के शब्दों का मिल जाना कवि के भाषाधिकार को लांछित नहीं करता। ब्रजभाषा की पूर्व कथित कसौटी पर कसकर यदि आप देखेंगे तो सेनापति की भाषा बावन तोले पाव रत्ताी ठीक उतरेगी। मैं स्वयं यह कार्य करके विस्तार नहीं करना चाहता। समस्त पदों से वे कितना बचते हैं और किस प्रकार चुन-चुनकर संस्कृत तत्सम शब्दों को अपनी रचना में स्थान देते हैं, इस बात को आपने स्वयं पद्यों को पढ़ते समय समझ लिया होगा। वे शब्दों को तोड़ते-मरोड़ते भी नहीं। दोषों से बचने की भी वे चेष्टा करते हैं। ये बातें ऐसी हैं जो उनकी कविता को बहुत महत्तव प्रदान करती हैं। उनके नौ पद्य उठाये गये हैं। उनमें से एक पद्य में ही एक शब्द ‘द्यौस’ ऐसा आया है जिसको हम विकृत हुआ पाते हैं। परन्तु यह ऐसा शब्द है जो ब्रजभाषा की रचनाओं में गृहीत है। इसलिए इस शब्द को स्वयं गढ़ लेने का दोष उन पर नहीं लगाया जा सकता। किसी कविता का सर्वथा निर्दोष होना असंभव है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि साहित्यिक दोषों से उनकी कविता अधिकतर सुरक्षित है। इससे यह पाया जाता है कि उनकी कविता कितनी प्रौढ़ है। उनकी कविता की अन्य विशेषताओं पर मैं पहले ही दृष्टि आकर्षित करता आया हूँ। इसलिए उस पर कुछ और लिखना बाहुल्य मात्रा है। इनके जिन दो ग्रन्थों की चर्चा मैं ऊपर कर आया हूँ, उनमें से ‘कवित्ता-रत्नाकर’ अलंकार और काव्य की अन्य कलाओं के निरूपण का सुन्दर ग्रन्थ है। ‘काव्य-कल्पद्रुम’ में उनकी नाना-रसमयी कविताओं का संग्रह है। दोनों ग्रन्थ अनूठे हैं और उनकी विशेषता यह है कि घनाक्षरी अथवा कवित्ताों में ही वे लिखे गये हैं। कुछ दोहों को छोड़कर दूसरा कोई छन्द उसमें है ही नहीं।
(2) बिहारी लाल का ग्रन्थ ब्रजभाषा साहित्य का एक अनूठा रत्न है और इस बात का उदाहरण है कि घट में समुद्र कैसे भरा जाता है। गोस्वामी तुलसीदास की रामायण छोड़कर और किसी ग्रन्थ को इतनी सर्व-प्रियता नहीं प्राप्त हुई जितनी ‘बिहारी सतसई को’। रामचरितमानस के अतिरिक्त और कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं है कि उसकी उतनी टीकाएँ बनी हों, जितनी सतसई की अब तक बन चुकी हैं। बिहारीलाल के दोहों के दो चरण बड़े-बड़े कवियों के कवित्ताों के चार चरणों और सहृदय कवियों के रचे हुए छप्पयों के छ: चरणों से अधिकतर भाव-व्यंजन में समर्थ और प्रभावशालिता में दक्ष देखे जाते हैं। एक अंग्रेज विद्वान् का यह कथन कि “Brevity is the soul of wit and it is also the solul of art” “संक्षिप्तता काव्य-चातुरी की आत्मा तो है ही, कला की भी आत्मा है।” बिहारी की रचना पर अक्षरश: घटित होता है। बिहारी की रचनाओं की पंक्तियों को पढ़कर एक संस्कृत विद्वान की इस मधुर उक्ति में संदेह नहीं रह जाता कि “अक्षरा: कामधोनव:!” (अक्षर कामधोनु हैं) वास्तव में बिहारी के दोहों के अक्षर कामधोनु हैं जो अनेक सूत्रों से अभिमत फल प्रदान करते हैं। उनको पठन कर जहाँ हृदय में आनन्द का श्रोत उमड़ उठता है, वहीं विमुग्धा मन नन्दन कानन में बिहार करने लगता है। यदि उनकी भारती रस-धारा प्रवाहित करती है तो उनकी भाव-व्यंजना पाठकों पर अमृत वर्षा करने लगती है। सतसई का शब्द- विन्यास जैसा ही अपूर्व है वैसा ही विलक्षण उसमें झंकार है। काव्य एवं साहित्य का कोई गुण ऐसा नहीं जो मूर्तिमन्त होकर इस ग्रन्थ में विराजमान न हो और कवि-कर्म की ऐसी कोई विभूति नहीं जो इसमें सुविकसित दृष्टिगत न हो। मानसिक सुकुमार भावों का ऐसा सरस चित्राण किसी साहित्य में है या नहीं,यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु जी यही कहता है कि यह मान लिया जाये कि यदि होगा तो ऐसा ही होगा। किन्तु यह लोच कहाँ? इस ग्रन्थ में शृंगार रस तो प्रवाहित है ही, यत्रा-तत्रा अनेक सांसारिक विषयों का भी इसमें बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन है। अनेक रहस्यों का इसमें कहीं-कहीं ऐसा निरूपण है जो उसकी स्वाभाविकता का सच्चा चित्रा ऑंखों के सामने ला खड़ा करता है। बिहारीलाल ने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत अथवा भाषा कवियों के भाव कहीं-कहीं लिये हैं। परन्तु उनको ऐसा चमका दिया है कि यह ज्ञात होता है, कि घनपटल से बाहर निकल कर हँसता हुआ मयंक सामने आ गया। इनकी सतसई के अनुकरण में और कई सतसइयाँ लिखी गईं, जिनमें से चन्दन, विक्रम और रामसहाय की अधिक प्रसिध्द हैं, परन्तु उस बूँद से भेंट कहाँ! पीतल सोना का सामना नहीं कर सकता। संस्कृत में भी इस सतसई का पूरा अनुवाद पंडित परमानन्द ने किया है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने कमाल किया है। परन्तु मूल मूल है और अनुवाद अनुवाद।
बिहारीलाल की सतसई का आधार कोई विशेष-ग्रन्थ है अथवा वह स्वयं उनकी प्रतिभा का विकास है, जब यह विचार किया जाता है तो दृष्टि संस्कृत के ‘आर्य्या-सप्तशती’ एवं गोवर्धान-सप्तशती की ओर आकर्षित होती है। निस्सन्देह इन ग्रन्थों में भी कवि कर्म का सुन्दर रूप दृष्टिगत होता है। परन्तु मेरा विचार है कि रस निचोड़ने में बिहारीलाल इन ग्रन्थ के रचयिताओं से अधिक निपुण हैं। जिन विषयों का उन लोगों ने विस्तृत वर्णन करके भी सफलता नहीं प्राप्त की उनको बिहारी ने थोड़े शब्दों में लिखकर अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस अवसर पर कृपाराम की ‘हित-तरंगिनी’ भी स्मृति-पथ में आती है। परन्तु प्रथम तो उस ग्रन्थ में लगभग चार सौ दोहे हैं, दूसरी बात यह कि उनकी कृति में ललित कला इतनी विकसित नहीं है जितनी बिहारी लाल की उक्तियों में। उन्होंने संक्षिप्तता का राग अलापा है, परन्तु बिहारीलाल के समान वे इत्रा निकालने में समर्थ नहीं हुए। उनके कुछ दोहे नीचे लिखे जाते हैं। उनको देखकर आप स्वयं विचारें कि क्या उनमें भी वही सरसता, हृदय-ग्राहिता और सुन्दर शब्द-चयन-प्रवृत्तिा पाई जाती है, जैसी बिहारीलाल के दोहों में मिलती है।
लोचनचपल कटाच्छ सर , अनियारे विष पूरि।
मन मृग बेधौं मुनिन के , जगजन सहित विसूरिड्ड
आजु सबारे हौं गयी , नंदलाल हित ताल।
कुमुद कुमुदिनी के भटू , निरखे औरै हालड्ड
पति आयो परदेस ते , ऋतु बसंत की मानि।
झमकि झमकि निज महल में , टहलैं करैं सुरानिड्ड
बिहारी के दोहों के सामने ये दोहे ऐसे ज्ञात होते हैं जैसे रेशम के लच्छों के सामने सूत के डोरे। संभव है कि हित-तरंगिणी को बिहारीलाल ने देखा हो, परन्तु वे कृपाराम को बहुत पीछे छोड़ गये हैं। मेरा विचार है कि बिहारीलाल की रचनाओं पर यदि कुछ प्रभाव पड़ा है तो उस काल के प्रचलित फ़ारसी साहित्य का। उर्दू शायरी का तो तब तक जन्म भी नहीं हुआ था। फ़ारसी का प्रभाव उस समय अवश्य देश में विस्तार लाभ कर रहा था क्योंकि अकबर के समय में ही दफ्तर फ़ारसी में हो गया था और हिन्दू लोग फारसी पढ़कर उसमें प्रवेश करने लगे थे। फ़ारसी के दो बन्द के शेरों में चुने शब्दों के आधार से वैसी ही बहुत कुछ काव्य-कला विकसित दृष्टिगत होती है जैसी कि बिहारीलाल के दो चरण के दोहों में। उत्तारकाल में उर्दू शायरी में फ़ारसी रचनाओं का यह गुण स्पष्टतया दृष्टिगत हुआ। परन्तु बिहारीलाल की रचनाओं के विषय में असंदिग्धा रीति से यह बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि अब तक बिहारीलाल के विषय में जो ज्ञात है उससे यह पता नहीं चलता कि उन्होंने फ़ारसी भी पढ़ी थी। जो हो, परन्तु यह बात अवश्य माननी पड़ेगी कि बिहारीलाल के दोहों में जो थोड़े में बहुत कुछ कह जाने की शक्ति है वह अद्भुत है। चाहे यह उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास हो अथवा अन्य कोई आधार, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।
अब मैं उनकी कुछ रचनाएँ आप लोगों के सन्मुख उपस्थित करूँगा। बिहारीलाल को शृंगार रस का महाकवि सभी ने माना है। इसलिए उसको छोड़कर पहले मैं उनकी कुछ अन्य रस की रचनाएँ आप लोगों के सामने रखता हूँ। आप देखिए उनमें वह गुण और वह सारग्राहिता है या नहीं जो उनकी रचनाओं की विशेषताएँ हैं। संसार का जाल कौन नहीं तोड़ना चाहता, पर कौन उसे तोड़ सका? मनुष्य जितनी ही इस उलझन के सुलझाने की चेष्टा करता है उतना ही वह उसमें उलझता जाता है। इस गम्भीर विषय को एक अन्योक्ति के द्वारा बिहारीलाल ने जिस सुन्दरता और सरसता के साथ कहा है वह अभूतपूर्व है। वास्तव में उनके थोड़े से शब्दों ने बहुत बड़े व्यापक सिध्दान्त पर प्रकाश डाला है-
को छूटयो येहि जाल परि , कत कुरंग अकुलात।
ज्यों-ज्यों सरुझि भज्यो चहै , त्यों त्यों अरुझ्यो जातड्ड
यौवन का प्रमाद मुनष्य से क्या नहीं कराता?, उसके प्रपंचों में पड़कर कितने नाना संकटों में पड़े, कितने अपने को बरबाद कर बैठे, कितने पाप-पंक में निमग्न हुए, कितने जीवन से हाथ धो बैठे और कितनों ही ने उसके रस से भीगकर अपने सरस जीवन को नीरस बना लिया। हम आप नित्य इस प्रकार का दृश्य देखते रहते हैं। इस भाव को किस प्रकार बिहारीलाल चित्राण करते हैं उसे देखिए-
इक भींजे चहले परे बूड़े बहे हजार।
किते न औगुन जग करत नै बै चढ़ती बारड्ड
परमात्मा ऑंख वालों के लिये सर्वत्रा है। परन्तु आजतक उसको कौन देख पाया? कहा जा सकता है कि हृदय की ऑंख से ही उसे देख सकते हैं, चर्म-चक्षुओं से नहीं। चाहे जो कुछ हो, किन्तु यह सत्य है कि वह सर्वव्यापी है और एक-एक फूल और एक-एक पत्तो में उसकी कला विद्यमान है। शास्त्रा तो यहाँ तक कहता है, कि ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्तिकिंचन’। जो कुछ संसार में है वह सब ब्रह्म है, इसमें नानात्व कुछ नहीं है। फिर क्या रहस्य है कि हम उसको देख नहीं पाते? बिहारीलाल जी इस विषय को जिस मार्मिकता से समझाते हैं उसकी सौ मुख से प्रशंसा की जा सकती है। वे कहते हैं-
जगत जनायो जो सकल , सो हरि जान्यो नाहि।
जिमि ऑंखिनसब देखिए , ऑंखि न देखी जाहिड्ड
एक उर्दू शायर भी इस भाव को इस प्रकार वर्णन करता है-
बेहिजाबी वहकि जल्वा हर जगह है आशिकार।
इस पर घूँघट वह कि सूरत आजतक नादीदा हैड्ड
यह शेर भी बड़ा ही सुन्दर है। परन्तु भाव-प्रकाशन किस में किस कोटि का है इसको प्रत्येक सहृदय स्वयं समझ सकता है। भावुक भक्त कभी-कभी मचल जाते हैं और परमात्मा से भी परिहास करने लगते हैं। ऐसा करना उनका विनोद-प्रिय प्रेम है असंयत भाव नहीं। ‘प्रेम लपेटे अटपटे बैन’ किसे प्यारे नहीं लगते। इसी प्रकार की एक उक्ति बिहारी की देखिए। वे अपनी कुटिलता को इसलिए प्यार करते हैं। जिसमें त्रिभंगीलाल को उनके चित्ता में निवास करने में कष्ट न हो, क्योंकि यदि वे उसे सरल बना लेंगे तो वे उसमें सुख से कैसे निवास कर सकेंगे? कैसा सुन्दर परिहास है। वे कहते हैं-
करौ कुबत जग कुटिलता , तजौं न दीन दयाल।
दुखी होहुगे सरल चित ; बसत त्रिभंगी लालड्ड
परमात्मा सच्चे प्रेम से ही प्राप्त होता है। क्योंकि वह सत्य स्वरूप है। जिसके हृदय में कपट भरा है उसमें वह अन्तर्यामी कैसे निवास कर सकता है जो शुध्दता का अनुरागी है? जिसका मानस-पट खुला नहीं। उससे अन्तर्पट के स्वामी से पटे तो कैसे पटे? इस विषय को बिहारीलाल, देखिए कितने सुन्दर शब्दों में प्रकट करते हैं-
तौ लगि या मन-सदन में ; हरि आवैं केहि बाट।
बिकट जटे जौ लौं निपट ; खुले न कपट-कपाट।
अब कुछ ऐसे पद्य देखिए जिनमें बिहारीलाल जी ने सांसारिक जीवन के अनेक परिवर्तनों पर सुन्दर प्रकाश डाला है-
यद्यपि सुंदर सुघर पुनि ; सगुनौ दीपक देह।
तऊ प्रकास करै तितो ; भरिये जितो सनेहड्ड
जो चाहै चटक न घटै ; मैलो होय न मित्ता।
रज राजस न छुवाइये ; नेह चीकने चित्ताड्ड
अति अगाधा अति ऊथरो ; नदी कूप सर बाय।
सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझायड्ड
बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय।
घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलायड्ड
को कहि सकै बड़ेन सों लखे बड़ीयौ भूल।
दीन्हें दई गुलाब की इन डारन ये फूलड्ड
कुछ उनके शृंगार रस के दोहे देखिए-
बतरस लालच लाल की मुरली धारी लुकाय।
सौंह करै भौंहन हँसे देन कहै नटि जायड्ड
दृग अरुझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठ दुरजन हिये दई नई यह रीतिड्ड
तच्यो ऑंच अति बिरह की रह्यो प्रेम रस भींजि।
नैनन के मग जल बहै हियो पसीजि पसीजिड्ड
सघन कुंज छाया सुखद सीतल मन्द समीर।
मन ह्नै जात अजौं वहै वा यमुना के तीरड्ड
मानहुँ विधि तन अच्छ छबि स्वच्छ राखिबे काज।
दृग पग पोंछन को कियो भूखन पायंदाजड्ड