बिहारीलाल के उद्धृत दोहों में से सबका मर्म समझाने की यदि चेष्टा की जाय तो व्यर्थ विस्तार होगा, जो अपेक्षित नहीं। कुछ दोहों का मैंने स्पष्टीकरण किया है। वही मार्ग ग्रहण करने से आशा है, काव्य मर्मज्ञ सुजन अन्य दोहों का अर्थ भी लगा लेंगे और उनकी व्यंजनाओं का मर्म समझ कर यथार्थ आनन्दलाभ करेंगे। बिहारी के दोहों का यों भी अधिक प्रचार है और सहृदयजनों पर उनका महत्तव अप्रकट नहीं है। इसलिए उनके विषय में अधिक लिखना व्यर्थ है। मैं पहले उनकी रचना आदि पर बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूँ। इतना फिर और कह देना चाहता हूँ कि कला की दृष्टि से ‘बिहारी सतसई’ अपना उदाहरण आप है। कुछ लोगों ने बिहारीलाल की शृंगार सम्बन्धी रचनाओं पर व्यंग्य भी किये हैं और इस सूत्रा से उनकी मानसिक वृत्तिा पर कटाक्ष भी। मत भिन्नता स्वाभाविक है और मनुष्य अपने विचारों और भावों का अनुचर है। इसलिए मुझको इस विषय में अधिक तर्क-वितर्क वांछनीय नहीं। परन्तु अपने विचारानुसार कुछ लिख देना भी संगत जान पड़ता है।
बिहारीलाल पर किसी-किसी ने यह कटाक्ष किया है कि उनकी दृष्टि सांसारिक भोग-विलास में ही अधिकतर बध्द रही है। उन्होंने सांसारिक वासनाओं और विलासिताओं का सुन्दर से सुन्दर चित्रा खींचकर लोगों की दृष्टि अपनी ओर आकर्षित की। न तो उस ‘सत्यं शिवं सुंदरं’ का तत्तव समझा और न उसकी अलौकिक और लोकोत्तार लीलाओं और रहस्यों का अनुभव प्राप्त करने की यथार्थ चेष्टा की। बाह्य जगत् से अन्तर्जगत् अधिक विशाल और मनोरम है। यदि वे इसमें प्रवेश करते तो उनको वे महान् रत्न प्राप्त होते जिनके सामने उपलब्धा रत्न काँच के समान प्रतीत होते। परन्तु मैं कहूँगा न तो उन्होंने अन्तर्जगत् से मुँह मोड़ा और न लोकोत्तार की लोकोत्तारता से ही अलग रहे। क्या स्त्री का सौन्दर्य ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ नहीं है? कामिनी-कुल के सौन्दर्य में क्या ईश्वरीय विभूति का विकास नहीं? क्या उनकी सृष्टि लोक-मूल की कामना से नहीं हुई? क्या उनके हाव-भाव,विभ्रम-विलास लोकोपयोगी नहीं? क्या विधाता ने उनमें इस प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न कर प्रवंचना की? और संसार को भ्रान्त बनाया? मैं समझता हूँ कि कोई तत्तवज्ञ इसे न स्वीकार करेगा। यदि यह सत्य है कि संसार की रचना मूलमयी है, तो इस प्रकार के प्रश्न हो ही नहीं सकते। जो परमात्मा की विभूतियाँ विश्व के समस्त पदार्थों में देखते हैं, यह जानते हैं कि परमात्मा सच्चिदानन्द है, वे संसार की मूलमयी और उपयोगी कृतियों को बुरी दृष्टि से नहीं देख सकते। यदि बिहारीलाल ने स्त्री के सौन्दर्य वर्णन में उच्च कोटि की कवि कल्पना से काम लिया, उनके नाना आनन्दमय भावों के चित्राण में अपूर्व कौशल दिखलाया, मानस की सुकुमार वृत्तिायों के निरूपण में सच्ची भावुकता प्रकट की। विश्व की सारभूत दो मूलमयी मूर्तियों (स्त्री-पुरुष) का मूलमयी कमनीयता प्रदर्शित की और अपने पद्यों में शब्द और भाव-विन्यास के मोती पिरोये तो क्या लोक-ललाम की लोकोत्तार लीलाओं को ही रूपान्तर से प्रकट नहीं किया? और यदि यह सत्य है तो बिहारीलाल पर व्यंग्यबाण् वृष्टि क्यों? मयंक में धाब्बे हैं, फूल में काँटे हैं तो क्या उनमें ‘सत्यं’ ‘शिवं’ ‘सुंदरम्’ का विकास नहीं है। बिहारी की कुछ कविताएँ प्रकृति नियमानुसार सर्वथा निर्दोष न हों तो क्या इससे उनकी समस्त रचनाएँ निन्दनीय हैं? लोक-ललाम की ललामता लोकोत्तार है, इसलिए क्या उसका लोक से कुछ सम्बन्धा नहीं? क्या लोक से ही उसको लोकोत्तारता का ज्ञान नहीं होता? तो फिर, लोक का त्याग कैसे होगा? निस्सन्देह यह स्वीकार करना पड़ेगा कि लोक का सदुपयोग ही वांछनीय है, दुरुपयोग नहीं। जहाँ सत्यं,शिवं, सुन्दरम् है, वहाँ उसको उसी रूप में ग्रहण करना कवि कर्म्म है। बिहारीलाल ने अधिकांश ऐसा ही किया है, वरन् मैं तो यह कहूँगा कि उनकी कला पर गोस्वामीजी का यह कथन चरितार्थ होता है कि ‘सुंदरता कहँ सुंदर करहीं’। संसार में प्रत्येक प्राणी का कुछ कार्य होता है। अधिकारी भेद भी होता है। संसार में कवि भी हैं, वैज्ञानिक भी हैं, दार्शनिक भी हैं, तत्तवज्ञ भी हैं एवं महात्मा भी। जो जिस रूप में कार्यक्षेत्र में आता है, हमको उसी रूप में उसे ग्रहण करना चाहिए और देखना चाहिए कि उसने अपने क्षेत्र में अपना कार्य करके कितनी सफलता लाभ की। कवि की आलोचना करते हुए उसके दार्शनिक और तत्तवज्ञ न होने का राग अलापना बुध्दिमत्ता नहीं। ऐसा करना प्रमाद है, विवेक नहीं। मेरा विचार है कि बिहारीलाल ने अपने क्षेत्र में जो कार्य किया है वह उल्लेखनीय है एवं प्रशंसनीय भी। यदि उनमें कुछ दुर्बलताएँ हैं तो वे उनकी विशेषताओं के सम्मुख मार्जनीय हैं, क्योंकि यह स्वाभाविकता है, इससे कौन बचा?
बिहारीलाल की भाषा के विषय में मुझे यह कहना है कि वह साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें अवधी के ‘दीन’, ‘कीन’इत्यादि बुन्देलखंडी के लखबी और प्राकृत के मित्ता ऐसे शब्द भी मिलते हैं। परन्तु उनकी संख्या नितान्त अल्प है। ऐसे ही भाषागत और भी कुछ दोष उसमें मिलते हैं। किन्तु उनके महान् भाषाधिकार के सामने वे सब नगण्य हैं। वास्तव बात तो यह है कि उन्होंने अपने 700 दोहों में क्या भाषा और क्या भाव, क्या सौन्दर्य, क्या लालित्य सभी विचार से वह कौशल और प्रतिभा दिखलायी है कि उस समय तक उनका ग्रन्थ समादर के हाथों से गृहीत होता रहेगा जब तक हिन्दी भाषा जीवित रहेगी।
बिहारीलाल के सम्बन्धा में डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन की सम्मति नीचे लिखी जाती है-
“इस दुरूह ग्रन्थ (बिहारी सतसई) में काव्यगत परिमार्जन, माधार्ुय्य और अभिव्यक्ति-सम्बन्धी विदग्धाता जिस रूप में पाई जाती है, वह अन्य कवियों के लिए दुर्लभ है। अनेक अन्य कवियों ने उनका अनुकरण किया है, लेकिन इस विचित्रा शैली में यदि किसी ने उल्लेख-योग्य सफलता पायी है तो वह तुलसीदास हैं, जिन्होंने बिहारीलाल के पहले सन् 1585 में एक सतसई लिखी थी। बिहारी के इस काव्य पर अगणित टीकाएँ लिखी गई हैं। इसकी दुरूहता और विदग्धाता ऐसी है कि इसके अक्षरों को कामधोनु कह सकते है।”1
(3) त्रिपाठी बन्धुओं में मतिराम और भूषण विशेष उल्लेख योग्य है। इनके बड़े भाई चिन्तामणि थे और छोटे नीलकंठ उपनाम जटाशंकर। चारों भाई साहित्य के पारंगत थे और उन्होंने अपने समय में बहुत कुछ प्रतिष्ठा लाभ की। आजकल कुछ विवाद इस विषय में छिड़ गया है कि वास्तव में ये लोग परस्पर भाई थे या नहीं, परन्तु अब तक इस विषय में कोई ऐसी प्रामाणिक मीमांसा नहीं हुई कि चिरकाल की निश्चित बात को अनिश्चित मान लिया जावे। चिंतामणि राजा महाराज राजाओं के यहाँ भी आदृत थे। उन्होंने सुन्दर रीति-ग्रन्थों की रचना की है, जिनका नाम ‘छन्द-विचार’, ‘काव्य-विवेक’, ‘कविकुल कल्पतरु’एवं ‘काव्य-प्रकाश’ है। उनकी बनाई एक रामायण भी है। परन्तु वह विशेष आदृत नहीं हुई। कविता इनकी सुन्दर, सरस और परिमार्जित ब्रजभाषा का नमूना है। इनकी गणना आचाय्र्यों में होती है। कहा जाता है कि प्राकृत भाषा की कविता करने में भी ये कुशल थे। कुछ हिन्दी रचनाएँ देखिए-
1. चोखी चरचा ज्ञान की आछी मन की जीति।
संगति सज्जन की भली नीकी हरि की प्रीति।
2. एइ उधारत हैं तिन्हें जे परे मोह
महोदधि के जल फेरे।
जे इनको पल धयान धारैं मन ते
न परैं कबहूँ जम घेरे।
राजै रमा रमनी उपधान
अभै बरदान रहै जन नेरे।
1. The elegence, poetic flavour, and ingenuity of expression in this difficult work, are considered to have been unapproached by any other poet. He has been imitated by numerous other poets, but the only one who has achieved any considerable excellence in this peculiar style is Tulsidas (No. 128) who preceded him by writing a Satsai (treating of Ram as Bihari Lal’treated of Krishna) in the year 1585 A.D………
Bihari’s poem has been dealt with by innumerable commentators Its difficulty and ingenuity one so great that it is called a veritable ‘Akshar Kamdhenu’.
Modern Vernacular Literature of Hindustan, P. 75
हैं बल भार उदंड भरे हरि के
भुज दंड सहायक मेरे।
3. सरद ते जल की ज्यों दिन ते कमल की ज्यों ,
धान ते ज्यों थल की निपट सरसाई है।
घन ते सावन की ज्यों ओप ते रतन की ज्यों ,
गुन ते सुजन की ज्यों परम सहाई है।
चिन्तामनि कहै आछे अच्छरनिछंद की ज्यों ,
निसागम चंद की ज्यों दृग सुखदाई है।
नगते ज्यों कंचन बसंत ते ज्यों बन की ,
यों जोवन ते तन की निकाई अधिकाई है।
नीलकण्ठ जी की रचनाएँ भी प्रसिध्द हैं। किन्तु वे अधिकतर जटिल हैं। एक रचना उनकी भी देखिए-
तन पर भारतीन तन पर भारतीन ,
तन पर भारतीन तन पर भार हैं।
पूजैं देव दार तीन पूजैं देव दार तीन ,
पूजैं देवदार तीन पूजै देव दार हैं।
नीलकंठ दारुन दलेल खां तिहारी धाक ;
नाकती न द्वार ते वै नाकती पहार हैं।
ऑंधारेन कर गहे ; बहरे न संग रहे ;
बार छूटे बार छूटे बार छूटे बार हैं।
इनमें मतिराम बड़े सहृदय कवि थे। ये भी राजा-महाराजाओं से सम्मानित थे। इन्होंने चार रीति ग्रन्थों की रचना की है। उनके नाम हैं, ललित ललाम, रसराज, छन्दसार और साहित्यसार। इनमें ललित ललाम और रसराज अधिक प्रसिध्द हैं। इनकी और चिन्तामणि की भाषा लगभग एक ही ढंग की है। दोनों में वैदर्भी रीति का सुन्दर विकास है। इनकी विशेषता यह है कि सीधो-सादे शब्दों में ये कूट-कूटकर रस भर देते हैं। जैसा इनकी रचना में प्रवाह मिलता है वैसा ही ओज। जैसे सुन्दर इनके कवित्ता हैं वैसे ही सुन्दर सवैये। इनके अधिकतर दोहे बिहारीलाल के टक्कर के हैं, उनमें बड़ी मधुरता पाई जाती हैं। यदि इनके बड़े भाई चिन्तामणि नागपुर के सूर्यवंशी भोंसला मकरन्दशाह के यहाँ रहते थे, तो ये बूँदी के महाराज भाऊसिंह के यहाँ समादृत थे। इससे यह सूचित होता है कि उस समय ब्रजभाषा के कवियों की कितनी पहुँच राजदरबारों में थी और उनका वहाँ कितना अधिक सम्मान था। देखिए कविवर मतिराम बूँदी का वर्णन किस सरसता से करते हैं-
सदा प्रफुल्लित फलित जहँ द्रुम बेलिन के बाग।
अलि कोकिल कल धुनि सुनत रहत श्रवन अनुराग
कमल कुमुद कुबलयन के परिमल मधुर पराग।
सुरभि सलिल पूरे जहाँ बापी कूप तड़ाग
सुक चकोर चातक चुहिल कोक मत्ता कल हंस।
जहँ तरवर सरवरन के लसत ललित अवतंस
इनके कुछ अन्य पद्य भी देखिए-
गुच्छनि के अवतंस लसै सिखि
पच्छनि अच्छ किरीट बनायो।
पल्लव लाल समेत छरी कर
पल्लव में मति राम सुहायो।
जन के उर मंजुल हार
निकुंजन ते कढ़ि बाहर आयो।
आजु को रूप लखे ब्रजराजु को
आजु ही ऑंखिन को फल पायो।
कुंदन को रँग फीको लगै झलकै
असि अंगनि चारु गोराई।
ऑंखिन मैं अलसानि चितौनि
मैं मंजु बिलासनि की सरसाई।
को बिन मोल बिकात नहीं
मतिराम लहे मुसुकानि मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिये नेरे ह्नै नैननि
त्यों त्यों खरी निकरैं सुनिकाई।
चरन धारै न भूमि बिहरे तहाईं जहाँ
फूले फूले फूलन बिछायौ परजंक है।
भार के डरनि सुकुमारि चारु अंगनि मैं
करति न अंगराग कुंकुम को पंक है।
कहै मतिराम देखि वातायन बीच आयो।
आतप मलीनहोत बदन मयंक है।
कैसे वह बाल लाल बाहर विजन आवै
बिजन बयार लागे लचकति लंक है।
मतिराम की कोमल और सरस शब्द माला पर किस प्रकार भाव-लहरी अठखेलियाँ करती चलती है, इसे आपने देख लिया। उनके सीधो सादे चुने शब्द कितने सुन्दर होते हैं, वे किस प्रकार कानों में सुधा वर्षण करते, और कैसे हृदय में प्रवेश करके उसे भाव-विमुग्धा बनाते हैं, इसका आनन्द भी आप लोगों ने ले लिया। वास्तव बात यह है कि जिन महाकवियों ने ब्रजभाषा की धाक हिन्दी साहित्य में जमा दी, उनमें से एक मतिराम भी हैं। मिश्र-बन्धुओं ने इनकी गणना नवरत्नों में की है। मैं भी इससे सहमत हूँ। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, परन्तु उसमें उन्होंने ऐसी मिठास भरी है जो मानुसों को मधुमय बनाये बिना नहीं रहती। साहित्यिक ब्रजभाषा के लक्षण मैं ऊपर बतला आया हूँ। उन पर यदि इनकी रचना कसी जावे तो उसमें भाव और भाषा-सम्बन्धी महत्ताओं की अधिकता ही पाई जायगी, न्यूनता नहीं। उन्होंने जितने प्रसून ब्रजभाषा देवी के चरणों पर चढ़ाये हैं, उनमें से अधिकांश सुविकसित और सुरभित हैं और यह उनकी सहृदयता की उल्लेखनीय विशेषता है।
वीर हृदय भूषण इस शताब्दी के ऐसे कवि हैं जिन्होंने समयानुकूल वीर रस-धारा के प्रवाहित करने में ही अपने जीवन की चरितार्थता समझी। जब उनके चारों ओर प्रबल वेग से शृंगार रस की धारा प्रवाहित हो रही थी, उस समय उन्होंने वीर-रस की धारा में निमग्न होकर अपने को एक विलक्षण प्रतिभा-सम्पन्न पुरुष प्रतिपादित किया। ऐसे समय में भी जब देशानुराग के भाव उत्पन्न होने के लिए वातावरण बहुत अनुकूल नहीं था, उन्होंने देश-प्रेम-सम्बन्धी रचनाएँ करके जिस प्रकार एक भारत-जननी के सत्पुत्रा को उत्साहित किया, उसके लिए कौन उनकी भूयसी प्रशंसा न करेगा? यह सत्य है कि अधिकतर उनके सामने आक्रमित धर्म की रक्षा ही थी और उनका प्रसिध्द साहसी वीर धर्म-रक्षक के रूप में ही हिन्दू जगत के सम्मुख आता है। परन्तु उसमें देश-प्रेम और जाति-रक्षा की लगन भी अल्प नहीं थी। नीचे की पंक्तियाँ इसके प्रमाण हैं, जो शिवाजी की तलवार की प्रशंसा में कही गई हैं-
तेरो करवाल भयो दच्छिन को ढाल भयो
हिन्द की दिवाल भयो काल तुरकान को।
इसी भाव का एक पूरा पद्य देखिए-
राखी हिंदुआनी हिंदुआन को तिलक राख्यो।
अस्मृति पुरान राखे वेद विधि सुनी मैं।
राखी रजपूति राजधानी राखी राजन की। धारा मैं धारम राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं।
भूषन सुकबि जीति हद्दमरहट्ठन की।
देस देस कीरति बखानी तब सुनी मैं।
साह के सपूत सिवराज समसेर तेरो।
दिल्ली दल दाबिके दिवाल राखी दुनी मैं।
भूषण की जितनी रचनाएँ हैं वे सब वीर-रस के दर्प से दर्पित हैं। शृंगार रस की ओर उन्होंने दृष्टिपात भी नहीं किया। देखिए, नीचे के पद्यों की पदावली में धर्म-रक्षा की तरंग किस प्रकार तरंगायमान है-
1. देवल गिरावते फिरावते निसान अली ,
ऐसे डूबे राव राने सबै गये लब की।
गौरा गनपत आप औरन को देत ताप ;
आप के मकान सब मार गये दबकी।
पीरां पैगम्बरां दिगम्बरां दिखाई देत ;
सिध्द की सिधाई गयी रही बात रबकी।
कासिहुं ते कला जाती मथुरा मसीत होती ;
सिवाजी न होतो तौ सुनति होती सबकी।
2. वेद राखे विदित पुरान राखे सारजुत ;
रामनामराख्यो अति रसाना सुघर मैं।
हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की ;
कांधो मैं जनेऊ राख्यो माला राखी गर मैं।
मींड़ि राखे मुगल मरोरि राखे पादशाह ;
बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर मैं।
राजन की हद्द राखी तेग बल सिवराज ;
देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर मैं
उनके कुछ वीर-रस के पद्यों को भी देखिए।
3. डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी सी रहति छाती ;
बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिन्दुआने की।
कढ़ि गयी रैयत के मन की कसक सब ;
मिटि गयी ठसक तमाम तुरकाने की।
भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाकधाक ;
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।
मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय मुंड ;
खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की।
4. जीत्यो सिवराज सलहेरि को समर सुनि ;
सुनि असुरन के सुसीने धारकत हैं।
देवलोक नागलोक नरलोक गावैं जस ;
अजहूँ लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं।
कटक कटक काटि कीट से उड़ाय केते ;
भूषन भनत मुख मोरे सरकत हैं।
रनभूमि लेटे अधाकटे कर लेटे परे ;
रुधिर लपेटे पठनेटे फरकत हैं।
दो पद्य ऐसे देखिए जो अत्युक्ति अलंकार के हैं। उनमें से पहले में शिवाजी के दान की महिमा वर्णित है और दूसरे में शत्रु-दल के बाला और बालकों की कष्ट कथा विशद रूप में लिखी गयी है। दोनों में उनके कवि-कर्म्म का सुन्दर विकास हुआ है।
5. आज यहि समै महाराज सिवराज तूही ,
जगदेव जनक जजाति अम्बरीष सों।
भूषन भनत तेरे दान-जल जलधि में
गुनिन कोदारिद गयो बहि खरीक सों।
चंद कर कंजलक चाँदनी पराग
उड़वृंद मकरंद बुंद पुंज के सरीक सों।
कंद सम कयलास नाक गंग नाल ,
तेरे जस पुंडरीक को अकास चंचरीक सों।
6. दुर्जन दार भजि भजि बेसम्हार चढ़ीं
उत्तार पहार डरि सिवा जी न ¯ रद ते।
भूषन भनत बिन भूषन बसन साधो
भूषन पियासन हैं नाहन को निंदते।
बालक अयाने बाट बीच ही बिलाने ;
कुम्हिलाने मुख कोमल अमल अरबिन्द ते।
दृग-जल कज्जल कलित बढ़यो कढ़यो मानो ;
दूजो सोत तरनि तनूजा को क ¯ लद ते।
भूषण की भाषा में जहाँ ओज की अधिकता है वहाँ उसमें उतनी सरसता और मधुरता नहीं, जितनी मतिराम की भाषा में है। यह सच है कि भूषण वीररस के कवि हैं और मतिराम शृंगाररस के। दोनों की प्रणाली भिन्न है। साहित्य-नियमानुसार भूषण की परुषा वृत्तिा है और मतिराम की वैदर्भी। ऐसी अवस्था में भाषा का वह सौन्दर्य जो मतिराम की रचनाओं में है, भूषण की वृत्तिा में नहीं मिल सकता। किन्तु जहाँ उनको वैदर्भी वृत्तिा ग्रहण करनी पड़ी है, जैसे छठे और सातवें पद्यों में, वहाँ भी वह सरसता नहीं आई जैसी मतिराम की रचनाओं में पाई जाती है। सच्ची बात यह है कि भाषा लालित्य में वे मतिराम की समता नहीं कर सकते। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि उनमें धर्म की ममता है, देश का प्रेम है और है जाति का अनुराग। इन भावों से प्रेरित होकर जो राग उन्होंने गाया उसकी धवनि इतनी विमुग्धाकारी है, उसमें यथाकाल जो गूँज पैदा हुई, उसने जो जीवनी धारा बहाई, वह ऐसी ओजमयी है कि उसकी प्रतिधवनि अब तक हिन्दी साहित्य में सुन पड़ रही है। उसी के कारण हिन्दी-संसार में वे वीर-रस के आचार्य माने जाते हैं। उनका समकक्ष अब तक हिन्दी-साहित्य में उत्पन्न नहीं हुआ। आज तक इस गौरवमय उच्च सिंहासन पर वे ही आसीन हैं और क्या आश्चर्य कि चिरकाल तक वे ही उस पर प्रतिष्ठित रहें।
इनकी मुख्य भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें उसके सब लक्षण पाये जाते हैं। परन्तु अनेक स्थानों पर इनकी रचना में खड़ी बोली के प्रयोग भी मिलते हैं। नीचे की पंक्तियों को देखिए-
1. ‘ अफजलखान को जिन्होंने मयदान मारा ‘
2. ‘ देखत में रुसतमखाँ को जिन खाक किया ‘
3. ‘ कैद किया साथ का न कोई बीर गरजा ‘
4. ‘ अफजल का काल सिवराज आया सरजा ‘
उन्होंने प्राकृत भाषा के शब्दों का भी यत्रा-तत्रा प्रयोग किया है। ‘खग्ग’ शुध्द प्राकृत शब्द है। पर निम्नलिखित पंक्ति में वह व्यवहृत है।
‘ भूषन भनत तेरी किम्मति कहाँ लौं कहौं
अजहूँ लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं। ‘
पंजाबी भाषा का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिलता है। ‘पीरां पैगंबरां दिगंबरा दिखाई देत’ इस वाक्य में चिद्दित शब्द पंजाबी हैं। ‘कीबी कहें कहाँ औ गरीबी गहे भागी जाहिं’ इसमें ‘कीबी’ शब्द बुंदेलखंडी है। इसी प्रकार फ़ारसी शब्दों के प्रयोग करने में भी वे अधिक स्वतंत्रा हैं शब्द गढ़ भी लेते हैं। गाढ़े गढ़ लीने अरु बैरी ‘कतलाम कीन्हे’ ‘चारि को सो अंक लंक चंद सरमाती हैं’, ‘जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर’ इन वाक्य खंडों के चिद्दित शब्द ऐसे ही हैं। प्रयोजन यह है कि उनकी मुख्य भाषा ब्रजभाषा अवश्य है, परन्तु शब्द-विन्यास में उन्होंने बहुत स्वतंत्राता ग्रहण की है। फ़ारसी के शब्दों का जो अधिक प्रयोग उनकी रचना में हुआ, उसका हेतु उनका विषय है, शिवाजी की विजय का सम्बन्धा अधिकतर मुसलमानों की सेना और वर्तमान सम्राट् औरंगजेब से था। इसलिए उनको अनेक स्थानों पर अपनी रचना में फारसी अरबी के शब्दों का प्रयोग करना पड़ा। कहीं-कहीं उनको उन्होंने शुध्द रूप में ग्रहण किया और कहीं उनमें मनमाना परिवर्तन छन्द की गति के अनुसार कर लिया। इसी सूत्रा से खड़ी बोली के वाक्यों का मिश्रण भी उसकी कविता में मिलता है। परन्तु इन प्रयोगों का इतना बाहुल्य नहीं कि उनसे उनकी मुख्य भाषा लाि×छत हो सके।
(4) कुलपति मिश्र आगरे के निवासी चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। ये संस्कृत के बड़े विद्वान थे। इन्होंने काव्य-प्रकाश के आधार पर ‘रस-रहस्य’ नामक एक ग्रन्थ लिखा है, उसमें काव्य के दसों अúों का विशद वर्णन है इनके और भी ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। जिनमें ‘संग्रह-सार’, ‘युक्त तरंगिनी’ और ‘नख शिख’ अधिक प्रसिध्द हैं। ये जयपुर के महाराज जयसिंह के पुत्र रामसिंह के दरबारी कवि थे। अपने ‘रस रहस्य’ नामक ग्रन्थ में इन्होंने रामसिंह की बहुत अधिक प्रशंसा की है। इनकी अधिकांश रचना की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। जिनमें बड़ी ही प्रा×जलता और मधुरता है। किन्तु कुछ रचनाएँ इनकी ऐसी भी हैं जिनमें खड़ी बोली के साथ फारसी, अरबी शब्दों का प्रयोग अधिकता से मिलता है। इससे पाया जाता है कि इन्होंने फारसी भी पढ़ी थी। इन्होंने ऐसी रचना भी की है जिसमें प्राकृत के शब्द अधिकता से आये हैं। इन तीनों के उदाहरण क्रमश: नीचे दिये जाते हैं-
1. ऐसिय कुंज बनैं छवि पुंज रहैं
अलि गुंजत यों सुख लीजै।
नैन बिसाल हिये बनमाल बिलोकत
रूप सुधा भरि पीजै।
जामिनि जाम की कौन कहै जुग
जात न जानिये ज्यों छिन छीजै।
आनँद यों उमग्यो ही रहै पिय
मोहन को मुख देखिबो कीजै।
2. हूँ मैं मुशताक़ तेरी सूरत का नूर देखि
दिल भरि पूरि रहै कहने जवाब से।
मेहर का तालिब फ़कीर है मेहेरबान
चातक ज्यों जीवता है स्वातिवारे आब से।
तू तो है अयानी यह खूबी का खजाना तिसे
खोलि क्यों न दीजै सेर कीजिये सवाब से।
देर की न ताब जान होत है कबाब
बोल हयाती का आब बोलो मुख महताबसे।
3. दुज्जन मद मद्दन समत्थ जिमि पत्थ दुहुँनि कर।
चढ़त समर डरि अमर कंप थर हरि लग्गय धार।
अमित दान है जस बितान मंडिय महि मंडल।
चंड भानु सम नहिं प्रभानु खंडिय आखंडल।
कुलपति मिश्र अपने समय के प्रसिध्द कवियों में थे। उनकी गणना आचाय्र्यों में होती है।
(5) जोधापुर के महाराज जसवन्त सिंह जिस प्रकार एक वीर हृदय भूपाल थे उसी प्रकार कविता के भी प्रेमी थे। औरंगजेब के इतिहास से इनका जीवन सम्बन्धिात है। इन्होंने अनेक संकट के अवसरों पर उसकी सहायता की थी, किन्तु निर्भीक बड़े थे। इसलिए इन्हें काबुल भेजकर औरंगजेब ने मरवा डाला था। इनको वेदान्त से बड़ा प्रेम था। इसलिए ‘अपरोक्ष सिध्दान्त’, ‘अनुभव प्रकास’, ‘आनन्द-विलास’, ‘सिध्दान्तसार’ इत्यादि ग्रन्थ इन्होंने इसी विषय के लिखे। कुछ लोगों की सम्मति है कि इन्होंने पारंगत विद्वानों द्वारा इन ग्रन्थों की रचना अपने नाम से कराई। परन्तु यह बात सर्व-सम्मत नहीं। मेरा विचार है, इन्होंने ऐसे समय में जब शृंगार रस का श्रोत बह रहा था, वेदान्त सम्बन्धी ग्रन्थ रचकर हिन्दी-साहित्य भण्डार को उपकृत किया था।’भाषा भूषण’ इनका अलंकार-सम्बन्धी ग्रंथ है। इस रचना में यह विशेषता है कि दोहे के एक चरण में लक्षण और दूसरे में उदाहरण है, यह संस्कृत के चन्द्रालोक ग्रन्थ का अनुकरण है, मेरा विचार है कि इस ग्रन्थ के आधार से ही इन्होंने अपनी पुस्तक बनाई है।
कविता की भाषा ब्रजभाषा है और उसमें मौलिकता का-सा आनंद है। हाँ, संस्कृत अलंकारों के नामों का बीच-बीच में व्यवहार होने से प्रा×जलता में कुछ अन्तर अवश्य पड़ गया है। कुछ स्फुट दोहे भी हैं, उनमें अधिक सरसता पाई जाती है। दोनों के उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं।
मुख ससि वाससि सों अधिक उदित जोति दिन राति।
सागर तें उपजी न यह कमला अपर सोहाति।
नैन कमल ये ऐन हैं और कमल केहि काम।
गमन करत नीकी लगै कनक लता यह बाम।
अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अति सै रूप।
जाचक तेरे दान ते भये कल्प तरु भूप।
परजस्ता गुन और को और विषे आरोप।
होय सुधाधार नाहिं यह बदन सुधाधार ओप।
महाराज जसवन्त सिंह ऐसे पहले हिन्दी साहित्यिक हैं, जिन्होंने हिन्दी भाषा को एक नहीं कई सुन्दर पद्य ग्रन्थ राज्यासन पर विराजमान होकर भी प्रदान किये। यह इस बात का प्रमाण है कि उन दिनों ब्रजभाषा किस प्रकार समादृत होकर विस्तार-लाभ कर रही थी।
(6) गोपालचन्द्र मिश्र छत्ताीसगढ़ के रहने वाले थे। इनके पुत्र का नाम माखनचन्द्र था। इन्होंने पाँच ग्रन्थों की रचना की थी, जिनमें से ‘जैमिनी अश्वमेध’, ‘भक्ति चिंतामणि’ और ‘छन्दविलास’ अधिक प्रसिध्द हैं। कहा जाता है कि एक हैहयवंशी राजा के ये मन्त्राी थे और उनके यहाँ इनका बड़ा सम्मान था। ‘छन्द-विलास’ नामक ग्रन्थ वे अधूरा छोड़ गये। जिसे उनके पुत्र माखनचन्द्र ने उनकी आज्ञा से पूरा किया था। ये सरस हृदय कवि थे और भावमयी रचना करने में समर्थ थे। इनके कुछ पद्य देखिए-
1. सोई नैन नैन जो बिलोके हरि मूरति को।
सोई बैन बैन जे सुजस हरि गाइये।
सोई कान कान जाते सुनिये गुनानुवाद
सोई नेह नेह हरि जू सों नेह लाइये।
सोई देह देह जामैं पुलकित रोम होत ,
सोई पाँव पाँव जाते तीरथनि जाइये।
सोई नेम नेम जे चरन हरि प्रीति बाढ़ै
सोई भाव भाव जो गुपाल मन भाइये।
2. दान सुधा जल सों जिन सींचि
सतो गुन बीच बिचार जमायो।
बाढ़ि गयो नभ मण्डल लौं महि
मण्डल घेरि दसो दिसि छायो।
फूल घने परमारथ फूलनि
पुन्य बड़े फल ते सरसायो।
कीरति वृच्छ बिसाल गुपाल
सु कोबिद वृन्द बिहंग बसायो।
इनकी कविता की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें मधुरता के साथ प्रांजलता भी है।
(7) सुखदेव मिश्र की गणना हिन्दी के आचार्यों में है। उन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना बड़े पांडित्य के साथ की है। वे संस्कृत और भाषा दोनों के बड़े विद्वान थे। उनके ‘वृत्ताविचार’, ‘रसार्णव’, ‘शृंगारलता’ और ‘नखशिख’ आदि बड़े सुन्दर ग्रन्थ हैं। उनका अधयात्मकप्रकाश प्रसिध्द ग्रन्थ है। अनेक राज्य दरबारों में उनका सम्मान था। उन्हें कविराज की पदवी मिली थी। उनकी रचनाएँ प्रौढ़, काव्य-गुणों से अलंकृत और साहित्यिक ब्रजभाषा के आदर्शस्वरूप हैं। कुछ पद्य देखिए।
जोहै जहाँ मगु नन्द-कुमार तहाँ
चली चन्दमुखी सुकुमार है।
मोतिन ही को कियो गहनों सब
फूल रही जनु कुन्द की डार है।
भीतर ही जु लखो सु लखी अब
बाहिर जाहिर होति न दार है।
जोन्ह सी जोन्है गई मिलि यों
मिलि जात ज्यों दूधा में दूधा की धार है
मंदर महिंद गन्धा मादन हिमालय में
जिन्हें चल जानिये अचल अनुमाने ते।
भारे कजरारे तैसे दीरघ दतारे मेघ
मण्डल विहंडैं जे वै सुंडा दंड ताने ते।
कीरति विसाल क्षितिपाल श्री अनुप तेरे
दान जो अमान कापै बनत बखाने ते।
इतै कवि मुख जस आखर खुलत
उतै पाखर समेत पील खुलै पीलखाने ते।
इनका अधयात्म-प्रकाश वेदांत का बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है। उसकी रचना की बड़ी प्रशंसा है, उसमें विषय-सम्बन्धी ऐसी महत्ताएँ हैं कि उनके आधार से लोग इनको महात्मा कहने लगे थे। इसमें संदेह नहीं कि इनकी रचनाएँ ब्रजभाषा-साहित्य में अमूल्य हैं। उसी के बल से इन्होंने औरंगजेब के मंत्राी फ़ाजिल अली से बड़ा सत्कार प्राप्त किया था, जो इस बात का सूचक है कि अकबर के समय से जो ब्रजभाषा की धाक उनके वंश वालों पर जमी, वह लगातार बहादुरशाह तक अचल रही।
(8) कालिदास त्रिवेदी सहृदयता में यथानाम: तथा गुण: अर्थात् दूसरे कालिदास थे। ‘कालिदास हज़ारा’ इनका बहुत बड़ा सुंदर संग्रह कहा जाता है। इसमें 200 से अधिक कवियों की रचनाएँ संगृहीत हैं। इसके आधार से शिवसिंह सरोजकार ने अनेक प्राचीन कवियों की जीवनी का उध्दार किया था। इनका नायिका-भेद का ‘वधू-विनोद’ नामक ग्रन्थ भी प्रसिध्द ग्रन्थ है। इन्होंने ‘जंजीराबंद’ नाम का एक ग्रन्थ भी बनाया था। उसमें 32 कवित्ता हैं, उसे सभी कवि-जीवनी लेखकों ने बड़ा अद्भुत बतलाया है। वास्तव में कालिदास बड़े सहृदय कवि थे। उनकी रचनाएँ एक सुविकसित सुमन के समान मनोहर और सुधानिधि की कला के समान कमनीय हैं। उनकी रचना की रसीली भाषा इस बात का सनद ब्रजभाषा को देती है कि वह सरस से सरस है-
चूमों करकंज मंजु अमल अनूप तेरो ,
रूप के निधान कान्ह मो तन निहारि दै।
कालिदास कहै मेरी ओर हरे हेरि हरि ,
माथे धारि मुकुट लकुट कर डारि दै।
कुँवर कन्हैया मुखचंद की जुन्हैया चारु ,
लोचन चकोरन की प्यासन निवारि दै।
मेरे कर मेंहदी लगी है नंदलाल प्यारे ;
लट उरझी है नेक बेसर सुधारि दै
हाथ हँसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी ;
देखत ही छकी मति कान्हर प्रवीन की।
निकस्यो झरोखे मांझ बिगस्यो कमल सम ,
ललित अंगूठी तामैं चमक चुनीन की।
कालीदास तैसी लाली मेहंदी के बुंदन की ,
चारु नखचंदन की लाल ऍंगुरीन की।
कैसी छबि छाजत है छाप के छलान की ,
सुकंकन चुरीन को , जड़ाऊ पहुँचीन की।
(9) आलम रसखान के समान ही बड़े ही सरस हृदय कवि थे। कहा जाता है कि ये ब्राह्मण कुल के बालक थे। परंतु प्रेम के फंदे में पड़कर धर्म को तिलांजलि दे दी थी। शेख़ नामक एक मुसलमान स्त्री सरसहृदया कवि थी। उसके रस से ये ऐसे सिक्त हुए कि अपने धर्म को भी उसमें डुबो दिया। अच्छा होता यदि जैसे मनमोहन की ओर रसखान खिंच गये, उसी प्रकार वे शेख़ को भी उनकी ओर खींच लाते। परंतु उसने ऐसी मोहनी डाली कि वे ही उसकी ओर खिंच गये। जो कुछ हो लेकिन स्त्री-पुरुष दोनों की ब्रजभाषा की रचना ऐसी मधुर और सरस है जो मधु-वर्षण करती ही रहती है। ब्रजभाषा देवी के चरणों पर इस युगल जोड़ी को कान्त कुसुमावलि अर्पण करते देखकर हम उस वेदना को भूल जाते हैं, जो उनके प्रेमोन्माद से किसी स्वधार्मानुरागी जन को हो सकती है। इन दोनों में वृन्दावन विहारिणी युगल मूर्ति के गुणगान की प्रवृत्तिा देखी जाती है। उससे भी मर्माहत चित्ता को बहुत कुछ शान्ति मिलती है, उनका जो धर्म हो, परन्तु युगलमूर्ति उनके हृदय में सदा बिराजती दृष्टिगत होती है। औरंगजेब के पुत्र मुअज्ज़म की दृष्टि में इन दोनों का अपने गुणों के कारण बड़ा आदर था। इनकी कुछ मनोहारिणी रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-
1. जा थल कीन्हें बिहार अनेकन
ता थल कांकरी बैठि चुन्यो करैं।
जा रसना सों करी बहु बातन
ता रसना सों चरित्रा गुन्यो करैं।
आलम जौन से कुंजन में करी
केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।
नैनन में जो सदा रहते तिनकी
अब कान कहानी सुन्यो करैं।
2. चन्द को चकोर देखै निसि दिन को न लेखे ,
चंद बिन दिन छबि लागत ऍंधयारी है।
आलम कहत आली अलि फूल हेत चलै ,
काँटे सी कटीली बेलि ऐसी प्रीति प्यारी है।
कारो कान्ह कहति गँवारी ऐसी लागति है ,
मोहि बाकी स्यामताई लागत उँज्यारी है।
मन की अटक तहाँ रूप को विचार कहाँ ,
रीझिबे को पैंडो तहाँ बूझ कछु न्यारी है।
3. प्रेम रंग पगे जगमगे जागे जामिनी के
जोबन की जोति जगि जोर उमगत है।
मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं
झूमत हैं झुकि झुकि झ्रपि उघरत हैं
आलम सों नबल निकाई इन नैननि की
पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकत हैं।
चाहत हैं उड़िये को देखत मयंक मुख
जानत हैं रैनि ताते ताहि मैं रहत हैं।
4. कैंधो मोर सोर तजि गये री अनत भाजि
कैधों उत दादुर न बोलत हैं ए दई।
कैधों पिक चातक बधिक काहू मारि डारे
कैधों बकपाँति उत अंत गति ह्नै गई।
आलम कहत आली अजहूँ न आये श्याम
कैधों उत रीति बिपरीति बिधि ने ठई।
मदन महीप की दुहाई फिरिबे ते रही
जूझि गये मेघ कैधों बीजुरी सती भई।
5. पैंडो समसूधो बैंडो कठिन किवार द्वार
द्वारपाल नहीं तहाँ सबल भगति है।
शेख भनि तहाँ मेरे त्रिभुवन राम हैं जु
दीनबंधु स्वामी सुरपति को पति है।
बैरी को न बैर बरिआई को न परवेस
हीने को हटक नाहीं छीने को सकति है।
हाथी को हँकार पल पाछे पहुँचन पावै
चींटी की चिघार पहिले ही पहुँचति है।
कहा जाता है कि आलम ने माधावानल कामकंदला नामक एक प्रेम कहानी भी लिखी है। आशा है, कि इनका ग्रंथ भी सरसतापूर्ण होगा और इसमें भी इनके प्रेम-मय हृदय की कमनीय कलाएँ विद्यमान होंगी। किन्तु यह ग्रंथ देखने में नहीं आया। इसकी चर्चा ही मात्रा मिलती है। अच्छा होता यदि इस पुस्तक का कुछ अंश मैं आप लोगों की सेवा में उपस्थित कर सकता। परन्तु यह सौभाग्य मुझको प्राप्त नहीं हुआ। आलम-दम्पती की रचनाओं में हृदय का वह सौन्दर्य दृष्टिगत होता है जिसकी ओर चित्ता स्वभावतया खिंच जाता है। इनके ऐसे भावुक कवि ही किसी भाषा को अलंकृत करते हैं। जैसी ही इनकी भावमयी सुन्दर रचनाएँ हैं वैसी ही सरस और मुग्धाकारी इनकी ब्रजभाषा है। इनके अधिकांश पद्य सहृदयता की मूर्ति हैं, इन्होंने इनके द्वारा हिन्दी-साहित्य-भंडार को बड़े सुन्दर रत्न प्रदान किये हैं।
इन्हीं सहृदय दम्पति के साथ में ताज की चर्चा भी कर देना चाहता हूँ। ये एक मुसलमान स्त्री थीं। इनके वंश इत्यादि का कुछ पता नहीं। परन्तु इनकी स्फुट रचनाएँ यत्रा तत्रा पाई जाती हैं। मुसलमान स्त्री होने पर भी इनके हृदय में भगवान कृष्णचन्द्र का प्रेम लबालब भरा था। इनकी रचनाओं में कृष्ण-प्रेम की ऐसी सुन्दर धाराएँ बहती हैं जो हृदय को मुग्धा कर देती हैं। इनके पद्यों का एक-एक पद कुछ ऐसी मनमोहकता रखता है, जो चित् को बलात् अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इनकी रचना में पंजाबी शब्द अधिक मिलते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये पंजाब प्रान्त की रहने वाली थीं। इनकी पद्य रचना में खड़ी बोली का पुट भी पाया जाता है किन्तु इन्होंने ब्रजभाषा में ही कविता करने की चेष्ट की है। इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। देखिए इनकी लगन में कितनी अधिक विचारों की दृढ़ता है।
सुनौ दिल जानी मेड़े दिल की कहानी
तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं।
देव पूजा ठानी मैं निवाज हूँ भुलानी
तजे कलमा कुरान साड़े गुनन गहूँगी मैं।
साँवला सलोना सिर ताज सिर कुल्ले दिये
तेरे नेह दाग मैं निदाग हो दहूँगी मैं।
नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत पै
तांड़ नाल प्यारे हिंदुआनी हो रहूँगी मैं।
2. छैल जो छबीला सब र ú में रँगीला
बड़ा चित्ता का अड़ीला कहूँ देवतों से न्यारा है।
माल गले मों है नाक मोती सेत सोहै कान
मोहै मनि कुंडल मुकुट सीस धारा है।
दुष्ट जन मारे सन्त जन रखवारे ताहि
चित हित वारे प्रेम-प्रीति कर वारा है।
नन्द जू का प्यारा जिन कंस को पछारा
वह वृन्दाबन वारा कृष्ण साहब हमारा है।
(10) सितारा के राजा शंभुनाथ सुलंकी भी रीति ग्रन्थकारों में से हैं। उनके एक नायिका-भेद के ग्रंथ की बड़ी प्रशंसा है,परन्तु वह अब मिलता नहीं। उनका एक नख-शिख का ग्रन्थ भी बड़ा चमत्कारपूर्ण है। वे बड़े सहृदय और कवियों के कल्पतरु थे। कविता में कभी ‘नृपशंभु’ और कभी ‘शंभुकवि’ अथवा ‘नाथ कवि’ अपने को लिखते थे। बड़ी सरस ब्रजभाषा में उन्होंने रचना की है। उनकी उत्प्रेक्षाएँ बड़ी मनोहर हैं। उनके जितने पद्य हैं उनमें से अधिकांश सरस है। उनकी भाषा को निस्संकोच टकसाली कह सकते हैं। ब्रजभाषा को अपनी रचना द्वारा उन्होंने भी गौरवित बनाया है। उनके दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-
1. फाग रच्यो नन्द नन्द प्रवीन बजैं
बहु बीन मृदंग रबाबैं।
खेलतीं वै सुकुमारि तिया जिन
भूषण हूँ की सही नहीं दाबैं।
सेत अबीर के घूँघरु मैं इमि
बालन की बिकसी मुख आबैं।
चाँदनी में चहुँ ओर मनो नृप
शंभु बिराज रही महताबैं।
2. कौहर कौल जपा दल विद्रुम का
इतनी जु बँधूक मैं कोति है।
रोचन रोरी रची मेंहदी नृपशंभु
कहै मुकुता सम पोति है।
पायँ धारै ढरै ईंगुरई तिन मैं
खरी पायल की घनी ज्योति है।
हाथ द्वै तीनक चारहूँ ओर लौं
चाँदनी चूनरी के रँग होति है।
इस शतक में एक मुसलमान सहृदय कवि भी रीति ग्रन्थकार हो गये हैं। उनका नाम मुबारक है। अवधा के बाराबंकी जिले में बिलग्राम नामक एक प्रसिध्द कस्बा है, जिसको विद्वानों और सहृदयों की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है, यहीं अरबी,फारसी और संस्कृत के विद्वान् मुबारकअली का जन्म हुआ था। इन्होंने ‘अलक शतक’ और ‘तिल शतक’ नामक दो ग्रन्थ सरस दोहों में लिखे हैं। इनकी स्फुट कविताएँ भी बहुत-सी मिलती हैं। इनकी भाषा ब्रजभाषा है और उसमें प्रा)लता इतनी है कि मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा की जा सकती है। इनकी रचना में प्रवाह है और इनकी कथनशैली भी मोहक है। मधुरता इनके शब्दों में भरी मिलती है। मुसलमान होने पर भी इन्होंने हिन्दी भाषा पर अपना जैसा अधिकार प्रकट किया है, वास्तव में वह चकितकर है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-
1. कान्ह की बाँकी चितौनि चुभि
झुकि काल्हि ही झाँकी है ग्वालि गवाछनि।
देखी है नोखी सी चोखी सी कोरनि
ओछे फिरै उभरै चित जा छनि।
मारयो सँभारि हिये में मुबारक
ए सहजै कजरारे मृगाछनि।
सींक लै काजर दे री गँवारिनि
ऑंगुरी तेरी कटैगी कटाछनि।
2. कनक बरन बाल नगन लसत भाल
मोतिन के माल उर सोहै भलीभाँति है।
चंदन चढ़ाई चारु चंदमुखी मोहिनी सी
प्रात ही अन्हाइ पगु धारे मुसकाति है।
चुनरी विचित्रा स्याम सजि कै मुबारक जू
ढाँकि नख सिख ते निपट सकुचाति है।
चंद मैं लपेटि कै समेटि कै नखत मानो
दिन को प्रनाम किये रात चली जाति है।
3. जगी मुबारक तिय बदन अलख ओप अति होइ।
मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोइ।
4. चिबुक कूप मैं मन परयो छबि जल तृषा बिचारि।
गहत मुबारक ताहि तिय अलक डोर सी डारि।
5. चिबुक कूप रसरी अलक तिल सुचरस दृग बैल।
बारी बैस सिंगार की सींचत मनमथ छैल।
6. गोरी के मुख एक तिल सो मोहिं खरो सुहाय।
मानहुं पंकज की कली भौंर बिलंब्यो आय।
कभी-कभी वे अपनी रचना में दुरूह फ़ारसी शब्दों का प्रयोग भी कर देते हैं, परन्तु उसको ब्रजभाषा के ढंग में बड़ी ही सुन्दरता से ढाल लेते हैं। नीचे का दोहा देखिए-
अलक मुबारक तिय बदन लटक परी यों साफ।
खुशनवीस मुनशी मदन लिख्यो काँच पर क़ाफ़।
(4)
इस शताब्दी में प्रसिध्द प्रबन्धकार भी हुए। इनमें गुरु गोविंद सिंह सबसे प्रधान हैं। उनके अतिरिक्त उसमान, सबलसिंह चौहान, लाल और कवि हृदयराम का नाम लिया जा सकता है। प्रेम-मार्गी कवियों के वर्णन में उसमान के विषय में मैं पहले कुछ लिख चुका हूँ। इस शताब्दी में इनकी ही रचना ऐसी है जो अवधी भाषा में की गयी है। इसके द्वारा उन्होंने उस परम्परा की रक्षा की है जिसको कुतुबन अथवा मलिक मुहम्मद जायसी ने चलाया था। इनको छोड़कर और सब प्रबन्धाकार ब्रजभाषा के सुकवि हैं। मैं पहले सबलसिंह चौहान और लाल के विषय में लिखकर इसके उपरान्त पंजाब-निवासी गुरु गोविन्द सिंह और कवि हृदयराम के विषय में कुछ लिखूँगा-
सबलसिंह चौहान इटावा जिले के प्रतिष्ठित जमींदार थे। उन्होंने महाभारत के अठारहों पर्वों के कथा-भाग की रचना दोहा-चौपाई में की है। ‘रूप विलास पिंगल’, ‘षट् ऋतु बरवै’ और ‘ऋतूपसंहार’ नामक ग्रन्थ भी उनके रचे बतलाये जाते हैं। उन्होंने महाभारत की रचना गोस्वामी जी के रामायण के आधार से की है। परन्तु उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। वे पछाँह के रहने वाले थे। इसलिए उनकी रचना में खड़ी बोली और अवधी का पुट भी है। भाषा न तो जैसी चाहिए वैसी सरस है और न प्रा)ल। फिर भी महाभारत की कथा का जनता को परिचय कराने के लिए उनका उद्योग प्रशंसनीय है। उनके इस ग्रन्थ का कुछ प्रचार भी हुआ। परन्तु वह सर्वसाधारण् को अपनी ओर अधिक आकर्षित न कर सका। उनकी रचना का नमूना लीजिए-
लै के शूल कियो परिहारा।
बीर अनेक खेत महँ मारा।
जूझी अनी भभरि कै भागे।
हँसि के द्रोण कहन अस लागे।
धान्य धान्य अभिमनु गुन आगर।
सब छत्रिन महँ बड़ो उजागर।
धान्य सहोद्रा जग में जाई।
ऐसे वीर जठर जनमाई।
धान्य धान्य जग में पितु पारथ।
अभिमनु धान्य धान्य पुरुषारथ।
एक बार लाखन दल मारे।
अरु अनेक राजा संहारे।
धानु काटे शंका नहिं मन में।
रुधिर-प्रवाह चलत सब तन में।
एहि अंतर बोले कुरुराजा।
धानुष नाहिं भाजत केहि काजा।
एक बीर को सबै डरत है।
घेरि क्यों न रस धाय धारत है।
बालक देखु करी यह करणी।
सेना जूझि परी सब धारणी।
दुर्योधान या विधि कह्यो ,
कर्ण द्रोण सों बैन।
बालक सब सेना बधी ,
तुम सब देखत नैन।
उनकी रचना में ब्रजभाषा के नियम के विरुध्द शकार, णकार और संयुक्त वर्णों का प्रयोग भी देखा जाता है। इसका कारण यह मालूम होता है कि वीर रस के लिए शायद परुषावृत्तिा का मार्ग ग्रहण करना ही उन्होंने युक्तिसंगत समझा।
पुरोहित गोरेलाल महाराज छत्रासाल के दरबार के मान्य कवि थे। वे एक युध्द में महाराज छत्रासाल के साथ गये और वहीं वीरता के साथ लड़कर मरे। वीर रस की ओजमयी रचना करने में भूषण के उपरान्त इन्हीं का नाम लिया जाता है। ‘छत्रा-प्रकाश’ इनका प्रसिध्द ग्रन्थ है। जिसमें इन्होंने महाराज छत्रासाल की वीरगाथाएँ बड़ी निपुणता से लिखी हैं। यह दोहा-चौपाई में लिखा गया है और प्रबन्धा ग्रन्थ है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। किन्तु उसमें बुन्देलखंडी शब्दों का प्रयोग आवश्यकता से कुछ अधिक है। फिर भी इनकी रचना ओजमयी और प्रांजल है और वे सब गुण उसमें मौजूद हैं जिन्हे वीर-रस की कविता में होना चाहिए। ‘छत्राप्रकाश’ विशाल ग्रंथ है और इनका कीर्तिस्तम्भ है। इसके अतिरिक्त ‘विष्णु बिलास’ और ‘राजविनोद’ नामक दो ग्रन्थ इन्होंने और रचे। ये दोनों ग्रंथ भी अच्छे हैं, परन्तु इनमें यह विशेषता नहीं पाई जाती जो ‘छत्राप्रकाश’ में है। गोरेलाल जी का उपनाम ‘लाल’ है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-
दान दया घमसान में जाके हिये उछाह।
सोई बीर बखानिये ज्यों छत्ता छितिनाह।
उमड़ि चल्यो दारा के सौहैं , चढ़ी उदंड युध्द-रस भौंहैं।
तब दारा दिल दहसति बाढ़ी , चूमन लगे सबन की दाढ़ी।
को भुजदंड समर महिं ठोंकै , उमड़े प्रलय-सिंधु को रोकै।
छत्रासाल हाड़ा तहँ आयो , अरुन रंग आनन छबि छायो।
भयो हरौल बजाय नगारो , सारधार को पहिरन हारो।
दौरि देस मुगलन के मारो , दपटि दिली के दल संहारो।
ऐंड़ एक सिवराज निबाही , करै आपने चित्ता की चाही।
आठ पातसाही झकझोरै , सूबन पकरि दंड लै छोरै।
काटि कटक किरवान बल , बाँटि जंबुकनि देहु।
ठाटि जुध्द एहि रीति सों , बाँटि धारनि धारि लेहु।
मैं यह बराबर प्रकट करता आया हूँ कि सत्राहवीं शताब्दी में उत्तारी भारत में ब्रजभाषा का प्रसार अधिक हो गया था। इस विस्तार के फल से ही पंजाब प्रान्त में दो प्रतिष्ठित प्रबन्धाकार दृष्टिगत होते हैं। उनमें से एक हृदयराम हैं और दूसरे गुरु गोविन्दसिंह। कवि हृदयराम जाति के खत्री थे। उन्होंने संस्कृत हनुमन्नाटक के आधार से अपने ग्रन्थ की रचना की और उसका नाम भी हनुमन्नाटक ही रक्खा। इस ग्रन्थ की रचना इतनी सरस है और इस सहृदयता के साथ वह लिखा गया है कि गुरु गोविन्दसिंह इस ग्रन्थ को सदा अपने साथ रखते और उसकी मधुर रचनाओं को पढ़-पढ़ मुग्धा हुआ करते थे। इस ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। कहीं-कहीं एक-दो पंजाबी शब्द मिल जाते हैं। ग्रन्थ की सरस और प्रा)ल रचना देखकर यह प्रतीत नहीं होता कि यह किसी पंजाबी का लिखा हुआ है। कवि हृदयराम में भाव-चित्राण की सुन्दर शक्ति है। उन्होंने इस ग्रन्थ को लिखकर यह बतलाया है कि उनमें प्रबन्धा काव्य लिखने की कितनी योग्यता थी। रामायण की समस्त कथा इसमें वर्णित है किन्तु इस क्रम से कि उसमें कहीं अरोचकता नहीं आई। इसमें कवित्ता और सवैये ही अधिक हैं। कोई-कोई पद्य बड़े ही मनोहर हैं। उनमें से दो नीचे लिखे जाते हैं-
1. ए बनवास चले दोउ सुंदर कौतुक को सिय संग जुटी है।
पाँवन पाव , न कोस चली अजहूँ नहीं गाँव की सींव छुटी है।
हाथ धारे कटि पूछत रामहिं नाथ कहौ कहाँ कंज कुटी है।
रोवत राघव जोवत सी मुख मानहुँ मोतिन माल टुटी है।
2. एहो हनू कह श्रीरघुवीर कछू सुधि है सिय की छिति माँही।
है प्रभु , लंक कलंक बिना सुबसै बन रावन बाग की छाँहीं।
जीवत है कहिंबेहि को नाथ! सु क्यों न मरी हमतें बिछुराहीं।
प्रान बसै पद-पंकज में जम आवत है पर पावत नाहीं।
गुरु गोविन्दसिंह ब्रजभाषा के महाकवि थे। इनका बनाया हुआ दशम ग्रन्थ बड़ा विशाल ग्रन्थ है। समस्त ग्रन्थ सरस ब्रजभाषा में लिखा गया है। वे बड़े वीर और सिक्ख धर्म के प्र्रवत्ताक थे। गुरु नानक से लेकर गुरु अर्जुन देव तक इनके सम्प्रदाय में शान्ति रही, परन्तु जहाँगीर ने अनेक कष्ट देकर गुरु अर्जुन देव को प्राण त्याग करने के लिए बाधय किया। तब सम्प्रदाय वालों का रक्त खौल उठा और उन्होंने मुसलमानों के सर्वनाश का व्रत ग्रहण किया, क्रमश: वर्ध्दमान होकर गुरु गोविन्द सिंह के समय में यह भाव बहुत प्रबल हो गया था और इसी कारण जब गुरु तेगबहादुर उनके पिता का औरंगजेब द्वारा संहार हुआ तो उन्होंने बड़ी वीरता से मुसलमानों से लोहा लेना प्रारंभ किया। गुरु अर्जुनदेव ने ही आदि ग्रन्थसाहब का संग्रह तैयार किया था। इस ग्रन्थ में उनकी बहुत अधिक रचनाएँ हैं, जो अधिकतर ब्रजभाषा में लिखी गई हैं। उनकी कुछ रचनाएँ मैं पहले लिख आया हूँ। विषय को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ पद्य यहाँ और लिखे जाते हैं-
1. बाहरु धोइ अंतरु मन मैला दुई ओर अपने खोये।
इहाँ काम क्रोधा मोह व्यापा आगे मुसि मुसि रोये।
गोविंद भजन की मति है होरा।
बरमी मारी साँप न मरई नामु न सुनई डोरा।
माया की कृति छोड़ि गँवाई भक्तीसार न जानै।
वेद सास्त्रा को तरकन लागा तत्व जोगु न पछानै।
उघरि गया जैसा खोटा ढेबुआ नदरि सराफा आया।
अंतर्यामी सब कछु जानै उस ते कहा छपाया।
कूर कपट बंचन मुनियाँदा बिनसि गया ततकाले।
सति सति सति नानक कह अपने हिरदै देखु समा ले।
2. बंधान काटि बिसारे औगुन अपना विरद समारया।
होइ कृपालु मात पित न्याई बारक ज्यों प्रतिपारया।
गुरु सिष राखे गुरु गोपाल।
लीये काढ़ि महा भव जल ते अपनी नदर निहाल।
जाके सिमरणि जम ते छुटिये हलति पलति सुख पाइये।
सांसि गेरासि जपहु जप रसना नीति नीति गुण गाइये।
भगती प्रेम परम पद पाया साधु संग दुख नाटे।
छिजै न जाइ न किछु भव ब्यापै हरि धानु निरमल गाँठे।
अन्तकाल प्रभु भये सहाई इत उत राखन हारे।
प्रान मीत हीत धान मेरे नानक सद बलिहारे।