गुरु अर्जुन देव सत्राहवीं शताब्दी के आदि में थे। उनकी रचनाएँ उसी समय की हैं। मैं यह कह सकता हूँ कि वह परिमार्जित ब्रजभाषा नहीं है, परन्तु यही भाषा गुरु गोविन्दसिंह के समय में अपने मुख्य रूप में दृष्टिगत होती है। गुरु गोविन्दसिंह ने दशम ग्रन्थ में विष्णु के चौबीस और ब्रह्मा एवं शिव के सात अवतारों की कथा लिखी है। उन्होंने दुर्गापाठ का तीन अनुवाद करके उसका नाम ‘चंडी-चरित्रा’ रखा है। पहला अनुवाद सवैयों में, दूसरा पौड़ियों में, और तीसरा नाना छन्दों में है। उन्होंने इस ग्रन्थ में 404 स्त्री-चरित्र भी लिखे हैं और इस सूत्रा से अनेक नीति और शिक्षा सम्बन्धी बातें कही हैं,उन्होंने इसमें कुछ अपनी जीवन-सम्बन्धी बातें भी लिखी हैं और कुछ परमात्मा की स्तुति और ज्ञान सम्बन्धी विषयों का भी निरूपण किया है। फ़ारसी भाषा में उन्होंने ‘जफ़रनामा’ नामक एक राजनीति-संबंधी ग्रन्थ लिखकर औरंगजेब के पास भेजा था। वह ग्रन्थ भी इसमें सम्मिलित है। अवतारों के वर्णन के आधार से उन्होंने इस ग्रन्थ में पुराणों की धर्म-नीति, समाज-नीति, एवं राजनीति-सम्बन्धी समस्त बातें एकत्रित कर दी हैं। यह बड़ा उपयोगी ग्रन्थ है। सिक्ख सम्प्रदाय के लोग इसको बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं। ब्रजभाषा-साहित्य का इतना बड़ा ग्रन्थ सूर-सागर को छोड़कर अन्य नहीं है। इस ग्रन्थ में जितनी रचनाएँ गुरु गोविन्द सिंह की निज की हैं, उनके सामने श्री मुख वाक पातसाही दस लिखा है। अन्य रचनाओं के विषय में यह कहा जाता है कि वे गुरु गोविन्द सिंह जी के द्वारा रचित नहीं हैं। वे श्याम और राम नामक दो अन्य कवियों की कृति हैं, जो उनके आश्रित थे। उक्त ग्रन्थ की कुछ रचनाएँ नीचे उपस्थित की जाती हैं। उनको पढ़कर आप लोग समझ सकेंगे कि वे कैसी हैं और उनके भाव और भाषा में कितना सौंदर्य एवं लालित्य है। पहले गुरु गोविन्द सिंह की निज रचनाओं को ही देखिए-
1. चक्र चिद्द अरु बरन जात
अरु पाँत नहिंन जेहि।
रूप रूप अरु रेख भेख
कोउ कहि न सकत केहि।
अचल मूरति अनभव
प्रकास अमितोज कहिज्जै।
कोटि इन्द्र इन्द्राणि साहि
साहाणि गणिज्जै।
त्रिभुवण महीप सुर नर असुर
नेति नेति वर्णत कहत।
तब सरब नाम कत्थय कवन
कर्म नाम वरणत सुमत।
2. प्रभु जू तोकहँ लाज हमारी।
नीलकण्ठ नर हरि नारायन
नील बसन बनवारी।
परम पुरुष परमेसर स्वामी
पावन पवन अहारी।
माधाव महा ज्योति मधु
मर्दन मान मुकुंद मुरारी।
निर्विकार निर्जर निद्राबिन
निर्बिष नरक निवारी।
किरपासिंधु काल त्राय दरसी
कुकृत प्रनासन कारी।
धानुर्पानि धृत मान धाराधार
अन विकार असि धारी।
हौं मति मन्द चरनसरनागत
कर गहि लेहु उबारी।
3. जीति फिरे सब देस दिसान को
बाजत ढोल मृदंग नगारे।
गूंजत गूढ़ गजान के सुंदर
हींसत ही हय राज हजारे।
भूत भविक्ख भवान के भूपति
कौन गनै नहीं जात विचारे।
श्रीपति श्री भगवान भजे बिन
अन्त को अन्तक धाम सिधारे।
4. दीनन की प्रतिपाल करै नित
सन्त उबार गनीमन गारै।
पच्छ पसू नग नाग नराधिप
सर्व समै सब को प्रतिपारै।
पोखत है जल मैं थल मैं पल मैं
कलि के नहीं कर्म विचारै।
दीनदयाल दयानिधि दोखन
देखत है पर देत न हारै।
5. मेरु करो तृण ते मोहि जाहि
गरीब-नेवाज न दूसरो तोसों।
भूल छमो हमरी प्रभु आप न
भूलन हार कहूँ कोउ मोसों।
सेव करी तुमरी तिन के सभ ही
गृह देखिए द्रव्य भरो सो।
या कलि में सब काल कृपानिधि
भारी भुजान को भारी भरोसो।
अब दशम ग्रन्थ साहब की कुछ अन्य रचनाएँ भी देखिए-
1. रारि पुरंदर कोपि कियो इत
जुध्द को दैंत जुरे उत कैसे।
स्याम घटा घुमरी घन घोर कै
घेरि लियो हरि को रवि तैसे।
सक्र कमान के बान लगे सर
फोंक लसै अरि के उर ऐसे।
मानो पहार करार में चोंच
पसार रहे सिसु सारक जैसे
2. मीन मुरझाने कंज खंजन खिसाने।
अलि फिरत दिवाने बन डोलैं जित तित ही।
कीर औ कपोत बिंब कोकिला कलापी
बन लूटे फूटे फिरैं मन चैन हूँ न कितही।
दारिम दरकि गयो पेखि दसनन पाँति
रूप ही की काँति जग फैलि रही सित ही।
ऐसी गुन सागर उजागर सुनागर है
लीनो मन मेरो हरि नैन कोर चित ही।
3. चतुरानन मो बतिया सुन लै
सुनि के दोउ श्रौननि में धारिये।
उपमा को जबै उमगै मन तो
उपमा भगवानहिं की करिये।
परिये नहीं आन के पाँयन
पै हरि के गुरु के द्विज के परिये।
जेहि को जुग चारि मैं नाम जप्यो
तेहि सों लरिये ; मरिये , तरिये।
4. जेहि मृग राखे नैन बनाय।
अंजन रेख स्याम पै अटकत सुंदर फांद चढ़ाय।
मृग मद देत जिनैं नरनारिन रहत सदा अरुझाय।
तिनके ऊपर अपनी रुचि सों रीझि स्याम बलि जाय।
5. सेत धारे सारी वृषभानु की कुमारी
जस ही की मनो बारी ऐसी रची है न को दई।
रंभा उरबसी और सची सी मँदोदरी।
पै ऐसी प्रभा काकी जग बीच ना कछू भई।
मोतिन के हार गरे डार रुचि सों सिंगार
स्याम जू पै चली कवि स्याम रस के लई।
सेत साज साज चली साँवरे के प्र्रीति काज
चाँदनी में राधा मानो चाँदन सी ह्नै गई।
गुरु गोविंद सिंह की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, इसमें कोई सन्देह नहीं। उसमें ब्रजभाषा-सम्बन्धी नियमों का अधिकतर पालन हुआ है। किसी-किसी स्थान पर णकार का प्रयोग नकार के स्थान पर पाया जाता है। किन्तु यह पंजाब की बोलचाल का प्रभाव है। कोई-कोई शब्द भी पंजाबी ढंग पर व्यवहृत हुए हैं। इसका कारण भी प्रान्तिकता ही है। परन्तु इस प्रकार के शब्द इतने थोड़े हैं कि उनसे ब्रजभाषा की विशेषता नष्ट नहीं हुई। कुल दशम ग्रंथ साहब ऐसी ही भाषा में लिखा गया है,जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय ब्रजभाषा किस प्रकार सर्वत्रा समादृत थी। इस ग्रन्थ में कहीं-कहीं पंजाबी भाषा की भी कुछ रचनाएँ मिल जाती हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। पौड़ियों में लिखा गया चंडी चरित्रा ऐसा ही है। ज़फ़रनामा फ़ारसी भाषा में है, यह मैं पहले बतला चुका हूँ। अपने ग्रन्थ में गुरु गोविन्द सिंह ने इतने अधिक छंदों का व्यवहार किया है जितने छन्दों का व्यवहार आचार्य केशवदास को छोड़कर हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका। इस ग्रंथ में युध्द का वर्णन बड़ा ही ओजमय है। ऐसे छंद युध्द के वर्णनों में आये हैं जो अपने शब्दों को युध्दानुकूल बना लेते हैं। कहीं-कहीं इस प्रकार के शब्द लिखे गये हैं जो युध्द की मारकाट शस्त्राों का झणत्कार, बाणों की सनसनाहट और अस्त्राों के परस्पर टकराने की धवनि श्रवणगत होने लगती है। जैसे-
तागिड़दं तीरं छागिड़दं छुट्टे।
बागिड़दं बीरं लागिड़दं लुट्टे , इत्यादि।
मेरा विचार है कि यह विशाल ग्रन्थ हिन्दी साहित्य का गौरव है, और इसकी रचना करके गुरु गोविन्द सिंह ने उसके भण्डार को एक ऐसा उज्ज्वल रत्न प्रदान किया है, जिसकी चमक-दमक विचित्रा और अद्भुत है।
आदि ग्रन्थ साहब में शान्त रस का प्रवाह बहता है। उसमें त्याग और विराग का गीत गाया गया है, उससे सम्बन्धा रखने वाली दया, उदारता, शान्ति एवं सरलता आदि गुणों की ही प्रशंसा की गयी है। यह शिक्षा दी गयी है कि मानसिक विकारों को दूर करो और दुर्दान्त इन्द्रियों का दमन। परन्तु उसकी दृष्टि संसार-शरीर के उन रोगों के शमन की ओर उतनी नहीं गयी जो उस पवित्रा-ग्रन्थ के सदाशय मार्ग के कंटक-स्वरूप कहे जा सकते हैं। दशम ग्रन्थ साहब की रचना कर गुरु गोविन्द सिंह ने इस न्यूनता कीर् पूत्तिा की है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में ऐसे उत्तोजक भाव भरे हैं जिससे ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जो कंटक भूत प्राणियों को पूर्णतया विधवंस कर सके। इस शक्ति के उत्पन्न करने के लिए ही उन्होंने अपने ग्रन्थ में युध्दों का भी वर्णन ऐसी प्रभावशाली भाषा में किया है जो एक बार निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ हो। इसी उद्देश्य से उन्होंने सप्तशती के तीन-तीन अनुवाद किये। पौड़ियों में जो तीसरा अनुवाद है, उसमें वह ओजस्विता भरी है जो सूखी रगों में भी रक्त संचार करती है। कृष्णावतार में खúसिंह के युध्द का ऐसा ओजमय वर्णन है जिसे पढ़ने से कायर हृदय भी वीर बन सकता है। ऐसे ही विचित्रा वर्णन और भी कई एक स्थलों पर है। यथा समय हिन्दू जाति में ऐसे आचार्य उत्पन्न होते आये हैं जो समयानुसार उसमें ऐसी शक्ति उत्पन्न करते जिससे वह आत्म-रक्षण में पूर्णतया समर्थ होती। उत्तार भारत में गुरु गोविन्द सिंह और दक्षिण भारत में स्वामी रामदास सत्राहवीं सदी के ऐसे ही आचार्य थे। गुरु गोविन्द सिंह ने पंजाब में सिक्खों द्वारा महान् शक्ति उत्पन्न की, स्वामी रामदास ने शिवाजी और महाराष्ट्र जाति की रगों में बिजली दौड़ा दी। इस दृष्टि से दशम ग्रन्थ की उपयोगिता कितनी है, इसका अनुभव हिन्दी-भाषा-भाषी विद्वान स्वयं उस ग्रन्थ को पढ़कर कर सकते हैं।
इस सत्राहवीं शताब्दी में एक प्रेम-मार्गी कवि नेवाज भी हो गये हैं। कहा जाता है कि ये जाति के ब्राह्मण थे और छत्रासाल के दरबार में रहते थे। ये थे बड़े रसिक हृदय। जहाँ गोरेलाल पुरोहित वीर रस की रचनाएँ कर महाराज छत्रासाल में ओज भरते रहते थे, वहाँ ये शृंगाररस की रचनाएँ कर उन्हें रिझाते रहते थे। नेवाज नाम के तीन कवि हो गये हैं। इन तीनों की रचनाएँ मिलजुल गई हैं। किन्तु सरसता अधिक इन्हीं की रचना में मानी गई है। इनका नेवाज नाम भ्रामक है। क्योंकि एक ब्राह्मण ने कविता में अपना नाम ‘नेवाज’ रक्खा, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। छत्रासाल ऐसे भाव सम्पन्न राजा के यहाँ रहकर भी उनका नेवाज नाम से परिचत होना कम आश्चर्य-जनक नहीं। जो हो, परन्तु हिन्दी संसार में जितने प्रेमोन्मत्ता कवि हुए हैं उनमें एक यह भी हैं। इनकी रचना की मधुरता और भावमयता की सभी ने प्रशंसा की है। इनकी भाषा सरस ब्रजभाषा है। बुन्देलखंड में रहकर भी वे इतनी प्रा)ल ब्रजभाषा लिख सके, यह उनके भाषाधिकार को प्रकट करता है। उनके दो पद्य देखिए-
1. देखि हमैं सब आपुस में जो
कछू मन भावै सोई कहती हैं।
ए घरहाई लुगाई सबै निसि
द्यौस नेवाज हमें दहती हैं।
बातें चबाव भरी सुनि कै
रिसि आवत पै चुप ह्नैं रहती हैं।
कान्ह पियारे तिहारे लिये
सिगरे ब्रज को हँसिबो सहती हैं।
2. आगे तो कीन्हीं लगा लगी लोयन
कैसे छिपै अजहूँ जो छिपावत।
तू अनुराग कौ सोधा कियो
ब्रज की बनिता सब यों ठहरावत।
कौन सकोच रह्यो है नेवाज
जौ तू तरसै उनहूँ तरसावत।
बावरी जो पै कलंक लग्यो तो
निसंक ह्नै क्यों नहीं अंक लगावत।
(2)
अठारहवीं शताब्दी प्रारम्भ करने के साथ सबसे पहले हमारी दृष्टि महाकवि देवदत्ता पर पड़ती है। जिस दृष्टि से देखा जाय इनके महाकवि होने में संदेह नहीं। कहा जाता है, इन्होंने बहत्तार ग्रन्थों की रचना की। हिन्दी-भाषा के कवियों में इतने ग्रन्थों की रचना और किसी ने भी की है, इसमें सन्देह है। इनके महत्तव और गौरव को देखकर ब्राह्मण जाति के दो विभागों में अब तक द्वंद्व चल रहा है। कुछ लोग सनाढय कहकर इन्हें अपनी ओर खींचते हैं और कोई कान्यकुब्ज कहकर इन्हें अपना बनाता है। पंडित शालग्राम शास्त्री ने, थोड़े दिन हुए, ‘माधुरी’ में एक लम्बा लेख लिखकर यह प्रतिपादित किया है कि महाकवि देव सनाढय थे। मैं इस विवाद को अच्छा नहीं समझता। वे जो हों, किन्तु हैं, ब्राह्मण जाति के और ब्राह्मण जाति के भी न हों तो देखना यह है कि साहित्य में उनका क्या स्थान है। मेरा विचार है कि सब बातों पर दृष्टि रखकर यह कहना पड़ेगा कि ब्रजभाषा का मुख उज्ज्वल करने वाले जितने महाकवि हुए हैं, उन्हीं में एक आप भी हैं। एक दो विषयों में कवि कर्म्म करके सफलता लाभ करना उतना प्रशंसनीय नहीं, जितना अनेक विषयों पर समभाव से लेखनी चलाकर साहित्य-क्षेत्र में कीर्ति अर्जन करना। वे रीति ग्रंथ के आचार्य ही नहीं थे और उन्होंने काव्य के दसों अंगों पर लेखनी चलाकर ही प्रतिष्ठा नहीं लाभ की, वेदान्त के विषयों पर भी बहुत कुछ लिखकर वे सर्वदेशीय ज्ञान का परिचय प्रदान कर सके हैं। इस विषय पर उनकी ‘ब्रह्मदर्शन-पचीसी’, ‘तत्तवदर्शन पचीसी’ आत्म-दर्शन पचीसी’ और ‘जगत दर्शन पचीसी’ आदि कई अच्छी रचनाएँ हैं। उनके ‘नीति शतक’, ‘रागरत्नाकर’, ‘जातिविलास’, ‘वृक्ष विलास’ आदि ग्रंथ भी अन्य विषयों के हैं और इनमें भी उन्होंने अच्छी सहृदयता और भावुकता का परिचय दिया है। उनका ‘देव प्रपंच माया’ नाटक भी विचित्रा है। इसमें भी उनका कविकर्म विशेष गौरव रखता है। शृंगाररस का क्या पूछना! उसके तो वे प्रसिध्दि-प्राप्त आचार्य हैं, मेरा विचार है कि इस विषय में आचार्य केशवदास के बाद उन्हीं का स्थान है। उनकी रचनाओं में रीति ग्रंथों के अतिरिक्त एक प्रबन्धा काव्य भी है जिसका नाम ‘देव-चरित्रा’ है, उसमें उन्होंने भगवान कृष्ण चन्द्र का चरित्रा वर्णन किया है। ‘प्रेम-चंद्रिका’ भी उनका एक अनूठा ग्रंथ है, उसमें उन्होंने स्वतंत्रा रूप से प्रेम के विषय में अनूठी रचनाएँ की हैं। कवि-कर्म क्या है। भाषा और भावों पर अधिकार होना और प्रत्येक विषयों का यथातथ्य चित्राण कर देना। देवजी दोनों बातों में दक्ष थे। सत्राहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यह देखा जाता है कि उस समय जितने बड़े-बड़े कवि हुए उनमें से अधिकांश किसी राजा-महाराजा अथवा अन्य प्रसिध्द लक्ष्मी-पात्रा के आश्रय में रहे। इस कारण उनकी प्रशंसा में भी उनको बहुत-सी रचनाएँ करनी पड़ीं। कुछ लोगा की यह सम्मति है कि ऐसे कवि अथवा महाकवियों से उच्च कोटि की रचनाओं और सच्ची भावमय कविताओं के रचे जाने की आशा करना विडम्बना मात्रा है। क्योंकि ऐसे लोगों के हृदय में उच्छ्वासमय उच्च भाव उत्पन्न हो ही नहीं सकते, जो एक आत्मनिर्भर, स्वतंत्रा अथच मनस्वी कवि अथवा महाकवि में स्वभावत: उद्भूत होते हैं। उन्मुक्त कवि कर्म ही कवि कर्म है, जिसका कार्य चित्ता का स्वतंत्रा उद्गार है। जो हृदय किसी की चापलूसी अथवा तोषामोद में निरत है और अपने आश्रयदाता के इच्छानुसार कविता करने के लिए विवश है, या उसकी उचित अनुचित प्रशंसा करने में व्यस्त है, वह कवि उस रत्न को कैसे प्राप्त कर सकता है जो स्वभावतया तरंगायमान मानस-उदधि से प्राप्त होते हैं। मेरा विचार है, इस कथन में सत्यता है। परन्तु इससे इस परिणाम पर नहीं पहुँचा जा सकता कि कोई कवि किसी के आश्रित रहकर सत्कवि या महाकवि हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रथम तो कवि स्वाधीनता प्रिय होता है, दूसरी बात यह कि कवि का अधिकतर सम्बन्धा प्रतिभा से है। इसलिए किसी का आश्रित होना उसके कवित्व गुण का बाधक नहीं हो सकता। किसी आत्म-विक्रयी की बात और है। हाँ, बंधान-रहित किसी स्वतंत्रा कवि का महत्तव उससे अधिक है, यह बात निस्संकोच भाव से स्वीकार की जा सकती है। कविवर देवदत्ता में जो विलक्षण प्रतिभा विकसित दृष्टिगत होती है, उसका मुख्य कारण यही है कि वे स्वतंत्रा प्रकृति के मनुष्य थे, जिससे वे किसी के आश्रय में चिरकाल तक न रह सके। जिस दरबार में गये, उसमें अधिक दिन ठहरना उन्हें पसंद नहीं आया। मालूम होता है कि बंधान उनको प्रिय नहीं था। मैं समझता हूँ इससे हिन्दी-साहित्य को लाभ ही हुआ। क्योंकि उनके उन्मुक्त जीवन ने उनसे अधिकतर ऐसी रचनाएँ करायीं जो सर्वथा स्वतंत्रा कही जा सकती हैं। प्रत्येक भाषा के साहित्य के लिए ऐसी रचनाएँ ही अधिक अपेक्षित होती हैं, क्योंकि उनमें वे उन्मुक्त धाराएँ बहती मिलती हैं जो पराधीनता एवं स्वार्थपरता दोष से मलिन नहीं होतीं। कविवर देवदत्ता की रचनाओं का जो अंश इस ढंग से ढला हुआ है, वही अधिक प्रशंसनीय है और उसी ने उनको हिन्दी-साहित्य में वह उच्च स्थान प्रदान किया है, जिसके अधिकारी हिन्दी-संसार के इने-गिने कवि-पुंगव ही हैं। मिश्र-बंधुओं ने अपने ग्रंथ में देवजी के सम्बन्धा में निम्नलिखित कवित्ता लिखाहै-
सूर सूर तुलसी सुधाकर नच्छत्रा केसो ,
सेस कविराजन कौ जुगुनू गनाय कै।
कोऊ परिपूरन भगति दिखरायो अब ,
काव्यरीति मोसन सुनहु चित लाय कै।
देव नभ मंडल समान है कबीन मधय ,
जामैं भानु सितभानु तारागन आय कै।
उदै होत अथवत चारों ओर भ्रमत पै ,
जाको ओर छोर नहिं परत लखाय कै।
इससे अधिक लोग सहमत नहीं हैं, इस पद्य ने कुछ काल तक हिन्दी-संसार में एक अवांछित आंदोलन खड़ा कर दिया था। कोई कोई इस रचना को अधिक रंजित समझते हैं। परन्तु मैं इसको विवाद-योग्य नहीं समझता। प्रत्येक मनुष्य अपने विचार के लिए स्वतंत्रा है। जिसने इस कवित्ता की रचना की उसका विचार देव जी के विषय में ऐसा ही था। यदि अपने भाव को उसने प्रकट किया तो उसको ऐसा करने का अधिकार था। चाहे कुछ लोग उसको वक्रदृष्टि से देखें, परन्तु मेरा विचार यह है कि यह कवित्ता केवल इतना ही प्रकट करता है कि देव जी के विषय में हिन्दी संसार के किसी-किसी विदग्धा जन का क्या विचार है। मैं इस कवित्ता के भाव को इसी कोटि में ग्रहण करता हूँ और उससे यही परिणाम निकालता हूँ कि देव जी हिन्दी-साहित्य क्षेत्र में एक विशेष स्थान के अधिकारी हैं। कोई भाषा समुन्नत होकर कितनी प्रौढ़ता प्राप्त करती है, देव जी की भाषा इसका प्रमाण है। उनका कथन है-
कविता कामिनि सुखद पद , सुबरन सरस सुजाति।
अलंकार पहिरे बिसद , अद्भुत रूप लखाति।
मैं देखता हूँ कि उनकी रचना में उनके इस कथन का पूर्ण विकास है। जितनी बातें इस दोहे में हैं, वे सब उनकी कविता में पायी जाती हैं।
उनकी अधिकतर रचनाएँ कवित्ता और सवैया में हैं। उनके कवित्ताों में जितना प्रबल प्रवाह, ओज, अनुप्रास और यमक की छटा है, वह विलक्षण है। सवैयों में यह बात नहीं है, परन्तु उनमें सरसता और मधुरता छलकती मिलती है। दो प्रकार के कवि या महाकवि देखे जाते हैं, एक की रचना प्रसादमयी और दूसरे की गम्भीर, गहन विचारमयी और गूढ़ होती है। इन दोनों गुणों का किसी एक कवि में होना कम देखा जाता है, देव जी में दोनों बातें पाई जाती हैं और यह उनकी उल्लेखनीय विशेषता है। मानसिक भावों के चित्राण में, कविता का संगीतमय बनाने में, भावानुकूल शब्द-विन्यास में, भावानुसार शब्दों में धवनि उत्पन्न करने में और कविता को व्यंजनामय बना देने में महाकवियों की-सी शक्ति देव जी में पायी जाती है।
प्राय: ऐसे अवसर पर लोग तुलनात्मक समालोचना को पसन्द करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ऐसा करने से एक दूसरे का उत्कर्ष दिखाने में बहुत बड़ी सहायता प्राप्त होती है। परन्तु ऐसी अवस्था में, निर्णय के लिए दोनों कवियों की समस्त रचनाओं की आलोचना होना आवश्यक है। यह नहीं कि एक-दूसरे के कुछ समान भाव के थोड़े से पद्यों को लेकर समालोचना की जाय और उसी के आधार पर एक से दूसरे को छोटा या बड़ा बना दिया जाय। यह एकदेशिता है। कोई कवि दस विषयों को लिखकर सफलता पाता है और कोई दो-चार विषयों को लिखकर ही कृतकार्य होता है। ऐसी अवस्था में उन दोनों के कतिपय विषयों को लेकर ही तुलनात्मक समालोचना करना समुचित नहीं। समालोचना के समय यह भी विचारना चाहिए कि उनकी रचना में लोक-मंगल की कामना और उपयोगिता कितनी है। उसका काव्य कौन-सा संदेश देता है, और उसकी उपयुक्तता किस कोटि की है। बिना इन सब बातों पर विचार किये कुछ थोड़े-से पद्यों को लेकर किसी का महत्तव प्रतिपादन युक्तिसंगत नहीं। अतएव मैं यह मीमांसा करने के लिए प्रस्तुत नहीं हूँ कि जो हिन्दी-संसार के महाकवि हैं उनमें से किससे देव बड़े हैं और किससे छोटे। प्रत्येक विषय में प्रत्येक को महत्तव प्राप्त नहीं होता, और न सभी विषयों में सबको उत्कर्ष मिलता। अपने-अपने स्थान पर सब आदरणीय हैं, और भगवती वीणा-पाणि के सभी वर पुत्र हैं। कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास क्षणजन्मा पुरुष हैं, उनको वह उच्चपद प्राप्त है जिसके विषय में किसी को तर्क-वितर्क नहीं। इसलिए मैंने जो कुछ इस समय कथन किया है, उससे उनका कोई सम्बन्धा नहीं।
अब मैं आप लोगों के सामने देव जी की कुछ रचनाएँ उपस्थित करता हूँ। आप उनका अवलोकन करें और यह विचारें कि उनकी कविता किस कोटि की है और उसमें कितना कवि-कर्म है-
1. पाँयन नूपुर मंजु बजैं कटि
किंकिनि मैं धुनि की मधुराई।
साँवरे अंग लसै पटपीत हिये
हुलसै बनमाल सुहाई।
माथे किरीट बड़े दृग चंचल
मंद हँसी मुखचन्द जुन्हाई।
जै जग मंदिर दीपक सुन्दर
श्री ब्रज दूलह देव सहाई।
2. देव जू जो चित चाहिए नाह
तो नेह निबाहि ये देह हरयो परै।
जौ समझाइ सुझाइए राह
अमारग मैं पग धोखे धारयो परै।
नीकै मैं फीकै ह्नै ऑंसू भरो कत
ऊँचे उसास गरो क्यों भरयो परै।
रावरो रूप पियो ऍंखियान भरोसो
भरयो उबरयो सो ढरयो परै।
3. भेष भये विष भाव ते भूषन
भूख न भोजन की कछु ईछी।
मीचु की साधा न सोंधो की साधा
न दूधा सुधा दधि माखन छी छी।
चंदन तौ चितयो नहि जात
चुभी चित माहिं चितौन तिरीछी।
फूल ज्यों सूल सिला सम सेज
बिछौनन बीच बिछी जनु बीछी।
4. प्रेम पयोधि परे गहिरे अभिमान
को फेन रह्यो गहि रे मन।
कोप तरंगिनि सों बहिरे पछिताय
पुकारत क्यों बहिरे मन।
देव जू लाज-जहाज ते कूदि
रह्यो मुख मूँदि अजौं रहि रे मन।
जोरत तोरत प्रीति तुही अब
तेरी अनीति तुही सहि रे मन।
5. आवत आयु को द्योस अथोत
गये रवि त्यों ऍंधियारियै ऐहै।
दाम खरे दै खरीद करौ गुरु
मोह की गोनी न फेरि बिकैहै।
देव छितीस की छाप बिना
जमराज जगाती महादुख दैहै।
जात उठी पुर देह की पैठ अरे
बनिये बनियै नहिं रैहै।
6. ऐसो जो हौं जानतो कि जै है तू विषै के संग
एरे मन मेरे हाथ पाँव तेरे तोरतो।
आजु लौं हौं कत नरनाहन की नाहीं सुनि
नेह सों निहारि हेरि बदन निहोरतो।
चलन न देतो देव चंचल अचल करि
चाबुक चितावनीन मारि मुँह मोरतो।
भारो प्रेम पाथर नगारो दै गरे सों बाँधि
राधाबर बिरद के बारिधि में बोरतो।
7. गुरु जन जावन मिल्यो न भयो दृढ़ दधि
मथ्यो न विवेक रई देव जो बनायगो।
माखन मुकुति कहाँ छाडयो न भुगुति जहाँ
नेहबिनु सगरो सवाद खेह नायगो।
बिलखत बच्यो मूल कच्यो सच्यो लोभ भाँड़े
नच्यो कोप ऑंच पच्यो मदन छिनायगो।
पायो न सिरावनि सलिल छिमा छींटन सों
दूधा सो जनम बिनु जाने उफनायगो।
8. कथा मैं न कंथा मैं न तीरथ के पंथा मैं न
पोथी मैं न पाथ मैं न साथ की बसीती मैं।
जटा मैं न मुंडन न तिलक त्रिपुंडन न
नदी कूप कुंडन अन्हान दान रीति मैं।
पीठ मठ मंडल न कुंडलकमंडल न
मालादंड मैं न देव देहरे की भीति मैं।
आपुही अपार पारावार प्रभु पूरि रह्यो
पाइए प्रगट परमेसर प्रतीति मैं।
9. संपति में ऐंठि बैठे चौतरा अदालति के
बिपति में पैन्हि बैठे पाँय झुनझुनियाँ।
जे तो सुख-संपति तितोई दुख बिपती मैं
संपति मैं मिरजा विपति परे धुनियाँ।
संपति ते बिपति बिपति हूँ ते सपंति है
संपति औ बिपति बराबरि कै गुनियाँ।
संपति मैं काँय काँय बिपति में भाँय-भाँय
काँय काँय भाँय भाँय देखी सब दुनियाँ।
10. आई बरसाने ते बुलाई वृषभानु सुता
निरखि प्रभानि प्रभा भानुकी अथै गयी।
चक चकवान के चकाये चक चोटन सों
चौंकत चकोर चकचौंधी-सी चकै गयी।
देव नन्द नन्दन के नैनन अनन्दुमयी
नन्द जु के मंदिरनि चंदमयी छै गयी।
कंजन कलिनमयी कुंजन नलिन मयी
गोकुल की गलिन अनलिमयी कै गयी।
11. औचक अगाधा सिंधु स्याही को उमड़ि आयो।
तामैं तीनों लोक बूड़ि गये एक संग मैं।
कारे कारे आखर लिखे जू कारे कागर
सुन्यारे करि बाँचै कौन जाँचे चित भंग मैं।
ऑंखिन मैं तिमिर अमावस की रैनि जिमि
जम्बु जल बुंद जमुना जल तरंग मैं।
यों ही मन मेरो मेरे काम को न रह्यो माई
स्याम र ú ह्नै करि समायो स्याम र ú मैं।
12. रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसै भरि ऑंसू भरि कहति दई दई।
चौंकि चौंकि चकि चकि उचकि उचकि देव
जकि जकि बकि बकि परति बई बई।
दुहुँन कौ रूप गुन दोउ बरनत फिरैं
घर न थिराति रीति नेह की नई नई।
मोहि मोहि मन भयो मोहन को राधिका मैं
राधिका हूँ मोहि मोहि मोहनमयी भई।
13. जब ते कुँवर कान्ह रावरी कलानिधान
कान परी वाके कहूँ सुजस-कहानी सी।
तब ही ते देव देखी देवता सी हँसति-सी
खीझति-सी रीझति-सी रूसति रिसानी-सी।
छोही सी छली सी छीनि लीनी सी छकी सी छिन
जकी सी टकी सी लगी थकी थकरानी सी।
बीधी सी बिधी सी बिष बूड़ी सी बिमोहित सी
बैठी बाल बकति बिलोकति बिकानी सी।
14. देखे अनदेखे दुख-दानि भये सुख-दानि
सूखत न ऑंसू सुख सोइबो हरे परो।
पानि पान भोजन सुजन गुरुजन भूले
देव दुरजन लोग लरत खरे परो।
लागो कौन पाप पल ऐकौ न परति कल
दूरि गयो गेह नयो नेह नियरे परो।
हो तो जो अजान तौ न जानतो इतीकु बिथा
मेरे जिये जान तेरो जानिबो गरे परो।
15. तेरो कह्यो करिकरि जीव रह्यो जरि जरि
हारी पाँय परि परि तऊ तैं न की सम्हार।
ललन बिलोके देव पल न लगाये तब
यो कल न दीनी तैं छलन उछलनहार।
ऐसे निरमोही सों सनेह बाँधि हौं बँधाई
आपु बिधि बूडयो माँझ वाधा सिंधु निरधार।
एरे मन मेरे तैं घनेरे दुख दीने अब
ए केवार दैकै तोहिं मूँदि मारौं एक बार।
देव की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उनकी लेखनी ने उसमें साहित्यिकता की पराकाष्ठा दिखलाई है। उनकी रचनाओं में शब्द-लालित्य नर्तन करता दृष्टिगत होता है और अनुप्रास इस सरसता से आते हैं कि अलंकारों को भी अलंकृत करते जान पड़ते हैं; यह मैं स्वीकार करूँगा कि उन्होंने कहीं-कहीं अनुप्रास, यमक आदि के लोभ में पड़कर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो गढ़े अथवा तोड़े-मरोड़े जान पड़ते हैं। परन्तु वे बहुत अल्प हैं और उनकी मनोहर रचना में आकर मनोहरता ही ग्रहण करते हैं, अमनोहर नहीं बनते। ब्रजभाषा के जितने नियम हैं उनका पालन तो उन्होंने किया ही है, प्रत्युत उसमें एक ऐसी सरस धारा भी बहा दी है जो बहुत ही मुग्धाकारी है और जिसका अनुकरण बाद के कवियों ने अधिकतर किया है। उनकी रचनाओं में अन्य प्रान्तों के भी शब्द मिल जाते हैं, इसका कारण उनका देशाटन है। परन्तु वे उनमें ऐसे बैठा ले मिलते हैं जैसे किसी सुन्दर स्वर्णाभरण में कोई नग। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कविवर देवदत्ता महाकवि थे और उनकी रचनाओं में अधिकांश महाकवि की-सी महत्ताएँ मौजूद हैं।
इस शताब्दी में देव के अतिरिक्त भिखारीदास, श्रीपति, कवीन्द्र, गुमान मिश्र, रघुनाथ, दूलह, तोष और रसलीन ये आठ प्रधान रीति ग्रन्थकार हुए हैं। वे सब ब्रजभाषा के कवि हैं, परन्तु प्रत्येक में कुछ न कुछ विशेषता है। इसलिए मैं प्रत्येक के विषय में कुछ लिख देना चाहता हूँ। मैं इस उद्देश्य से ऐसा करता हूँ कि जिससे ब्रजभाषा की परम्परा का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान हो सके।
(1)
भिखारीदास जी गणना हिन्दी-संसार के प्रतिष्ठित रीति ग्रन्थकारों में है। उन्होंने भी काव्य के सब अंगों पर ग्रन्थ लिखे हैं और प्रत्येक विषयों का विवेचन पांडित्य के साथ किया है। कुछ नई उद्भावनाएँ भी की हैं। परन्तु ये सब बातें संस्कृत काव्य-प्रकाश आदि ग्रन्थों पर ही अवलम्बित हैं। हाँ, हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में उनकी चर्चा करने का श्रेय उन्हें अवश्य प्राप्त है। अब तक इनके नौ ग्रन्थों का पता लग चुका है जिनमें काव्य-निण्र्य और शृंगार-निर्णय विशेष प्रसिध्द हैं। ये श्रीवास्तव कायस्थ थे और प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीपति सिंह के भाई बाबू हिन्दूपति सिंह के आश्रय में रहते थे, इनकी कृति में वह ओज और माधुर्य नहीं है जैसा देवजी की रचनाओं में है, परन्तु प्रांजलता उनसे इनमें अधिक है। जैसा शब्द-संगठन देवजी की कृति में है वह इनको प्राप्त नहीं, परन्तु इनकी भाषा अवश्य परिमार्जित है। इनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है, और उस पर इनका पूर्ण अधिकार है। किन्तु प्रौढ़ता होने पर भी अनेक स्थानों पर इनकी रचना शिथिल है। ये कविता में विविधा प्रकार की भाषा के शब्दों के ग्रहण के पक्षपाती थे। जैसा इनके दोहों से प्रकट है-
तुलसी गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार।
इनकी रचना में मिली भाषा विविध प्रकार
ब्रजभाषा भाषा रुचिर कहै सुमति सब कोय।
मिलै संस्कृत पारसिंहुँ पै अति प्रगट जु होय
यही कारण है कि इनकी रचना में ऐसे शब्द भी मिल जाते हैं जो ब्रजभाषा के नहीं कहे जा सकते। ये अवधा प्रान्त के रहने वाले थे। इसलिए इन्होंने इच्छानुसार अवधी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है। फिर भी इनकी भाषा असंयत नहीं है और एक प्रकार की नियमबध्दता उसमें पाई जाती है। इनका ‘काव्य निर्णय’ नामक ग्रंथ साहित्य सेवियों में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। मैं इनकी कुछ रचनाएँ नीचे लिखता हूँ। इनके द्वारा आप इनकी कविता-गत विशेषताओं को बहुत कुछ जान सकेंगे।
1. सुजस जनावै भगतन ही सों प्रेम करै
चित अति ऊजड़े भजत हरि नाम हैं।
दीन के न दुख देखै आपनो न सुख लेखै
विप्र पाप रत तन मैन मोहै धाम हैं।
जग पर जाहिर है धारम निबाहि रहै
देव दरसन ते लहत बिसराम हैं।
दास जू गनाये जे असज्जन के काम हैं
समुझि देखो येई सब सज्जन के काम हैं।
2. कढ़ि कै निसंक पैठि जात झुंड झुंडन मैं
लोगन को देखि दास आनँद पगति है।
दौरि दौरि जहीं तहीं लाल करि डारति है
अ( लगि कंठ लगिबे को उमगति है।
चमक झमकवारी ठमक जमक वारी
रमक तमकवारी जाहिर जगति है।
राम असि रावरे की रन मैं नरन मैं
निलज बनिता सी होरी खेलन लगति है।
3. नैनन को तरसैये कहाँ लौं कहाँ
लौं हियो बिरहागि मैं तैये।
एक घरी न कहूँ कल पैये कहाँ
लगि प्रानन को कलपैये।
आवै यही अब जी में विचार
सखी चलि सौतिहुँ के घर जैये।
मान घटे ते कहा घटिहै जुपै
प्रान प्रियारे को देखन पैये।
4. दृग नासा न तौ तप जाल खगी
न सुगन्धा सनेह के ख्याल खगी।
श्रुति जीहा विरागै न रागै पगी
मति रामै रँगी औ न कामै रँगी।
तप में ब्रत नेम न पूरन प्रेम न
भूति जगी न विभूति जगी।
जग जन्म बृथा तिनको जिनके
गरे सेली लगी न नवेली लगी।
5. कंज संकोच गड़े रहे कीच मैं
मीनन बोरि दियो दह नीरन।
दास कहै मृग हूँ को उदास कै
बास दियो है अरन्य गँभीरन।
आपुस मैं उपमा उपमेय ह्नै
नैन ये निंदित हैं कवि धीरन।
खंजन हूँ को उड़ाय दियो हलुके
करि डारयो अन ú के तीरन।
आप लोगों ने मतिराम के सीधो-सादे शब्द-विन्यास देखे हैं। वे न तो अनुप्रास लाने की चेष्टा करते हैं और न अलंकार पर उनकी अधिक दृष्टि है। फिर भी वैदर्भी रीति ग्रहण करके उन्होंने बड़ी सरस रचना की है। यही बात दासजी के विषय में भी कही जा सकती है। परन्तु मतिराम के शब्दों में जितना कल्लोल है, जितना संगीत है, जितना मनमोहिनी शक्ति है, उतनी दासजी की रचना में नहीं पाई जाती। उनके कोई-कोई पद्य इस प्रकार के हैं। परन्तु मतिराम के अधिकांश पद्य ऐसे ही हैं। दासजी ने श्रीपतिजी के भावों का अधिकतर अपहरण किया है और उनकी प्रणाली को ग्रहण कर अपने पद्यों में जीवन डाला है। परन्तु श्रीपति की शब्द-माला में जो मंजुलता मिलती है, दास जी में नहीं पाई जाती। फिर भी उनकी रचना कवि-कर्म से रहित नहीं है। उन्होंने ‘विष्णु-पुराण’ का भी अनुवाद किया है और अमरकोश का भी, जिससे पाया जाता है कि उनका संस्कृत का ज्ञान भी अच्छा था। विष्ण्ु-पुराण की रचना उतनी सरस और सुन्दर नहीं है। जितनी शृंगार-निर्णय अथवा काव्य-निर्णय की। फिर भी उसमें कवितागत सौन्दर्य है। हाँ, शिथिलता अवश्य अधिक है। दास जी का काव्य-शास्त्रा का ज्ञान उल्लेखनीय है। इसी शक्ति से उन्होंने काव्य-रचना में अपनी यथेष्ट योग्यता दिखलाई है। रीति-ग्रन्थ के जितने आचार्य हिन्दी साहित्य में हैं उनमें इनका भी आदरणीय स्थान है।
(2)
भाव-सौन्दर्य-सम्पादन और सुगठित शब्द-विन्यास करने में इस शताब्दी में देव जी के बाद श्रीपति का ही स्थान है। देवजी की रचना में कहीं-कहीं इतनी गम्भीरता है कि उसका भाव स्पष्ट करने के लिए अधिक मनोनिवेश की आवश्यकता होती है। किन्तु श्रीपतिजी की रचनाओं में यह बात नहीं पाई जाती। वह चाँदनी के समान सुविकसित है और मालती के समान प्रफुल्ल। जैसी चाँदनी सुधामई है, वैसी ही वह भी सरस है। जैसी मालती की सुरभि मुग्धाकारी है वैसी ही वह भी विमोहक है। श्रीपति जी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, उनका निवास स्थान कालपी में था। उनकी विशेषता यह है कि उनका स्वच्छन्द जीवन था और हृदय के स्वाभाविक उल्लास से वे कविता करते थे। इसलिए उनकी रचना भी उल्लासमयी है। सलिल का वह निर्मुक्त प्रवाह जो अपनी स्वतंत्रा गति से प्रवाहित होता रहता है, जैसा होता है, वैसा ही उनकी स्वत: प्रवाहिनी कविता भी है। उनका ‘काव्य-सरोज’ नामक ग्रंथ साहित्य-क्षेत्र में उच्च स्थान रखता है। दोषों का जैसा विशद वर्णन समालोचनात्मक दृष्टि से उन्होंने किया है वैसा उनके पहले का कोई कवि अथवा महाकवि नहीं कर सका। दोषों का इतना सूक्ष्म विवेचन उन्होंने किया है कि महाकवि केशवदास की उच्चतम रचनाएँ भी उनकी दोषदर्शक दृष्टि से न बच सकीं। इस ग्रंथ के अतिरिक्त उनके छ: ग्रन्थ और हैं जिनमें’कवि-कल्पद्रुम’, ‘रससागर’, ‘अनुप्रास-विनोद’ और ‘अलंकार-गंगा’ विशेष उल्लेखनीय हैं। उन्होंने भी काव्य के सब अंगों का वर्णन किया है और वह भी इस शैली से, जो विशदता और विद्वत्ता से पूर्ण है, सेनापति के समान उन्होंने भी ऋतुओं का वर्णन बड़ी भावुकता के साथ किया है। परन्तु यह मैं कहूँगा कि उनके वर्णन में सरसता अधिक है उनका वर्षा का वर्णन बहुत ही हृदयग्राही है। एक विशेषता उनमें और पाई जाती है। वह यह कि उन्होंने नैतिक रचनाएँ भी की हैं और उसमें अन्योक्ति के आधार अथवा भावमय व्यंजनाओं के अवलम्बन से ऐसी भावुकता भर दी है कि उनके द्वारा हृदय अधिकतर प्रभावित होता है और उसमें सत्प्रवृत्तिा जागृत होती है। उनके इस विषय के कोई, कोई कवित्ता बड़े ही अनूठे और उपयोगी हैं, जो एक आचरणशील उपदेशक का काम यथावसर कर देते हैं। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-
1. सारस के नादन को बाद ना सुनात कहूँ
नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।
श्रीपति सुकबि जहाँ ओज ना सरोजन को
फूल ना फुलत जाहि चित दै चहा करै।
बकन की बानी की बिराजत है राजधानी
काई सो कलित पानी फेरत हहा करै।
घोंघन के जाल जामैं नरई सिवाल ब्याल
ऐसे पापी ताल को मराल लै कहा करै।
2. ताल फीको अजल कमल बिन जल फीको
कहत सकल कवि हवि फीको रूम को।
बिनु गुन रूप फीको , असर को कूप फीको
परम अनूप भूप फीको बिन भूम को।
श्रीपति सुकवि महा वेग बिनु तुरी फीको
जानत जहान सदा जोन्ह फीको धूम को।
मेंह फीको फागुन अबालक को गेह फीको
नेह फीको तिय को सनेह फीको सूम को।
3. तेल नीको तिल को फुलेल अजमेर ही को
साहब दलेल नीको सैल नीको चंद को।
विद्या को विवाद नीको राम गुन नाद नीको।
कोमल मधुर सदा स्वाद नीको कंद को।
गऊ नवनीत नीको ग्रीषम को सीत नीको
श्रीपति जू मीत नीको बिना फरफंद को।
जातरूप घट नीको रेसम को पट नीको
बंसीबट तट नीको नट नीको नंद को।
4. बेधा होत फूहर कलपतरु थूहर
परमहंस चूहर की होत परिपाटी को।
भूपति मँगैया होत कामधोनु गैया होत
चूवत मयंद गज चेरा होत चाटी को।
श्रीपति सुजान भनै बैरी निज बाप होत
पुन्न माहिं पाप होत साँप होत साटी को।
निर्धान कुबेर होत स्यार सम सेर होत
दिनन को फेर होत मेर होत माटी को।
5. जल भरै झूमैं मानो भूमैं परसत आय
दसहूँ दिसान घूमैं दामिनी लये लये।
धूरि धारधूमरे से धूम से धुँधारे कारे
धुरवान धारे धावैं छबि सों छये छये।
श्रीपति सुकवि कहै घोरि घोरि घहराहिं
तकत अतन तन ताप तैं तये तये।
लाल बिनु कैसे लाज चादर रहेगी आज
कादर करत मोहिं बादर नये नये।
6. हारि जात बारिजात मालती विदारि जात
वारिजात पारिजात सोधान मैं करी सी।
माखन सी मैन सी मुरारी मखमल सम
कोमल सरस तन फूलन की छरी सी।
गहगही गरुई गुराई गोरी गोरे गात
श्रीपति बिलौर सीसी ईंगुर सों भरी सी।
बिज्जु थिर धारी सी कनक-रेख करी सी
प्रवाल छबि हरी सी लसत लाल लरी सी।
7. भौंरन की भीर लैके दच्छिन समीर धीर
डोलत है मंद अब तुम धौं कितै रहे।
कहै कवि श्रीपति हो प्रबलबसंत
मति मंत मेरे कंत के सहायक जितै रहे।
जागहिं बिरह जुर जोर ते पवन ह्नै के
पर धूम भूमि पै सम्हारत नितै रहे।
रति को विलाप देखि करुना-अगार कछू
लोचन को मूंदि कै तिलोचन चितै रहे।
इनकी रचना में अनुप्रासों की कमी नहीं है, परन्तु अनुप्रास इस प्रकार से आये हैं कि शब्द-माला उनसे कंठगत पुष्पमाला समान सुसज्जित होती रहती है। वास्तव में ये ब्रजभाषा-साहित्य के आचार्य हैं और इनकी रचना भावरूपी भगवान शिव के शिर की मन्दार माला है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें उसकी समस्त विशेषताएँ पायी जाती हैं।
कवीन्द्र (उदयनाथ) कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे। इनका एक ग्रन्थ ‘रस-चन्द्रोदय’ नामक अधिक प्रसिध्द है। पिता के समान ये भी सरस हृदय थे। अपनी रचनाओं ही के कारण इनका कई राज-दरबारों में अच्छा आदर हुआ। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसकी विशेषता यह है कि उसमें शृंगाररस का वर्णन उन्होंने बड़ी ही सरसता से किया है। उनके कुछ पद्य देखिए-
1. कैसी ही लगन जामैं लगन लगाई तुम
प्रेम की पगनि के परेखे हिये कसके।
केतिको छपाय के उपाय उपजाय प्यारे
तुम ते मिलाय के चढ़ाये चोप चसके।
भनत कबिंद हमैं कुंज मैं बुलाय करि
बसे कित जाय दुख दे कर अबस के।
पगन में छाले परे , नाँघिबे को नाले परे
तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के।
2. छिति छमता की , परिमिति मृदुता की कैधों
ताकी है अनीति सौति जनता की देह की।
सत्य की सता है सीलतरु की लता है
रसता है कै विनीत पर नीत निज नेह की।
भनत कविंद सुर नर नाग नारिन की
सिच्छा है कि इच्छा रूप रच्छन अछेह की।
पतिव्रत पारावार वारी कमला है
साधुता की कै सिला है कै कला है कुलगेह की।
‘तोष’ का मुख्य नाम तोषनिधि है। ये जाति के ब्राह्मण और इलाहाबाद जिले के रहने वाले थे। ‘सुधानिधि’ नामक नायिका-भेद का एक प्रसिध्द ग्रन्थ इन्होंने रचा। यही इनका प्रधान ग्रन्थ है। ‘विनय शतक’ और ‘नख-शिख’ नामक और दो ग्रन्थ भी इनके बताये जाते हैं। तोष की गणना ब्रजभाषा के प्रधान कवियों में होती है। इनकी विशेषता यह है कि इनकी भाषा प्रौढ़ और भावमयी है। मिश्र बन्धुओं ने इनका एक काल ही माना है और उसके अन्तर्गत बहुत से कवियों को स्थान दिया है। उन्होंने इनकी रचना को कसौटी मानकर और कवियों की रचनाओं को उसी पर कसा है। इस प्रकार जो कविता उन्होंने प्रौढ़ और गम्भीर पायी उसे तोष की श्रेणी में लिखा। अन्य हिन्दी-साहित्य का इतिहास लिखने वालों ने भी तोष को आदर्श कवि माना है। इनमें यह विशेषता अवश्य है कि इन्होंने अपनी रचनाओं में शिथिलता नहीं आने दी, और भाषा भी ऐसी लिखी जो टकसाली कही जा सकती है। उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और अधिकांश निर्दोष है। उनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं।
1. भूषन भूषित दूषन हीन
प्रवीन महारस मैं छवि छाई।
पूरी अनेक पदारथ तें जेहि
में परमारथ स्वारथ पाई।
औ उकतैं मुकतैं उलही कवि
तोष अनोखी भरी चतुराई।
होति सबै सुख की जनिता बनि
आवत जो बनिता कविताई।
2. श्रीहरि की छबि देखिबे को अखियाँ
प्रति रोमन में करि देतो।
बैनन के सुनिबे कहँ श्रौन
जितै चित तू करतो करि हेतो।
मो ढिग छोड़न काम कछू कहि
तोष यहै लिखतो बिधि ऐतो।
तौ करतार इती करनी करि कै।
कलि मैं कल कीरति लेतो।
रघुनाथ वन्दीजन महाराज काशिराज बरिवंड सिंह के राजकवि थे। उन्होंने इनको काशी के सन्निकट चौरा नामक एक ग्राम ही दे दिया था। रघुनाथ ने ‘रसिक मोहन’, ‘काव्य कलाधार’ और ‘इश्क-महोत्सव’ नामक ग्रन्थों की रचना की है और बिहारी सतसई की टीका भी बनाई है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने खड़ी बोलचाल में भी कुछ कविता की है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इनके कुछ पद्य देखिए-
1. ग्वाल संग जैबो ब्रजगायन चरैबो ऐबो
अब कहा दाहिने ये नैन फरकत हैं।
मोतिन की माल वारि डारौं गुंज माल पर
कुंजन की सुधि आये हियो दरकत है।
गोबर को गारो रघुनाथ कछू याते भारो
कहा भयो पहलनि मनि मरकत है।
मंदिर हैं मदर ते ऊँचे मेरे द्वारिका के
ब्रज के खरक तऊ हिये खरकत है।
2. फूलि उठे कमल से अमल हितू के नैन
कहै रघुनाथ भरे चैन-रस सियरे।
दौरि आये भौंर से करत गुनी गान
सिध्दि से सुजान सुखसागर सों नियरे।
सुरभि सी खुलन सुकवि की सुमति लागी
चिरिया सी जागी चिन्ता जनक के जियरे।
धानुष पै ठाढ़े राम रवि से लसत आजु
भोर के से नखत नरिंद भये पियरे।
3. सूखति जात सुनी जब सों
कछु खात न पीवत कैसे धौं रैहै।
जाकी है ऐसी दसा अबहीं
रघुनाथ सो औधि अधार क्यों पैंहै।
ताते न कीजिये गौन बलाय
ल्यों गौन करे यह सीस बिसैहै।
जानत हौ दृग ओट भये तिय
प्रान उसासहिं के सँग जैंहै।
4. देखिबे को दूति पूनो के चंद की
हे रघुनाथ श्रीराधिका रानी।
आई बुलाय कै चौतरा ऊपर
ठाढ़ी भई सुख सौरभ सानी।
ऐसी गयी मिलि जोन्ह की जोत
मैं रूप की रासि न जाति बखानी।
बारन ते कछु भौंहन ते कछु
नैनन की छबि ते पहिचानी।
एक खड़ी बोली की रचना देखिए-
5. आप दरियाव पास नदियों के जाना नहीं
दरियाव पास नदी होयगी सो धावैगी।
दरखत बेलि आसरे को कभी राखत ना
दरखत ही के आसरे को बेलि पावैगी।
लायक हमारे जो था कहना सो कहा मैंने
रघुनाथ मेरी मति न्याव ही को गावैगी।
वह मुहताज आपकी है आप उसके न
आप कैसे चलो वह आप पास आवैगी।