गुमान मिश्र इसलिए प्रसिध्द हैं कि उन्होंने संस्कृत के नैषधा काव्य का अनुवाद ब्रजभाषा में किया। उनके रचे अलंकार नायिका-भेद आदि काव्य-सम्बन्धी कतिपय ग्रन्थ और ‘कृष्ण-चन्द्रिका’ नामक एक अन्य ग्रन्थ का भी पता चला है। परन्तु इनमें अब तक कोई प्रकाशित नहीं हुआ। ये संस्कृत के विद्वान् थे और हिन्दी भाषा पर इनका बड़ा अधिकार था। परन्तु इनका नैषधा का अनुवाद उत्ताम नहीं हुआ। उसमें स्थान-स्थान पर बड़ी जटिलता है। वाच्यार्थ भी स्पष्ट नहीं और जैसी चाहिए वैसी उसमें सरसता भी नहीं। फिर भी उसके अनेक अंश सुन्दर और मनोहर हैं। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है किन्तु उसमें संस्कृत का पुट अधिक है। कुछ पद्य देखिए-
1. हाटक हंस चल्यो उड़ि कै नभ में
दुगुनी तन ज्योति भई।
लीक सी खैंचि गयो छन में
छहराय रही छबि सोन मई।
नैनन सों निरख्यो न बनाय कै
कै उपमा मन माँहिं लई।
स्यामल चीर मनो पसस्यो
तेहि पै कलकंचन बेलि नई।
2. दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि
धूरि की धुंधोरी सों ऍंधोरी आभा भानु की।
धाम औ धारा को माल बोल अबला को अरि
तजत परान राह चाहत परान की।
सैयद समर्थ भूप अली अकबर दल
चलत बजाय मारु दुंदुभी धुकान की।
फिरि फिरि फनसु फनीस उलटतु ऐसे
चोली खोलि ढोली ज्यों तमोली पाके पान की।
कहा जाता है कि पिता का गुण यदि पुत्र में नहीं तो पौत्र में आता है। दूलह कालिदास त्रिवेदी के पौत्र थे, किन्तु वे भाग्यवान थे कि उनके पिता कवीन्द्र भी सत्कवि थे। वास्तव में उनमें तीन पीढ़ियों द्वारा संचित कविकर्म्म का विकास था। दूलह की गणना हिन्दी-संसार के प्रसिध्द कवियों में है। उनका ‘कवि-कुल-कंठाभरण’ नामक अलंकार का केवल एक ग्रन्थ है,किन्तु इसी ग्रन्थ के आधार से वे ख्याति-प्राप्त हैं। उनकी कुछ स्फुट रचनाएँ भी मिलती हैं, परन्तु उनकी संख्या भी अधिक नहीं। ‘कविकुल कंठाभरण’ कवित्तों और सवैयों में रचा गया है। इसीलिए उसमें अलंकारों का निरूपण यथातथ्य हो सका है। उसकी प्रसिध्दि का कारण भी यही है। इसी सूत्रा से उस काल के अलंकारानुरागी कवियों में उसका अधिक आदर हुआ। ग्रन्थ की रचना साहित्यिक ब्रजभाषा में है, उसमें यथेष्ट सरसता और मनोहरता भी है। उनकी अन्य रचनाएँ भी ऐसी ही हैं। कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-
1. उतर उतर उतकरख बखानौं ‘ सार ‘
दीरघ ते दीरघ लघू ते लघू भारी को।
सब ते मधुर ऊख ऊख ते पियूख औ
पियूख हूँ ते मधुर है अधार पियारी को।
जहाँ क्रमिकन को क्रमै ते यथा क्रम
‘ यथासंख्य ‘ नैन नैन कोन ऐसे जीवधारीको।
कोकिल ते कल कंज दल ते अदल भाव
जीत्यो जिन काम की कटारी नोकवारी को।
2. माने सनमाने तेई माने सनमाने
सनमाने सनमान सनमान पाइयतु है।
कहै कवि दूलह अजाने अपमाने
अपमान सों सदन तिनही को छाइयतु है।
जानत हैं जेऊ तेऊ जात हैं बिराने द्वार
जान बूझ भूले तिनको सुनाइयतु है।
काम बस परे कोऊ गहत गरूर है तो
अपनी जरूर जा जरूर जाइयतु है।
बेनी नाम के दो कवि हो गये हैं। दोनों बन्दीजन थे। पहले बेनी असनी के निवासी थे। इनका समय सत्राहवीं ईस्वी शताब्दी का प्रारम्भ है। ये अपनी कविता में बेनी नाम ही रखते थे। दूसरे बेनी जिला रायबरेली के थे। ये इस शताब्दी में हुए। पद्यों में अपने नाम के बाद ये प्राय: कवि भी लिखते हैं, यही दोनों की पहचान है। पहले बेनी का कोई ग्रन्थ अब तक नहीं मिला। उनकी स्फुट रचनाएँ अधिक मिलती हैं। शिवसिंह सरोजकार ने इनके एक ग्रन्थ की चर्चा की है। पर वह अब तक अप्रकाशित है। संभव है कि वह अप्राप्य हो। इनमें दूसरे बेनी के समान विशेषताएँ नहीं है। परन्तु ये एक सरस हृदय कवि थे,इनकी भाषा से रस निचुड़ा पड़ता है। इनके दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-
1. छहरै सिरपै छवि मोर पखा
उनकी नथ के मुकता थहरैं।
फहरै पियरो पट बेनी इतै
उनकी चुनरी के झवा झहरैं।
रस रंग भिरे अभिरे हैं तमाल
दोऊ रस ख्याल चहैं लहरैं।
नित ऐसे सनेह सों राधिका
स्याम हमारे हिये में सदा बिहरैं।
2. कवि बेनी नई उनई है घटा
मोरवा बन बोलत कूकन री।
छहरैं बिजुरी छिति-मंडल छै
लहरै मन मैन भभूकन री।
पहिरौ चुनरी चुनि कै दुलही
सँग लाल के झूलहु झूकन री।
ऋतु पावस योंही बितावति हौ
मरिहौ फिर बावरी हूकन री।
दूसरे बेनी रीति-ग्रन्थकार हैं, उन्होंने ‘टिकैतराय प्रकाश’ और ‘रसविलास’, नामक दो ग्रन्थों की रचना की है। पहला ग्रन्थ अलंकार का और दूसरा रस सम्बन्धी है। भाषा इनकी भी सरस और सुन्दर है। भावानुकूल शब्द-विन्यास में ये निपुण हैं। इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने हास्यरस की भी प्रशंसनीय रचना की है और अधिकतर उसमें व्यंग्य से काम लिया है। ये हिन्दी-संसार के ‘सौदा’ कहे जा सकते हैं। जैसे उर्दू कवियों में हजो कहने में सौदा का प्रधान स्थान है, उसी प्रकार किसी की हँसी उड़ाने अथवा किसी पर व्यंग्य-बाण वर्षा करने में ये भी हिन्दी कवियों के अग्रणी हैं। ये जिससे खिजे या बिगड़े उसी की गत बना दी, चाहे व कोई स्थान हो वा कोई मनुष्य। परन्तु इनकी भाषा की विशेषता सर्वथा सुरक्षित रहती है। इनकी अन्य रचनाएँ भी मनोहारिणी और ललित हैं। हाँ, चटपटी प्रकृति उनमें भी प्रतिबिम्बित मिलती है। कुछ पद्य देखिए-
1. घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे ,
बेला औ कुबेला फिरैं चेला लिये आस पास।
कबिन सों बाद करैं भेद बिन नाद करैं ,
सदा उनमाद करैं धारम करम नास।
बेनी कबि कहै बिभिचारिन को बादसाह ,
अतन प्रकासत न सतन सरम तास।
ललना ललक नैन मैन की झलक ,
हँसि हेरत अलक रद खलक ललक दास।
इस पद्य में ललकदास एक महंत की पगड़ी उतारी गयी है-
2. कारीगर कोऊ करामात कै बनाय लायो
लीनो दाम थोरो जानि नई सुघरई है।
राय जू को राय जू रजाई दीन्हीं राजी ह्नै कै
सहर में ठौर ठौर सुहरत भई है।
बेनी कवि पाय कै अघाय रहे घरी द्वैक
कहत न बनै कछु ऐसी मति ठई है।
साँस लेत उड़िगो उपल्ला औ भितल्ला सबै
दिन द्वै के बाती हेत रूई रहि गई है।
इस पद्य में एक रायजी की गत बनाई गयी है-
3. संभु नैन जाल औ फनी को फूतकार कहा
जाके आगे महाकाल दौरत हरौली तें।
सातो चिरजीवी पुनि मारकंडे लोमस लौं
देखि कंपमान होत खोलें जब झोली तें।
गरल अनल औ प्रलय दावानल भर
बेनी कबि छेदि लेत गिरत हथोली तें।
बचन न पावैं धानवंतरि जौ आवैं।
हरगोबिंद बचावैं हरगोविंद की गोली तें।
इस पद्य में एक वैद्यजी की नाड़ी बेतरह टटोली गयी है-
4. गड़ि जात बाजी औ गयंद गन अड़ि जात
सुतुर अकड़ि जात मुसकिल गऊ की।
दाँवन उठाय पाय धोखे जो धारत कोऊ
आप गरकाप रहि जात पाग मऊ की।
बेनी कबि कहै देखि थर थर काँपै गात
रथन के पय ना विपद बरदऊ की।
बार बार कहत पुकार करतार तो सों
मीच है कबूल पै न कीच लखनऊ की।
इस पद्य में लखनऊ पर बेतरह कीच उछाली गयी है-
5. चींटी की चलावै को मसा के मुख आय जाय
साँस की पवन लागे कोसन भगत है।
ऐनक लगाय मरू मरू कै निहारे परैं
अनु परमानु की समानता खगत हैं।
बेनी कबि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं
मेरी जान ब्रह्म को बिचारबो सुगत है।
ऐसे आम दीन्हें दयाराम मन मोद करि
जाके आगे सरसों सुमेरु सी लगत है।
इस पद्य में बेचारे दयाराम को खटाई में डाल दिया गया है। दो पद्य इनके शान्त रस के भी देखिए-
1. पृथु नल जनक जजाति मानधाता ऐसे
केते भये भूप जस छिति पर छाइगे।
कालचक्र परे सक्र सैकरन होत जात
कहाँ लौं गनावौं बिधि बासर बिताइगे।
बेनी साज संपति समाज साज सेना कहाँ
पाँयन पसारि हाथ खोले मुख बाइगे।
छुद्र छिति पालन की गिनती गिनावै कौन
रावन से बली तेऊ बुल्ला से बिलाइगे।
2. राग कीने रंग कीने तरुनी प्रसंग कीने
हाथ कीने चीकने सुगंधा लाय चोली में।
देह कीने गेह कीने सुंदर सनेह कीने
बासर बितीत कीने नाहक ठिठोली में।
बेनी कबि कहै परमारथ न कीने मूढ़
दिना चार स्वाँग सो दिखाय चले होली में।
बोलत न डोलत न खोलत पलक हाय
काठ से पड़े हैं आज काठ की खटोली में।
दो रचनाएँ शृंगार रस की भी देखिए-
1. बिपत बिलोकत ही मुनि मन डोलि उठे
बोलि उठे , बरही बिनोद भरे बन बन।
अकल बिकल ह्नै बिकाने हैं पथिक जन
ऊर्धा मुख चातक अधोमुख मराल गन।
बेनी कबि कहत मही के महाभाग भये
सुखद संजोगिन बियोगिन के ताप तन।
कंज पुंज गंजन कृषी दल के रंजन
सो आये मान भंजन ए अंजन बरन घन।
2. करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लंक
ससि को चुरायो मुख नासा चोरी कीर की।
पिक को चुरायो बैन मृग को चुरायो नैन
दसन अनार हाँसी बीजुरी गँभीर की।
कहै कबि बेनी बेनी व्याल की चुराय लीनी।
रती रती सोभा सब रति के सरीर की।
अब तो कन्हैया जू को चित हूँ चुराय लीनो
छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की।
इस कवि का वाच्यार्थ कितना प्रांजल है और उसके कथन में कितना प्रवाह है, इसके बतलाने की आवश्यकता नहीं, पद्य स्वयं इसको बतला रहे हैं। ये उर्दू फ़ारसी अथवा अन्य भाषा के शब्दों को जिस प्रकार अपनी रचना के ढंग में ढाल लेते हैं, वह भी प्रशंसनीय है। मेरा विचार है कि हिन्दी-साहित्य के प्रधान कवियों में भी स्थान लाभ के अधिकारी हैं।
प्रत्येक शतक में कोई न कोई सहृदय मुसलमान हिन्दी देवी की अर्चना करते दृष्टिगत होता है। सैयद गुलाम नबी (रसलीन) बिलग्रामी ऐसे ही सहृदय कवि हैं। मेरा विचार है कि अवधी की रचना में जो गौरव मलिक मुहम्मद जायसी को प्राप्त है,ब्रजभाषा की सरस रचना के लिए उसी गौरव के अधिकारी रसखान, मुबारक और रसलीन हैं। रसलीन ने ‘अंग दर्पण’, और ‘रस प्रबोधा’ नामक ग्रन्थों की रचना की है। ये अरबी फ़ारसी के नामी विद्वान् थे। फिर भी इन्होंने ब्रजभाषा में रचना की और इस निुपणता से की जो उल्लेखनीय है। इनके दोनों ग्रन्थ दोहों में हैं। पहले में अंगों का वर्णन है और दूसरे में नव रसों पर सरस और भावमयी कविता है। इनको परसी और उर्दू के शे’रों का अनुभव था जो बन्दों में ही बहुत कुछ चमत्कार दिखला जाते हैं। इसलिए इन्होंने उन्हीं का अनुकरण किया और अपने दोहों को वैसा ही चमत्कारक बनाया। इनकी सुन्दर सरस और भावमयी भाषा ब्रजभाषा देवी के चरणों पर चढ़ाने के लिए मुग्धाकर सुमनावलि-माला समान है। इनके दोहों को सुनकर यह जी कहने लगता है कि क्या कोई मुसलमान भी ऐसी टकसाली भाषा लिख सकता है? किन्तु रसलीन ने इस शंका का समाधान कर दिया है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-
1. अमी हलाहल मद भरे स्वेत स्याम रतनार।
जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत एकबार।
2. मुख ससि निरखि चकोर अरु तन पानिप लखि मीन।
पद पंकज देखत भँवर होत नयन रसलीन।
3. सौतिन मुख निसि कमल भो पिय चख भये चकोर।
गुरुजन मन सागर भये लखि दुलहिन मुख ओर।
4. मुकुत भये घर खोय कै कानन बैठे आय।
अब घर खोवत और के कीजै कौन उपाय।
5. धारति न चौकी नग-जरी याते उर में लाइ।
छाँह परे पर पुरुष की जनि तिय धारम नसाइ।
इस शताब्दी में बहुत अधिक रीति-ग्रन्थकार हुए हैं। सबके विषय में कुछ लिखना हमारे उद्देश्य से सम्बन्धा नहीं रखता। सबकी भाषा लगभग एक ही है और एक ही विषय का वर्णन प्राय: सभी ने किया है। उनमें जो आदर्श थे और जिनमें कोई विशेषता थी उनके विषय में जो लिखना था, लिखा गया। परन्तु अब भी ऐसे कतिपय रीति-ग्रन्थकार शेष हैं, जिनका ब्रजभाषा-साहित्य में अच्छा स्थान है और प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते हैं। सबके सविशेष वर्णन के लिए मेरे पास स्थान नहीं। हाँ, मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि उनकी रचना शैली का ज्ञान आप लोगों को करा दूँ, जिससे यह यथातथ्य ज्ञात हो सके कि इस शताब्दी में ब्रजभाषा का वास्तविक रूप क्या था इसलिए कुछ लोगों की रचनाएँ आप लोगों के सामने क्रमश: उपस्थित करताहूँ-
सूरति मिश्र आगरे के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। ये बिहारी सतसई के प्रसिध्द टीकाकार हैं, रीति-सम्बन्धी सात-आठ ग्रन्थों की रचना भी इन्होंने की है। इनका एक पद्य देखिए-
तेरे ये कपोल बाल अति ही रसाल
मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।
कोऊ न समान जाहि कीजै उपमान
अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है।
नेक दरपन समता की चाह करी कहूँ
भये अपराधी ऐसो चित धारियत है।
सूरति सो याही ते जगत बीच आज हूँ लौं ,
उन के वदन पर छार डारियत है।
कृष्ण कवि बिहारीलाल के पुत्र कहे जाते हैं। इन्होंने बिहारीलाल के दोहों पर टीका की भाँति एक-एक सवैया लिखा है। वार्तिक में काव्य के समस्त अंगों का पूर्णतया निरूपण भी किया है। उनका एक पद्य देखिए-
1. थोरे ई गुन रीझते बिसराई वह बानि।
तुमहूँ कान्ह मनौं भये आजु काल्हि के दानि।
2. ह्नै अति आरत मैं बिनती ,
बहुबार करी करुना रस भीनी।
कृष्ण कृपानिधि दीन के बंधु ,
सुनी असुनी तुम काहे को कीनी।
रीझते रंचक ही गुनसों वह बानि ,
बिसारि मनो अब दीनी।
जानि परी तुम हूँ हरि जू ,
कलिकाल के दानिन की मति लीनी।
अमेठी के राजा गुरुदत्ता सिंह ने ‘भूपति’ नाम से कविताएँ की हैं। उनके तीन ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। ‘कंठभूषण’ और’रसरत्नाकर’ दो रीति ग्रन्थों के अतिरिक्त उन्होंने एक सतसई भी बनाई थी। ये कवियों का बड़ा आदर सम्मान करते थे। इनकी रचनाएँ भी सरस हैं। दो दोहे देखिए-
1. घूँघट पट की आड़ दे हँसति जबै वह दार।
ससि मंडल ते कढ़ति छनि जनु पियूख की धार।
2. भये रसाल रसाल हैं भये पुहुप मकरंद।
मान सान तोरत तुरत भ्रमत भ्रमर मद मंद।
सोमनाथ माथुर ब्राह्मण थे, भरतपुर दरबार में रहते थे। इनका रस ‘पियूषनिधि’ नामक प्रसिध्द ग्रन्थ है, जिसमें काव्य के समस्त लक्षणों का विस्तृत वर्णन है। इनके अतिरिक्त इन्होंने एक प्रबन्धा काव्य भी लिखा है। यह सिंहासन बत्ताीसी का पद्य-बध्द रूप है। इसका नाम सृजन बिलास है। इनके दो ग्रन्थ और हैं जिनमें से एक नाटक है, जिसका नाम ‘माधाव-विनोद’ है। दूसरे का नाम ‘लीलावती’ है। ‘माधाव विनोद’ का नाम भर नाटक है वास्तव में वह प्रेम-सम्बन्धी प्रबंधा ग्रंथ है। इनकी रचना सुन्दर और सरस है। इनका एक पद्य देखिए-
दिसि बिदिसन ते उमड़ि मढ़ि लीन्हों नभ ,
छाँड़ि दीन्हें धुरवा जवासे जूथ जरिगे।
डहडहे भये द्रुम रंचक हवा के गुन
कहूँ कहूँ मोरवा पुकारि मोद भरिगे।
रहि गये चातक जहाँ के तहाँ देखत ही
सोमनाथ कहै बूँदा बूँदि हूँ न करिगे।
सोर भयो घोर चारों ओर महि मंडल मैं
आये घन आये घन आय कै उघरिगे।
शंभुनाथ मिश्र ने ‘रस-कल्लोल’, ‘रस-तरंगिणी’ और ‘अलंकार दीपक’ नामक तीन ग्रन्थ बनाये हैं। ये पतेहपुर के रहने वाले थे। इनकी रचना सुन्दर है। पर राजा भगवंत राय खीची की प्रशंसा ही उसमें अधिक है। वे उनके आश्रयदाता थे। एक पद्य देखिए-
आजु चतुरंग महाराज सेन साजत ही
धौंसा की धुकार धूर परी मुँह याही के।
भय के अजीरन ते जीरन उजीर भये
सूल उठी उर में अमीर जाही ताही के।
बीर खेत बीच बरछी लै बिरुझानो
इतै धीरज न रह्यौ संभु कौनहूँ सिपाही के।
भूप भगवंत बीर ग्वाही कै खलक सब
स्याही लाई बदन तमाम पादसाही के।
ऋषिनाथ बंदीजन और असनी के रहने वाले थे। ‘अलंकार मणि मंजरी’ नामक एक ग्रन्थ इन्होंने बनाया है। उसका एक पद्य देखिए। इनकी रचनाओं में प्रतिभा झलकती मिलती है-
छाया छत्रा ह्नै कर करत महिपालन को
पालन को पूरो फैलो रजत अपार है।
मुकुत उदार ह्नै लगत सुख श्रौनन में
जगत जगत हँस हास हीर हार है।
ऋषि नाथ सदानंद सुजस बलंद
तमवृंद के हरैया चंद्र चंद्रिका सुढार है।
हीतल को सीतल करत घनसार है
महीतल को पावन करत गंगधार है।
रतन कवि गढ़वाल के राजा पतेह साह के यहाँ थे। उन्होंने ‘पतेहभूषण’ और ‘अलंकार-दर्पण’ नाम के दो ग्रन्थ रचे। इनकी रचना शैली सुन्दर और विशद है। एक पद्य देखिए-
काजर की कोरवारे भारे अनियारे नैन
कारे सटकारे बार छहरे छवानि छ्वै।
स्याम सारी भीतर भभक गोरे गातन की
ओप वारी न्यारी रही बदन उँजारी ह्नै।
मृगमद बेंदी भाल अनमोल आभरन
हरन हिये की तू है रंभा रति ही अबै।
नीकै नथुनी के तैसे युगल सुहात मोती
चंद पर च्वै रहे सुमानो सुधा बुंद द्वै।
चंदन बंदीजन पुवांया के रहने वाले थे। राजा केसरीसिंह के यहाँ रहते थे। इन्होंने दस-बारह ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से ‘शृंगार-सागर’ ‘काव्याभरण’ और ‘कल्लोल तरंगिणी’ अधिक प्रसिध्द हैं। इन्होंने एक प्रबन्धाकाव्य भी लिखा है जिसका नाम’शीत बसंत’ है। ये परसी के भी शायर थे। इनका एक पद्य देखिए-
ब्रजवारी गँवारी दै जानै कहा यह चातुरता न लुगायन मैं।
पुनि बारिनी जानि अनारिनी है रुचि एती न चंदन नायन मैं।
छवि रंग सुरंग के बिंदु बने लगैं इन्द्रबधू लघुतायन मैं।
चित जो चहैं दी चकसी रहैं दी केहि दी मेंहदी इन पायन मैं।
देवकीनन्दन ब्राह्मण और कन्नौज के पास के रहने वाले थे। इन्होंने चार-पाँच ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें ‘शृंगार चरित्रा’ और ‘अवधूत भूषण’ अधिक प्रसिध्द हैं। इनका ‘सरपराज़-चन्द्रिका’ नामक ग्रंथ भी अच्छा है। इनकी भाषा टकसाली है और उसमें सहृदयता पाई जाती है। एक पद्य देखिए-
मोतिन की माल तोरि चीर सब चीरि डारे
फेरि कै न जैहों आली दुख बिकरारे हैं।
देवकी नंदन कहैं धोखे नाग छौनन के
अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरवारे हैं।
मानि मुखचंद भाव चोंच दई अधारन
तीनों ए निकुंजन में एकै तार तारे हैं।
ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे
तैसे मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं।
भानु कवि ने ‘नरेन्द्र भूषण’ नाम का एक ग्रन्थ लिखा है। उसमें विशेषता यह है कि अलंकारों के उदाहरण सब रसों के दिये हैं। इनकी रचना अच्छी है। ये बुन्देले थे। राजा रनजोर सिंह के यहाँ रहते थे। इनका एक पद्य देखिए-
घन से सघन स्याम इंदु पर छाय रहे
बैठी तहाँ असित द्विरेफन की पाँति सी।
तिनके समीप तहाँ खंज की सी जोरी लाल
आरसी से अमल निहारे बहुभाँति सी।
ताके ढिग अमल ललौहैं बिवि बिद्रुम से
फरकति ओप जामैं मोतिन की कांति सी।
भीतर ते कढ़ति मधुर बीन कैसी धुनि
सुन करि भानु परि कानन सुहाति सी।
थान कवि बंदीजन थे। इनका मुख्य नाम थानराय था। इनकी भाषा ललित है और ‘दलेल प्रकाश’ नामक एक रीति-ग्रन्थ भी इनका पाया जाता है। पद-विन्यास देखने से यह प्रतीति होती है कि भाषा पर इनको अच्छा अधिकार था। एक पद्य देखिए-
दासन पै दाहिनी परम हंस वाहिनी हौ ,
पोथी कर बीना सुर मंडल मढ़त है।
आसन कँवल अंग अंबर धावल
मुखचंद सो अमल रंग नवल चढ़त है।
ऐसी मातु भारती की आरती करत थान
जाको जस विधि ऐसो पंडित पढ़त है।
ताकी दया दीठि लाख पाथर निराखर के
मुख ते मधुर मंजु आखर कढ़त है।
रीति ग्रन्थकारों के बाद अब मैं उन प्रेम-मार्गी कवियों की चर्चा करूँगा जो प्रेम में मत्ता होकर अपने आन्तरिक अनुराग से ही कविता करते थे। उनका प्रेममय उल्लास उनकी पंक्तियों में विलसित मिलता है और उनके हृदय का मधुर प्रवाह प्रत्येक सहृदय को विमुग्धा बना देता है। इस शताब्दी में मुझको इस प्रकार के चार-पाँच कवि-पुúव ही ऐसे दिखलाई पड़ते हैं, जो उल्लेख योग्य हैं और जिनमें विशेषता पाई जाती है। वे हैं-घन आनन्द, नागरीदास, सीतल, बोधा और रसनिधि। क्रमश: इनका परिचय मैं आप लोगों को देता हूँ।
घन आनन्द वास्तव में आनन्द-घन थे। वे जाति के कायस्थ और निम्बार्क सम्प्रदाय के वैष्णव थे। कहा जाता है कि वे दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के मुंशी थे। ये सरस कवि तो थे ही, गान विद्या में भी निपुण थे। इनके रचे छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं, जिनमें ‘सुजान-सागर’, ‘घनानंद कवित्ता’ और ‘रसकेलि-बल्ली’ नामक ग्रंथ अधिक प्रसिध्द हैं। जनश्रुति है कि ये’सुजान’ नामक एक वेश्या पर अनुरक्त थे। इनकी रचनाओं में उसका नाम बहुत आता है। उस वेश्या के दुर्भाव से ही इनके हृदय में विरक्ति उत्पन्न हुई और ये दिल्ली छोड़कर वृन्दावन चले गये और वहीं युगलमूर्ति के प्रेम में मत्ता होकर अपना शेष जीवन व्यतीत किया। सुना जाता है नादिरशाह ने इनके जीवन को समाप्त किया था। अन्तिम समय में इन्होंने यह रचना की थी-
बहुत दिनन की अवधि आस पास परे
खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को।
कहि कहि आवत छबीले मन भावन को
गहि गहि राखत ही दै दै सनमान को।
झूठी बतियानि की पत्यानि ते उदास ह्नै कै
अब ना घिरत घन आनँद निदान को।
अधार लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान
चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।
ये शुध्द ब्रजभाषा के कवि माने जाते हैं। इनका दावा भी यही है, जैसा इस पद्य से प्रकट होता है-
नेही महा ब्रजभाषा प्रवीन
औ सुन्दरता हुँ के भेद को जानै।
योग वियोग की रीति में कोविद
भावना भेद सरूप को ठानै।
चाह के रंग में भीज्यो हियो
बिछुरे मिले प्रीतम सांति न मानै।
भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहै
जो घन जू के कबित्ता बखानै।
परन्तु मेरा विचार है कि इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा ही है, क्योंकि ये ब्रजभाषा के ठेठ शब्दों का प्रयोग करते नहीं देखे जाते। इसी प्रकार ये स्थान-स्थान पर ऐसे शब्द लिख जाते हैं जो ब्रजभाषा के नियमानुकूल नहीं कहे जा सकते। निम्नलिखित सवैया को देखिए-
हमसों हित कै कित को नितही
इत बीच वियोगहिं पोइ चले।
सु अखैबट बीज लौं फैलि परयो
बनमाली कहाँ धौं समोइ चले।
घन आनँद छाँह बितान तन्यो
हमैं ताप के आतप खोइ चले।
कबहूँ तेहि मूल तौ बैठिये आय
सुजान जो बीजहिं बोइ चले।
इस सवैया में ‘पोइ’, ‘समोइ’, ‘खोइ’, ‘बोइ’, के ‘इ’ के स्थान पर ब्रजभाषा के नियमानुसार यकार होना चाहिए। परन्तु इन्होंने अवधी के नियमानुसार ‘इ’ लिखा। इन्हीं को नहीं ब्रजभाषा के अन्य कवियों और महाकवियों को भी इस प्रकार का प्रयोग करते देखा जाता है। कविवर सूरदास जी की रचनाओं में भी ऐसे प्रयोग अधिकता से मिलते हैं। यदि कहा जाय कि प्राचीन ब्रजभाषा में ऐसे प्रयोग होते थे तो यही मानना पडेग़ा कि ब्रजभाषा में दोनों प्रकार के प्रयोग होते आये हैं। ऐसी अवस्था में यह नियम स्वीकृत नहीं हो सकता कि ऐसे स्थलों पर अवधी में जहाँ ‘इ’ का प्रयोग होता है, ब्रजभाषा में ‘य’ लिखा जाता है। मैं तो देखता हूँ कि सूरदास के समय से अब तक के ब्रजभाषा के कवि दोनों प्रयोग करते आये हैं और इसीलिए मैं घन आनन्द की भाषा को भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही मानता हूँ। घन आनन्दजी की भाषा में इतनी विशेषता अवश्य है कि उसमें ब्रजभाषा सम्बन्धी प्रयोग ही अधिक पाये जाते हैं। यह दिखलाने के लिए कि वे ‘इ’ के स्थान पर ‘य’ का प्रयोग भी करते हैं,मैं नीचे एक पद्य और लिखता हूँ। उसके चिद्दित शब्दों को देखिए-
तब तो दुरि दूरहिं ते मुसुकाय
बचाय कै और की दीठि हँसे।
दरसाय मनोज की मूरति ऐसी
रचाय कै नैनन मैं सरसे।
अब तौ उर माहिं बसाय कै मारत
ए जू बिसासी कहाँ धौं बसे।
कछु नेह निबाह न जानत हे तौ
सनेह की धार मैं काहें धाँसे।
घन आनन्द जी के पद्यों की यह विशेषता है कि उससे रस निचुड़ा पड़ता है। जो वे कहते हैं इस ढú से कहते हैं कि उनकी पंक्तियों में उनके आन्तरिक अनुराग की धारा बहने लगती है। उनके पद्य का एक-एक शब्द ऐसा ज्ञात होता है कि साँचे में ढला हुआ है और उसमें उनके भाव दर्पण में बिम्ब के समान प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। इनके समस्त ग्रन्थों की रचना वैदर्भी वृत्तिा में है। इसीलिए उनमें सरसता और मनोहरता भी अधिक पायी जाती है। ब्रजभाषा के मुहावरों और बोलचाल की मधुरताओं को उन्होंने जिस सफलता से अंकित किया है, वैसी सफलता कुछ महाकवियों को ही प्राप्त हुई है। उन्होंने अपनी’बिरह लीला’ अरबी शब्द में लिखी है, जिससे यह पाया जाता है कि उस समय अरबी शब्द भी हिन्दी रचना में स्थान पाने लगे थे। इनके कुछ सरस और हृदयग्राही पद्य और देखिए-
1. गुरनि बतायो राधा मोहन हूँ गायो
सदा सुखद सुहायो वृन्दावन गाढ़े गहुरे।
अद्भुत अभूत महि मंडन परे ते परे
जीवन को लाहु हाहा क्यों न ताहि लहुरे।
आनँद को घन छायो रहत निरंतर ही
सरस सुदेय सों पपीहा पन बहुरे।
जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर
ऐसे पावन पुलिन पर पतित परि रहु रे।
2. अति सूधो सनेह को मारग है
जहाँ नेको सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ
झिझकैं कपटी जै निसाँक नहीं।
घन आनँद प्यारे सुजान सुनो
इत एक ते दूसरो ऑंक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला
मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।
3. पर कारज देह को धारे फिरौ
परजन्य यथारथ ह्नै दरसौ।
निधि नीर सुधा के समान करौ
सब ही बिधि सज्जनता सरसौ।
घन आनँद जीवन दायक हौ।
कछु मेरीयौ पीर हिये परसौ।
कबहूँ वा बिसासी सुजान के ऑंगन
मो ऍंसुआन को लै बरसौ
4. पहले अपनाय सुजान सनेह सों
क्यों फिर नेह कौ तोरिये जू।
निरधार अधार दै धार मँझार
दई गहि बाँह न बोरिये जू।
घन आनँद आपने चातक को
गुन बाँधि कै मोह न छोरिये जू।
रस प्याय कै ज्याय बँधाय कै
आस बिसास में क्यों विष घोरिये जू।
उर्दू का एक शेर है, ‘काग़ज़ पै रख दिया है कलेजा निकाल कर’। सच्ची बात यह है कि घन आनन्द जी कागज पर कलेजा निकालकर रख देते हैं। एक नायिका कहती है कि ‘काढ़ि करेजो दिखैबो परो’। मैं सोचता हूँ, यदि उस नायिका के पास घन आनन्द की सी सरस रचना की शक्ति होती तो उसको यह न कहना पड़ता। इनका वाच्यार्थ जितना प्रांजल है, उतनी ही उसमें कसक है। दोनों के समागम से इनकी रचना में मणि-कांचन-योग हो गया है। वियोग-शृंगार की रचना में इन्होंने जो वेदना उत्पन्न की है, ऐसा कौन है कि जिसके हृदय पर वह प्रभाव नहीं डालती। वास्तव में घन आनन्द जी ने इस प्रकार की रचना करने में बड़ी सफलता लाभ की है। इनकी कृति में आन्तरिक पीड़ा प्रवाहित मिलती है, परंतु हृदयों में वह सृजन करती है विचित्रा मधुरता।
नागरीदास जी कृष्णगढ़ के महाराज थे। इनका मुख्य नाम सामंत सिंह था। वीर इतने बडे थे कि बूँदी के हाड़ा राजा को समर में पराजित कर स्वर्ग लोक पहुँचाया। साहसी इतने बड़े कि अपने छिन गये राज्य को भी अपने पौरुष से पुन: प्राप्त कर लिया। किंतु त्याग उनमें बड़ा था और भगवान कृष्णचन्द्र की भक्ति उत्तारोत्तार वृध्दि पा रही थी। इसलिए उन्होंने राज्य को तृण समान त्यागा और वृंदावन धाम में पधार कर भगवल्लीला में तल्लीन हो गये। जब तक जिये, कृष्ण-भक्ति-सुधा पान कर जिये, राज्य भोगों और विभवों की ओर फूटी ऑंख से भी नहीं देखा। राज्य सिंहासन से उनको ब्रज रज प्यारी थी और राजसी ठाटों से भक्तिमयी भावना। उनमें तदीयता इतनी थी कि वे सदा भगवद्भजन में ही मत्ता रहते और संसार के समस्त सुखों की ओर ऑंख उठाकर भी न देखते। राजा-महाराजों में ऐसा सच्चा त्यागी कोई दृष्टिगत नहीं होता। वे गोस्वामी हित हरिवंश वा चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय में थे अतएव उन्हीं के समान उनमें आत्म-विस्मृति भी थी। वे दिन-रात भगवद्गुणगान में रत रहते और हरि-यश वर्णन करके स्वर्गीय आनन्द लाभ करते मिलते। उनकी यह वृत्तिा उनकी समस्त रचनाओं में दृष्टिगत होती है। उन्होंने लगभग सत्तार-बहत्तार ग्रंथों की रचना की है। परन्तु उन सबमें ललित पदों में भगवल्लीला ही वर्णित है। अधिकांश ग्रंथ ऐसे ही हैं कि जिनमें थोड़े से पद्यों में भगवान की किसी लीला का गान है। इन ग्रन्थों की भाषा यद्यपि सरस ब्रजभाषा है फिर भी उसमें कहीं-कहीं राजस्थानी भाषा के शब्द भी मिल जाते हैं। इनके पदों में बहुत अधिक मोहकता एवं मधुरता है। सवैयाओं में भी बड़ा लालित्य है। अन्य रचनाएँ इस कोटि की नहीं हैं। परन्तु प्रेमधारा उनमें भी बहती मिलती है, जिनकी अनेक भावों की तरंगें बड़ी ही मुग्धाकारी हैं। ब्रजभाषा की जितनी विशेषताएँ हैं वे सब उनकी रचनाओं में मिलती हैं और कहीं-कहीं उनमें ऐसी अनूठी उक्तियाँ पाई जाती हैं जो स्वर्णाभरण में मणि सी जटित जान पड़ती हैं। कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-
1. उज्जल पख की रैन चैन उज्जल रस दैनी।
उदित भयो उडुराज अरुन दुति मन हर लैनी।
महाकुपित ह्नै काम ब्रह्म अ ò हिं छोड़यो मनु।
प्राची दिसि ते प्रजुलित आवति अगिनि उठी जनु।
दहन मानपुर भये मिलन को मन हुलसावत।
छावत छपा अमंद चंद ज्यों ज्यों नभ आवत।
जगमगाति बन जोति सोत अमृत धारा से।
नव द्रुम किसलय दलनि चारु चमकति तारा से।
स्वेत रजत की रैन चैन चित मैन उमहनी।
तैसी मंद सुगंधा पवन दिन मनि दुख दहनी।
सिला सिला प्रति चंद चमकि किरननि छवि छाई।
विच विच अंब कदंब झंब झुकि पायँन आई।
ठौर ठौर चहुँ फेर ढेर फूलन के सोहत।
करत सुगंधित पवन सहज मन मोहत जोहत।
ठौर ठौर लखि ठौर रहत मनमथ सो भारी।
बिहरत बिबिधा बिहार तहाँ गिरिवर गिरधारी।
2. भादौं की कारी ऍंधयारी निसा
झुकि बादर मंद फुही बरसावै।
स्यामा जू आपनी ऊँची अटा पै
छकी रसरीति मलारहिं गावै।
ता समै मोहन कौ दृग दूरि ते
आतुर रूप की भीख यों पावै।
पौन मया करि घूँघट टारै
दया कर दामिनि दाप दिखावै।
3. जौ मेरे तन होते दोय।
मैं काहू ते कछु नहिं कहतो
मोते कछु कहतो नहिं कोय।
एक जो तन हरि विमुखन के
सँग रहतो देस बिदेस।
विविधा भाँति के जब दुख सुख
जहँ नहीं भक्ति लवलेस।
एक जो तन सतसंग रंग रँगि
रहतो अति सुखपूर।
जनम सफल करि लेतो ब्रज
बसि जहँ ब्रज जीवन मूर।
द्वै तन बिन द्वै काज न ह्नै हैं
आयु तौ छिन छिन छीजै।
नागरिदास एक तन ते अब
कहौ काह करि लीजै।
आपको परसी भाषा का अच्छा ज्ञान था। इसलिए कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जिनमें परसी शब्दों का प्रयोग अधिकता से है। इन्होंने ‘इश्क चमन’नाम का एक ग्रन्थ भी लिखा था। कुछ उसके पद्य भी देखिए-
1. इश्व चमन महबूब का वहाँ न जावै कोय।
जावै सौ जीवै नहीं जियै सो बौरा होय।
2. ऐ तबीब उठि जाहु घर अबस छुवै का हाथ।
चढ़ी इश्व की कैप यह उतरै सिर के साथ।
3. सब महज़ब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद।
अरे इश्व के असर बिन ये सब ही बरबाद।
4. आया इश्व लपेट में लागी चश्म चपेट।
सोई आया खलक में और भरैं सब पेट।
नागरीदास की सहचरी ‘बनी ठनी’ नाम की एक स्त्री थी। उनके सतसंग से वह भी युगल मूर्ति के प्रेम की प्र्रेमिका थी और उन्हीं के समान सरस रचना करती थी। परंतु उसकी रचना में राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। एक पद्य देखिए-
रतनारी हो थारी आखड़ियाँ
प्रेम छकी रस बस अलसाणी
जाणि कमल की पाँखड़ियाँ।
सुंदर रूप लुभाई गति मति
हो गईं ज्यों मधु माखड़ियाँ।
रसिक बिहारी वारी प्यारी
कौन बसे निसि काँखड़ियाँ।