भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

अब तक जो कुछ लिखा गया, उससे यह बात प्रकट हुई कि किस प्रकार प्राचीन संस्कृत अथवा वैदिक भाषा से प्राकृत भाषाओं की उत्पत्तिा हुई, और फिर कैसे प्राकृत भाषाओं से अपभ्रंश भाषाओं का उद्भव हुआ। यह भी बतलाया जा चुका है, कि अपभ्रंश भाषाओं का परिवर्तित रूप हीर् वत्तामानकालिक बोलचाल की भाषाएँ हैं, जो आजकल भारतवर्ष के अधिाकांश भाग में बोली जाती हैं। हमारी हिन्दी भाषा उन्हीं भाषाओं में से बोलचाल की एक भाषा है। अपना पूर्वरूप बदलकर वहर् वत्तामान रूप में हमारे सामने है। उसका पूर्व रूप क्या था, उसकी कुछ रचनाएँ देखिए-विदग्धा मुखमण्डनकार ने अपभ्रंश भाषा की निम्नलिखित कविता बतलाई है-

रसि अह केण उच्चाडण किज्जइ।

जुयदह माणस केण उविज्जइ।

तिसिय लोउ खणि केण सुहिज्जइ।

एह पहो मह भुवणे विज्जइ।

रसिकों का उच्चाटन किस प्रकार किया जा सकता है, युवतियों का मन किस प्रकार उद्विग्न होता है, तृषितलोक क्षणभर में किस प्रकार सुखी बनाया जा सकता है, हमारा यह प्रश्न भुवन को विदित हो।

रसिअह = रसिकों, केण = क्यों, उच्चाडण = उच्चाटन, किज्जइ = किया जाय, जुयदह = युवति, माणस = मानस,उविज्जइ = ऊबना, तिसिय = तृषित्, लोउ = लोक, खणि = क्षण, सुहिज्जइ = सुखित, एह = यह, पहो = पश्न, मह = मम,भुवणे = भुवने, विज्जइ = विदित।

वैयाकरण हेमचन्द्र ने अपभ्रंश भाषा का यह उदाहरण दिया है-

बाह विछोड़वि जाहि तुइँ हऊँ तेवइँ को दोसु।

हिय पट्टिय जद नीसरहिं जाणउँ मुंज सरोसुड्ड

बिछोड़वि = छुड़ाना, जाहि = जाते हो, तुइँ = तू, हऊँ = हौं = हम, तेवइँ = तिवई = त्रिया, को = कौन, दोसु = दोष,पट्टिय = पट्टी, जद = यदि, नीसरहिं = निकले, जाणउँ = जानूँ, सरोसु = सरोष।

ज्ञात होता है हिन्दी भाषा का निम्नलिखित दोहा, इसी पद्य को आधार मानकर रचा गया है, देखिए दोनों में कितना साम्य है-

बाँह छुड़ाये जात हो निबल जानि कै मोहि।

हियरे सों जब जाहुगे सबल बखानौं तोहि।

दोनों दोहों का भाव लगभग एक है, परन्तु शब्द विन्यास में अन्तर है। पहले दोहे के जितने शब्द हैं, सभी परिचित से ज्ञात होते हैं। उसके अनेक शब्द ऐसे हैं, जो अब तक हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं, विशेष कर ब्रजभाषा की कविता में।

एक पद्य और देखिए-

अग्गिएं उण्हउ होइ जगु वाएं सीअलु तेंव।

जो पुणु अग्गिं सीअला तसु उणहत्ताणु केंव।

जग अग्नि से ऊष्ण और वायु से शीतल होता है। जो अग्नि से शीतल होता है, वह फिर ऊष्ण कैसे होगा।

अग्गिएं = अग्नि से, उण्हउ = ऊष्ण, होइ = होता है, जगु = जगत, वाएँ = वायु, सीअलु = शीतल, तेंव =त्यों, पुणु = पुनि, तसु = सो, केवँ = क्यों, उण्हत्ताणु = ऊष्ण।

अपभ्रंश भाषा की रचनाओं को पढ़कर उसके शब्दों का मैंने जो अर्थ लिख दिया है, उनको देखकर आप लोगों को यह ज्ञात हो जावेगा कि किस प्रकार हिन्दी का विकास अपभ्रंश भाषा से धीरे-धीरे हुआ। इस समय हिन्दी भाषा का रूप बहुत विस्तृत है,उसका प्रचार बिहार से पंजाब तक और हिमालय से मधयप्रदेश तक है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उस पर दूसरी प्राकृतों के अपभ्रंश का कुछ प्रभाव नहीं है, परन्तु यह निश्चित है कि उसकी उत्पत्तिा शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। चिरकाल तक हिन्दी भाषा का परिचय केवल भाषा कहकर ही दिया जाता रहा। हिन्दी भाषा के प्राचीन साहित्य ग्रन्थों में उसका भाषा नाम ही मिलता है, गोस्वामी जी रामायण में लिखते हैं ‘भासाभणित मोर मत थोरी’, अब भी पुराने विचार के लोग और प्राय: संस्कृत के पण्डित उसे भाषा ही कहते हैं। नागरी यद्यपि लिपि है, परन्तु पहले क्या अब भी बहुत से लोग हिन्दी को नागरी कहते हैं, और नागरी शब्द को हिन्दी का पर्यायवाची शब्द मानते हैं। परन्तु हिन्दी-संसार का पठित समाज कम से कम पचास वर्ष से उसको’हिन्दी’ ही कहता है, और साधारणतया हिन्दी-संसार क्या अन्यत्रा भी अब वह इसी नाम से परिचित है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि इस हिन्दी नाम की कल्पना क्या आधुनिक है! वास्तव में यह कल्पना आधुनिक नहीं है, चिरकाल से उसका यही नाम है परन्तु यह सत्य है कि इस नाम के प्रयोग में भ्रान्ति होती आई है और अब भी कभी-कभी वह अपना प्रभाव दिखलाये बिना नहीं रहती। मुसलमान जब भारतवर्ष में आये, और उन्होंने जब दिल्ली एवं आगरे को अपनी राजधानी बनाई तो अनेक कार्य सूत्रा से उनको अपने आसपास की देशी भाषा का नामकरण करना पड़ा। क्योंकि फारसी, अरबी, अथवा संस्कृत तो देशभाषा को कह नहीं सकते थे और वह वास्तव में फारसी, अरबी अथवा संस्कृत थी भी नहीं, इसलिए उन्होंने देशभाषा का नाम ‘हिन्दी’ रखा। यह नाम रखने का हेतु यह भी हुआ कि वे भारतवर्ष को ‘हिन्द’ कहते थे, इसलिए इस देश की भाषा को उन्होंने ‘हिन्दी कहना ही उचित समझा। कुछ लोग कहते हैं कि हिन्दू शब्द ही से हिन्दी शब्द बना, किन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि हिन्दू शब्द भी हिन्द शब्द से ही बना है। यद्यपि कुछ लोग यह बात नहीं मानते, और अन्य प्रकार से हिन्दू शब्द की व्युत्पत्तिा करते हैं परन्तु बहुमान्य सिध्दान्त यही है कि ‘हिन्द’ शब्द से ही हिन्दू शब्द बना है क्यों यह सिध्दान्त बहुमान्य है, इस विषय में अपने एक व्याख्यान का कुछ अंश यहाँ उठाता हूँ-

“हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही, हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस-नस में आनन्द की धारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता है, इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको स्वीकार नहीं करता। हिन्दू शब्द से ही हिन्दी का सम्बन्धा नहीं है-वरन् हिन्द शब्द उसका जनक है-हिन्द शब्द देशपरक है, और भारतवर्ष का पर्यायवाची शब्द है। यदि हिन्दू शब्द से ही उसका सम्बन्धा माना जावे तो भी अप्रियता की कोई बात नहीं। आज दिन हिन्दू शब्द ही इक्कीस करोड़ संख्या का सम्मिलन सूत्रा है, यह नाम ही ब्राह्मण से लेकर अस्पृश्य जाति के पुरुष तक को एक बन्धान में बाँधाता है। आर्य नाम उतना व्यापक नहीं है, जितना हिन्दूनाम, यह कभी विष रहा हो, पर अब अमृत है। वह पुण्य-सलिला-सुरसरी जल-विधाौत, सप्तपुरी-पावन-रजकणपूत और पुनीत वेद मंत्रों द्वारा अभिमंत्रित है, क्या अब भी उसमें अपावनता मौजूद है। इतना निराकरण के लिए कहा गया, इस विषय में मेरा दूसरा सिध्दान्त है। यह सत्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों अथवा पुराणों में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है, यह सत्य है कि मेरुतन्त्रा का “हीनश्च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिय” और शिव रहस्य का “हिन्दू धार्म प्रलोप्तारोभविष्यन्ति कलौयुगे” आधुनिक श्लोक खंड हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि विजेता मुसलमानों ने बलपूर्वक हिन्दुओं से हिन्दू नाम नहीं स्वीकार कराया। यदि बलात् यह नाम स्वीकार कराया गया होता, तो चन्दवरदाई ऐसा स्वधार्माभिमानी अब से सात सौ बरस पहले, अपने निम्नलिखित पद्य में हिन्दुवान, शब्द का प्रयोग न करता। वह लिखता है-

“ हिन्दुवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुँआन अब “

वास्तव बात यह है कि फारस-निवासी चिरकाल से भारत को हिन्द कहते आये हैं अब से लगभग पाँच सहò वर्ष की पुरानी पुस्तक जिन्दावस्ता में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है, उसकी 163वीं आयत यह है-

“ चूं व्यास ‘ हिन्दी , बलख़ आमद ‘

गुस्तास्पजरतुश्तरा बख्वाँद “

यह हिन्द नाम सिन्धाु के सम्बन्धा से पड़ा है, क्योंकि फारसी में हमारा ‘स’ ‘ह’ हो जाता है, जैसे सप्त से हफ्त, असुर से अहुर, सोम से होम बना वैसे ही सिंधा से हिंधा अथवा हिन्द बन गया और इसी हिन्द से ही हिन्दू शब्द की वैसे ही उत्पत्तिा है,जैसे इण्डस से इण्डिया और इण्डियन की। जब मुसलमान जाति विजेता बनकर भारत में आई, तो वह यहाँ के निवासियों को इसी प्राचीन नाम से पुकारती रही, अतएव उसके संसर्ग और प्रभाव से यह शब्द सर्वसाधारण में गृहीत हो गया। इस सीधाी और वास्तविक बात को स्वीकार न करके यह कहना कि हिन्दू माने काफ़िर के हैं, अतएव बलात् यह नाम हिन्दुओं से स्वीकार कराया गया, अनुचित औरअसंगतहै।”

डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-

“यूरोपियन लेखकों ने ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग बड़ी लापरवाही के साथ किया है। यह फारसी शब्द है, और इसका अर्थ है,भारत का अथवा भारत से सम्बन्धा रखने वाला। परन्तु लोग इसका सम्बन्धा हिन्दू शब्द से बतलाते हैं, जो ठीक नहीं। पुराने समय में भी मधयभारत की भाषा, भारत में सबसे महत्तव की होती थी। यह स्थानीय भाषा नहीं है, वरन् एक प्रकार से’हिन्दुस्तानी’ है-जो कि उत्तारी और पश्चिमी भारत के बोल-चाल की भाषा है”1 मुसलमान लोग हमारी देश भाषा को बहुत पहले से हिन्दी कहते आये हैं, इसका प्रमाण खुसरो की रचनाओं में मौजूद है। खुसरो ईस्वी तेरहवें शतक में हुए हैं-उन्होंने हिन्दी भाषा में भी रचना की है। हिन्दुओं को फारसी सिखलाने के लिए उन्होंने खालिकवारी नाम की एक पुस्तक लिखी है, उसमें वेकहतेहैं-

मुश्क काफ़ूरस्त कस्तूरी कपूर।

‘ हिन्दवी , आनन्द शादी औसरूर।

सोजनो रिश्ता व हिंदी सूई ताग। ‘

सका अर्थ हुआ मुश्क को कस्तूरी, काफ़ूर को कपूर, शादी और सरूर को आनन्द, एवं सोजन और रिश्ता को हिन्दी में सूई तागा कहते हैं।

अपनी हिन्दी रचना में एक जगह वे यह कहते हैं-

1. The term “Hindi” is very laxly employed by European writers. It is Persian word, and properly means “of or belonging to India,” as opposed to “Hindu,” a person of the Hindu religion…As also was the case in ancient times the language of this tract (i.e. Madhyadesha) is by for the most important of any of the speeches of India. It is not only a local vernacular, but in one of its forms, “Hindustani,” it is spoken over the whole of the north and west of continental India as a lingua franc…’-Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institute. p.p. 50-5 (§6)

फारसी बोली आईना। तुर्की ढूँढी पाईना।

‘हिन्दी , बोली आरसी आए। खुसरो कहे कोई न बताये। ‘

इसका अर्थ हुआ फारसी में जिसे आईना कहते हैं, हिन्दी में उसको आरसी। मलिक मुहम्मद जायसी भी हिन्दी को हिन्दवी ही कहते हैं-

तुरकी अरबी हिन्दवी भाषा जेती आहि।

जामें मारग प्रेम का सबै सराहै ताहि।


इन पद्यों से यह स्पष्ट हो गया कि अब से छ:-सात सौ बरस पहले से हमारे मधयवर्ती देश की भाषा हिन्दी कहलाती है। परन्तु यह अवश्य है कि हिन्दुओं में यह नाम बहुत पीछे गृहीत हुआ है, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूँ। पहले हिन्दवी अथवा हिन्दुई को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। हिन्दुई शब्द गँवारी बोलचाल अथवा साधारण कोटि की भाषा के लिए प्रयुक्त होता था। इसीलिए उच्च हिन्दी अथवा उसकी साहित्यिक रचनाओं का नाम भाषा था। परन्तु जब यह भाषा बहुत व्यापक हुई,और उसमें अनेक अच्छे-अच्छे ग्रन्थ निर्मित हुए, सुदूर प्रान्तों से सुन्दर-सुन्दर समाचार-पत्रा निकले, तब विचार बदला और उस समय से हिन्दी भाषा कहकर ही उसका परिचय दिया जाने लगा। आज दिन तो हिन्दी अपने नाम के अर्थानुसार वास्तव में हिन्द की भाषा बन रही है।

आर्य्य भाषा परिवार

हिन्दी के विकास के विषय में और बातों के लिखने के पहिले यह आवश्यक जान पड़ता है कि आर्यभाषा परिवार की चर्चा की जावे। क्योंकि इससे हिन्दी सम्बन्धी बहुत-सी बातों पर प्रकाश पड़ने की सम्भावना है। डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने लन्दन के एक बुलेटिन में इस विषय पर एक गवेषणापूर्ण लेख सन् 1918 में लिखा है, उसी के आधार से मैं इस विषय को यहाँ लिखता हूँ, कुछ और ग्रन्थों से भी कहीं-कहीं सहायता ली गई है।

भारत की भाषाओं के तीन विभाग किये जा सकते हैं, वे तीन भाषाएँ ये हैं-

1.आर्य भाषाएँ, 2. द्रविड़ भाषाएँ, 3. और अन्य भाषाएँ। अन्य भाषाओं के अन्तर्गत मुण्डा और तिब्बत वर्मन भाषाएँ हैं,द्रविड़ भाषा मुख्यत: दक्षिण में बोली जाती है। आर्यभाषा उत्तारी मैदानों में फैली हुई है, गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्त में भी उसका प्रचलन है, उसके अन्तर्गत अधिाकांश पहाड़ी भाषाएँ भी हैं। हिन्दूकुश के दक्षिणी पहाड़ी देशों में एक चौथी भाषा भी पाई जाती है, जिसको डार्डिक अथवा वर्तमानकालिक पिशाचभाषा कहते हैं।

1. मधयदेशीय भाषा उत्तारीय भारत के मधय में और उसके चारों ओर फैली हुई है, साधारणतया यह पश्चिमी हिन्दी कहलाती है। बाँगड़ई, ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुन्देलखंडी भाषाएँ इसके अन्तर्गत हैं। बाँगड़ई या हरियानी यमुना के पश्चिम में पूर्व दक्षिणी पंजाब की भाषा है, यह मिश्रित भाषा है, जिसमें हिन्दी, पंजाबी और राजस्थानी सम्मिलित हैं। ब्रजभाषा मथुरा के चारों ओर और गंगा दोआबा के कुछ भागों में बोली जाती है, इसका साहित्य भण्डार बड़ा विस्तृत है। कन्नौज के आसपास और अन्तर्वेद में कन्नौजी भाषा का प्रचलन है, यह भाषा उत्तार में नेपाल की तराई तक फैली हुई है, इसमें और ब्रज भाषा में बहुत थोड़ा अन्तर है। बुन्देलखंड की बोली बुन्देली है, जो दक्षिण में नर्मदा की तराई तक पहुँचती है, यह भाषा भी ब्रजभाषा से बहुत मिलती है।

पश्चिमी हिन्दी का एक रूप वह शुध्द हिन्दी भाषा है, जो मेरठ और दिल्ली के आसपास बोली जाती है, इसको हिन्दुस्तानी भी कहते हैं। गद्य हिन्दी साहित्य और उर्दू रचनाओं का आधार आजकल यही भाषा है, आजकल यह भाषा बहुत उन्नत अवस्था में है, और दिन-दिन इसकी उन्नति हो रही है। इसका पद्यभाग उर्दू सम्बन्धाी तो बहुत बड़ा है, परन्तु हिन्दी में भी आजकल उसका विस्तार बढ़ता जाता है। अधिाकांश हिन्दी भाषा की कविताएँ आजकल इसी भाषा में हो रही हैं, इसको खड़ी बोली कहा जाता है।

बाँगड़ई जिस प्रान्त में बोली जाती है, उस प्रान्त का नाम बाँगड़ा है, इसी सूत्रा से उसका यह नामकरण हुआ है। हरियाना प्रान्त में इसे हरियानी कहते हैं-करनाटक में यह जाटू कही जाती है, क्योंकि जाटों की वह बोलचाल की भाषा है।

कन्नौजी में साहित्य का अभाव है, इसलिए दिन-दिन यह भाषा क्षीण हो रही है, और उसका स्थान दूसरी बोलियाँ ग्रहण कर रही हैं। बुन्देलखंडी भाषा में कुछ साहित्य है, परन्तु ब्रजभाषा का ही उस पर अधिाकार देखा जाता है। साहित्य की दृष्टि से इन सब में ब्रजभाषा का प्राधान्य है, जो कि शौरसेनी की प्रतिनिधिा है।

‘पंजाबी’ हिन्दीभाषा के उत्तार-पश्चिम ओर है, और इसका क्षेत्रा पंजाब है। पूर्वीय पंजाब में हिन्दी है, और पश्चिमी पंजाब में लहँड़ा, जो बहिरंग भाषा है। पंजाबी के वर्ण राजपूताने के महाजनी और काश्मीर के शारदा से मिलते-जुलते हैं इसमें तीन ही स्वर वर्ण हैं। व्यंजन वर्ण भी स्थान-स्थान पर कई ढंग से लिखे जाते हैं। गुरु अंगदजी ने इसका संशोधान ईस्वी सोलहवें शतक में किया, उसी का परिणाम ‘गुरुमुखी’ अक्षर हैं। अमृतसर के चारों ओर उच्च-पंजाबी भाषा बोली जाती है। यद्यपि स्थान-स्थान पर उसका कुछ परिवर्तित रूप मिलता है, पर वास्तव में भाषा में कोई विशेष अन्तर नहीं है। ‘डोगरी’ जम्मूस्टेट और कुछ परिवर्तन के साथ काँगड़ा जिले में बोली जाती है। पंजाबी साहित्य कम है। दोनों ग्रन्थसाहब यद्यपि गुरुमुखी अक्षरों में लिखे हैं,परन्तु उनकी भाषा पश्चिमी हिन्दी है, कोई-कोई रचना ही पंजाबी भाषा में है। पंजाबी भाषा में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य नहीं है,यद्यपि शनै:शनै: उसमें संस्कृत तत्सम का प्रयोग अधिाकता से होने लगा है।

पंजाबियों की यह सम्मति है कि अमृतसर जिले की माझी बोली ही ऐसी है, जिसमें पंजाबी का ठेठ रूप पाया जाता है। मुसलमानों ने गुजरात और गुजरानवाला में बोली जाने वाली पंजाबी के आधार से अपने साहित्य की रचना की है। इनकी भाषा हिन्दू लेखकों की अपेक्षा अधिाक ठेठ है। इनकी भाषा में पश्चिमी हिन्दी का रंग भी पाया जाता है, इस भाषा में अब भी साहित्य की रचना होती है, इस मिश्रित भाषा का पुराना साहित्य भी मिलता है।

मौलवियों और पादरियों ने भी अपने धार्म का प्रचार करने के लिए पंजाबी भाषा में रचना की है, इनमें से अब्दुल्ला आसी का बनाया हुआ ‘अनवाअ वाराँ’ बहुत प्रसिध्द है।

मुसलमानों ने कुछ जंगनामे और यूसुफजुलेखा की कहानी भी पंजाबी भाषा में पद्यबध्द की है। हीर राँझे की प्रसिध्द कथा भी पंजाबी पद्य का सुन्दर ग्रन्थ है, इसकी रचना सय्यद वारिस शाह ने की है, इसकी भाषा ठेठ पंजाबी समझी जाती है।

पंजाबी के दक्षिण में ‘राजस्थानी’ है, राजस्थानी द्वारा हिन्दी दक्षिण पश्चिम में फैली, हिन्दी ‘राजस्थानी’ के क्षेत्रा में पहुँचकर गुजरात के समुद्र तक बढ़ी और वहाँ गुजराती बन गई। इसीलिए राजस्थानी और गुजराती बहुत मिलती हैं। राजस्थानी में कई भाषाएँ अथवा बोलियां हैं, परन्तु उनके चार मुख्य विभाग हैं। उत्तार में ‘मेवाती’ दक्षिण पूर्व में ‘मालवी’ पश्चिम में “मारवाड़ी”और मधयप्रदेश में ‘जयपुरी’ का स्थान है। प्रत्येक की बहुत-सी उपभाषाएँ हैं। ‘दो महत्तवपूर्ण विशेषताओं के कारण ‘मारवाड़ी’और ‘जयपुरी’ में भेद है। ‘जयपुरी’ में सम्बन्धाकारक का चिद्द ‘हो’ और क्रिया का पुराना धातु ‘अछ’ है। परन्तु ‘मारवाड़ी’ में सम्बन्धाकारक का चिद्द ‘रो’ और ‘है’ धातु है। गुजराती में कोई निर्देश योग्य अवान्तर भेद नहीं है, परन्तु उत्तारी गुजराती दक्षिणी गुजराती से मुख्य बातों में भेद रखती है। ‘राजस्थानी’ का स्थान समस्त राजपूताना और उसके आसपास के कुछ विभाग हैं, और गुजराती का स्थान गुजरात और काठियावाड़ हैं, जिनका प्राचीन नाम सौराष्ट्र है।

राजस्थान की बोलियों में ‘मारवाड़ी’ और ‘जयपुरी’ ही ऐसी हैं, जिनमें साहित्य पाया जाता है, ‘मारवाड़ी’ का साहित्य प्राचीन ही नहीं विस्तृत भी है। जिस मारवाड़ी भाषा में कविता लिखी गई है उसे ‘डिंगल’ कहते हैं, इसमें चारणों की ओजस्विनी रचनाएँ हैं। ‘जयपुरी’ में दादूदयाल और उनके शिष्यों की वाणियाँ हैं और इस दृष्टि से उसका साहित्य भी मूल्यवान है। ब्रजभाषा की कविता को पिंगल कहते हैं, उससे भेद करने के लिए ही ‘डिंगल’ नाम की कल्पना हुई है।

गुजराती साहित्य बड़ा विस्तृत है, इसके निर्माण में जैन साधुओं ने भी हाथ बँटाया है, उन्होंने धार्मिक ग्रन्थ ही नहीं लिखे, बड़े-बड़े काव्यों की भी रचना की है, जिन्हें रासो अथवा रास कहते हैं। गुजराती साहित्य में पारसी और मुसलमानों की भी रचनाएँ मिलती हैं, परन्तु उनमें फारसी, अरबी शब्दों का प्रयोग अधिाकतर हुआ है। गुजराती भाषा के प्रतिष्ठित और अधिाक प्रसिध्द कवि नरसिंह मेहता हैं, जो ईस्वी पन्द्रहवें शतक में हुए हैं। ये जाति के नागर ब्राह्मण थे, इनकी रचना भावपूर्ण ही नहीं भक्तिमयी भी है।

मधयप्रदेश के पूर्व में पूर्वी हिन्दी है। पूर्वीय हिन्दी पर मधयप्रदेशीय अथवा पश्चिमी हिन्दी का प्रभाव बराबर पड़ता रहा है। साथ ही बाहरी भाषाओं के संसर्ग से भी वह नहीं बची, इसलिए उस पर दोनों का अधिाकार देखा जाता है। साधारणत: इसकी संज्ञाओं और विशेषणों का रूप पूर्व की बहिरंग भाषाओं से मिलता-जुलता है, और क्रियाओं एवं धातुओं का रूप मधयदेशीय हिन्दी से। पूर्वीय हिन्दी में तीन प्रधान भाषाएँ हैं। ‘अवधाी’, ‘बघेली’ और ‘छत्ताीसगढ़ी’। अवधाी को बैसवाड़ी भी कहते हैं,यह भाषा अवधा के दक्षिण पश्चिम में बोली जाती है। कहा जाता है यह बैसवाड़ी राजपूतों की भाषा है। अवधाी का दूसरा नाम’कोशली’ है। अवधाी और बघेली में बहुत कम अन्तर है। छत्ताीसगढ़ी पहाड़ी भाषा है, और अधिाक स्वतंत्रा है, उस पर कुछ उत्कल भाषा का प्रभाव भी पाया जाता है। यदि पश्चिमी हिन्दी की ब्रजभाषा भगवान् कृष्णचन्द्र की गुण गाथाओं से पूर्ण है, तो पूर्वी हिन्दी की अवधाी भगवान् रामचन्द्र के कीर्तिकलाप से उद्भासित है। यदि पश्चिमी हिन्दी के सर्वमान्य महाकवि प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी हैं, तो पूर्वी हिन्दी के सर्वोच्च महाकवि गोस्वामी तुलसीदास है। यदि उन्होंने प्रेमसिध्दान्त की पराकाष्ठा अपनी रचनाओं में दिखलायी, तो इन्होंने भक्तिरस की वह धारा बहाई जिससे समस्त हिन्दी-संसार आप्लावित है। अवधाी भाषा के मलिक मुहम्मद जायसी भी आदरणीय कवि हैं, उनका ‘पर्िवत’ अवधाी भाषा का बहुमूल्य ग्रन्थ है, उसमें अधिाकतर बोलचाल की भाषा का प्रयोग देखा जाता है, अवधाी भाषा में कुछ और ग्रन्थ भी पाये जाते हैं, परन्तु उनमें कोई विशेषता नहीं है। कबीर साहब को भी अवधाी भाषा का कवि माना जाता है, उन्होंने स्वयं लिखा है, ‘बोली मेरी पुरुब की’ परन्तु उनकी रचनाओं के देखने से यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। उनके पद्यों की विचित्रा भाषा है, उसमें किसी भाषा का वास्तविक रूप नहीं दिखलाई देता। नागरी प्रचारिणी सभा से जो उनकी ग्रन्थावली निकली है, और जो उनके समय में लिखित पुस्तक के आधार से सम्पादित हुई है, उसमें पंजाबी भाषा का ढंग ही अधिाक देखा जाता है। अवधाी भाषा में साहित्य है, परन्तु ब्रजभाषा के समान वह विस्तृत और विशाल नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास को छोड़कर हिन्दी-संसार के जितने कवि और महाकवि हुए हैं, उन सबकी अधिाक रचनाएँ ब्रजभाषा में ही हैं। एक से एक बड़े कवियों का सहारा पाकर पाँच सौ वर्ष में ब्रजभाषा का साहित्य-भण्डार जितना बड़ा और विशाल हो गया है, उतना बड़ा भण्डार किसी दूसरी देशभाषा का नहीं है।

दक्षिण भारत में मराठी ही एक ऐसी भाषा है, जिसको आर्यभाषा परिवार की कह सकते हैं। मराठी को महाराष्ट्री प्राकृत की जेठी बेटी कह सकते हैं। वह दक्षिणी उपत्यका, पश्चिमीघाट और अरब समुद्र के मधय भाग में बोली जाती है। यह बरार और उसके पूर्व के कुछ प्रदेशों की भी भाषा है, इसका प्रचार मधयप्रान्त में भी देखा जाता है, परन्तु वहाँ उसका शुध्द रूप अधिाक सुरक्षित नहीं मिलता। बस्तर राज्य में से होते हुए, यह उड़िया भाषा की कुछ भूमि में भी प्रवेश कर जाती है। इसके दक्षिण में द्राविड़ भाषाएँ हैं, और उत्तार-पश्चिम में राजस्थानी, गुजराती और पूर्वी एवं पश्चिमी हिन्दी है। मराठी अपने पूर्व की छत्ताीसगढ़ी हिन्दी से बहुत कुछ समानता रखती है।

मराठी में तीन प्रधान भाषाएँ अथवा बोलियाँ हैं। पहली देशी मराठी है, जो पूना के चारों ओर शुध्दतापूर्वक बोली जाती है। उत्तारी और मधय कोंकण में यही भाषा अनेक रूपों में दिखलाई देती है, पर सच्ची कोकणी ही दूसरी भाषा है, जो कोंकण के दक्षिण भाग में पाई जाती है, और इन सबों से भिन्नता रखती है। तीसरी बरारी और नागपुरी है जो बरार और मधयप्रान्त के कुछ भाग में प्रचलित है, शुध्द मराठी में और इसमें उच्चारण सम्बन्धाी भिन्नता है। बस्तर में बोली जाने वाली भाषा को’हलाबी’ कहते हैं, इसमें मराठी और द्राविड़ी का मिश्रण देखा जाता है। पहली मराठी ही शिष्टभाषा समझी जाती है, और साहित्य इसी भाषा में है। मराठी साधारणत: नागरी अक्षरों में लिखी जाती है, कोंकणी भाषा के लिखने में कनारी वर्णों से काम लिया जाता है। मराठी का साहित्य-भण्डार बड़ा है, और इसमें मूल्यवान कविता पाई जाती है। एक बात में मराठी कुल आर्य-परिवार की भाषाओं से पृथक् है, वह यह कि मराठी के उच्चारण पर वैदिक काल का प्रभाव देखा जाता है, जब कि अन्य भाषाओं ने अपने उच्चारण को स्वतंत्रा कर लिया है।

मराठी का पुराना रूप ताम्रपत्रों और शिला-लेखों में पाया जाता है, ईस्वी के बारहवें शतक के कुछ ऐसे ताम्रपत्रा और शिलालेख पाये गये हैं। ईस्वी चौदहवें शतक में ज्ञानदेव नामक एक प्रसिध्द महात्मा हो गये हैं, उन्होंने भगवद्गीता पर मराठी में ज्ञानेश्वरी टीका लिखी है। उन्हीं के समय में नामदेवजी भी हुए, जिनकी हिन्दी रचना भी पाई जाती है। मराठी के अभंगों के रचयिताओं में एकनाथ और तुकाराम का नाम अधिाक प्रसिध्द है। स्वामी रामदास का ‘दासबोधा’ भी प्रसिध्द ग्रन्थ है। ईस्वी उन्नीसवें शतक में मोरोपन्त एक बड़े प्रसिध्द कवि हो गये हैं।

पूर्वी हिन्दी के पूर्व में बिहारी भाषा है, आजकल बिहारी भाषा भी हिन्दी ही मानी जाती है। बिहारी कुल बिहार, छोटानागपुर और संयुक्त प्रान्त के कुछ पूर्वी भागों में बोली जाती है अब तक इसमें मागधी प्राकृत की दो विशेषताएँ पाई जाती हैं। ‘स’ का’श’ में बदल जाना और अकारान्त शब्दों का एकारान्त हो जाना। बिहारी की तीन प्रधान भाषाएँ हैं-मैथिली, मगही और भोजपुरी। ईस्वी पन्द्रहवीं शताब्दी से मैथिली में कुछ साहित्य पाया जाता है। ‘मगही’ प्राचीन मागधी प्राकृत की प्रतिनिधिा है,और उसी के अपभ्रंश से वर्तमान रूप में परिणत हुई है। मैथिली और मगही के व्याकरण और शब्दों में बहुत समानता है, पर मगही में साहित्य का अभाव है। भोजपुरी का इन दोनों से अधिाक अन्तर है, यह दोनों से सीधाी है। मगही को तिरहुतिया भी कहते हैं। हार्नल महोदय ने बिहारी को पूर्वी हिन्दी कहा है।

मैथिल कोकिल विद्यापति मैथिली भाषा के बहुत बड़े कवि हुए हैं, इनकी रचनाएँ बड़ी ही मधुर एवं भावमयी हैं। उनकी पदावली बहुत ही सरस है, उसमें श्रीमती राधिाका के मधुर भावों का बड़ा हृदयग्राही चित्राण है। उनकी रचना की जितनी ममता हिन्दी भाषा वालों को है, उतनी ही बँगला भाषियों को। ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग उनकी रचनाओं में बड़ी ही रुचिरता के साथ किया गया है। भोजपुरी में भी साहित्य नहीं मिलता, परन्तु इस भाषा में लिखे गये ग्रामीण गीत प्राय: सुने जाते हैं,जो बड़े ही मनोहर होते हैं। पं. रामनरेश त्रिपाठी ने हाल में जो ग्राम्य गीतों का संग्रह प्रकाशित किया है, उसमें भोजपुरी गीतों का भी पर्याप्त संग्रह हो गया है।

बिहार के दक्षिण पूर्व में बोली जाने वाली भाषा उड़िया कहलाती है। मागधी अपभ्रंश से ही इसकी उत्पत्तिा भी मानी जाती है, जहाँ पर यह मराठी भाषा के समीप पहुँचती है, वहाँ इसमें उसका मिश्रण भी देखा जाता है। बंगाल के समीप पहुँचकर यह बंगाली भाषा से भी प्रभावित है। उड़िया को उत्कली और उड्री भी कहते हैं। इसमें साहित्य भी पाया जाता है, और इस भाषा के भी अच्छे-अच्छे कवि हुए हैं। अधिाकांश रचनाएँ इसकी कृष्णलीलामयी हैं, और उनमें यथेष्ट सरसता है।

यह भाषा उड़ीसा में, बिहार, मद्रास एवं मधयप्रान्त के कुछ भागों में बोली जाती है, महाराज नरसिंह देव द्वितीय के एक शिलालेख में इसके प्राचीन स्वरूप का कुछ पता चलता है, यह शिलालेख विक्रमी चौदहवें शतक का है। इसका आदि कवि उपेन्द्र भज्ज समझा जाता है। कृष्णदास का रसकल्लोल नामक ग्रन्थ भी प्रसिध्द है। इस भाषा का आधुनिक साहित्य भी विशेष उन्नत नहीं है।

बंगाल की भाषा बँगला है। ईस्वी चौदहवें शतक के उपरान्त, इसका साहित्य बढ़ने लगा, और इस समय बहुत ही समुन्नत है। इसकी बोलचाल की भाषा के प्रधान रूप तीन हैं। पूर्वी, पश्चिमीय और उत्तारीय। प्रत्येक में अलग-अलग कई बोलियाँ हैं। हुगली के चारों ओर पश्चिमीय है, और गंगा के उत्तार प्रदेश में उत्तारीय, जो कि उड़िया भाषा से मिलती-जुलती है। ढाका के आसपास पूर्वीय भाषा है, जो स्थान-स्थान पर परस्पर बड़ी भिन्नता रखती है। रंगपुरी भाषा आसाम के पश्चिमी छोर पर है, और उत्तारी बंगाल से लगे हुए हिस्सों में बोली जाती है। चटगाँव के आसपास उच्चारण की विशेषताओं के कारण बिलकुल एक नये ढंग की बोली बन गई है, जो कठिनता से बँगला कही जा सकती है। बँगला में ‘स’ का उच्चारण ‘श’ होता है इस विषय में वह मागधी से मिलती है। प्राचीन बंगाली कविता में मागधी प्राकृत के कर्ता का चिद्द ‘ए’ भी सुरक्षित पाया जाता है। जैसे’इष्टदेव’ और ‘नयनम्’ के स्थान पर नयने आदि। यह चिद्द वर्तमान बँगा गद्य में भी पाया जाता है।

बँगला भाषा इस समय आर्य परिवार की समस्त भाषाओं से उन्नत है। उसका साहित्य भण्डार सर्व विषयों से परिपूर्ण है। प्रत्येक विषय के ग्र्रन्थों की रचना उसमें हुई है, और होती जा रही है। विश्वकवि श्रीयुत रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचनाओं से उसको बहुत बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। जैसे कृतविद्य लेखक इस समय बँगला भाषा में हैं, भारतीय किसी भाषा में नहीं हैं, बँगला के साहित्य में मानिकचन्द के गीत सबसे प्राचीन हैं। चण्डीदास और कृत्तिावास भी बहुत बड़े कवि हो गये हैं। आधुनिक कवि और लेखकों में बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी और माइकल गधुसूदनदत्ता आदि ने भी बड़ी कीर्ति पाई है।

आसाम में बोली जाने वाली भाषा आसामी कहलाती है, यह आर्य-परिवार की एक भाषा है। इस देश में रहने वाली बहुत-सी जातियाँ तिब्बती वर्मन भाषा में बातचीत करती हैं। मगधा की मागधी प्राकृत का पता तीन धाराओं से लगाया जा सकता है। पहली धारा है दक्षिण में बोली जाने वाली उड़िया, दूसरी है दक्षिण और पूर्व की पश्चिमीय और पूर्वीय बँगला, तीसरी उत्तार पूर्व की आसामी। बँगला भाषा ही अधिाक उत्तार पूर्व में पहुँचकर आसामी बन गई है। यद्यपि आसामी तिब्बती वर्मन भाषा के प्रभाव और संसर्ग के कारण और उच्चारण दोनों में बँगला से बहुत भिन्नता रखती है, परन्तु बँगला से परिवर्तित होकर वर्तमान रूप धारण करने के प्रमाण उसमें बहुत अधिाक मौजूद हैं। इसका साहित्य भी उन्नत है, और इसमें बहुत से ऐतिहासिक ग्रन्थ हैं,जिनको आसामी ‘बूरंजी’ कहते हैं। कुछ काल तक पादरियों के चेष्टा से आसामी भाषा अपने मुख्यरूप में बँगला से अधिाक उन्नत हो गई थी, पर अब फिर उसमें संस्कृत शब्दों का अधिाक प्रवेश हो रहा है।

आसाम को ही संस्कृत में कामरूप कहा गया है, बंगाली उसे ‘ओशोम’ कहते हैं, इसी ‘ओशोम’ से पहले ‘ओशोमी’ और बाद को आसामी उसकी भाषा का नाम पड़ा। इसमें दूसरे प्रकार के साहित्य भी हैं। आसामी भाषा का सबसे प्राचीन ग्रन्थ भागवत का अनुवाद है, जो कि ईस्वी चौदहवें शतक में हुआ था। श्री शंकर नामक एक प्रसिध्द विद्वान् ने यह अनुवाद किया था।

कुछ पहाड़ी भाषाएँ भी ऐसी हैं कि जिनका सम्बन्धा आर्य परिवार की भाषा से है। इस प्रकार की भाषाएँ तीन हैं और वे पूर्व में नेपाल से लेकर पश्चिम में पंजाब की पहाड़ियों तक फैली हुई हैं। इनकी संज्ञा है-1. पूर्वीय पहाड़ी 2. मधय पहाड़ी 3.पश्चिमीय पहाड़ी।

योरोपियन लोग नेपाली भाषा को पूर्वीय पहाड़ी भाषा कहते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं। नेपाल की भाषा का नाम ‘नेवारी’ है। पूर्वीय पहाड़ी के और भाषाओं का नाम, पार्वतीय, पहाड़ी भाषा और खसकुरा है। यह ‘खसकुरा’ खसों की भाषा है, और नागरी लिपि में लिखी जाती है।

गढ़वाल और कुमायूँ के ब्रिटिश जिलों की और गढ़वाल रियासत की भाषा मधय पहाड़ी कहलाती है। इसकी दो प्रधान शाखाएँ हैं, कुमाउँनी और गढ़वाली। इन दोनों भाषाओं में साहित्य बहुत कम है, इनी-गिनी पुस्तकें ही इसमें मिलती हैं।

शिमला और उसके आसपास की पहाड़ियों में एक-दूसरे से मिलती-जुलती कई भाषाएँ हैं, जिन्हें पश्चिमी पहाड़ी कहते हैं। इन भाषाओं में कोई साहित्य नहीं है। इनका क्षेत्रा पश्चिमोत्तार प्रदेश में जौंसार और बावर से प्रारंभ होकर पंजाब की रियासतों सिरमौर, मण्डी, चन्दा तथा शिमला पहाड़ी और कुल्लू होते हुए पश्चिम में काश्मीर तक विस्तृत है। इन भाषाओं में जौंसारी,किऊँथली कुल्लुई, चमिआल्ही आदि प्रधान हैं।

ये पहाड़ी भाषाएँ राजस्थानी भाषा से मिलती-जुलती हैं। इनमें गुजराती भाषा का भी पुट है। कारण इसका यह है कि सोलहवें ईस्वी शतक में और उससे कुछ पहले भी विशेषकर मुसलमानों के समय में राजस्थान अथवा गुजरात से कुछ विजयिनी जातियाँ मुख्यत: राजपूत इन प्रदेशों में आये, और वहाँ की मुण्डा तथा तिब्बती वर्मन आदि जातियों को जीतकर वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। उनके प्रभाव से ही जनता में उनका धार्म और भाषा भी फैली। कुछ कालोपरान्त इस प्रदेश में लगभग सभी हिन्दू धार्मावलम्बी हो गये, और सभी की भाषा थोड़े परिवर्तन से राजस्थानी बन गयी। मैं पहले लिख आया हूँ कि गुजराती और राजस्थानी में थोड़ा ही अन्तर है, यही बात यहाँ की भाषा में भी पाई जाती है।

उत्तारी पश्चिमीय समूह की भाषा लहन्दी और सिन्धाी भी आर्य परिवार की है। लहन्दा पश्चिमी पंजाब की भाषा है, उसको पश्चिमीय पंजाबी, जाटकी, उच्ची और हिन्दी की भी कहते हैं। लहन्दा का शब्दार्थ है, सूर्य का डूबना, अथवा एश्चिम। जटकी का अर्थ है जाटों की भाषा। उच्ची का अर्थ है उच्च नगर की भाषा। ‘हिन्दी की, हिन्दुओं की भाषा है, यह पश्चिमी भाग में बोली जाती है, यहाँ पश्तो बोलने वाले मुसलमान रहते हैं।’

लहन्दा की तीन बोलियाँ हैं। दक्षिणीय या मुलतानी, उत्तारीय पूर्वी या पोठवारी, उत्तारीय पश्चिमी या धान्नी! लहन्दा में ग्राम्यगीत के अतिरिक्त और कोई साहित्य नहीं है। ईस्वी सोलहवें शतक की लिखी हुई गुरु नानक देव की एक जन्म साखी (जीवन-चरित्रा) और कुछ साधारण कविताएँ जहाँ-तहाँ मिल जाती हैं। मुसलमानों की कुछ रचनाएँ पोठहारी बोली में पाई जाती हैं। परन्तु उसको लोग पंजाबी भाषा में लिखी गई मानते हैं।

सिन्धाी सिन्धा की भाषा है, दक्षिण में यह समुद्र तक फैली हुई है, उत्तार में आकर यह लहन्दा से मिल जाती है। सिन्धा में प्राचीन काल का ब्राचव् देश था, प्राकृत वैयाकरणों ने यहाँ ब्राचव् अपभ्रंश और ब्राचव् पैशाची का होना स्वीकार किया है। सिन्धाी की पाँच भाषाएँ हैं-बिचोली, सिरादकी, लाड़ी, थरेली और कच्छी। बिचोली भाषा मधय सिन्धा की है, साहित्यिक यही भाषा है, और इसी में साहित्य है। सिरादकी-बिचोली का एक रूप है, वास्तव में उसकी भिन्न सत्ता नहीं है। केवल थोड़ा-बहुत उच्चारण का अन्तर है। सिन्धाी सिरादकी को सबसे शुध्द समझते हैं। लाड़ी लाडू प्रदेश की भाषा है-इसमें भद्दापन है। लाडू का शब्दार्थ है ढालुवाँ। बिचोली और इसमें यह अन्तर है कि इसमें बहुत से प्राचीन रूप पाये जाते हैं, वर्तमान पिशाच भाषा की विशेषताएँ भी इसमें मिलती हैं। थरेली और कच्छी दोनों मिश्रित भाषाएँ हैं। पहली भाषा थारू में बोली जाती है, और यह परिवर्तनशील है, क्योंकि सिंधाी भाषाएँ धीरे-धीरे राजस्थानी मारवाड़ी द्वारा प्रभावित होती जाती हैं। कच्छी कच्छ में बोली जाती है, इसमें सिन्धाी और गुजराती का मिश्रण है। सिन्धाी में साहित्य है, परन्तु थोड़ा। थरेली को ‘बरोची’ और ठाटका भी कहते हैं, थल से थरु शब्द बना है, इस थरु में बोले जाने के कारण ही ‘थरेली’ नाम की रचना हुई है। सिरादकी को कुछ सिन्धाी पृथक् बोली मानते हैं। अब्दुल लतीक नाम का एक प्रसिध्द कवि ईस्वी अठारहवीं सदी में हो गया है। उसने जो ग्र्रन्थ रचा है,उसका नाम ‘शाहजो रिसालो’ है। इसमें सूफी मत के सिध्दान्तों की छोटी-छोटी कथाएँ लिखकर समझाया गया है। सिन्धाी को सिन्धा का हाफिज कहते हैं। इस भाषा में वीररस की कुछ सुन्दर कविताएँ भी मिलती हैं।

पैशाची भाषा के विषय में पहले कुछ चर्चा हो चुकी है। उसके सम्बन्धा की विशेषता यहाँ लिखी जाती है। वर्तमान पिशाच भाषा के बोलने वाले दक्षिण में काबुल नदी के पास और उत्तार पश्चिम हिमालय की नीची श्रेण्0श्निायों में और उत्तार में हिन्दूकुश एवं मुस्तरा श्रेणियों के बीच में रहते हैं। इसके तीन विभाग हैं-काफिर, खोआर और डर्ड। काफिष्र के बोलने वाले काफिष्रिस्तान में रहते हैं, बशराली इनकी प्रसिध्द भाषा है, डेविडसन ने इस पर एक अच्छा व्याकरण लिखा है, कोनो ने इस भाषा का एक कोश भी लिख दिया है। इसके बोलने वाले काफिरिस्तान की वशगल नामक तराई में रहते हैं, इसी से इसका नाम वशगली है। इसके दक्षिण में बाई-काफिर रहते हैं, जिनकी बोली बाईअला है, इसमें और वशगली में बड़ी घनिष्ठता है। ‘वेरों’वशगली के पश्चिम की दुर्गम घाटियों में रहने वाले प्रेशुओं की भाषा है, इसमें और वशगली में बड़ा अन्तर है। वेरों में जैसी कि स्थिति संकेत करती है, अन्य भाषा की अपेक्षा ईरानियन प्रभाव ही अधिाक है-जैसे कि ‘ड’ का ‘ल’ में बदल जाना। परन्तु दूसरी ओर यह उच्चारण में डार्ड भाषा से मिलती है, जो बात और काफिर भाषाओं में नहीं पाई जाती। गबरवटी या गब्रभाषा गबेरों की भाषा है जो कि नसरत की देश की एक जाति है, यह देश बशगल और चित्राल नदियों के संगम पर है। ‘कलाशा’ कलाशा-काफिरों की भाषा है, यह भी इन्हीं दोनों नदियों के दोआबे में बोली जाती है। विडल्फ ने गवरबटी भाषा का शब्दकोष बनाया है,लेटनर का डार्डिस्तान, कलाशा के विषय में बहुत कुछ बतलाता है। ‘पशाई’ पैशाची से निकली है, और लगभन के देहकानों की बोली है। पशाई पर जो कि सबसे दक्षिण की भाषा है, पश्चिमी पंजाब के एण्डोएरियन भाषाओं का प्रभाव है। दूसरी ओर कलाशा लोअर भाषा से प्रभावित है। कुल काफिर भाषाओं पर पास की पश्तो भाषा का बहुत बड़ा असर देखा जाता है।

खोआर ‘खोयाको’ जाति की भाषा है, इसका स्थान वर्तमान पिशाच भाषाओं के काफिर और डार्ड समूह के मधय में है। यह अपर चित्राल और यासीन के एक भाग की भाषा है। इसे चित्राली या चत्रारी भी कहते हैं। लेटनर के ‘डार्डिस्तान’ नामक ग्रन्थ में इसके विषय में बहुत कुछ लिखा हुआ है, इस भाषा पर विडल्फ और ब्रीयेन ने व्याकरण भी बनाया है।

डार्ड भाषा समूह में सबसे प्रधान शिना है। यह शिन जाति की भाषा है। ये लोग काश्मीर के उत्तार के रहने वाले हैं। बिडल्फ की ट्राइव्स आव दि हिन्दूकुश और लेटनर, के ‘डार्डिस्तान’ के देखने से इस बड़ी जाति और इसकी भाषा के विषय का पूरा ज्ञान होता है। मेगस्थनीज ने इनको ‘डरडेई’ कहा है, और महाभारत में इन्हें डारडस लिखा गया है। शिना की बहुत-सी बोलियाँ हैं, उनमें सबसे मुख्य ‘जिलजित’ घाटी की ‘जिलजित’ भाषा है। अस्तोर घाटी में बोली जाने वाली भाषा अस्तोरी कहलाती है। चिलासी, गुरेजी, ट्रास और डाहहनू की दो-दो भाषाएँ हैं, जिनके साथ ‘बालती’ का व्यवहार भी किया जाता है। यूरोपियनों ने ‘डार्ड’ शब्द का प्रयोग हिन्दुकुश के दक्षिण में बोली जाने वाली कुल इण्डोएरियन भाषाओं के लिए किया है। डार्डिक शब्द इसी से निकला है, जो वर्तमान पिशाची भाषा का भी बोधाक है।

काश्मीरी अथवा काशीरु काश्मीर की भाषा है, इसका आधार शिना की तरह की एक भाषा है। काश्मीरी के बहुत से शब्द-जैसे व्यक्तिवाचक, सर्वनाम अथवा घनिष्ठताबोधाक-प्राय: शिना के समान है। बहुत पहले से ही संस्कृत के प्रभाव में रहकर इसने अपने साहित्य का विकास अधिाक किया है, इस कारण इसके शब्द भण्डार पर संस्कृत या उसके अन्य अंगों का बहुत प्रभाव पड़ा है। विशेष करके पश्चिम पंजाब की लहन्दा भाषा का जो कि काश्मीर के दक्षिणी सीमा पर प्रचलित है। ईस्वी चौदहवें शतक से अठारहवें शतक के आरम्भ तक काश्मीर मुसलमानों के अधिाकार में रहा है। इन पाँच सौ वर्षों में बहुत लोग मुसलमान हो गये, और इसी सूत्रा से काश्मीरी भाषा में अनेक अरबी, फारसी के शब्द भी सम्मिलित हो गये। इसका प्रभाव बचे हिन्दुओं की भाषा पर भी पड़ा है। काश्मीरी में आदरणीय साहित्य है। 1875 ई. में ईश्वर कौल ने संस्कृत भाषा के व्याकरण की प्रणाली पर’काश्मीर शब्दामृत’ नामक एक व्याकरण भी बनाया है। इन्होंने इस भाषा की उच्चारण प्रणाली को बहुत सुधारा है, फिर भी वह सर्वथा निर्दोष नहीं हुई है। स्थान-स्थान पर काश्मीरी भाषा में भिन्नता भी है, इसकी सबसे प्रधान भाषा काष्टवारी है। स्थानीय भाषाओं के नाम ‘दोड़ी’ ‘रामबनी’ और ‘पौगुली’ है। काश्मीरी ही एक ऐसी पैशाची भाषा है, कि जिसके लिखने के वर्ण निजके हैं, उसे शारदा कहते हैं। प्राचीन पुस्तकें इसी वर्ण में लिखी हुई हैं।

‘मैया’ एक और भाषा है, जो वास्तव में बिगड़ी हुई शिना है, यही नहीं, कोहिस्तान में शिना के आधार से बनी हुई,बहुत-सी बोलियाँ बोली जाती हैं। परन्तु दक्षिणी भाग में लहन्दा और पश्तो का अधिाक प्रभाव देखा जाता है। ये सब भाषाएँ कोहिस्तानी कहलाती हैं, परन्तु इनमें ‘मैया’ को प्रधानता है। इन भाषाओं का उल्लेख विडल्फ ने अपने ग्रन्थ ‘ट्राइव्स आव दि हिन्दूकुश’ में किया है। इनमें से किसी में न तो साहित्य है, और न लिखने के वर्ण हैं। कोहिस्तान पर बहुत समय तक अफगानों का अधिाकार रहा है, इसीलिए वहाँ अब पश्तो का ही अधिाक प्रचार है, कोहिस्तानी उन मुसलमानों की ही भाषा रह गई है, जिनको अपनी प्राचीन भाषा से प्रेम है।

सिंधा नदी के इस कोहिस्तान के पश्चिम में स्वातनदी का कोहिस्तान है, यहाँ की प्रधान भाषा भी पश्तो ही है, पर यहाँ भी अब तक कुछ ऐसी जातियाँ हैं, जो शिना के आधार पर बनी हुई बोलियाँ बोलती हैं। प्रधान भाषा गरबी और अन्य भाषाएँ तोरवाली या तोरवल्लाव और वाश्कारिक है। विडल्फ ने इन बोलियों का भी वर्णन किया है। मैया और गरबी दोनों मिश्रित भाषाएँ हैं।

अन्त में यह कह देना आवश्यक है कि प्राचीन पैशाची के बहुत से शब्द और रूप वर्तमान पैशाची की विविधा शाखाओं में अब तक थोड़े से परिवर्तन के साथ पाये जाते हैं। जैसे कलाशा में ककबक, बेरों में ककोकु, वशगली में ककक इत्यादि, इस शब्द का अर्थ है चिड़िया। वैदिक संस्कृत में इसको ‘कृकवाकृ’ कहते हैं। खोआर में द्रोखम शब्द मिलता है, जो संस्कृत का द्रम है, जिसका अर्थ है-चाँदी। संस्कृत क्षीर वशगली का शीर है, जिसका अर्थ श्वेत है। संस्कृत का स्वसार खोआर का इस्युसार है,जिसका अर्थ बहिन होता है।

हिन्दूकुश में दो छोटे-छोटे राज्य हैं, हु×जा और नागर। यहाँ के रहने वालों की एक अलग भाषा है, परन्तु यह आर्य-भाषा नहीं है। इसका सम्बन्धा किसी भी भाषा के वंश के साथ अब तक नहीं हुआ है। यह भाषा अपने प्राचीन रूप में, वर्तमान पिशाच भाषा बोले जाने वाले देशों में, और बलतिस्तान के पश्चिम में जहाँ कि अब तिब्बती वर्मन भाषा बोली जाती है, एक समय में बोली जाती थी। ये अनार्य भाषाएँ ‘बुरुशस्की’ ‘विद्दल्प’ की ब्रूरीश्की और लेतनेट की खजुवा हैं। लगभग कुल वर्तमान पिशाच भाषाओं में इसके फुटकल शब्द पाये जाते हैं। जैसे-वर्मी शब्द, चोमार, जिसका अर्थ लोहा है, काश्मीरी के सिवा प्रत्येक वर्तमान पिशाच भाषाओं में बोला जाता है। यह शायद इसी भाषा का प्रभाव है, कि वर्तमान पिशाच भाषा में ‘र’ अक्षर का विचित्रा प्रयोग है। इन सब भाषाओं में वह ‘र’ अक्षर तालव्य होने की ओर झुकाव रखता है। इस झुकाव की उत्पत्तिा वर्तमान पिशाच भाषा से नहीं हुई है। क्योंकि इसका सम्बन्धा केवल इसी भाषा से नहीं है, और न यह किसी एक समूह की सम्बन्धिात भाषाओं की विशेषता है। वरन् यह एक देश की भाषा विशेष की विशेषता है, अर्थात् कुछ वर्तमान पिशाच भाषाओं और निकट के बलतिस्तान भर में इसका प्रचार है। तिब्बती वर्मन भाषा बालती में कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं, जो कि पूर्वी तिब्बती वर्मन भाषाओं में (जैसे पुरिक और लद्दाखी) में नहीं दिखाई देते। तिब्बती वर्मन भाषा बालती और वर्तमान आर्य भाषा पैशाची की अर्थात् दोनों की यह विशेषता एक ही उद्गम से आई है, और इस देश में वही इनका पूर्वज है। खास बुरुस्की में परिवर्तन के इस तरह के उदाहरणों का मिलना असंभव है, क्योंकि उसके आसपास कोई ऐसी भाषा नहीं है, जिससे उसकी तुलना की जा सके। यह अकेली है, और जाने हुए इसके एक भी सम्बन्धाी नहीं है।

कहा जाता है पैशाची भाषा में गुणाढय नामक एक विद्वान् ने ‘बव्कथा’ अर्थात् ‘बृहत्कथा’ नामक एक ग्रन्थ लिखा था, यह ग्रन्थ अब नहीं प्राप्त होता। इसका संस्कृत अनुवाद पाया जाता है, जो काश्मीर के दो विद्वानों का किया हुआ है। इनका नाम क्षेमेन्द्र और सोमदेव था। इस संस्कृत ग्रन्थ का नाम ‘कथासरित्सागर’ है। ‘बव्कथा’ पैशाची भाषा के साहित्य का प्रधान ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त काश्मीरी भाषा में कुछ और ग्रन्थ हैं, परन्तु उनमें कोई विशेष प्रसिध्द नहीं हैं।

काश्मीरी भाषा की प्रथम कवि एक स्त्राी है, जिसका नाम लल्ला अथवा लालदेह था, वह चौदहवीं ईस्वी शताब्दी मेे हुई है। मुसलमान कवियों में महमूद गामी प्रसिध्द है, यह अठारहवें शतक में था, इसने ‘यूसुफजुलेखा’ ‘लैला-मजनू’ और ‘शीरीं-फरहाद’ नाम की पुस्तकें फारसी ग्रन्थों के आधार से लिखी हैं।

हेमचन्द्र ने दो प्रकार की पैशाची का वर्णन अपने प्राकृत व्याकरण में किया है। पहली को केवल पैशाची और दूसरी को चूलिका-पैशाची लिखा है। पैशाची का वर्णन पाद 4 के 303 से 324 तक के सूत्रों में और चूलिका पैशाची का निरूपण 325से 328 तक सूत्रों में किया गया है। रामशर्मा ने अपने प्राकृत कल्पतरु के पैशाची के दो भेद लिखे हैं, 1. शुध्द और 2.संकीर्ण। शुध्द के सात और संकीर्ण के चार उपभेद उन्होंने बतलाये हैं-शुध्द के सात भेद ये हैं-

1. मगधा पैशाचिका, 2. गौड़ पैशाचिका, 3. शौरसेनी पैशाचिका, 4. केकय पैशाचिका, 5. पांचाल पैशाचिका, 6. ब्राचड पैशाचिका, 7. सूक्ष्मभेद पैशाचिका।

संकीर्ण के चार उपभेद ये हैं-

1. भाषाशुध्द, 2. पदशुध्द, 3. अर्ध्दशुध्द, 4. चतुष्पद शुध्द।

आर्य भाषा परिवार में सिंहली और जिप्सी भाषाओं की भी गणना की जातीहै।

अब से ढाई सौ वर्ष पहले विजय कुमार अपने अनुयायियों के साथ सिंहल गया था और वहाँ उसने बुध्द-धार्म के साथ आर्य-भाषा का भी प्रचार किया था, उसी की संतान सिंहली है, जो अब तक वहाँ प्रचलित है। सिंहली का प्राचीन रूप ईस्वी दशवें शतक का है, उसको ‘इलू’ कहते हैं। इस सिंहली का प्रभाव मालद्वीप भाषा पर भी पड़ा है। इस भाषा में थोड़ा-बहुत साहित्य भी है। किन्तु कोई प्रसिध्द ग्रन्थ नहीं है।

पश्चिमी एशिया एवं यूरप के कई भागों में फिरने वाली कुछ जातियाँ ‘जिप्सी’ कहलाती हैं, ये किसी स्थान विशेष में नहीं रहतीं, यत्रा-तत्रा सकुटुम्ब पर्यटन करती रहती हैं। इनकी भाषा का नाम भी जिप्सी है। ईस्वी पाँचवीं शताब्दी में जो प्राकृत रूप आर्यभाषा का था, इनकी भाषा उसी की संतान है। यद्यपि भिन्न-भिन्न स्थानों में भ्रमण करते रहने और अनेक भाषा-भाषियों के संसर्ग से उनकी भाषा में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है। परन्तु उनकी भाषा के शब्द भण्डार पर आर्यभाषा की छाप लगी स्पष्ट दृष्टिगत होती है।

अन्तरंग और बहिरंग भाषा

जिन आर्य परिवार की भाषाओं का वर्णन अभी हुआ, कहा जाता है, उनमें दो विभाग हैं। एक का नाम है अन्तरंग भाषा और दूसरी का बहिरंग। इन भाषाओं की मधय की भाषा को मधयवर्ती भाषा कहते हैं, और वह है अर्धामागधी से प्रसूत वर्तमान काल की पूर्वी हिन्दी।

अन्तरंग भाषा में निम्नलिखित भाषाओं की गणना है। 1. पश्चिमी हिन्दी, 2. पूर्वी पहाड़ी, 3. मधय पहाड़ी, 4. पंजाबी, 5. राजस्थानी, 6. गुजराती और 7. पश्चिमीयपहाड़ी।

निम्नलिखित भाषाएँ बहिरंग कहलाती हैं-

1. मराठी, 2. उड़िया, 3. बिहारी, 4. बंगाली, 5. आसामी, 6. सिंधाी और 7. पश्चिमी पंजाबी।

हौर्नेल का विचार है कि आर्यों के भारत में दो दल आये, एक पहले आया और दूसरा बाद को। जो दल पहले आया,वह मधय देश में आकर वहीं बस गया। इस दल के पश्चात् दूसरा प्रबल दल आया और उसने अपने सजातियों को मधय देश से निकाल बाहर किया। निकाले जाने पर पहले दल वाले मधयदेश के ही चारों ओर अर्थात् उसके पूर्व, पश्चिम उत्तार और दक्षिण ओर फैल गये, और वहीं बस गये। नवागत आर्य मधयदेश में बस जाने के कारण ‘अन्तरंग’ और प्रथमागत आर्य मधय देश के बाहर निवास करने के कारण ‘बहिरंग’ कहलाये। ‘अन्तरंग’ आर्यों में ही वैदिक संस्कृत और ब्राह्मण-कालीन विचारों का विकास हुआ। भारत में दो भिन्न विरोधाी दल आने के सिध्दान्त को डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने भी स्वीकार किया है। वे कहते हैं’बहिरंग’ आर्यों का ‘डार्डिक’ भाषा-भाषियों से घनिष्ठ सम्बन्धा था, और ऐसा ज्ञात होता है कि वे उन्हीं की एक शाखा थे। मधय देश से चले जाने पर बहिरंग आर्य पंजाब, सिंधा, गुजरात, राजपूताना, महाराष्ट्र प्रदेश, पूर्वीय हिन्दी क्षेत्रा, बिहार और उत्तार में हिमालय की तराइयों में बसे। मधय देश के अन्तरंग आर्यों की भाषा का वर्तमान प्रतिनिधिा पश्चिमी हिन्दी है। अन्य प्रचलित आर्य भाषाएँ, ‘बहिरंग’ आर्य भाषा से विकसित हुई हैं। 1

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