भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब पंजाब, गुजरात और राजपूताना बहिरंग आर्यों का ही निवास-स्थान था, तो वहाँ की भाषाएँ अन्तरंग कैसे हो गईं? सिंधा, महाराष्ट्र और बिहार के समान बहिरंग क्यों नहीं हुई? इसका उत्तार यह दिया जाता है कि प्रचारकों और विजेताओं द्वारा मधयदेश की शौरसेनी भाषा का बहुत बड़ा प्रभाव बाद को पंजाब, गुजरात और राजस्थान पर पड़ा,इसलिए इन स्थानों की भाषाएँ काल पाकर अन्तरंग बन गईं। इसी प्रकार राजस्थान और गुजरात के कुछ विजयी आगन्तुकों के प्रभाव से हिमालय की तराइयों की भाषा भी अन्तरंग हो गई। डॉ. जी. ए. ग्रियर्सन लिखते हैं-

“मधय देश निवासी आर्यों के वहाँ से राजपूताना और गुजरात में आ बसने के विषय में बहुत-सी प्रचलित कथाएँ हैं। पहली यह है कि महाभारत के युध्द काल में द्वारिका की नींव गुजरात में पड़ी। जैनों के प्राचीन कथानकों के अनुसार गुजरात का सबसे पहला चालुक्य राजा कन्नौज से आया। कहा जाता है नौवीं ईस्वी शताब्दी के प्रारम्भ काल में पश्चिमीय राजपूताने के भीलमाल अथवा भीनमाल नामक स्थान के एक गुर्जर राजपूत ने भी गुजरात को जीता। मारवाड़ के राठौर कहते हैं कि वे वहाँ पर बारहवीं ईस्वी शताब्दी में कन्नौज से आये। जयपुर के कछवाहे अयोधया से आने का दावा करते हैं। गुजरात और राजपूताने का घनिष्ठ राजनीतिक सम्बन्धा इस ऐतिहासिक घटना से भी प्रकट होता है कि मेवाड़ के गहलोत वहाँ पर सौराष्ट्र से आये।”

“गुर्जरों ने हूण तथा अन्य आक्रमणकारियों के साथ ईस्वी छठी शताब्दी में भारत में प्रवेश किया और वे शीघ्र ही बड़े शक्तिशाली हो गये। भारत के चार प्रदेशों ने इन्हीं के नाम के आधार से अपना नाम ग्रहण् किया है, उनमें से दो हैं गुजरात और गुजरानवाला। ये दोनों पंजाब के जिले हैं, तीसरा है गुजरात प्रान्त। अलबरूनी जो दशवीं ईसवी शताब्दी में यहाँ आया,चौथा नाम बतलाता है, यह वह प्रदेश है जो जयपुर के उत्तार पूर्वीय भाग तथा अलवर राज्य के दक्षिण भाग से मिलकर बना है, डॉक्टर भण्डारकर भी इस कथन की पुष्टि करते हैं। वे यह भी कहते हैं कि पिछले गुर्जर हिमालय के उस भाग से आये जिसे सपादलक्ष कहते हैं। यह प्रदेश आधुनिक कुमायूँ गढ़वाल और उसका पश्चिमी भाग माना जा सकता है। पूर्वीय राजपूताना उस समय इन गुर्जरों से भर गया था। 2

1. The origin and development of the Bengali Language (§29), p.30

2. देखो Bulletin of the School of Oriental Studies London Institute (§13), p.58

इन पंक्तियों के पढ़ने से आशा है यह स्पष्ट हो गया होगा कि किस प्रकार मधय देश के विजयी गुजरात और राजस्थान में पहुँचे और कैसे उनके प्रभाव से प्रभावित होने के कारण इन प्रान्तों में अन्तरंग भाषा का प्रचार हुआ। यहाँ मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि गुर्जर विदेशी भले ही हों, परन्तु वे मधय देश वालों की सभ्यता के ही उपासक और प्रचारक थे, क्योंकि ब्राह्मणों द्वारा दीक्षित होकर उन्होंने वैदिक धार्म में प्रवेश किया था। डॉक्टर ग्रियर्सन लिखते हैं-

“अब इस बात को बहुत से विद्वानों ने स्वीकार किया है, कि कतिपय राजपूतों के दल परदेशी गुर्जरों के वंशज हैं, उनका केन्द्र आबू पहाड़ तथा उसके आसपास का स्थान था। प्रधानत: वे कृषक थे, पर उनके पास भी प्रधान लोग और योध्दा थे। जब यह दल गण्यमान्य हो गया, तो उनको ब्राह्मणों ने क्षत्रिय पदवी दी, और वे राजपुत्रा अथवा राजपूत कहलाने लगे, कुछ उनमें से ब्राह्मण भी बन गये”1-गुर्जरों के ब्राह्मण-क्षत्रिय बनने के सिध्दान्त का आजकल प्रबल खंडन हो रहा है, परन्तु मुझको इस वितण्डावाद में नहीं पड़ना है। मैंने इन पंक्तियों को यहाँ इसलिए उठाया है, कि जिससे इस सिध्दान्त पर प्रकाश पड़ सके कि किस प्रकार गुजरात, राजस्थान और पूर्वीय पंजाब में अन्तरंग भाषा का प्रचार हुआ। अब विचारना यह है कि अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं मेे कौन-सी ऐसी विभिन्नताएँ हैं, जो एक को दूसरी से अलग करती हैं। डॉक्टर चटर्जी कहते हैं-

“डॉक्टर ग्रियर्सन ने जिन कारणों के आधार से अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं को माना है, वे प्रधानत: भाषा सम्बन्धाी हैं। विचार करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि पश्चिमी हिन्दी तथा अन्य आर्य भाषाओं में कुछ विषमताएँ हैं। उन्होंने देखा कि ये विषमताएँ जो कि सब ‘बहिरंग’ भाषाओं में एक ही हैं, प्राचीन आर्यभाषाओं के दोनों विभागों अर्थात् अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं के भेद से ही उत्पन्न हुई हैं। केवल इतना ही नहीं कि बहिरंग भाषाओं की पारस्परिक समानता उन्हीं बातों में है,जिनमें अन्तरंग भाषा से भिन्नता है, वरन् डार्डिक भाषाएँ प्राय: उन्हीं कुल विशेषताओं से भरी हैं, जिनसे कि बहिरंग भाषाएँ परिपूर्ण हैं! इसलिए अन्तरंग से उसकी भिन्नता और स्पष्ट हो जाती है”। 2

कुछ मुख्य-मुख्य भिन्नताएँ लिखी जाती हैं-

“इन दोनों शाखाओं की भाषाओं के उच्चारण में अन्तर है। जिन वर्णों का उच्चारण सिसकार के साथ करना पड़ता है,उनको अन्तरंग भाषा वाले बहुत कड़ी आवाज से बोलते हैं, यहाँ तक कि वह दन्त्य स हो जाता है। परन्तु बहिरंग भाषा वाले ऐसा नहीं करते। इसी से मधयदेश वालों के ‘कोस’ शब्द को सिन्धा वालों ने

1. Bulletin of the School of Oriental Studies, London Institute. (§ 12), p. 57.

2. Dr. S. K. Chatterjee : The origin and devlopment of the Bengali Language (§ 29) p. 31.

‘कोह’ कर दिया। पूर्व की ओर बंगाल में यह ‘स’ ‘श’ हो जाता है। आसाम में गिरते-गिरते ‘स’ की आवाज ‘च’ की-सी हो गई है। काश्मीर में तो उसकी कड़ी आवाज बिलकुल जाती रही है, वहाँ भी अन्तरंग भाषा का ‘स’ बिगड़कर ‘ह’ हो गया है।

संज्ञाओं में भी अन्तर है, अन्तरंग भाषाओं की मूल विभक्तियाँ प्राय: गिर गई हैं, उनका लोप हो गया है और धीरे-धीरे उनकी जगह पर और ही छोटे-छोटे शब्द मूल शब्दों के साथ जुड़ गये हैं, जो विभक्तियों का काम देते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी भाषा की ‘का’ ‘को’ ‘से’ आदि विभक्तियों को देखिए। ये जिस शब्द के अन्त में आती हैं, उस शब्द का उन्हें मूल अंश न समझना चाहिए। ये पृथक् शब्द हैं, और विभक्तिगत अपेक्षित अर्थ देने के लिए जोड़े जाते हैं। इसलिए बहिरंग भाषाओं को व्यवच्छेदक भाषाएँ कहना चाहिए। बहिरंग भाषाएँ जिस समय पुरानी संस्कृत के रूप में थीं, संयोगात्मक थीं। ‘का’ ‘को’ ‘से’आदि से जो अर्थ निकलता है उसके सूचक शब्द उनमें अलग नहीं जोड़े जाते थे। इसके बाद उन्हें व्यवच्छेदक रूप प्राप्त हुआ,सिंधाी और काश्मीरी भाषाएँ अब तक कुछ-कुछ इसी रूप में हैं। कुछ काल बाद फिर ये भाषाएँ संयोगात्मक हो गईं, और व्यवच्छेदक अवस्था में जो विभक्तियाँ अलग हो गई थीं, वे इनके मूलरूप में मिल गईं। बँगला में षष्ठी विभक्ति का चिद्द “एर”इसका अच्छा उदाहरण है।

क्रियाओं में भी भेद हैं, बहिरंग भाषाएँ पुरानी संस्कृत की किसी ऐसी एक या अधिाक भाषाओं से निकली हैं, जिनकी भूतकालिक भाववाच्य क्रियाओं से सर्वनामात्मक कत्तर् के अर्थ का भी बोधा होता था। अर्थात् क्रिया और कत्तर् एक ही में मिले होते थे। यह विशेषता बहिरंग भाषा में भी पाई जाती है। उदाहरण के लिए बँगला भाषा का ‘मारिलाम’ देखिए। इसका अर्थ है मैं ने मारा। परन्तु अन्तरंग भाषाएँ किसी ऐसी एक या अधिाक भाषाओं से निकली हैं, जिनमें इस तरह के क्रियापद नहीं प्रयुक्त होते थे। उदाहरण के लिए हिन्दी का ‘मारा’ लीजिये, इससे यह नहीं ज्ञात होता कि किसने मारा। मैंने मारा, तुमने मारा,उसने मारा, जो चाहिए समझ लीजिए। ‘मारा’ का रूप सब के लिए एक ही होगा। इससे साबित है कि अन्तरंग और बहिरंग भाषाएँ प्राचीन आर्यभाषा की भिन्न-भिन्न शाखाओं से निकली हैं, इनका उत्पत्तिा स्थान एक नहीं है।”1

पहले पृष्ठों में मैंने इस सिध्दान्त को नहीं स्वीकार किया है, कि आर्य जाति बाहर से आई। मैंने प्रमाणों के द्वारा यह सिध्द किया है कि आर्य जाति भारत के पश्चिमोत्तार भाग से ही आकर भारतवर्ष में फैली। यद्यपि इस सिध्दान्त के मानने से भी मधयदेश में आर्यों के इस दल का पहले और दूसरे दल का बाद में आना

1. देखो हिन्दी भाषा की उत्पत्तिा नामक ग्रन्थ का पृष्ठ 14।

स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु इस स्वीकृति की बाधाक वह विचार परम्परा है, जो इस बात को भली-भाँति प्रमाणित कर चुकी है कि पश्चिमागत आर्य-जाति का समूह चिरकाल तक सप्त-सिन्धाु में रहा, और वहीं वैदिक संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ। मेरा विचार है पूर्वागत और नवागत आर्य समूह की कल्पना, और इस सिध्दान्त के आधार पर अन्तरंग और बहिरंग भाषाओं की सृष्टि-युक्ति-संगत नहीं, हर्ष है कि आजकल इस विचार का विरोधा होने लगा है।

कुछ विवेचक भाषा-विभिन्नता सिध्दान्त को साधारण मानते हैं, उनका कथन है कि विभिन्नताएँ वे विशेषताएँ नहीं बन सकतीं, जो किसी एक भाषा को दूसरी भाषा से अलग करती हैं। बहिरंग भाषा की जिन विभिन्नताओं के आधार पर अन्तरंग भाषा को उससे अलग किया जाता है, वे स्वयं उसमें मौजूद हैं। इन लोगों ने जो प्रमाण दिये हैं, उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं। अन्तरंग और बहिरंग भाषा की उपरिलिखित विभिन्नताओं की चर्चा करके “हिन्दी भाषा और साहित्य” नामक ग्रन्थ में यह लिखा गया है-

“इस मत का अब खंडन होने लगा है और दोनों प्रकार की भाषाओं के भेद के जो कारण ऊपर दिखाये गये हैं, वे अयथार्थ सिध्द हैं। जैसे-‘स’ का ‘ह’ हो जाना केवल बहिरंग भाषा का ही लक्षण नहीं है, किन्तु अन्तरंग मानी जाने वाली पश्चिमी हिन्दी में भी ऐसा होता है। इसके तस्य-तस्स-तास-ताह-ता (ताके-ताहि इत्यादि) करिष्यति-करिस्सदि-करिसद-करिहइ-करिहै, एवं केसरी से केहरी आदि बहुत से उदाहरण मिलते हैं। इसी प्रकार बहिरंग मानी जाने वाली भाषाओं में भी ‘स’ का प्रयोग पाया जाता है-जैसे राजस्थानी (जयपुरी) करसी, पश्चिमी पंजाबी ‘करेसी’ इत्यादि। इसी प्रकार संख्या-वाचकों में ‘स’ का ‘ह’ प्राय: सभी मधयकालीन तथा आधुनिक आर्य-भाषाओं में पाया जाता है। जैसे पश्चिमी हिन्दी में ‘ग्यारह’ ‘बारह’ चौहत्तार इत्यादि।”1

अन्तरंग बहिरंग भेद के संयोगावस्था के प्रत्ययों और वियोगावस्था के स्वतन्त्रा शब्दों के भेद की कल्पना भी दुर्लभ है। अन्तरंग मानी गई पश्चिमी हिन्दी तथा अन्य सभी आधुनिक भाषाओं में संयोगावस्थापन्न रूपों का आभास मिलता है। यह दूसरी बात है कि किसी में कोई रूप सुरक्षित है, किसी में कोई। पश्चिमी हिन्दी और अन्य आधुनिक आर्य-भाषाओं की रूपावली में स्पष्टत: हम यही भेद पाते हैं कि उसमें कारक चिद्दों के पूर्व विकारी रूप ही आते हैं। जैसे-‘घोड़े का’ में ‘घोड़े’। यह घोड़े,घोड़हि (घोटस्य अथवा घोटक + तृतीया बहुवचन विभक्ति, ‘हि’-भि:) से निकला है। यह विकारी रूप संयोगावस्थापन्न होकर भी अन्तरंग मानी गई भाषा का है। इसके विपरीत बहिरंग मानी गई बँगला का घोड़ार, और बिहारी का ‘घोराक’ रूप

1. देखो ‘हिन्दी भाषा और साहित्य’ पृ. 32

संयोगावस्थापन्न नहीं किन्तु घोटककर और घोटक + कर-क्क से घिस घिसाकर बना हुआ सम्मिश्रण है। पुनश्च अन्तरंग मानी हुई जिस पश्चिमी हिन्दी में वियोगावस्थापन्न रूप ही मिलने चाहिए, कारकों का बोधा स्वतन्त्रा सहायक शब्दों के द्वारा होना चाहिए, उसी में प्राय: सभी कारकों में ऐसे रूप पाये जाते हैं, जो नितान्त संयोगावस्थापन्न हैं। अतएव वे बिना किसी सहायक शब्द के प्रयुक्त होते हैं।

उदाहरण लीजिए-

कत्तर् एकवचन-घोड़ो (ब्रजभाषा) घोड़ा (खड़ी बोली) घरु (ब्रजभाषा नपुंसकलिंग)।

कत्तर् बहुवचन-घोड़े (-घोड़ेह घोड़हि = तृतीया बहुवचन ‘मैं’ के समान प्रथम में प्रयुज्यमान)।

करण-ऑंखों (=अक्खिहिं, खुसरो वाको ऑंखों दीठा-अमीर खुसरो) कानों (कण्णाहिं)।

करण-(कत्तर्)-मैं (ढोला मइं तुहुँ वारिआ) मैं सुन्यो साहिबिन ऑंषिकीन – पृथ्वी तैं, मैं ने, तैं ने (दुहरी विभक्ति)-

अपादान-एकवचन-भुक्खा (=भूख से-बाँगड़ई) भूखन, भूखों (ब्रज-भाषा, (कनौजी)।

अधिाकरण-एकवचन-घरे-आगे-हिंडोरे (बिहारी लाल) माथे (सूरदास)।

दूसरे बहिरंग मानी गई पश्चिमी पंजाबी में भी पश्चिमी हिन्दी के समान सहायक शब्दों का प्रयोग होता है। घोड़ेदा (घोडे क़ा) घोड़े ने घोड़े नूँ इत्यादि। इससे यह निष्कर्ष निकला कि बँगला आदि में पश्चिमी हिन्दी से बढ़कर कुछ संयोगावस्थापन्न रूपावली नहीं मिलती। अत: उसके कारण दोनों में भेद मानना अयुक्त है।”1

डॉक्टर चटर्जी ने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा है, और अपने सिध्दान्त के प्रतिपादन में बड़ा पाण्डित्य प्रदर्शन किया है। खेद है कि मैं उनके सम्पूर्ण विवेचन को स्थान की संकीर्णता के कारण यहाँ नहीं उठा सकता। परन्तु विवेचना के अन्तिम निर्णय को लिख देना चाहता हूँ, वह यह है और मैं उससे पूर्णतया सहमत हूँ-

“पुरातत्तव और मानव इतिहास के आधार पर ‘बहिरंग’ आर्यों का ‘अंतरंग’ आर्यों के चारों ओर बस जाने की बात को पुष्ट करने की चेष्टा उसी प्रकार अप्रमाणित रह जाती है, जैसे भाषा सम्बन्धाी सिध्दान्त के सहारे से निश्चित की हुई बातें।”2

1. “The attempt to establish on anthropometrical and ethnological grounds a ring of “Outer” Aryandom round an “Inner” core is as unconvincing as that on Inliguistic grounds.”

देखो-‘हिन्दी भाषा और साहित्य’, पृ. 151, 152।

2. देखो, ‘आरेजिन ऐंड डवलेपमेण्ट ऑफ बंगाली लैंग्वेज’, पृ. 33 (§ 31)

हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ सर्वनाम और उसकी क्रियाएँ

हिन्दी विभक्तियों के विषय में कुछ विद्वानों ने ऐसी बातें कही हैं, जिससे यह पाया जाता है, कि वे विदेशीय भाषाओं से अथवा द्राविड़ भाषा से उसमें गृहीत हुई हैं, इसलिए इस सिध्दान्त के विषय में भी कुछ लिखने की आवश्यकता ज्ञात होती है। क्योंकि यदि हिन्दी भाषा वास्तव में शौरसेनी अपभ्रंश से प्रसूत है, तो उसकी विभक्तियों का उद्गम भी उसी को होना चाहिए। अन्यथा उसकी उत्पत्तिा का सर्वमान्य सिध्दान्त संदिग्धा हो जाएगा। किसी भाषा के विशेष अवयव और उसके धातु किसी मुख्य भाषा पर जब तक अवलम्बित न होंगे, उस समय तक उससे उसकी उत्पत्तिा स्वीकृत न होगी। ऐसी अनेक भाषाएँ हैं, जिनमें विदेशी भाषाओं की कुछ क्रियाएँ भी मिल जाती हैं। यदि केवल उनके आधार से हम विचार करने लगेंगे तो उस विदेशी भाषा से ही उनकी उत्पत्तिा माननी पड़ेगी, किन्तु यह बात वास्तविक और युक्ति-संगत न होगी। दूरी बात यह है कि एक ही भाषा में विभिन्न भाषाओं के अनेक व्यावहारिक शब्द मिलते हैं, विशेष करके आदान-प्रदान अथवा खान-पान एवं व्यवहार सम्बन्धाी। यदि ऐसे कुछ शब्दों को ही लेकर कोई यह निर्णय करे कि इस भाषा की उत्पत्तिा उन सभी भाषाओं से है, जिनके शब्द उसमें पाये जाते हैं, तो कितनी भ्रान्तिजनक बात होगी, और इस विचार से तथ्य का अनुसंधान कितना अव्यावहारिक हो जाएगा। इन्हीं सब बातों पर दृष्टि रखकर किसी भाषा का मूल निधर्रण करने के लिए उससे सम्बन्धा रखने वाले मौलिक आधारों की ही मीमांसा आवश्यक होती है। विभक्तियों और प्रत्ययों की गणना भाषा के मौलिक अंगों में ही की जाती है। इसलिए विचारणीय यह है कि हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ कहाँ से आई हैं, और उनका आधार क्या है?

“डॉक्टर ‘के’ कहते हैं कि हिन्दी का ‘को’ (जैसे-हमको) और बँगला का ‘के’ (जैसे राम के) तातार देशीय अन्त्यवर्ण ‘क’ से आगत हुआ है। डॉक्टर ‘काल्डवेल’ अनुमान करते हैं कि द्राविड़ भाषा के ‘कु’ से हिन्दी भाषा का ‘को’ लिया गया है। वे यह भी कहते हैं कि हिन्दी प्रभृति देशी भाषाएँ द्राविड़ भाषा से उत्पन्न हुई हैं। डॉक्टर हार्नली और राजा राजेन्द्र लाल मित्रा ने इन सब मतों का अयुक्त होना सिध्द किया है।” डॉक्टर हार्नली की सम्मति यहाँ उठाई जाती है-

“डॉक्टर ‘काल्डवेड’ का कथन है कि आर्यगण, आर्यावर्त जय करके जितना आगे बढ़ने लगे, उतना ही देश में प्रचलित अनार्य भाषा संस्कृत शब्दों के ऐश्वर्य द्वारा पुष्टि लाभ करने लगी। इसलिए यह भ्रम होता है, कि अनार्य भाषाएँ संस्कृत से उत्पन्न हैं। किन्तु संस्कृत का प्रभाव कितना ही प्रबल क्यों न हो, इन सब भाषाओं का व्याकरण उसके द्वारा परिवर्तित न हो सका। इसके उत्तार में डॉक्टर हार्नली कहते हैं, आर्यगण बहुत समय तक आर्यर्वत्ता में रहकर सहसा अनार्य गणों की भाषा ग्रहण कर लेंगे, यह बात विश्वास योग्य नहीं। उन लोगों ने चिरकाल तक संस्कृत जातीय पाली और प्राकृत भाषा का व्यवहार किया था, यह बात विशेष रूप से प्रमाणित हो गई है। नाटकादिकों के प्राकृत द्वारा यह भी दृष्टिगत होता है कि विजित अनार्यों ने भी अपने प्रभुओं की भाषा को ग्रहण कर लिया था। इतने समय तक हिन्दू लोग अपनी भाषा और व्याकरण को अनार्यगण में प्रचलित रखकर भी अन्त में क्यों अनार्य व्याकरण के शरणागत होंगे, यह विचारणीय है। दूसरी बात यह है कि देशभाषाओं की उत्पत्तिा के समय (आर्यभाषा की दीर्घकाल व्यापी अखंड राजत्व के उपरान्त) विजित अनार्यगण की भाषा देश में प्रचलित थी। इसका भी कोई प्रमाण् नहीं है। इतिहास में अवश्य कभी-कभी यह भी देखा गया है, कि विजेता जातियों ने विजित जातियों का व्याकरण ग्रहण कर लिया है,जैसे नार्मन लोगों ने इंग्लैण्ड में और अरब एवं तुर्की लोगों ने आर्यावर्त में तथा फ्रान्स वालों ने गल में। किन्तु इन सब स्थानों में विजेता लोग विजित लोगों की अपेक्षा अल्प शिक्षित थे। उपनिवेश स्थापन के प्रारम्भ काल से ही भाषा ग्रहण का सूत्रापात उन्होंने कर दिया था। विजयी जाति बहुकाल पर्यन्त अपनी भाषा और स्वातंत्रय गौरव की रक्षा करके अन्त में असभ्य जातियों के निकट उसको विसर्जित कर दे, इतिहास में कहीं यह बात दृष्टिगत नहीं होती।”1

देशीय भाषाओं को समस्त-विभक्तियाँ प्राकृत से ही प्राप्त हुई हैं, इस बात को डॉक्टर राजेन्द्र लाल मित्रा, हार्नली, और अन्य जर्मन पण्डितों ने दिखलाने की चेष्टा की है और विद्वानों ने भी इस सिध्दान्त को पुष्ट किया है। मैं क्रमश: प्रत्येक विभक्तियों के विषय में उन लोगों के विचारों का उल्लेख करता हूँ।


1. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 36

1. कत्तर् कारक में भूतकालिक सकर्मक क्रिया के साथ ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली में ‘ने’ का प्रयोग होता है, किन्तु अवधाी में ऐसा नहीं होता। ब्रज भाषा में भी प्राय: कवियों ने इस प्रयोग का त्याग किया है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अवधाी के समान ब्रजभाषा में ‘ने’ का प्रयोग होता ही नहीं। प्रथमा एकवचन में कहीं-कहीं कत्तर् के साथ ‘ए’ का प्रयोग देखा जाता है। यथा-”शु अणेहु शिक्षाण कम्प के शामीए निध्दण के विशोहेदि मृ. क. 3 अंक” बँगला भाषा में भी पहले इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है-यथा

कदाचित ना दे सिध्दहेनो रूप ठान।

कोन मते विधाता ए करिछे निर्माण। रामेश्वरी महाभारत, पृ. 89

“किन्तु अब बँगला में भी प्रथमा एकवचन में इस ‘ए’ का अभाव है, अब बँगला में प्रथमा का रूप संस्कृत के समान होता है, किन्तु अनुस्वार अथवा विसर्ग वर्ज्जित”। 1 प्रश्न यह है कि प्राकृत भाषा के उक्त ‘ए’ का सम्बन्धा क्या हमारी हिन्दी भाषा के’ने’ सेहै?

‘एक विद्वान की सम्मति है कि यह ‘ने’ वास्तव में करण कारक का चिद्द है, जो हिन्दी में गृहीत कर्मवाच्य रूप के कारण आया है, संस्कृत में करण कारक का ‘इन’ प्राकृत में ‘एण’ हो जाता है, इसी ‘इन’ का वर्ण विपरीत हिन्दी रूप में ‘ने’ है।”2

2. कर्म्म और सम्प्रदान। टम्प का अनुमान है कि बँगला कर्म और सम्प्रदान कारक का ‘के’ संस्कृत के सप्तमी में प्रयुक्त’कृते’ शब्द से आया है। इस ‘कृते’ के निमित्तार्थक प्रयोग का उदाहरण स्थान-स्थान पर मिलता है-यथा।

वालिशो वत कामात्मा राजा दशरथो भृशम्।

प्रस्थापयामास वनं ò ीकृते य: प्रियंसुतम्ड्ड

यह कृते शब्द प्राकृते में ‘किते’ ‘किउ’ एवं ‘को’ इन तीनों रूपों में ही व्यवहृत हुआ है। इसलिए टम्प का यह अनुमान है कि शेषोक्त ‘को’ के साथ हिन्दी के ‘को’ और बँगला के ‘के’ का सम्बन्धा है। 3

‘बंगभाषा और साहित्य’ नामक ग्रन्थ के रचयिता टम्प की सम्मति से सहमत न होकर अपनी सम्मति यों प्रकट करते हैं-

“मैक्समूलर कहते हैं कि संस्कृत के स्वार्थे ‘क’ से बँगला का के (हिन्दी का

1. बंगभाषा और साहित्य, पृष्ठ 38

2. दे. हिन्दी भाषा और साहित्य, पृ. 138।

3. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 39।

को) आया है। पिछले समय में संस्कृत में स्वार्थे ‘क’ का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। मैं मैक्समूलर के मत को ही समीचीन समझता हूँ।

श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं-

“पुरानी संस्कृत का एक शब्द ‘कृते’, है जिसका अर्थ है (लिए) होते-होते इसका रूपान्तर ‘कहुँ’ हुआ, वर्तमान ‘को’ इसी का अपभ्रंश है” हिन्दी-भाषा की उत्पत्तिा, पृ‑70।

एक विद्वान् की सम्मति और सुनिए-

“संस्कृत रूप ‘कृते प्राकृत में किते हो गया, और नियमानुसार त का लोप होने से ‘किये’ हुआ, और फिर वही के में परिणत हो गया। ‘को’ प्रत्यय संस्कृतके कर्म्म-कारक के नपुंसक ‘कृत’ से हुआ। प्राकृत में ‘कृत’ बदलकर ‘कितो’ हुआ, और त के लोप होने से ‘कियो’ बना, और अन्त में उसने ‘क’ का रूप धारण कर लिया।”1

आप लोगों ने सब सम्मतियाँ पढ़ लीं, अधिाकांश सम्मति यही है कि ‘को’ की उत्पत्तिा ‘कृते’ से है। ‘को’ का प्रयोग कर्म-कारक में तो होता ही है, संप्रदान के लिए भी होता है, संप्रदान की एक विभक्ति ‘के लिए’ भी है। ‘कृते’ में यह निमित्तार्थक भाव भी है, जैसा कि ऊपर दिखलाया गया है। इसलिए मैं भी ‘कृते’ से ही ‘को’ की उत्पत्तिा स्वीकार करता हूँ।

3. करण और अपादान कारक की विभक्ति हिन्दी भाषा में ‘से’ है। करण कारक के साथ ‘से’ प्राय: उसी अर्थ का द्योतक है,जिसको संस्कृत का ‘द्वारा’ शब्द प्रकट करता है, इस ‘से’ में एक प्रकार से सहायक होने अथवा सहायक बनने का भाव रहता है। यदि कहा जाये कि ‘बाण से मारा’ तो इसका यही अर्थ होगा कि बाण द्वारा अथवा बाण के सहारे से या बाण की सहायता से मारा। परन्तु अपादान का ‘से’ इस अर्थ में नहीं आता, उसके ‘से’ में अलग करने का भाव है। जब कहा जाता है ‘घर से निकल गया’ तो यही भाव उससे प्रकट होता है कि निकलने वाला घर से अलग हो गया। जब कहते हैं ‘पर्वत से गिरा’ तो भी वाक्य का ‘से’ पर्वत से अलग होने का भाव ही सूचित करता है। ‘से’ एक विभक्ति होने पर भी करण और अपादान कारकों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। ‘बंग-भाषा और साहित्य’ कार लिखते हैं-”प्राकृत में ‘हिंतो’ शब्द पंचमी के बहुवचन में व्यवहृत होता है, इसी ‘हिंतो’ शब्द से बँगला ‘हइते’ की उत्पत्तिा हुई है।” उन्होंने प्रमाण के लिए वररुचि का यह सूत्रा भी लिखा है ‘भावो हिंतो सुंतो’। ब्रजभाषा में ‘से’ का प्रयोग नहीं मिलता उसमें तें का प्रयोग ‘से’ के स्थान पर देखा जाता है। ‘से’ के स्थान पर कबीरदास को ‘सेती’ अथवा ‘सेंती’ और चन्दबरदाई को ‘हुँत’ लिखते पाते हैं। इससे अनुमान होता है कि जैसे बँगला में ‘हिंतो’ से हइते बना, उसी प्रकार हिन्दी में ‘हुँत’ और

1. देखिए, ओरिजिन ऑफ दी हिन्दी लैंग्वेज, पृ. 11।

‘तें’ और ऐसे ही ‘सुंतो’ के आधार से ‘सेंती’ और से। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि संस्कृत के ‘सह’ अथवा सम से ‘से’की उत्पत्तिा हुई है। करण में सहयोग का भाव पाया जाता है, ऐसी अवस्था में उसकी विभक्ति की उत्पत्तिा ‘सह’ होने की कल्पना स्वाभाविक है। इसी प्रकार ‘सम’ से ‘से’ की उत्पत्तिा का विचार इस कारण से हुआ पाया जाता है कि प्राचीन कवियों को सम को’से’ के स्थान पर प्रयोग करते देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

कहि सनकादिक इन्द्र सम।

बलि लागौ जुधा इन्द्र समड्ड

पृथ्वीराज रासो।

अवधाी में, कहीं ब्रजभाषा में भी ‘से’ के स्थान पर ‘सन’ का प्रयोग किया जाता है। इस ‘सन’ के स्थान पर ‘सें’ और सों भी होता है। इसलिए कुछ भाषा-मर्मज्ञों ने यह निश्चित किया है कि ‘सम’ से ‘सन’ हुआ और ‘सन’ से सों और फिर ‘से’ हुआ। ऊपर लिख आया हँ कि प्राकृत में पंचमी बहुवचन में ‘हितो’ होता है। अनुमान किया गया है कि ‘हितो’ से ही पंचमी का ‘तें’बना परन्तु ‘से’ का ग्रहण पंचमी में कैसे हुआ, यह बात अब तक यथार्थ रूप से निर्णीत नहीं हुई।

4. सम्बन्धा कारक की विभक्ति के विषय में अनेक मत देखा जाता है-मि. बप् अनुमान करते हैं कि हिन्दी का ‘का’ और बँगला-भाषा की षष्ठी विभक्ति का चिद्द, संस्कृत षष्ठी बहुवचन के ‘अस्माकम्’ एवं ‘युष्माकम्’ इत्यादि के ‘क’ से गृहीत है। 1किन्तु हार्नली साहब ने बप् के अनुमान के विरुध्द अनेक युक्तियाँ दिखलाई हैं, उनके मत से संस्कृत के ‘कृते’ के प्राकृत रूपान्तर से ही बँगला और हिन्दी के षष्ठी कारक का चिद्द, ‘का’ अथवा विभक्ति ली गई है2 ‘कृते’ से प्राकृत ‘केरक’ उत्पन्न हुआ है। इस ‘केरक’ का अनेक उदाहरण पाया जाता है, जहाँ यह ‘केरक’, शब्द प्रयुक्त हुआ है, वहाँ उसका कोई स्वकीय अर्थ दृष्टिगत नहीं होता, वहाँ वह केवल षष्ठी के चिद्द-स्वरूप ही व्यवहृत हुआ है-यथा

“ तुमम पि अप्पणो केरिकम् जादि मसुमरेसि “

“ कस्स केरकम् एदम् पवँणम् “ मृ-क षष्ठ-अंक

इसी केरक अथवा केरिक से हिन्दी ‘कर’ ‘केर’ और ‘केरी’ की उत्पत्तिा हुईहै। 3

पहले लिखा गया है कि मैक्समूलर की यह सम्मति है कि संस्कृत का स्वार्थे ‘क’ ही बदलकर कर्म्मकारक का ‘को’ हो गया है, ‘बंगभाषा और साहित्य’ के रचयिता

1-2. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 43, 44

3. बंगभाषा और साहित्य पृ. 43, 44

ने इसको स्वीकार भी किया है, मेरा विचार है कि इसी स्वार्थे ‘क’ से षष्ठी विभक्ति के ‘का’ की उत्पत्तिा हुई है। केरक के स्थान में प्राकृत भाषा में केरओ प्रयोग मिलता है, यही केरओ काल पाकर केरो बन गया, कर,केर और केरी भी हुआ परन्तु सम्बन्धा का चिद्द ‘का’ ‘की’ ‘के’ भी यही बन गया, यह कुछ क्लिष्ट कल्पना ज्ञात होती है। जैसे-केरो, केरी, और कर का प्रयोग हिन्दी-साहित्य में मिलता है-यथा

बंदों पदसरोज सब केरे-तुलसी

क्षत्रा जाति कर रोष-तुलसी

हौं पंडितन केर पछलगा-जायसी

उसी प्रकार ‘क’ का प्रयोग भी देखा जाता है-यथा

वनपति उहै जेहि क संसारा-

बनिय d सखरज ठकुर क हीन।

वैद क पूत व्याधा नहिं चीन।

जब सम्बन्धा में d का प्रयोग देखा जाता है, तो यह विचार होता है कि क्या यही स्वार्थे क बदल कर सम्बन्धा की विभक्ति तो नहीं बन गया है? जो कहीं अपने मुख्य रूप में और कहीं ‘का’ ‘के’ ‘की’ बनकर प्रकट होता है! यदि वह कर्म्म का चिद्द मैक्समूलर के कथनानुसार हो सकता है, तो सम्बन्धा का चिद्द क्यों नहीं बन सकता। पहला विचार यदि विवाद-ग्रस्त हो तो हो सकता है, परन्तु यह विचार उतना वादग्रस्त नहीं वरन् अधिाकतर संभव परक है, यदि कहा जावे कि स्वार्थे d का अर्थ वही होता है, जो उस शब्द का होता है, जिसके साथ वह रहता है, उसका अलग अर्थ कुछ नहीं होता, जैसे संस्कृत का वृक्षक,चारुदत्ताक, अथवा पुत्राक आदि, एवं हिन्दी का बहुतक, कबहुँक एवं कछुक आदि। तो जाने दीजिए उसको, निम्नलिखित सिध्दान्त को मानिए-

प्राय: तत्सम्बन्धाी अर्थ में संस्कृत में एक प्रत्यय ‘क’ आता है-

जैसे-मद्रक = मद्र देश का, रोमक = रोम देश का। प्राचीन हिन्दी में का के स्थान में क पाया जाता है, जिससे यह जान पड़ता है कि हिन्दी का ‘का’ संस्कृत के d प्रत्यय से निकला है। 1

जो कुछ अबतक कहा गया उससे इस सिध्दान्त पर उपनीत होना पड़ता है कि प्राकृत भाषा का ‘केरक, केरओ’, आदि से’केरा, केरी, और केरो’, आदि की और सम्बन्धा सूचक संस्कृत के ‘क’ प्रत्यय से “का, के,” की उत्पत्तिा अधिाकतर युक्तिसंगत है।

5. अधिाकरण कारक का चिद्द हिन्दी में ‘मैं’ ‘मांहि’ ‘मांझ’ इत्यादि है। साथ

1. देखो, ‘हिन्दी भाषा और साहित्य’, पृष्ठ 143।

ही “पै, पर” आदि का प्रयोग भी सप्तमी में देखा जाता है जैसे कोठे पर है। केवल “ए का प्रयोग भी संस्कृत के समान ही हिन्दी में भी देखा जाता है-जैसे, आप का कहा सिर माथे, में थे का “ए”। सप्तमी में इस प्रकार का जो क्वचित् प्रयोग खड़ी बोलचाल में देखा जाता है, यह बिलकुल संस्कृत के ‘गहने’ ‘कानने’ आदि सप्तम्यन्त प्रयोग के समान है, ब्रजभाषा और अवधी में इस प्रकार का अधिक प्रयोग मिलता है-जैसे घरे गैलें, आदि। “पर और पै” का प्रयोग संस्कृत के “उपरि” शब्द से हिन्दी में आया है। एक विद्वान् की यह सम्मति है-

“हिन्दी के कुछ रूपों में अधिाकरण कारक के ‘में’ चिद्द के स्थान पर ‘पै’ का प्रयोग होता है, इसकी उत्पत्तिा संस्कृत के उपरि शब्द से हुई है। पहले पहल उपरि का पर हुआ, जैसे मुख पर-बाद को पै बन गया।”1

मैं, माँहि, माँझ इत्यादि की उत्पत्तिा कहा जाता है कि मधय से हुई है। ब्रजभाषा और अवधाी दोनों में माँहि और माँझ का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु खड़ी बोली में केवल ‘में’ का व्यवहार होता है। ब्रजभाषा में ‘में’ के स्थान पर ‘मैं’ ही प्राय: लिखा जाता है। प्राकृत भाषा का यह नियम है कि पद के आदि का ‘धय’ ‘झ’ और अन्त का ‘धय’ ‘ज्झं’ हो जाता है। 2 इस नियम के अनुसार मधय शब्द का अन्त्य ‘धय’ जब ‘ज्झ’ से बदल जाता है, तो मज्झ शब्द बनता है, यथा-बुधयते, बुज्झते,सिधयति-सिज्झति इत्यादि। यही मज्झ शब्द ब्रजभाषा और अवधाी में माँझ, और अधिाक कोमल होकर माँह, माहिं आदि बनता है। इसी माँह, माँहि से मैं और में की उत्पत्तिा भी बतलाई जाती है। प्राकृत की सप्तमी एक वचन में “स्ंमि” का प्रयोग होता है। कुछ लोगों की सम्मति है कि प्राकृत के स्ंमि अथवा म्मि से में अथवा मैं की उत्पत्तिाहै। 3

विभक्तियों के विषय में यद्यपि यह निश्चित है कि वे संस्कृत अथवा प्राकृत से ही हिन्दी अथवा अन्य गौड़ीय4 भाषाओं में आई हैं। परन्तु कभी-कभी विरुध्द बातें भी सुनाई पड़ती हैं, जैसे-यह कि द्राविड़ भाषा के सम्प्रदान कारक के ‘कु’ विभक्ति से हिन्दी भाषा के ‘को’ अथवा बँगला भाषा के ‘के’ की उत्पत्तिा हुई। ऐसी बातों में प्राय: अधिाकांश कल्पना ही होती है। इसलिए,उनमें वास्तवता नहीं होती, विशेष विवेचन होने पर उनका निराकरण हो जाता है। तो भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अब तक निर्विवाद रूप से विभक्तियों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। जितनी बातें ज्ञात हो सकी हैं, उनका ही उल्लेख यहाँ किया जा सका।

1. देखो ‘ओरिजन ऑफ दी हिन्दी लैंग्वेज’, पृ. 12

2. देखो ‘पालिप्रकाश’ मुख्य ग्रन्थ का, पृ. 19

3. देखिए पालि प्रकाश, पृ. 84, हिन्दी भाषा और साहित्य, पृ. 147

4. हार्नली साहब ने निम्नलिखित भाषाओं को गौड़ीय भाषा कहा है। सुविधा के लिए इन भाषाओं को हम भी कभी-कभी इसी नाम से स्मरण करेंगे।

उड़िया, बँगला, हिन्दी, नेपाली, महाराष्ट्री, गुजराती, सिंधाी, पंजाबी और काश्मीरी।

सर्वनाम भी भाषा के प्रधान अंग हैं, और किसी भाषा के वास्तविक स्वरूप ज्ञान के लिए क्रिया सम्बन्धाी प्रयोगों का अवगत होना भी आवश्यक है, इसलिए यहाँ पर कुछ उनकी चर्चा भी की जाती है।

उत्ताम पुरुष एकवचन में ‘मैं’ और बहुवचन में ‘हम’ होता है, संस्कृत के ‘अस्मद्’ शब्द से दोनों की उत्पत्तिा बतलाई जाती है। प्राकृत में तृतीया के एकवचन का रूप ‘मया’ और बहुवचन का रूप ‘अम्हेहि’ और ‘अम्हेभि’ होता है। प्रथमा के बहुवचन का रूप ‘अम्हे’ है1 अपभ्रंश में यह “मया” ‘मइ; महँ हो जाता है। यथा-‘ढोला महँ तुहुँ वारिया’ इसी मइँ से हिन्दी के मैं की और बहुवचन “अम्हेहि” अथवा “अम्हे” से हम की उत्पत्तिा बतलायी जाती है। मृच्छकटिक नाटक में “अस्मद्” का प्राकृत रूपआम्हि भी मिलता है, कहा जाता है, इसी आम्हि से बँगला के आमि की उत्पत्तिा हुई है। 2 बँगला के आमि से हमारे मैं और हम की बहुत कुछ समानता है। आगे चलकर इसी मैं से “मुझे” “मुझको” और “मेरा” आदि और हम से “हमको और हमारा”आदि रूप बनते हैं। एक विद्वान की सम्मति है कि अहम् से ‘हम’ की उत्पत्तिा वैसे ही है, जैसे v के गिर जाने से अहै से हैकी।

मधयम पुरुष का तू, तुम संस्कृत युष्मन् से बनता है। प्राकृत में प्रथमा का एकवचन त्वं और तुवं और बहुवचन ‘तुम्ह’होता है। चतुर्थी और षष्ठी का एकवचन “तुम्हं” बनता है। 3 इन्हीं के आधार से तू और तुम की उत्पत्तिा हुई है। बँगला में तुम को तुमि लिखते हैं, दोनों में बहुत अधिाक समानता है, कहा जाता है इस तुमि की उत्पत्तिा भी ‘तुम्हि’ से ही हुई है4 इसी तुम से “तुझ” और तुम्हारा एवं तेरा आदि रूप आगे चलकर बने। हिन्दी में अब तक “तुम्ह” का प्रयोग भी होता है।

मधयम पुरुष के लिए आप शब्द भी प्रयुक्त होता है, इस शब्द का आधार संस्कृत का ‘आत्मन्’ शब्द है। इसका प्राकृत रूप अप्पा और अप्पि है। 5इसी से आप शब्द निकलता है, बँगला में आपके स्थान पर आपनि और बिहार में आपुन बोला जाता है, जिसमें, आत्मन् की पूरी झलक है।

अन्य पुरुष के शब्द वह और वे संस्कृत के (अदस्) शब्द से बने हैं, यह कुछ लोगों की सम्मति है। प्रथमा एकवचन में इसका प्राकृतरूप असु और बहुवचन में अमू होता है, 6संस्कृत के प्रथमा एकवचन में असौ होता है, प्राकृत में यही असौ, अखु हो जाता है। अपभ्रंश में प्राय: वह के स्थान पर सु प्रथमा एकवचन में आता

1. देखिए, पालिप्रकाश, पृ. 153

2. देखिए ‘बंगभाषा और साहित्य’, पृ. 25

3. देखिए, पालिप्रकाश, पृ. 152

4. देखिए, बंगभाषा और साहित्य, पृ. 26

5. वही, पृ. 24

6. देखिए, पालि प्रकाश,

है-यथा “अन्नु सुघण थण हारु” “सु गुण लायण्ण निधिा” ऐसी अवस्था में कहा जा सकता है कि इसी ‘सु’ से वह की उत्पत्तिा है। परन्तु यहाँ स्वीकार करना पड़ेगा कि अ गिर गया है। यह क्लिष्ट कल्पना है। एक दूसरे विद्वान् भी संस्कृत के असौ से ही वह और वे की उत्पत्तिा मानते हैं। 1 तद् के प्रथमा एकवचन का रूप ‘स’ और बहुवचन का रूप ते होता है पुंल्लिंग में। स्त्राीलिंग में यही सा और ता हो जाता है। तद् के द्वितीया का एकवचन पुंल्लिंग में तं और स्त्राीलिंग में ताम होगा। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों में इनका व्यवहार देखा जाता है।

‘ सा दिसि जोइ म रोइ ‘ ‘ सा मालइ देसन्तरिअ ‘

‘ तंतेवड्डउँ समरभर ‘ ‘ सो च्छेयहु नहिंलाहु ‘

तं तेत्तिाउ जलु सायर हो सो ते बहुवित्थारु

‘ जइ सो वड़दि प्रयावदी ‘ ‘ ते मुग्गडा हराविआ ‘

‘ अन्ने ते दीहर लोअण ‘

इससे पाया जाता है कि स: से ‘सो’ और वह की और ‘ते’ से ‘वे’ की उत्पत्तिा है। ब्रजभाषा और अवधाी दोनों में वह के स्थान पर ‘सो’ का और वे के स्थान पर ते का बहुत अधिाक प्रयोग है। गद्य में अब भी ‘वह’ के स्थान पर ‘सो’ का प्रयोग होते देखा जाता है। यदि ते से वे की उत्पत्तिा मानने में कुछ आपत्तिा हो तो उसको वह का बहुवचन मान सकते हैं।

प्राकृत भाषा का यह सिध्दान्त है कि त वर्ग; ‘ण’ ‘ह’, और ‘र’ के अतिरिक्त जब किसी दूसरे व्यंजन वर्ण के बाद यकार होता है तो प्राय: उसका लोप हो जाता है, और तत् संयुक्तवर्ण के द्वित्व प्राप्त होता है। 2 इस सिध्दान्त के अनुसार कस्य को कस्स और यस्य का जस्स और तस्य का तस्स प्राकृत में होता है, और फिर उनसे क्रमश: किस, कास, कासु जास, जासु और तास, तासु आदि रूप बनते हैं। ऐसे ही संस्कृत क: से प्राकृत को और हिन्दी कौन-संस्कृत य: से प्राकृत में जो बनता है। जो हिन्दी में उसी रूप में गृहीत हो गया है। संस्कृत किम् से हिन्दी का क्या और कोपि से हिन्दी का कोई निकला है। अपभ्रंश में किम् का रूप काँइ और कोपि का रूप कोवि पाया जाता है यथा “अम्हे निन्दहु कोबिजण अम्हे बप्णउ कोबि” “काइँ न दूरे देक्खइ।”

हिन्दी भाषा की अधिाकांश क्रियाएँ संस्कृत से ही निकली हैं। संस्कृत में क्रियाओं के रूप 500 से अधिाक पाये जाते हैं,उन सबके रूप हिन्दी में नहीं मिलते, फिर भी जो क्रियाएँ संस्कृत से हिन्दी में आई हैं, उनकी संख्या कम नहीं है। हिन्दी में कुछ क्रियाएँ, अन्य भाषाओं से भी बना ली गई हैं, परन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी

1. पालिप्रकाश,

2. ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज,

है। उनकी चर्चा आगे के प्रकरण में की जाएगी। संस्कृत क्रियाओं का विकास हिन्दी में किस रूप में हुआ है, और हिन्दी में किस विशेषता से वे ग्रहण की गई हैं, केवल इसी विषय का वर्णन थोड़े में यहाँ करूँगा, प्रत्येक विषयों का दिग्दर्शन मात्रा ही इस ग्रन्थ में हो सकता है, क्योंकि अधिाक विस्तार का स्थान नहीं। विशेष उल्लेख योग्य खड़ी बोली की क्रियाएँ हैं। जिनका मार्ग अपनी पूर्ववर्ती भाषाओं से सर्वथा भिन्नहै।

खड़ी बोल-चाल को हिन्दी में ‘है’ का एकाधिापत्य है ‘था’ का व्यवहार भी उसमें अधिाकता से देखा जाता है। बिना इनके अनेक वाक्य अधाूरे रह जाते हैं और यथार्थ रीति से अपना अर्थ प्रकट नहीं कर पाते। ‘है’ की उत्पत्तिा के विषय में मतभिन्नता है! कोई-कोई इसकी उत्पत्तिा अस् धातु से बतलाते हैं और कोई भू धातु से। ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज के रचयिता यह कहते हैं-

“संस्कृत में भू-भवानि-भव, भोमि के स्थान पर वररुचि ने भू-हो-हुआ आदि रूप दिया है। दो सहò वर्ष से ‘हो’ का प्रयोग होने पर भी ब्रजभाषा के भूतकाल के भू-धातु का रूप भया-भये-भयो आदि का प्रयोग अब तक होता है। ‘हो’ का प्रकृत रूप”होमे” और हिन्दी रूप ‘हूं’ है। 1

इस अवतरण से यह स्पष्ट है कि वररुचि ने भू धातु से ही होना धातु की उत्पत्तिा मानी है, इसी होना का एक रूप ‘है’है। अवधाी में ‘है’ के स्थान पर ‘अहै का प्रयोग भी होता है’ यथा

“ साँची अहै कहनावतिया अरी ऊँची दुकान की फीकी मिठाई “

इसलिए यह विचार अधिाकता से माना जाता है कि अस् से ही है की उत्पत्तिा है। अस् से अहै स् के ह हो जाने के कारण बना, और व्यवहाराधिाक्य से v के गिर जाने के कारण केवल है का प्रयोग होने लगा। दोनों सिध्दान्तों में कौन माननीय है,यह बात निश्चित रीति से नहीं कही जा सकती, दोनों ही पर तर्क-वितर्क चल रहे हैं, समय ही इसकी उचित मीमांसा कर सकेगा। ‘था’ की उत्पत्तिा ‘स्था’ धातु से मानी जाती है, ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज के रचयिता भी इसी सिध्दान्त को मानते हैं। 2

इस है, और था के आधार से बने कुछ हिन्दी क्रियाओं के प्रयोग की विशेषताओं को देखिए। संस्कृत चलति का अपभ्रंश एवं अवधाी में चलइ और ब्रजभाषा में चलय अथवा चलै रूप वर्तमान-काल में होगा।

परन्तु खड़ी बोलचाल की हिन्दी में इसका रूप होगा-चलता है। संस्कृत में

1. देखो, ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज,

2. वही,

प्रत्यय न तो शब्द से पृथक् है, न अवधाी में, ब्रजभाषा में भी नहीं जो कि पश्चिमी हिन्दी ही है। इनके शब्द संयोगात्मक हैं,उनमें है का भाव मौजूद है। परन्तु खड़ी बोली का काम बिना है के नहीं चला, उसमें है लगा, और बिलकुल अलग रह कर। खड़ी बोली की अधिाकांश क्रियाएँ हैं से युक्त हैं। था के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं। खड़ी बोली के प्रत्ययों और विभक्तियों को प्रकृति से मिलाकर लिखने के लिए दस बरस पहले बड़ा आन्दोलन हो चुका है। कुछ लोग इस विचार के अनुकूल थे और कुछ प्रतिकूल। संयोगवादी प्राचीन प्रणाली की दुहाई देते थे, और कहते थे कि वैदिककाल से लेकर आज तक आर्य्यभाषा की जो सर्वसम्मत रीति प्रचलित है, उसका त्याग न होना चाहिए। प्रकृति से प्रत्ययों और विभक्तियों को अलग करने से पहले तो शब्दों का अयथा विस्तार होता है, दूसरे उनके स्वरूप पहचानने और प्रयोग में बाधा उपस्थित होती है। वियोगवादी कहते संयोग जटिलता का कारण है, संयुक्त वर्ण जिसके प्रमाण हैं। इसलिए सरलता जनसाधारण की सुविधा और बोलचाल पर धयान रखकर जो नियम आजकल इस बारे में प्रचलित हैं, उनको चलते रहना चाहिए। जीत वियोग वादियों की ही हुई। अब भी कुछ लोग प्रकृत और प्रत्ययों को मिलाकर लिखते हैं; परन्तु साधारणतया वे अलग ही लिखे जाते हैं! कहा जाता है, हिन्दी भाषा में यह प्रणाली फारसी भाषा से आई है। फारसी में प्राय: इस प्रकार के शब्द अलग लिखे जाते हैं और उर्दू उन्हीं अक्षरों में लिखी जाती है जिन अक्षरों में फारसी। इसलिए जैसे हिन्दी की क्रिया आदि उर्दू में लिखे जाते हैं, वैसे ही हिन्दी में भी लिखे जाने लगे। 1इस कथन में बहुत कुछ सत्यता है, परन्तु मैं इस विवाद में पड़ना नहीं चाहता। मेरा कथन इतना ही है कि विभक्तियाँ अथवा प्रत्यय प्रकृति के साथ मिलाकर लिखे जाएँ या न लिखे जाएँ। परन्तु ये ही हिन्दी भाषा के वे सहारे हैं, जिनके आधार से वह संसार को अपना परिचय दे सकती है। इस प्रकरण में मैंने जिन विभक्तियों, सर्वनामों, प्रत्ययों और क्रियाओं का वर्णन किया है, वे हिन्दी भाषा के शब्दों, वाक्यों और उनके अवयवों के ऐसे चिद्द हैं, जो उसको अन्य भाषाओं से अलग करते हैं, इसलिए उनका निरूपण आवश्यक समझा गया।

1. दे., ओरिजन ऐंड डेवलपमेंट आफष् दि बँगला लैंग्वेज,

हिन्दी भाषा पर अन्य भाषाओं का प्रभाव

हिन्दी भाषा में सबसे अधिाक संस्कृत के शब्द पाये जाते हैं। इस हिन्दी भाषा से मेरा प्रयोजन साहित्यिक हिन्दी भाषा से है। बोलचाल की हिन्दी में भी संस्कृत के शब्द हैं, परन्तु थोड़े, उसमें तद्भव शब्दों की अधिाकता है। हिन्दुओं की बोलचाल में अब भी संस्कृत के शब्दों के प्रयुक्त होने का यह कारण है, कि विवाह यज्ञोपवीत आदि संस्कारों के समय कथावार्ता और धार्म-चर्चाओं में, व्याख्यानों में और उपदेशों में, नाना प्रकार के पर्व और उत्सवों में, उनको पंडितों का साहाय्य ग्रहण करना पड़ता है। पण्डितों का भाषण अधिाकतर संस्कृत शब्दों में होता है, वे लोग समस्त क्रियाओं को संस्कृत पुस्तकों द्वारा कराते हैं। अतएव उनके व्यवहार में भी संस्कृत शब्द आते रहते हैं। सुनते-सुनते अनेक संस्कृत शब्द उनको याद हो जाते हैं, अतएव अवसर पर वे उनका प्रयोग भी करते हैं। जब पुलकित चित्ता से भगवान का स्मरण करने के लिए गोस्वामी तुलसीदास के अथवा कविवर सूरदास के पदों को गाते हैं, अन्य भक्तों के भजनों को सुनते हैं, उस समय भी अनेक संस्कृत शब्द उनकी जिह्ना पर आते रहते हैं, और उनके विषय में उनका ज्ञान बढ़ता रहता है। इसलिए हिन्दुओं की बोलचाल में संस्कृत शब्दों का होना स्वाभाविक है। तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनकी संख्या अधिाक नहीं है। जो संस्कृत के शब्द अपने शुध्द रूप में व्यवहृत होते हैं,उनको तत्सम कहते हैं, यथा हर्ष, शोक, कार्य्य, कर्म्म, व्यवहार, धार्म्म आदि। जो संस्कृत शब्द प्राकृत में होते हुए हिन्दी तक परिवर्तित रूप में पहुँचे हैं, उनको तद्भव कहते हैं। जैसे काम, कान, हाथ इत्यादि। हिन्दी भाषा इन तद्भव शब्दों से ही बनी है। तद्भव शब्द के लिए यह आवश्यक नहीं है, कि जिस रूप में वह प्राकृत में था, उस रूप को बदलकर हिन्दी में आवे, तभी तद्भव कहलावे, यदि उसने अपना संस्कृत रूप बदल दिया है और प्राकृत रूप में ही हिन्दी में आया है तो भी तद्भव कहलावेगा। हस्त को लीजिए, जब तक इस शब्द का व्यवहार शुध्द रूप में होगा, तब तक वह तत्सम है। प्राकृत में हस्त का रूप हत्थ हो जाता है और हत्थ हिन्दी में हाथ हो जाता है। हिन्दी भाषा की रीढ़ ऐसे ही शब्द हैं, यह स्पष्ट तद्भव है। परन्तु यदि हत्थ के रूप में ही हिन्दी में ले लिया जाता तो भी तद्भव ही कहलाता। प्राकृत में लोचन, लोयन बन जाता है और हिन्दी में इसी रूप में गृहीत होता है, थोड़ा भी नहीं बदलता, तो भी तद्भव ही कहलाता है। क्योंकि लोचन से उत्पन्न होने के कारण लोयन में तद्भवता (उत्पन्न होने का भाव) मौजूद है। तत्सम शब्द के आदि और मधय का हलन्त वर्ण प्राय: हिन्दी में सस्वर हो जाता है, प्राकृत और अपभ्रंश में भी इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है, क्योंकि सुखमुखोच्चारण के लिए जनसाधारण प्राय: संयुक्त वर्णों के हलन्त वर्णों को सस्वर कर देता है, संस्कृत में इसको युक्तविकर्ष कहते हैं, ऐसे ही शब्द अर्ध्द तत्सम कहलाते हैं। धारम, करम;किरपा, हिरदय, अगिन, सनेह आदि ऐसे ही शब्द हैं जो धार्म, कर्म, कृपा, हृदय, अग्नि, स्नेह के वे रूप हैं जो जनता के मुखों से निकले हैं। अवधी और ब्रजभाषा में ऐसे शब्दों का अधिाकांश प्रयोग मिलता है। इन भाषा के कवियों ने भी भाषा को कोमल करने के लिए ऐसे कुछ शब्द गढ़े हैं।

परन्तु खड़ीबोली के कवियों का मार्ग बिलकुल उलटा है, वे अर्ध्द तत्सम शब्दों का प्रयोग करते ही नहीं। हिन्दी का गद्य तो उस को पास फटकने नहीं देता। 1. तत्सम, 2. अर्ध्द तत्सम और 3. तद्भव के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में और एक प्रकार के शब्द पाये जाते हैं, इनको 4. देशज कहते हैं। ये देशज वे शब्द हैं जिनके आधार संस्कृत अथवा प्राकृत शब्द नहीं हैं। वे अनाय्र्यों अथवा विजातीय भाषाओं से हिन्दी में आये हैं। जैसे गोड़, टाँग, उर्दू आदि। किसी-किसी की यह सम्मति है कि ऐसे शब्दों के विषय में यह ठीक पता नहीं चलता, कि वे कहाँ से आये, इसलिए वे देशज मान लिये गये। कुछ अनुकरणात्मक शब्द भी हिन्दी में हैं-जैसे खटखटाना, गड़बड़ाना, बड़बड़ाना, फड़फड़ाना, चटपट, खटपट इत्यादि। कहा जाता है ऐसे कुल शब्द देशज हैं, परन्तु अनेक भाषा मर्मज्ञों ने इस प्रकार के बहुत से शब्दों की उत्पत्तिा संस्कृत से ही बतलाई है। सीधा मार्ग देशज शब्दों के निधर्रण का यही ज्ञात होता है कि जो तत्सम, तद्भव, अर्ध्द तत्सम, तत्समाभास अथवा विदेशी शब्द नहीं हैं, उन्हें देशज मान लिया जावे।

हिन्दी भाषा में कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त होते हैं, जो देखने में तत्सम ज्ञात होते हैं, परन्तु वास्तव में वे तत्सम शब्द नहीं होते। जिनको संस्कृत का ज्ञान साधारण होता है, आदि में उनके द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है, जब उनके अनुकरण से दूसरे लोग भी उनका व्यवहार करने लग जाते हैं, तो काल पाकर वे गृहीत हो जाते और भाषा में चल जाते हैं। इस प्रकार के शब्द हैं, हरीतिमा, लालिमा, सत्यानाश, प्रण और मनोकामना आदि। कुछ संस्कृत के विद्वान इस प्रकार के शब्दों का व्यवहार करने के विरोधी हैं, उनके द्वारा अब भी इस प्रणाली का यथा समय विरोधा होता रहता है, परन्तु मेरा विचार है कि ऐसे चल गये और व्यापक बन गये, शब्दों का विरोधा सफलता नहीं लाभ कर सकता। कारण इसका यह है कि समस्त प्राकृतों और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्तिा ही इस प्रकार हुई है। भाषा में जब स्थान मिल गया है, तब इस प्रकार के शब्दों का निकाल बाहर करना साधारण बात नहीं, ऐसी अवस्था में उनको उस भाषा का स्वतंत्र प्रयोग मान लेना ही अधिाक युक्ति-संगत ज्ञात होता है। अनेक व्याकरण रचयिताओं ने इस पथ का अवलम्बन किया है,ऐसे शब्दों को तत्समाभास कह सकतेहैं।

हिन्दी शब्द-भण्डार पर विदेशी भाषाओं के शब्द का भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है। ‘नानक’ शब्द का प्रयोग नामकरण के लिए प्राय: काम में लाया जाता है, नानकचंद, नानक बख्शनाम अब भी रखे जाते हैं परन्तु वास्तव में ‘नानक’ यूनानी शब्द है।’कचहरी’ शब्द घर-घर प्रचलित है, और साहित्यिक भाषा में भी चलता रहता है परन्तु है यह पुर्तगाली भाषा का शब्द। शक और हूणों के शब्द भी प्राकृत और अपभ्रंश से होकर हिन्दी में आये हैं, परन्तु सबसे अधिाक उसमें फारसी, अरबी और अंग्रेजी के शब्द पाये जाते हैं। 900 ईस्वी के लगभग मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्धाु को जीता, भारत के एक बड़े प्रदेश में मुसलमानों की यह पहली विजय थी, उसके बाद 100 वर्ष तक पंजाब में मुसलमानों का राज्य रहा, तदुपरान्त वे धीरे-धीरे भारत भर में फैल गये और लगभग 800 वर्ष तक उनका शासन चलता रहा। विजेता की भाषा का कितना प्रभाव विजित जाति पर पड़ता है, यह अप्रकट नहीं। इस आठ सौ वर्ष के बहुव्यापी समय में उसने कितना अधिाकार भारतीय भाषाओं पर जमाया,इसका प्रमाण वे स्वयं दे रही हैं। हिन्दी भाषा वहाँ की भाषा थी, जहाँ पर मुसलमानों के साम्राज्य का केन्द्र था, और जहाँ उनकी विजय वैजयन्ती उस समय तक उड़ती रही जब तक उनका साम्राज्य धवंस नहीं हुआ। इसीलिए हिन्दी भाषा पर उनकी भाषा का बहुत अधिाक प्रभाव देखा जाता है। अरबी मुसलमानों की धार्मिक भाषा थी। विजयी मुसलमान भारत में अरब से ही नहीं, ईरान और तुर्किस्तान से भी आये। इसलिए हिन्दी भाषा पर अरबी, फारसी और तुर्की तीनों का प्रभाव पड़ा। इन तीनों भाषाओं के शब्द अधिाकता से उसमें पाये जाते हैं। अधिाकता का प्रत्यक्ष प्रमाण उर्दू है, जो कठिनता से हिन्दी कही जा सकती है।

इन भाषाओं के अधिाकतर शब्द संज्ञा रूप में गृहीत हुए हैं। मुसलमानों के साथ बहुत से ऐसे पदार्थ और सामान भारत में आये, जिनका कोई संस्कृत और देशज नाम नहीं था, इसलिए हिन्दी में उनका अरबी, फारसी आदि नाम ही व्यवहार में आया। जैसे साबुन, चिलम, नैचा, हुक्का, रिकाबी, तश्तरी आदि। प्राय: देखा जाता है कि शिक्षित जन ही नहीं, अपठित लोग भी राजकीय भाषा बोलने में अपना गौरव समझते हैं, इस कारण अनेक संस्कृत और हिन्दी शब्दों के स्थान पर भी अरबी, फारसी एवं तुर्की शब्दों का प्रचार हुआ और यह दूसरा हेतु हिन्दी में विदेशी शब्दों के आधिाक्य का हुआ।

आजकल वायु, मसिभाजन, लेखनी आदि के स्थान पर हवा ‘दावात’ और कलम आदि का ही अधिाक प्रयोग देखा जाता है। नीचे लिखे शब्दों जैसे अनेक शब्द ऐसे हैं कि जिनके स्थान पर हम गढ़े शब्दों का ही प्रयोग कर सकते हैं, फिर भी वे इतने सुबोधा न होंगे, इसलिए ऐसे शब्द ही प्राय: मुखों से निकलते, और उनकी व्यापकता हिन्दी में बढ़ाते हैं-

मजदूर, वकील, गुलाब, कोतल, परदा, रसद कारीगर आदि।

इस प्रकार के शब्दों को छोड़कर इन भाषाओं के कुछ संज्ञाओं को लेकर भी उन्हें क्रिया का रूप हिन्दी नियमानुसार दिया गया और आजकल वे क्रियाएँ हिन्दी में निस्संकोच भाव से प्रचलित हैं। शरमाना, फरमाना, कबूलना, बदलना, बख्शना, आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं। शर्म, फरमान, कबूल, बदल, बख्श, आदि संज्ञाओं के अन्त में हिन्दी का धातु चिद्द लगाकर इन्हें क्रिया का रूप दिया गया, और आजकल उनसे सब काल की क्रियाएँ हिन्दी व्याकरण के नियमानुसार बनती रहती हैं। इन भाषाओं के आधार से बहुत से ऐसे शब्द भी बन गये हैं, कि जिनका आधा हिस्सा हिन्दी शब्द है, और दूसरा आधा अरबी-फारसी इत्यादि का कोई शब्द। जैसे पानदान, पीकदान, हाथीवान, समझदार, ठीकेदार आदि। इस प्रकार की कुछ क्रियाएँ भी बना ली गई हैं। जैसे खुश होना, रवाना होना, दिल लगाना, जख़म पहुँचाना, इलाज करना, हवा हो जाना आदि।

मुसलमानों की अदालत और दफ्तरों के काम पहले प्राय: हिन्दी में होते थे, परन्तु अकबर के समय में राजा टोडरमल ने दफ्तर को हिन्दी से फारसी में कर लिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दू फारसी पढ़ने के लिए विवश हुए, और कचहरी एवं दफ्तरों का काम फारसी में होने लगा। इससे भी प्रचुर फारसी अरबी आदि के शब्दों का प्रचार जन-साधारण और हिन्दी में हुआ, और कानून एवं अदालत सम्बन्धाी सैकड़ाे पारिभाषिक शब्द व्यवहार में आने लगे। काजी, नाजिम, कानूनगो,समन, नाबालिग़, बालिग़, दस्तावेज आदि ऐसे ही शब्द हैं।

अरबी, फारसी में कुछ ऐसी धवनियाँ हैं, जो उनकी वर्णमाला में मौजूद हैं, परन्तु हिन्दी वर्णमाला में उनका अभाव है। जब फारसी, अरबी और तुर्की के शब्दों का प्रचार हुआ तो उनके शब्दगत अक्षरों की विशेष धवनियों की ओर भी लोगों की दृष्टि आकर्षित हुई, क्योंकि बिना उन धवनियों की रक्षा किये शब्दों का शुध्दोच्चारण असंभव था। परिणाम यह हुआ कि कुछ विशेष चिद्द के द्वारा इस न्यूनता की पूर्ति की गई। यह विशेष चिद्द वह बिन्दु है जो अरबी के अपेक्षित अक्षरों के नीचे लगाया जाता है। की धवनियों की रक्षा अ, ग़, क़, ख़, ज़, फ़, लिख कर की जाती है। किन्तु कुछ भाषा-मर्मज्ञ इस प्रणाली के प्रतिकूल हैं। उनका यह कथन है कि ग्राहक भाषा सदा ग्राह्य भाषाओं के शब्दों को अपने स्वाभाविक उच्चारणों के अनुकूल बना लेती है। ऐसी अवस्था में हिन्दी वर्णों पर बिन्दु लगाकर अरबी-फारसी के अक्षरों की धवनियों की रक्षा करना युक्तिमूलक नहीं। ऐसा करने से व्यर्थ वर्णमाला के वर्णों का विस्तार होता है। मेरा विचार है कि जब पठित समाज अरबी, फारसी के विशेष अक्षरों का उच्चारण उसी रूप में करता है, जिस रूप में उनका उच्चारण उन भाषाओं में होता है तो इस प्रकार के उच्चारणों की रक्षा के लिए हिन्दी भाषा के अक्षरों में विशेष संकेतों के द्वारा कुछ परिवर्तन करने की जो प्रणाली गृहीत हैं, वह सुरक्षित क्यों न रखी जावे। उर्दू कोर्ट की भाषा है, कचहरी दरबार में उसी का प्रचार है। सरकारी दफ्तरों में उसी से ही काम लिया जाता है। उर्दू की लिपि वही है, जो अरबी, फारसी की है, इसलिए अरबी, फारसी के शब्द उसमें शुध्द रूप में लिखे जाते हैं। शुध्द रूप में लिखे जाने के कारण उनका उच्चारण भी शुध्द रूप में होता है। सरकारी कचहरियों से कुछ न कुछ सम्बन्धा प्रजा मात्रा का होता है। मान की रक्षा कौन नहीं करता। जब लोग देखते हैं कि अरबी, फारसी शब्दों का शुध्द उच्चारण न करने से प्रतिष्ठा में बट्टा लगता है,शिष्ट-प्रणाली में अन्तर पड़ता है, अधिाकारियों की दृष्टि से गिरना पड़ता है, तो उनको विवश होकर अरबी, फारसी शब्दों के उच्चारण के समय उनकी विशेषताओं की रक्षा करनी पड़ती है। पठित समाज अवश्य ऐसा करता है, गँवार और मूर्खों की बात दूसरी है। यदि आवश्यकताएँ अथवा कारण विशेष हमको अरबी और फारसी शब्दों का शुध्दोच्चारण करने के लिए विवश करते हैं और सभा, समाज, पारस्परिक व्यवहार, एवं कुछ अंतर्जातीय लोगों से सम्मिलन के अवसरों पर हमको शुध्द उर्दू बोलने की आवश्यकता होती है, तो उसके फारसी, अरबी के विशेष शब्दों को हिन्दी अक्षरों में शुध्द लिखने की प्रणाली प्रचलित क्यों न रखी जावे। दूसरी बात यह कि पूर्णता लाभ के लिए जैसे भाषा के व्यापक और पूर्ण होने की आवश्यकता है, वैसे ही लिपि को। लिपि की अपूर्णता प्राय: भाषा की पूर्णता की बाधाक होती है। यह ज्ञात है कि उर्दू अरबी लिपि में लिखी जाती है, अरबी लिपि में हिन्दी का ट वर्ण है ही नहीं, उसमें हिन्दी के ख, घ, छ, झ, थ, धा, फ, भ अक्षरों का भी अभाव है। उर्दू वालों ने एक नहीं,अनेक चिद्दों का उद्भावन कर अपने अभावों की पूर्ति की, और इस प्रकार अपनी लिपि को पूर्ण बना लिया है। रोमन अक्षरों को पूर्ण बनाने के लिए आये दिन इस प्रकार की उद्भावनाएँ होती ही रहती हैं। फिर हिन्दी, वह हिन्दी पीछे क्यों रहे, जो सभी लिपियों से शक्तिशालिनी है और जिसमें ही यह गुण है, कि जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है। यदि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करके, कोई लिपि पूर्ण बन सकती है, तो हिन्दी में यह शक्ति सबसे अधिाक है। वह अपूर्ण क्यों रहे, और क्यों यह प्रकट करे कि वह न्यूनताओं से भरी है, और पूर्णता लाभ करने की उसमें शक्ति नहीं।

अरबी फारसी लिपियों में जो ऐसे वर्ण हैं, जिनका उच्चारण हिन्दी वर्णों के समान है, उनके लिखने में कुछ परिवर्तन नहीं होता, वरन् फारसी-अरबी के कई वर्णों के स्थान पर हिन्दी का एक ही वर्ण प्राय: काम देता है। परिवर्तन उसी अवस्था में होता है जब उनमें फारसी-अरबी वर्णों से अधिाकतर उच्चारण की विभिन्नता पाई जाती है। नीचे कुछ इसका वर्णन किया जाता है।

अरबी में कुल 28 अक्षर हैं, इनमें फारसी भाषा के चार विशेष अक्षरों पे, चे, जे, गाफ़ के मिलाने से वे 32 हो जाते हैं। उनको मैं नीचे लिखता हूँ-

इनमें से, से, हे, साद, जाद, तो, जो, अैन और क़ाफ़ अरबी के विशेष अक्षर हैं-फारसी और अरबी के विशेष अक्षरों को,निम्नलिखित शेर में स्पष्ट किया गयाहै-

सावो, हावो, सादो, ज़ादो, तोवो, जोवो, अैन, क़ाफ़। हर्फे ताज़ी फ़ारसीदां, पे, वो, चे, वो, ज़े, वो, गाफ़। इनमें से के स्थान पर हिन्दी में, अ, ब, प, ज, च, द, र, श, क, ग, ल, म, न, व, य, लिखा जाता है। दोनों भाषाओं के उक्त अक्षरों का उच्चारण कुछ भिन्न ज्ञात होता है परन्तु प्रयोग मेे कोई भिन्नता नहीं है, इसलिए फ़ारसी के इन तेरह अक्षरों के स्थान पर हिन्दी अक्षरों का व्यवहार बिना किसी परिवर्तन के होता है। फारसी के शेष अक्षरों में से कुछ अक्षर तो ऐसे हैं जिनमें से दो या तीन अक्षरों के स्थान पर हिन्दी का एक अक्षर काम देता है और कुछ ऐसे हैं जिनके लिए समान उच्चारित अक्षरों के नीचे बिन्दु लगाना पड़ता है, नीचे ऐसे अक्षर लिखे जाते हैं। (1) के स्थान पर क़ ख़ अ ग़ और फ़ लिखा जाता है जैसे का क़ौम का ख़रबूज़ा का अैनक का ग़ायब और का फ़ज़ूल आदि किन्तु के स्थान पर प्राय: अ ही लिखने की प्रणाली है। कारण इसका यह है कि अैन का उच्चारण अधिाकतर पठित समाज भी अ का सा-ही करता है, इसका प्रमाण यह है कि मअलूम के स्थान पर मालूम ही लिखा जाता है को अम नहीं आम ही कहते और लिखते हैं।

2. और दोनों के स्थान पर हिन्दी का ह ही काम देता है जैसे का हाल और हवा का हवा। और का काम हिन्दी का त देता है। और तौर और तीर ही लिखे जाते हैं।

3. और हिन्दी में स बन जाते हैं। जैसे का सूरत का सवाब और का सर इत्यादि।

इन पाँचों अक्षरों का उच्चारण प्राय: ज़ के समान है, इसलिए हिन्दी में इनके स्थान पर ज़ ही लिखा जाता है जैसे का ज़ैल का ज़ोर, का ज़ामिन का ज़ाहिर इत्यादि।

फ़ारसी में एक हे मुख़फ़ी कहा जाता है, के अन्त में जो हे है वही हे मुख़फष्ी है। हिन्दी में यह आ हो जाता है जैसे रोज़ा, कूज़ा, सबज़ा, ज़र्रा आदि। कुछ लोगों ने इस हे के स्थान पर विसर्ग लिखना प्रारम्भ किया था, अब भी कोई-कोई इसी प्रकार से लिखना पसन्द करते हैं जैसे रोज़:, कूज़:, सब्ज़:, ज़र्र: आदि। परन्तु अधिाक सम्मति इसके विरुध्द है, मैं भी प्रथम प्रणाली को ही अधिाकतर युक्ति सम्मत समझता हूँ।

हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप उर्दू है। दिल्ली मुसलमान सम्राटों की राजधानी अन्तिम समय तक थी। दिल्ली के आसपास और उसके समीपवर्ती मेरठ के भागों में जो हिन्दी बोली जाती है, उसी में लश्कर के लोगों की बोलचाल का मिश्रण होने से जिस भाषा की उत्पत्तिा हुई, शाहजहाँ के समय भी उसी का नाम उर्दू पड़ा। कारण इसका यह है कि तुर्की भाषा में लश्कर को उर्दू कहते हैं। किसी भाषा में अन्य भाषा के कुछ शब्द मिल जाएँ तो इससे उस भाषा का कुछ रूप बदल जा सकता है परन्तु वह भाषा अन्य भाषा नहीं बन जाती। उर्दू भाषा की रीढ़ हिन्दी भाषा के सर्वनाम, विभक्तियाँ, प्रत्यय और क्रियाएँ ही हैं, उसकी शब्द-योजना भी अधिाकतर हिन्दी भाषा के समान ही होती है, ऐसी अवस्था में वह अन्य भाषा नहीं कही जा सकती।

मैंने चतुर्दश हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापतित्व-सूत्रा से जो इस बारे में लिखा था, विषय को और स्पष्ट करने के लिए उसे भी यहाँ उध्दाृत करता हूँ।

“यदि अन्य भाषा के शब्द सम्मिलित होने से किसी भाषा का नाम बदल जाता है, तो फ़ारसी, अंग्रेजी आदि बहुत-सी भाषाओं का नाम बदल जाना चाहिए। फ़ारसी में अरबी और तुर्की के इतने अधिाक शब्द मिल गये हैं, कि उतने शब्द आज भी हिन्दी में इन भाषाओं अथवा फ़ारसी के नहीं मिले, फिर क्यों फ़ारसी फ़ारसी कही जाती है और हिन्दी उर्दू कहलाने लगी। फ़ारस के विख्यात महाकवि फ़िरदोसी ने अपने शाहनामा में एक स्थान पर लिखा है, “फ़लक गुफ्त अहसन मलक गुफ्त जेह” अहसन और जेह अरबी शब्द हैं, अतएव उनसे प्रश्न हुआ कि आपने कुल किताब तो ख़ालिस फ़ारसी में लिखी, इस शेर में दो अरबी के शब्द कैसे आ गये? उन्होंने कहा कि “फ़लक व मलक गुफ्त न मन गुफ्त” मतलब यह कि फ़लक और मलक ने कहा मैंने नहीं कहा1! कहाँ यह भाव और कहाँ यह कि एक तिहाई से अधिाक अरबी शब्द फ़ारसी में दाख़िल हो गये, तो भी फ़ारसी का नाम फ़ारसी ही रहा। उर्दू भाषा की प्रकृति आज भी हिन्दी है, व्याकरण उसका आज भी हिन्दी प्रणाली में ढला हुआ है, उसमें जो फारसी मुहावरे दाख़िल हुए हैं, वे सब हिन्दी रंग में रँगे हैं। फ़ारसी के अनेक शब्द हिन्दी के रूप में आकर उर्दू की क्रिया बन गये हैं। एक वचन बहुधा हिन्दी रूप में बहुवचन होते हैं, फिर उर्दू हिन्दी क्यों नहीं है? यदि कहा जावे फ़ारसी, अरबी,और संस्कृत शब्दाे के न्यूनाधिाक्य से ही उर्दू हिन्दी का भेद स्थापित होता है, तो यह भी नहीं स्वीकार किया जा सकता,क्योंकि अनेक उर्दू शायरों का बिलकुल हिन्दी से लबरेज शेर उर्दू माना जाता है और अनेक हिन्दी कवियों का फारसी और अरबी से लबालब भरा पद्य हिन्दी कहा जाता है-कुछ प्रमाण लीजिए-

1. मुसलमानों का धार्मिक विश्वास है कि फ़लक (आकाश) और मलक (देवता) की भाषा अरबी है।

तुम मेरे पास होते हो गोया।

जब कोई दूसरा नहीं होताड्ड

( मोमिन)

लोग घबरा के यह कहते हैं कि मर जाएँगे।

मर के गर चैन न पाया तो किधार जाएँगेड्ड

( ज़ौक)

लटों में कभी दिल को लटका दिया।

कभी साथ बालों के झटका दियाड्ड

( मीरहसन)

हिन्दी-भरी कविता आपने उर्दू की देख ली। अब अरबी फ़ारसी भरी हिन्दी की कविता देखिए-

जेहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक।

तेहि मग फिरत सनेहिया किये गरेबां चाक।

– रसनिधिा।

यों तिय गोल कपोल पर परी छूट लट साफ़।

खुशनवीस मुंशी मदन लिख्यो कांच पर क़ाफ़।

– शृंगार सरोज्

मैं यहाँ कुछ अंग्रेज और भारतीय विद्वानों की सम्मति उठाना चाहता हूँ-आप लोग देखें, वे क्या कहते हैं-

‘उर्दू का व्याकरण ठीक हिन्दी के व्याकरण से मिलता है’ उर्दू हिन्दी से भिन्न नहीं है। 1

डॉक्टर राजेन्द्र लाल मित्रा

“उर्दू के बड़े प्रसिध्द कवि वली और सौदा की भाषा तथा हिन्दी के अति प्रसिध्द कवि तुलसीदास और बिहारी लाल की भाषा में कुछ अन्तर नहीं है, दोनों ही आर्य्य-भाषा हैं। इसलिए हिन्दी उर्दू को अलग मानना बड़ी भारी भूल है।”2

मि. बीम्स

1. The Grammar of Urdu is unmistakably the same as that of Hindi, and it must follow therefore that the Urduis, a Hindi and an Aryan dialect. -Dr. R. L. Mittra

2. Such words, however, in no way altered or influenced the language itself, which, when its inflectional of phonetic elements are considered, remains still a pure Aryan dialect, just as pure in the pages of Walli and Souda, as it is in those of Tulsi Das or Biharilal. It betrays, therefore, a radical misunderstanding of the whole learnings of the question and of whole Science of philology to speak of Urdu and Hindi as two distinct languages.

-Mr. Beems

“जो भाषा आज हिन्दुस्तानी कहलाती है उसी का नाम हिन्दी, उर्दू और देख़ता भी है। इसमें अरबी, फ़ारसी और संस्कृत भाषा के शब्द हैं।”1 डॉ. गिल क्राइस्ट

आजकल उर्दू अधिाक बदल रही है, उसमें फ़ारसी तरकीबों का अधिाकतर प्रयोग होने लगा है। मेवा का मेवों, निशान का निशानों, मजदूर का मजदूरों, शहर का शहरों, दवा का दवाओं और क़सबा का क़सबों ही पहले लिखा जाता था, क्योंकि हिन्दी के नियमानुसार उनका बहुवचन रूप यही बनता है। परन्तु अब फ़ारसी के अनुसार उनका बहुवचन रूप मेवात, निशानात,मजदूरान, शहरात, अदबिया, क़सबात अथवा क़सबाजात लिखना अधिाक पसंद किया जाता है। इसी प्रकार हिन्दी के कुछ कारक-चिद्दोंका लोप करके फ़ारसी शब्दों को फ़ारसी तरकीब में ढाला जाने लगा है, रोज़ेसियह, इशरते क़तरा, नशयेइश्क़, मुर्दादिल,ग़रीबुलवतनी, मसायलेतसव्वुफ़ आदि इसके प्रमाण हैं! लम्बे-लम्बे समस्त पदों की भी अधिाकता हो चली है-जैसे ‘ज़ेरे क़दमे वालदा फ़िरदोस बरीं है, परन्तु तो भी उर्दू का अधिाकांश प्रचलित रूप हिन्दी ही है।’

इस प्रकार के प्रयोगों से हिन्दी में कुछ फ़ारसी शब्द अधिाक मिल गये हैं, और उर्दू नामकरण ने विभेद मात्रा अधिाक बढ़ा दी है; तथापि आज तक उर्दू हिन्दी ही है, कतिपय प्रयोगों का रूपान्तर हो सकता है भाषा नहीं बदल सकती। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हिन्दी भाषा पर अरबी फ़ारसी और तुर्की शब्दों का इतना अधिाक प्रभाव पड़ रहा है कि एक विशेष रूप से वह अन्य भाषा-सी प्रतीत होती है।

सौ वर्ष के भीतर हिन्दी में बहुत से योरोपियन विशेषकर अंग्रेजी शब्द भी मिल गये हैं और दिन-दिन मिलते जा रहे हैं। रेल, तार, डाक, मोटर आदि कुछ ऐसे शब्द हैं, जो शुध्द रूप में ही हिन्दी में व्यवहृत हो रहे हैं, और लालटेन, लैम्प आदि कितने ऐसे शब्द हैं, जिन्होंने हिन्दी रूप ग्रहण कर लिया है और आजकल इनका प्रचार इसी रूप में है। बहुत से सामान पाश्चात्य देशों से भारतवर्ष में ऐसे आ रहे हैं, जिनका हिन्दी नाम है ही नहीं। ऐसी अवस्था में उनका योरोपियन अथवा अमेरिकन नाम ही प्रचलित हो जाता है और इस प्रकार उन देशों की भाषा के अनेक शब्द इस समय हिन्दी भाषा में मिलते जा रहे हैं। यह स्वाभाविकता है, विजयी जाति के अनेक श्ब्द विजित जाति की भाषा में मिल जाते ही हैं, क्योंकि परिस्थिति ऐसा कराती रहती है। किन्तु इससे चिन्तित न होना चाहिए। इससे भाषा पुष्ट और व्यापक होगी और उसमें अनेक उपयोगी विचार संचित हो जाएँगे। यत्न इस बात का होना चाहिए,

1. The language at present best known as the Hindustanee, is also frequently denominated Hindi, Urdu and Rekhta. It is compounded of the Arabic, Persian and Sanskrit, or Bhasha which last appears to have been in former ages the current language of Hindustan.

-Dr. Gilchrist

कि भाषा विजातीय शब्दों, वाक्यों और भावों को इस प्रकार ग्रहण करे कि उसकी विजातीयता हमारी जातीयता के रंग में निमग्न हो जावे।

आजकल कुछ शब्द अन्य प्रान्तों के भी हिन्दी भाषा में गृहीत हो गये हैं। कुछ विचारवान पुरुष इसको अच्छा नहीं समझते, वे सोचते हैं, इससे अपनी भाषा का दारिद्रय सूचित होता है। मैं कहता हूँ, इस विचार में गम्भीरता नहीं है। प्रथम तो हिन्दी भाषा राष्ट्रीय पद पर आरूढ़ हो रही है, इसलिए राष्ट्र की सम्पत्तिा उसी की है। दूसरी बात यह है कि राष्ट्रोपयोगी जो व्यापक शब्द हैं, अथवा जो कारण विशेष से ऐसे बन गये हैं, जो भावद्योतन में किसी शब्द से विशेष क्षमतावान हैं, तो वे क्यों न ग्रहण कर लिये जावें। यदि विदेशीय शब्दों का कुछ स्वत्व हिन्दी भाषा पर विशेष कारणों से है, तो ऐसे शब्दों का आदर क्यों नहीं किया जावे। मेरा विचार है कि उनका तो सादर अभिनन्दन करना चाहिए। इस प्रकार के शब्द मराठी के लागू, चालू आदि, गुजराती के हड़ताल आदि, बँगला के गल्प, प्राणपण आदि और तमिल भाषा के चुरुट आदि हैं। जब ये शब्द प्रचलित हो गये हैं, और सर्वसाधारण के बोधागम्य हैं, तो इनके स्थान पर न तो दूसरा शब्द गढ़ने का उद्योग करना चाहिए और न इनका बायकाट। इस प्रकार का सम्मिलन भाषा-विकास का साधाक है, बाधाक नहीं, यदि वह सीमित और मर्यादित हो।

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