मोर मुकुट वाले प्रीतम,
दासी की और निहार ज़रा,
मैं तो सखी बस उलझ गयी,
पिके नैना मतवारो पे,
पिया बाण पे बाण चलाते रहे,
और मन्द मन्द मुस्काते रहे,
मैं खडी इस्तवय सी देख रही,
सुख मना अपनी हारो पे,
पिया प्रीत लगा कर चले गये,
मुझे पगली बनाकर चले गये,
मैं बनवारी हो उन्हें ढूंड रही,
जा गलियां और बजारों में,
मैं तो सखी बस उलझ गयी,
पिके नैना मतवारो पे,
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