पौष कृष्ण एकादशी-सफला एकादशी

Paush Krishna Paksha  Ekadashi-Safala Ekadashi

युधिष्ठिर ने प्रश्न किया, हे जनार्दन! पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है और उस दिन किस देवता की पूजा की जाती है? उस एकादशी के देवता कौन हैं? यह सब समझाइये|

भगवान बोले ,” हे धर्मराज! मैं तुम्हारे स्नेह के कारण तुमसे यह कथा भी कहता हूँ| इस एकादशी के व्रत से भगवान विष्णु को शीघ्र प्रसन्न किया जेया सकता है| इतनी प्रसन्नता तो अधिक से अधिक दक्षिणा से पुष्ट यज्ञो द्वारा भी संभव नही| अतः इस व्रत को अत्यंत भक्ति और श्रद्धा से युक्त होकर करना चाहिए|

हे राजन! अब द्वादशी युक्त पौष एकादशी का महात्म्य सुनो|

पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम सफला एकादशी है| इस एकादशी के देवता श्री नारायण हैं| यह सब कार्यों को सफल बनाने वाली है| इस एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करना चाहिए और श्री मन नारायण का पूजन करना चाहिए | जिस प्रकार नागों में शेषनाग, पक्षियों में गरूड़, सब ग्रहों में चंद्रमा, यज्ञो में अश्वमेध और देवताओं में भगवान विष्णु श्रेष्ठ हैं , उसी तरह सब व्रतों में एकादशी श्रेष्ठ है| जो मनुष्य सदैव एकादशी का व्रत का व्रत करते हैं, वे भगवान विष्णु को परम प्रिय होते हैं| के कुंती पुत्र , अब मैं इस व्रत की विधि कहता हूँ|

विष्णु भगवान की पूजा हेतु ऋतु के अनुकूल फल, नारियल, नींबू, नैवेद्य, सुपारी आदि अर्पण करें और धूप , दीप, पुष्प आदि सोलह प्रकार को चीज़ों से पूजा करें| रात्रि को कीर्तन, पाठ करते हुए जागरण करें| इस एकादशी व्रत के समान यज्ञ, तीर्थ,दान तप तथा दूसरा कोई व्रत नही है| 5000 वर्ष तप करने से जो फल मिलता है, उससे भी अधिक पुण्य सफला एकादशी का व्रत करने से मिलता है|

हे राजन! अब मैं सफला एकादशी की व्रत की कथा विस्तार से कहता हूँ| इसे श्रद्धा पूर्वक ध्यान लगाकर सुनो|

चम्पावती नगरी में महिमान नाम का राजा राज्य करता था|उसके चार पुत्र थे| उन सब में लुम्पक नाम का राज-पुत्र महापापी था| वह सदा परस्त्री तथा वेश्यागमन व अन्य कुकर्मों में अपने पिता का धन नष्ट करता था| वह देवता, ब्राह्मण और वैष्णवों की निंदा किया करता था| सारी प्रजा उसके कुकर्मों से दुखी थी| अतः कुछ  लोगो ने राजा से उसकी शिकायत की| जब राजा को अपने पुत्र के ऐसे कुकर्मों का ज्ञान हुआ तो उसने अपने इस पुत्र को राज्य से निकाल दिया| तब वह विचारने लगा किअब मैं किधर जाऊँ , क्या करूँ?

अंत में उसने चोरी करने का निश्चय किया | वह दिन में वन में रहता और रात्रि में अपने पिता की नगरी में चोरी करता| प्रजा को तंग करने और मारने का कुकर्म भी करता | सारी नगरी लुम्पक की करतूतों से भयभीत हो गयी| वन में भी वह पशु-पक्षी आदि मार कर खा जाता| | यदि कोई उसे चोरी करता पकड़ भी लेता तो राजा के भय से छोड़ देता| कभी-कभी प्रभु कृपा अनजाने में ही मिल जाती है|लुम्पक के साथ भी ऐसा ही हुआ | उस वन में, जहाँ लुम्पक छिप कर रहता था एक अत्यंत प्राचीन विशाल पीपल का वृक्ष था | उसी वृक्ष के नीचे पापी लुम्पक का डेरा था | वन के लोग इस पीपल वृक्ष को देव वरदान और वन को देवताओं का क्रीड़ा स्थल मानते थे| कुछ समय पश्चात पौष कृष्ण दशमी के दिन लुम्पक वस्त्रहीन होने से शीत के कारण सारी रात सो नही सका | उसके हाथ पैर अकड़ गये| वह रात्रि उसने जैसे-तैसे काटी और और सूर्योदय होने के पूर्व मूर्छित हो गया|

दूसरे दिन एकादशी को मध्यान्ह के समय सूर्य की गर्मी से उसकी मूर्छा दूर हुई| होश में आकर गिरता-पड़ता वह वन में भोजन की खोज में गया| परंतु अशक्त होने के कारण जीवों को मरने में असमर्थ था| तब वह वृक्षों से गिरे हुए फलों को बीनकर पुनः पीपल के वृक्ष के नीचे आया| उस समय तक सूर्यदेव अस्त हो चुके थे| अतः उसने उन फलों को लाकर पीपल के वृक्ष के नीचे रख दिया| शरीर के कष्ट और दुखों ने उसे ईश्वर का ध्यान कराया , वह रोकर कहने लगा कि,” भगवान यह सब फल आपको ही अर्पण हैं| आप ही इनसे तृप्त होइए |” रात्रि को भूख और पीड़ा के मारे उसे नींद भी नही आई | इस उपवास और जागरण से दयालु भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न हुए और उसके सब पाप नष्ट हो गये|

दूसरे दिन प्रातः एक अतिसुंदर दिव्यालंकारों से सज़ा घोड़ा उसके सामने आकर खड़ा हो गया| उसी समय आकाशवाणी हुई की,” हे राजपुत्र ! श्री नारायण की कृपा से तेरे सब पाप नष्ट हो गये हैं| अब तू अपने पिता के पास जाकर राज्य प्राप्त कर| तूने अनजाने में सफला एकादशी का व्रत किया , उसी के प्रभाव से तेरे समस्त पाप नष्ट हो गये| जैसे अग्नि की जानबूझकर या अनजाने में हाथ लगाने से हाथ जल जाते हैं, वैसे ही एकादशी का व्रत भूलकर रखने से भी अपना प्रभाव दिखाता है|”

ऐसी आकाशवाणी सुनकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ और सुंदर दिव्य वस्त्र धारण करके ‘भगवान आपकी ज़य हो‘ कहकर अपने पिता के पास गया| उसके पिता ने प्रसन्नता से उसे अपने हृदय से लगा लिया| उसके पिता समस्त राज्य भार उसे सौंप कर स्वयं तप के लिए वन को चले गये|

अब लुम्पक शास्त्रानुसार राज्य करने लगा | उसकी स्त्री -पुत्र आदि सारा कुटुम्ब ही नारायण का परम भक्त हो गया | वृद्ध होने पर वह भी अपने मनोज नामक पुत्र को राज्य का कार्यभार सौंप कर तपस्या करने के लिए वन में चला गया और अंत समय में वैकुंठ को प्राप्त हुआ|

हे युधिष्ठिर ! जो मनुष्य भक्तिपूर्वक सफला एकादशी का व्रत करते हैं , उनके सब पाप नष्ट हो जाते हैं और उनको अंततः मुक्ति मिलती है| जो मनुष्य इस सफला एकादशी का व्रत नही करते और इसका महत्व नही समझते , वे पूँछ और सींग से रहित पशु के समान हैं| इस सफला एकादशी के महात्म्य को पढ़ने अथवा श्रवण करने से मनुष्य को अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है|

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