मास्टर मुनिजी की कहानी

( गाँव के एक सरल हृदय शिक्षक की आपबीती, लेखक की ज़ुबानी)

गाँव के एक छोर पर मुनिजी रहते थे|  तपस्या से उनका कुछ नहीं लेना देना था ,वो तो उनकी बेतरतीब दाढ़ी और बदहाल वेश-भूषा के कारण लोगों ने उनक नाम रख दिया था|अक्सर गाँवों में लोग मनोरंजन के लिए एक दूसरे का मनो विनोद पूर्ण नाम रख देते हैं | कई बार लोग अपने वास्तविक नामों की अपेक्षा इन चर्चित उपनामों से अधिक जाने जाते हैं |

मुनिजी बहुत पहले वे गाँव  की प्राइमरी पाठशाला में अध्यापक थे | लेकिन बाद में मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाने के कारण लोगों ने उन्हे पागल कहना शुरू कर दिया था | रामायण के वे प्रकांड विद्वान हुआ करते थे |राम कथा गायन पर अच्छी  पकड़ होने के कारण उन्हे गाँव और आस पास के क्षेत्रों में रामचरित मानस गायन के अवसर पर हर बार आमंत्रित किया जाता था| अपनी सुमधुर वाणी में वे जब रामायण गाते तो लोग भक्ति भाव में झूम उठते | दूर -दूर तक उनके रामायण गान की चर्चा होती थी |  आस पास के क्षेत्र की रामायण मंडलियाँ उन्हे अपना आदर्श मनती थीं |

गंगा पार तक उनके गायन की ख्याति थी | वो चाहे पाठशाला  कितने भी व्यस्त क्यों ना हों, अगर शाम को उनको रामायण  पाठ का न्योता मिलता था तो वे कभी ना नही कहते थे | उनकी सुशील पत्नी हर तरह से उनका अर्धांगिनी होने का कर्तव्य निभाती और उन्हें हर संभव सहयोग करती थी | हालाँकि वो भी एक अध्यापिका थीं | लेकिन पति के धार्मिक कार्य में यथाशक्ति सहयोग देना वो अपना धर्म मानती थीं |

वक्त के साथ उनके दो सुंदर बच्चे हुए और वो उनकी देखभाल और पालन पोषण में और भी व्यस्त हो गये|  इस बीच मुनि जी की धार्मिक दिनचर्या और रामायण पाठ अनवरत रूप से चलता रहा | बड़ा बेटा अब दसवीं में पढ़ रहा थे और छोटी बेटी अब आठवीं में |  एक दिन पाठशाला से वापस आते वक्त मुनिजी साइकल सहित फिसलकर ईंट बनाने वाले गड्ढे  में जा गिरे | गड्ढा काफ़ी गहरा था और इंटो से भरा था | मुनिजी के सिर पर गहरी चोट आई और वो बेहोश हो गये| गनीमत से यह स्थान गाँव से ज़्यादा दूरी पर नही था |कुछ समय बाद राह से गुज़रते लोगों ने उन्हे देखा और पास के अस्पताल पहुँचाया | डॉक्टरों ने बताया की उन्हे सर पर गहरी चोट आने की वजह से आंशिक पक्षाघात हुया है | लोग उन्हे उठा के निकटवर्ती काशी विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल ले गये|

आस आस के कई जिलों में काशी विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज  का बड़ा नाम था और अमीर ग़रीब सभी वहाँ के डॉक्टरों की गुणवत्ता पर पूरा भरोसा करते थे | बस फ़िक्र सिर्फ़ इस बात की होती थी की किसी बड़े डॉक्टर से मुलाकात हो जाए | अक्सर बड़े डॉक्टर नही मिलते थे और उनके जूनियर डॉक्टर इलाज़ के लिए काफ़ी दिक्कतें पेश करते थे | अगर कोई पहुँच हो तो बात आसान हो जाती थी |अगर कोई पहुच हो तो बात आसान हो जाती थी | किस्मत से पास के गाँव की रामायण मंडली वाले वैद्य जी का लड़का अब वहीं अस्पताल में कंपाउंड़र हो गया था |

उसी की मदद से बड़े डॉक्टर ने मुनिजी को देखा और इलाज़ प्रारंभ किया | थोड़े दिनो बाद मुनिजी घर पर आ गये हालाँकि उंसकी मानसिक स्थिति दीनो दिन  और बिगड़ती चली गयी | प्रायः वो गाँव  की गलियों में अपने पुराने पड़ोसी जग्गू को गालियाँ देते पाए जाते | पता नही ये कौन सा अजीब नाता था उनका जग्गू साव के साथ की वो जब भी किसी से नाराज़ होते थे तो जग्गू को ही गालियाँ देते थे | जग्गू  साव मुनिजी के पड़ोसी थे और काफ़ी पहले उनका देहांत हो गया था | उसके पीछे उसके भरा पूरा संयुक्त परिवार और युवा पुत्र रह गया था | समृद्ध परिवार होने की वजह से उनकी गाँव में काफ़ी पूछ थी|

मुनिजी  स्वयं को अब राम कहते थे और अपनी पत्नी को सीता | उनकी दिन रात की चुहलबाज़ियों और वक्त बेवक्त के प्रलाप से उनके दूसरे पड़ोसी बचाऊ गुरु काफ़ी नाराज़ रहा करते थे|  बात की बात में वो भी मुनिजी पर तंज़ कसने लगे | मुनिजी कभी-कभी उन्हे भी जग्गॉ की गलियाँ सुना देते या कभी अनदेखा भी कर देते थे | अब उनके बाल बढ़े रहते और बेतरतीब वेश भूषा में कभी वो खेतों में पाए जाते  तो कभी गाँव की गलियों में | पर हमेशा शाम को सूरज ढालने के पहले घर आ जाते थे | दिन रात बस राम-सीता और क्रोधित होने पर जग्गू साव का नाम उन्हे भाता था | इधर जग्गू साव के घरवाले भी काफ़ी मुनिजी की दिन रात की गालियों से काफ़ी परेशान रहने लगे | चूँकि मुनिजी की मानसिक रूप से अस्वस्थ थे इसलिए वो काफ़ी बार उनी बातों को उनदेखा कर देते | पर फिर भी अक्सर उनकी शिकायतें, मास्टरनी जी के पास पहुँच ही जाती थीं | अकेली मास्टरनी के लिए घर खर्च चलाना और अस्वस्थ पति को सम्भालना मुश्किल गो गया था | फिर भी वो संब बड़े धैर्य के साथ सब सहकार  भी बच्चों की शिक्षा दीक्षा का उचित प्रबंध कर रहीं थीं|

एक दिन तो हद ही हो गयी जब मुनिजी ने क्रोध में आकर पाने पड़ोसी बचाऊ पंडित का गला पकड़ लिया | बचाऊ पंडित और दिनो की तरह आज भी मुनिजी पर तंज़ कस रहे थे | बातों ही बातों में वो अपनी सीमा भूल गये और मास्टरनी के उपर भी कुछ अनुचित बोल गये | आज मुनिजी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया | अपनी सीता के लिए उन्होने राम का रण रौद्र रूप धारण कर लिया और बचाऊ पंडित के चबूतरे पर चढ़कर उनका गला पकड़ लिया | बचाऊ पंडित ने बहुत छुड़ाने की चेष्टा की लेकिन मुनिजी की मजबूत पकड़ से खुद को ना छुड़ा पाए |

इधर मुनिजी ने जब देखा की वो मरणासन्न स्थिति को पहुँचने वाले हैं तो उन्होने अपनी पकड़ ढीली  की और उनको छोड़ा | फिर खूब जग्गू  के नाम की गलियाँ सुनाई | राम-सीता की नाम की कसमे दीं की वो फिर ऐसा नही कहेंगे|  उस दिन बचाऊ पंडित तो मुनिजी  में पुराने वाले मास्टरज़ी दिखे| उन्हे अपनी भूल का अहसास हो गया था| और इस बात का भी किआज उनकी प्राण जाते जाते बचे थे | इसके बाद से कभी भी बचाऊ पंडित ने उन पा तंज़ नही कसा | बल्कि अब हर रोज अब उनको सामने से से प्रणाम करते थे और कभी वो रास्ता  भटक जाते थे या कहीं अचेत पड़े रहते थे तो उनको घर पहुँचा के जाते थे | मुनिजी  हमेशा उन्हे प्राणिपात करने वालो को खुले दिल से इतना आशीर्वाद देते थे की सुनने वाला निहाल हो उठता था |

एक दिन जग्गू  के घरवालों ने सबको बुलाके मुनिजी के घर के बाहर धरना डाल दिया और मुनिजी को पागल खाने भेजने की ज़िद पर आड़ गये | गाँव वालों के बहुत समझाने बुझाने पर किसी तरह से मास्टरनीजी ने उन्हे वापस भेजा | अब उन्हे और सावधान रहने की आवश्यकता थी क्योंकि सुनने में आया था कि जग्गू  के घरवाले बहुत गुस्से में थे और मौका पाकर  मुनिजी पर हमला भी कर सकते थे |

बेचारे मुनिजी को अब बेड़ियों में बंदकर घर में रखा जाने लगा | सिर्फ़ खाना खाते वक्त उनके हाथ खोले जाते | मुनिजी दिन भर या तो सूरज की तरफ देखकर बात करते या तो राम-सीता राम-सीता रटते रहते और एडीयाइन देखकर फिर जग्गू को गलियाँ देते |

इधर जग्गू  का पोता, मटरू जवान हो चला था | उसे अपने दादा की बेइज़्ज़ती इस अर्ध विक्षिप्त मुनिजी से बर्दाश्त नही होती थी| बारिश के दिन थे उसने मुनिजी को सबक सीखने की सोची | उसने बाहर से देखा की मुनिजी को खाना परोसा जा चुका है | हाथ में संखिया की  पुडिया लिए, वो आगे बढ़ा और मुनिजी  को प्रणाम कहके उनके पास बैठ गया | मुनिजी अपने स्वाभावनुसार उसे दिल खोल के आशीर्वाद देने लगे |  इसी बीच उनकी नज़र बचा के उसने उनके खाने में संखिया मिला दिया | मुनिजी ने कुछ निवाले खाए, फिर सूरज से बातें करने लगे | इधर मटरू मस्ती में वापस चल दिया | थोड़ी देर पहले हुई बारिश की वजह से पास ही बचाऊ गुरु के मरखने बैल की रस्सी ढीली पड़ गयी थी | जग्गू के पोते का लाल रंग का अंगोछा लहराता जा रहा था | बैल ने आव देख ना तव और उसे सींगो पे उठा लिया | उसकी आर्त चीखें गली में गूंजने लगी, मुनिजी सुनकर बाहर आए और पास रखा डंडा लेकर बैल के उपर पिल पड़े | अचानक हुए इस अनपेक्षित हमले से बैल बौखला गया और भाग गया |मुनिजी बैल को भगा कर निश्रित हुए ही थे की उनके मुख से खून आने लगा | इधर जग्गू का पोता अपने किए पर शर्मिंदगी से ज़मीन में गड़ा जा रहा था |उसने तुरंत गुहार लगाई और सब लोगो तो के साथ मुनिजी लेकर तुरंत डॉक्टर के पास दौड़ पड़ा | किस तरह अर्धमूर्छित अवस्था में मुनिजी अस्पताल पहुँचे | डॉक्टरों ने उन्हे काफ़ी कोशिशों के बाद बचा लिया |

इधर मुनिजी  का शोक संतप्त परिवार सोच  रहा थे की ये सब हुआ कैसे ? तभी मटरू आकर मास्टरनीजी  के चरणों में गिर पड़ा |अपनी दुर्भावना और कुकृत्य बताकर बार बार क्षमा माँगने लगा | मुनिजी  का पूरा परिवार स्तब्ध रह गया. सब गाँव वाले मिल कर उसे पुलिस के हवाले की माँग करने लगे |

लेकिन मास्टरनीजी  ने कहा कि इसे पहले मुनिजी के पास लेकर इसका अपराध स्वीकार करायें |मटरू मुनिजी के पास पहुच कर उनके पैरों में गिरकरअपनी गुनाह बताने लगा | वह ग्लानि से मरा जा रहा था कि जिसकी उसने जान लेने की कोशिश की , उसी ने उसकी जान बचाई | मुनिजी उसे इस बार  जग्गू के नाम की गालियाँ नही सुनाईं |बल्कि उसे जी भरके दीर्घायु हने का आशीर्वाद देने लगे |

इसके बाद से फिर गाँव में किसी ने मुनिजी से कुछ नही कहा | जब तक वो जीवित रहे, राम सीताऔर जग्गू साव का नाम उन्होने किसी को भूलने नही दिया , और राम-सीता कहते हुए ही एक दिन इस जगत से विदा हो गये |

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